चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में 8 अप्रैल 1929 को सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ‘पब्लिक सेफ्टी’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ के विरोध में ‘सेंट्रल असेंबली’ में बम फेंका।
1931 की पुस्तक |
1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
3. भाग 3 - मैं नास्तिक क्यों हूँ
अब आगे :-
==========================
"हमारे तुच्छ बलिदान उस श्रृंखला की कडी मात्र होंगे जिसका सौन्दर्य सहयोगी भगवतीचरण वर्मा के अत्यन्त कारुणिक किन्तु बहुत ही शानदार आत्म त्याग और हमारे प्रिय योद्धा 'आजाद' की शानदार मृत्यु से निखर उठा है।" ~ सरदार भगत सिंह (3 मार्च 1931 को पंजाब के गर्वनर के नाम संदेश में)
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु |
मैंने पहले भी कहा है कि हुतात्माओं का प्रणप्राण से आदर करने वालों को इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि सरदार भगतसिंह जीवन भर आस्तिक रहे या अपने अंतिम दिनों में नास्तिक हो गये। तो भी, उन्हें नास्तिक जतलाकर यह बात झुठलाई नहीं जा सकती कि उन्होंने जीवनभर अनेकों आस्तिक क्रांतिकारियों के साथ मिलकर काम किया है, उनसे निर्देश लिये हैं और उनके साथ प्रार्थनायें गायी हैं। उनका आस्तिकों से कोई मतभेद नहीं रहा। आस्था उनके लिये एक व्यक्तिगत विषय थी जैसे कि किसी भी समझदार व्यक्ति के लिये है। उनकी नास्तिकता का अर्थ न तो आस्तिकों का विरोध था न उनकी आस्था की खिल्ली उडाना और न ही उन्हें अपना विरोधी या मूर्ख साबित करना। पुनः, उनके व्यक्तिगत विश्वास उनके नितांत अपने थे। वे अविवाहित भी थे, क्या सिर्फ़ इतने भर से दुनिया भर के अविवाहित श्रद्धेय हो जायेंगे और विवाहित निन्दनीय?
चन्द्रशेखर आज़ाद |
बिस्मिल |
और
"भगतसिंह के जिस लेख को सारी दुनिया प्रामाणिक मानती है। आप उसे गलत सिद्ध करना चाहते हैं तो इस खोज में जुट जाइए। आप घर बैठे उसे गलत मानते हैं तो मानते रहिए। इस से किसी को क्या फर्क पड़ता है? जो सच है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। फिर भी आप चाहते हैं कि उसे चुनौती दी जाए तो भारत की अदालतें इस मुकदमे को सुनने को तैयार हैं। भारत आइए और एक मुकदमा अदालत में मेरे और चंदन जी और उन तमाम लाखों लोगों के विरुद्ध पेश कीजिए जो इस आलेख को प्रामाणिक मानते हैं।"
और
"सब लोग गलत हैं और रामायण आदि सारे ग्रंथ जिनका समय भी पता नहीं तो लेखक की बात कौन करे कि जो माने जाते हैं वही हैं। लेकिन अब आपसे जवाब-सवाल मैं भी नहीं करना चाहता, आप द्विवेदी के सुझाव से अदालत में मुकद्दमा ठोकिए। तुरन्त और कुछ लिख देता हूँ।"
आदि ....
लाल, बाळ व पाल |
मूल पत्र की जानकारी मांगते ही मुकद्दमा करने की दलील दी जाने लगी! हाँ भाईसाहब मुकद्दमे का समय आने पर शायद वह भी हो, पर फ़िलहाल तो यही चिंता है कि अदालत पर बोझ बढने से वकीलो का कारोबार भले ही चमके, ग़रीबों के ज़रूरी मुकद्दमों की तारीखें ज़रूर आगे बढेंगी। पहले ही मुकद्दमों के बोझ से दबी अदालतों को अपने प्रचार के उद्देश्य से प्रयोग करके ग़रीब मज़दूरों को न्याय मिलने में देरी की चिंता न करना न्याय की अवमानना भले ही न हो अनैतिक विचार तो है ही। कमाल है, आप पहले तो उकसाने वाला शीर्षक लिखें जिसका आधार एक तथाकथित पत्र को बनाकर उस पत्र का प्रचार करेंगे और अगर कोई व्यक्ति उस पत्र की जानकारी मांगें तो उसे भगतसिंह पर आक्षेप बतायें, " ... कोई भगतसिंह या किसी आदर्श व्यक्ति पर उंगली उठाए तो ..." कोई बतायेगा कि भगतसिंह कब से इनके प्रवक्ता हो गये और इनके आलेख के बारे में प्रश्न करना भगत सिंह पर उंगली उठाना कैसे हुआ?
महामना मदन मोहन मालवीय |
जब “उल्लिखित पत्र कहाँ है?” की जवाबी टिप्पणियों में मूल पत्र या मूल प्रश्न का कोई ज़िक्र किये बिना "भाववादियों के पास बहस करने के लिए कल्पना के सिवा कुछ नहीं है। वे पाँचों इंद्रियों से जाने जा सकने वाले जगत को मिथ्या और स्वप्न समझते हैं, जब कि काल्पनिक ब्रह्म को सत्य। वे तो उस अर्थ में भी ब्रह्म को नहीं जान पाते जिस अर्थ में शंकर समझते हैं। सोते हुए को आप जगा सकते हैं लेकिन जो जाग कर भी सोने का अभिनय करे उस का क्या? हम अपना काम कर रहे हैं, हमें यह काम संयम के साथ करते रहना चाहिए। हम वैसा करते भी हैं। पर कुतर्क का तो कोई उत्तर नहीं हो सकता न?" जैसे निरर्थक जवाब आने लगे तो अंततः एक टिप्पणी में मुझे स्पष्ट कहना ही पडा:
“मूल पत्र या उसकी प्रति आप लोगों ने नहीं देखी है, आपके प्रचार का काम केवल इस आस्था/श्रद्धा पर टिका है कि ऐसा पत्र कभी कहीं था ज़रूर। मेरे प्रश्न के बाद अब आप लोगों के देखने का काम शुरू हुआ है तो शायद एक दिन हम लोग मूल पत्र तक पहुँच ही जायें। जब भी वह शुभ दिन आये कृपया मुझे भी ईमेल करने की कृपा करें। मुझे आशा है कि आयन्दा से यह तथाकथित नास्तिक अन्ध-आस्था के बन्धन से मुक्त होने का प्रयास करके साक्ष्य देखकर ही प्रचार कार्य में लगेंगे। अगर ऐसा हो तो हिन्दी ब्लॉगिंग की विश्वसनीयता ही बढेगी।"
लम्बी बेमतलब बहस में अरुचि दिखाकर मूल पत्र का पठनीय चित्र या उसका लिंक मांगने के जवाब में, "हमारी भी इस मामले में आप से बहस करने में कोई रुचि नहीं है। हम यह बहस करने गए भी नहीं थे। आप ही यहाँ पहुँचे हुए थे।" सुनने के बाद मैं क्या करता। बड़े भाई की आज्ञा सिर माथे रखते हुए कहा, "अगर आपको दुख हुआ तो अब नहीं आयेंगे। जो कहना होगा अपने ब्लॉग पर कह लेंगे।"
एक प्रकार से अच्छा ही हुआ कि इस बहाने से छिटपुट इधर उधर बिखरे हुए विचार और जानकारी इस शृंखला के रूप में एक जगह इकट्ठी हो गई जो आगे भी किसी पार्टी या कल्ट के निहित स्वार्थी प्रोपेगेंडा के सामने शहीदों के नाम का दुरुपयोग होने से बचायेगी।
वार्ता के अंत में प्रमाणवादी वकील साहब ने मेरे सवाल को कालीन के नीचे सरकाते हुए अपना सवाल फिर सामने रख दिया, "क्या नास्तिक होने से भगतसिंह नर्क में होंगे?"
तो आदरणीय वकील साहब, आप भले ही मेरे सवाल का जवाब न दे पाये हों, मैं आपके प्रश्न का उत्तर अवश्य दूंगा। ध्यान से सुनिये मेरा जवाब अगली कड़ी में।
[क्रमशः]
[शहीदों के सभी चित्र इंटरनैट से विभिन्न स्रोतों से साभार]
============
सम्बन्धित कड़ियाँ
============
* सरदार भगत सिंह - विकीपीडिया
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* आज़ाद का एक दुर्लभ चित्र
* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
* सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
* शहीदों को तो बख्श दो
* चन्द्रशेखर आज़ाद - विकीपीडिया
* आज़ाद का जन्म दिन - 2010
* तोक्यो में नेताजी के दर्शन
नहीं जानता था कि मेरा अनुमान इतनी जल्दी वास्तविकता में बदल जाएगा। 'बात' का 'दूर तलक' का सफर शुरु हो गया है। पाठकों को 'नवनीत' की अकूत दौलत मिलना तो अब शुरु होगी।
ReplyDeleteहम तो बस शहीदों का नमन करते हैं,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
वह पोस्ट दुबारा पढ़ी और टिप्पणियां भी. आपकी इस सीरीज को फिर से पढ़ूंगा. आस्तिकता और नास्तिकता को लेकर इतना सब कुछ. बाप रे. भगत सिंह के खत - ऐसा ही कुछ नाम है एक पुस्तक का और वह शायद चमन लाल जी की ही बताई जाती है. कल पढ़ने की कोशिश करूंगा. और फिर कुछ टिप्पणी देने का प्रयत्न करूंगा..
ReplyDeleteभगत सिंह एक क्रांतिकारी शहीद होने के साथ ही एक विचारक और भाषाई पकड़ के साथ कुशल लेखक भी थे यह बात मुझे हमेशा प्रभावित करती रही .....वे नास्तिक या आस्तिक थे यह सवाल भी कम महत्वपूर्ण नहीं है क्योकि विचारधारायें किसी के व्यक्तित्व निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाती हैं -मैं स्वयं नरक या स्वर्ग नहीं मानता -जो कुछ भी है मनुष्य इसी धरती पर अपने समग्र जीवनकाल में देख लेता है !
ReplyDeleteलेकिन यह जरुर है कि प्रमाणिकता के लिहाज से अगर कोई दस्तावेज सवालों के कठघरे में आ गया है तो उसे प्रस्तुत होना जरुरी है ....देखा गया है निहित स्वार्थों के कारण लोगों ने इतिहास से छेड़ छाड़ की है -यहाँ अकबर महान कहे जाते हैं और औरंगजेब दानिशमंद जबकि लोक गाथायें इनसे दीगर दृश्य प्रस्तुत करती हैं !
अगले आलेख की प्रतीक्षा है !
बेशक!!विचारधारायें किसी के व्यक्तित्व निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाती हैं।
ReplyDeleteकिन्तु अपनी विचारधारा पुष्ट करने के लिए किसी के व्यक्तित्व का अपहरण नहीं किया जाना चाहिए। और इस प्रकार के कुत्सित प्रयत्न में किसी अन्य की विचारधारा को यथार्थ समझने की जगह उसे विकृत कर देना तो दुष्कर्म ही है। ऐसा सामान्य जन के साथ भी नहीं होना चाहिए। जबकि यह महान हुतात्माओं की विचारधारा के साथ किया जा रहा है। जो कि दुराचार ही है।
किसे स्वर्ग मिलेगा, किसे नरक मिलेगा, सर्वज्ञ ही जानते होते है।जो आज उपलब्ध नहीं है। पर जैसा कि वे कह के जा चुके- 'दुराचारियों को निश्चित ही नरक के दुख भोगने होंगे।'
मेरे विचार से किसी भी शहीद के व्यक्तित्व और उनकी विचारधारा पर वाद-विवाद नहीं होना चाहिए।
ReplyDeleteदेशभक्ति ही इनका एकमात्र धर्म और कर्म है।
स्वतंत्रता आन्दोलन को ऐसे ही विचारवान लोंगों नें चलाया था.
ReplyDeleteबहुत विचारणीय श्रृंखला चल रही है,आभार.
खूबसूरत प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबधाई |
यह पोस्ट पढकर इस समस्त श्रंखला को आद्योपरांत पढने की इच्छा प्रबल हो गयी है, समयाभाव में पिछली कडियां छूट गई हैं जिन्हें पढना जरूरी हो गया है.
ReplyDeleteरामराम.
लोगों के अपने-अपने चश्मे हैं देखने के, कोई इन्हें क्या कहे.
ReplyDeleteगहन चिन्तनयुक्त विचारणीय लेख .....
ReplyDeleteक्रांतिकारियों के बारे में फैले भ्रम से आप जो पर्दा उठा रहे हैं या ये कहें के उनके सद्कर्मो और सद्विचारों पर जो प्रकाश डाला जा रहा है - उसके लिए साधुवाद......
ReplyDeleteआदरणीय अनुराग जी - इसी तरह की एक चर्चा पर मेरे ब्लॉग पर दिगंबर नासवा जी ने एक बड़ी अच्छी बात कही , और मुझे बहस पर चलने से रोका - मैं उनकी आभारी हूँ | उन्होंने कहा - पोस्ट और उस पर चर्चा तक तो बात अच्छी है, किन्तु जब चर्चा मूल विषय से हट कर बहस बन जाती है - और अहम् की पूर्ती का माध्यम बन जाती है |
ReplyDeleteहमारे आपके कहने से ना भगत सिंह जी आस्तिक या नास्तिक हो जाते हैं, ना दोज़ख में जाते हैं | उन्होंने तो वैसे ही कहीं कहा था कि स्वर्ग की अपेक्षा भारत भूमि की सेवा में कई बार मरना पसंद करूंगा (मेरे पास कोई प्रूफ नहीं -- कहाँ पढ़ा था याद भी नहीं) | परन्तु यह तो लगता है कि वे स्वर्ग को जानते भी थे , मानते भी थे , और यह भी कि मैं क्या चाहता हूँ | आस्तिक रहे होंगे, तो ही स्वर्ग को मानते होंगे - ऐसा मुझे लगता है | ................ अरविन्द जी - माफ़ी चाहती हूँ - लेकिन मुझे नहीं लगता यह जीवनकाल काफी है | जैसे उदहारण के लिए - एक हत्या की सज़ा मृत्युदंड है | जिसने हजारों लोगों को मारा हो - उसे इस जीवन में एक ही मृत्युदंड मिल सकता है - तो may be कही और नरक भी होगा इसके आगे की सज़ा के लिए - |
वैसे यह सवाल महत्त्वपूर्ण तो है , किन्तु वे आस्तिक थे या नहीं - वे श्रद्धेय हैं | और इससे किसी और की आस्तिकता पर फर्क नहीं पड़ना चाहिए |
वैचारिक मतभेदता स्वतन्त्रता संग्राम के कई चरणों में रही है पर उनका उभार संभवतः इतना नहीं था।
ReplyDeleteवैचारिक मतभेदता स्वतन्त्रता संग्राम के कई चरणों में रही है पर उनका उभार संभवतः इतना नहीं था।
ReplyDelete@ .....वे नास्तिक या आस्तिक थे यह सवाल भी कम महत्वपूर्ण नहीं है
ReplyDeleteडॉ. मिश्र,
वे आर्यसमाजी थे, सिख थे - यह निर्विवाद सत्य है। उनके अधिकांश साथी सनातनी, आर्यसमाजी, सिख, हिन्दू, मुसलमान, आस्तिक थे, यह भी निर्विवाद है। और अगर तथाकथित पत्र की सत्यता सिद्ध हो सके तो वे अपने जीवन के कुछ वर्षों तक नास्तिक भी रहे हों, ऐसा सम्भव है। मेरे मित्रों, परिजनों में नास्तिक और विभिन्न आस्थाओं को मानने वाले लोग हैं परंतु वे सभी शहीदों का आदर करते हैं और उस आलेख के शीर्षक से वे सभी आहत हुए हैं।
@हमारे आपके कहने से ना भगत सिंह जी आस्तिक या नास्तिक हो जाते हैं, ना दोज़ख में जाते हैं |
ReplyDeleteशिल्पा जी,
किसी के कुछ कहने से भगत सिंह की देशभक्ति पर कोई असर नहीं पडता मगर शब्दों के चयन से कहने वालों की नीयत तो ज़ाहिर हो ही जाती है।
"अरविन्द जी - माफ़ी चाहती हूँ - लेकिन मुझे नहीं लगता यह जीवनकाल काफी है | जैसे उदहारण के लिए - एक हत्या की सज़ा मृत्युदंड है | जिसने हजारों लोगों को मारा हो - उसे इस जीवन में एक ही मृत्युदंड मिल सकता है - तो may be कही और नरक भी होगा इसके आगे की सज़ा के लिए - |"
ReplyDelete@शिल्पा जी ,
इस पर हम अन्यत्र चर्चा कर सकते हैं -अपने ब्लॉग पर इत्मीनान से लिखिए न !
जी अरविन्द जी - चर्चा कही भी हो सकती है - लेकिन यह पोस्ट इस विषय से जुडी है | आपने कहा था कि " मैं स्वयं नरक या स्वर्ग नहीं मानता -जो कुछ भी है मनुष्य इसी धरती पर अपने समग्र जीवनकाल में देख लेता है ! " | इसलिए मैंने लिखा था - और कुछ नहीं |आपको बुरा लगा हो - तो क्षमा चाहती हूँ :)
ReplyDeleteधरती माता की स्वतंत्रता हित जिसने दुनिया के सुख को दरकिनार कर भरी जवानी में अपने प्राण गँवा दिए, उसका धर्म और विश्वास क्या इससे सुस्पष्ट नहीं हुआ ??? इससे अधिक विवेचना की भी आवश्यकता होनी चाहिए क्या ??
ReplyDeleteबहुत ही दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है यह....
संसार में नास्तिक कोई नहीं होता...नास्तिकता भी एक विश्वास पर ही आधारिक होता है...
यूँ जब अपने पास समय सिमित हो(उम्र की) और उस सिमित समय का समुचित सदुपयोग करना हो तो स्वयं को ही अनुशासित कर चलना चाहिए कि क्या पढना है ,कब क्या करना है क्या नहीं...जिस काम से मन में अशांति होती हो और अपनी रचनात्मक क्षमता बाधित/कुंठित होती हो,उसे भरसक मटिया देना चाहिए...श्री राम ने सोचा कि वे अपनी समस्त प्रजा को संतुष्ट कर के ही छोड़ेंगे और इस चक्कर में अपनी बसी बसाई गृहस्थी बिगाड़ ली...सतयुग में भी जब रावण कुम्भकरण और धोबियों की कमी नहीं थी तो आज कलिकाल में इसकी अपेक्षा करने से बड़ा दंभ तो और कुछ भी नहीं होगा...
अपने अपने विश्वास के साथ सबको जीने दिया जाय...समय सिद्ध करेगा कि किसका अभियान क्या निकला...अशुद्ध /असत्य सहस्त्र बार भी प्रचारित प्रसारित होगा तो क्या वह शुद्ध और सत्य हो जायेगा??? समय के पास जितनी असरदार छलनी होती है न ,वह अदृश्य रह भी सबसे बढ़कर काम करती है...
अपना प्रयास सकारात्मकता के प्रसार की ओर प्राणपन से होनी चाहिए...नहीं??
भगत सिंह के प्रति बहुत आदर है। उनकी वैचारिकता को कम्यूनिष्ट भुनाते हैं; सो ज्यादा पढ़ा नहीं!
ReplyDeleteमैं भगत सिंह को साम्यवादी विचारधारा से प्रेरित मानता था परन्तु आपकी आलेख शृंखला ने पुनर्विचार के लिए बाध्य किया है।इतिहास के इस पहलु को छूने पर आपको धन्यवाद।
ReplyDeleteजारी रहे.
ReplyDeleteसत्य सामने आना ही चाहिए. ऐसी विवेचना जरूरी है.
पढ़ रहे है !
ReplyDelete