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Sunday, August 2, 2020

रक्षाबंधन पर्व की बधाई

श्रावणी पूर्णिमा की बधाई
(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)


राखी रोली आ पहुँचे हैं
याद बहन की आई है।

कैसी हैं क्या करती होंगी
हिय में छवि मुस्कायी है।

है प्रेम छलकता चिट्ठी में
इतराती एक कलाई है।

अक्षत का संदेश स्नेहवत
शुभ-शुभ दिया दिखाई है।

अनुराग भरे अक्षर सारे
शब्दों में भरी मिठाई है॥

Saturday, August 30, 2014

ठेसियत की ठोसियत

मिच्छामि दुक्खड़म
जैसे ऋषि-मुनियों का ज़माना पुण्य करने का था वैसे आजकल का ज़माना आहत होने का है। ठेस आजकल ऐसे लगती है जैसे हमारे जमाने में दिसंबर में ठंड और जून में गर्मी लगती थी। अखबार उठाओ तो कोई न कोई आहत पड़ा है। रेडियो पर खबर सुनो तो वहाँ आहत होने की गंध बिखरी पड़ी है। टेलीविज़न ऑन करो तो वहाँ तो हर तरफ आहत लोग लाइन लगाकर खड़े हैं।

ये सब आहत टाइप के, सताये गए, असंतुष्ट प्राणी संसार के आत्मसंतुष्ट वर्ग से खासतौर से नाराज़ लगते हैं। कोई इसलिए आहत है कि जिस दिन उसका रोज़ा था उस दिन मैंने अपने घर में अपने लिए चाय क्यों बनाई। कोई इसलिए आहत है कि जब आतंकी हत्यारे के मजहब या विचारधारा के अनुसार सारे पाप जायज़ थे तो उसे क्षमादान देने के उद्देश्य से कानून में ज़रूरी बदलाव क्यों नहीं दिया गया। कोई किसी के कविता लिखने से आहत है, कोई कार्टून बनाने से, तो कोई बयान देने से। किसी को किसी की किताब प्रतिबंधित करानी है तो कोई किताब के अपमान से आहत है।

भारत से निरामिष ब्लॉग पर अब न आने वाले एक भाई साहब तो इसी बात से आहत थे कि ये पशुप्रेमी लोग मांसाहार क्यों नहीं करते। अमेरिका में कई लोग इस बात पर आहत हैं कि हर मास किलिंग के बाद बंदूक जैसी आवश्यकता को कार जैसी अनावश्यक विलासिता की तरह नियमबद्ध करने की बात क्यों उठती है। जहाँ, धर्मातमा किस्म के लोग विधर्मियों और अधर्मियों से आहत हैं वहीं व्यवस्थाहीन देशों में आतंक और मानव तस्करी जैसे धंधे चलाने वाले गैंग, धर्मपालकों से आहत हैं क्योंकि धर्म के बचे रहते उनकी दूकानदारी वैसे ही आहत हो जाती है, जैसे जैनमुनियों के अहिंसक आचरण से किसी कसाई का धंधा।  

चित्र इन्टरनेट से साभार, मूल स्रोत अज्ञात
गरज यह है कि आप कुछ भी करें, कहीं भी करें, किसी न किसी की भावना को ठेस पहुँचने ही वाली है। लेकिन क्या कभी कोई इस ठेसियत की ठोसियत की बात भी करेगा? किसी को लगी ठेस के पीछे कोई ठोस कारण है भी या केवल भावनात्मक अपरिपक्वता है। आहत होने और आहत करने में न मानसिक परिपक्वता है, न मानवता, और न ही बुद्धिमता। आयु, अनुभव और मानसिक परिपक्वता बढ़ने के साथ-साथ हमारे विवेक का भी विकास होना चाहिए। ताकि हम तेरा-मेरा के बजाय सही-गलत के आधार पर निर्णय लें और फिजूल में आहत होने और आहत करने से बचें। कभी सोचा है कि सदा दूसरों को चोट देते रहने वाले भी खुद को ठेस लगाने के शिकवे के नीचे क्यों दबे रहते हैं? क्या रात की शिकायत के चलते सूर्योदय प्रतिबंधित किया जाना चाहिए? साथ ही यह भी याद रहे कि भावनाओं का ख्याल रखने जैसे व्यावहारिक सत्कर्म की आशा उनसे होती है जिन्हें समझदार समझा जाता है। और समझदार अक्सर निराश नहीं करते हैं। आग लगाने, भावनाएं भड़काने, आहत रहने या करने के लिए समझ की कमी एक अनिवार्य तत्व जैसा ही है

न जाने कब से ठेस लगने-लगाने पर बात करना चाहता था लेकिन संशय यही था कि इससे भी किसी न किसी की भावना आहत न हो जाये। लेकिन आज तो पर्युषण पर्व का आरंभ है सो ठोस-अठोस सभी ठेसाकुल सज्जनों, सज्जनियों से क्षमा मांगने के इस शुभ अवसर का लाभ उठाते हुए इस आलेख को हमारी ओर से हमारे सभी आहतों के प्रति आधिकारिक क्षमायाचना माना जाय। हमारी इस क्षमा से आपके ठेसित होते रहने के अधिकार पर कोई आंच नहीं आएगी।
शुभकामनाएँ!
अपराधसहस्त्राणि क्रियन्ते अहर्निशं मया। दासोयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योहं तव दर्शनात्।।
* संबन्धित कड़ियाँ * 

Saturday, November 2, 2013

कुबेर ऐडविड (कुबेर वैश्रवण) उत्तर के दिक्पाल

कुबेर का चित्र: विकिपीडिया के सौजन्य से
वयं यक्षाम: का मंत्र देने वाले यक्षराज कुबेर देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं। उनकी राजधानी हिमालय क्षेत्र के अलकापुरी में स्थित है। यक्ष समुदाय जलस्रोतों और धन संपत्ति का संरक्षक है। विश्रवस्‌ ऋषि और उनकी पत्नी इळविळा के पुत्र कुबेर की पत्नी हारिति है। भारत में हर पूजा से पहले दिक्पालों की पूजा का विधान है जिसमें उत्तर के दिक्पाल होने के कारण कुबेर की पूजा भी होती है। गहन तपस्या के बाद मरुद्गणों ने उन्हें यक्षों का अध्यक्ष बनाया और पुष्पक विमान भेंट किया। तपस्या का वास्तविक अर्थ क्या है?

निधिपति कुबेर के गण यक्ष हैं जो कि संस्कृत साहित्य में मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली, ज्ञान की परीक्षा लेते हुए, निर्मम प्राणी हैं। जैन साहित्य में इन्हें शासनदेव व शासनदेवी भी कहा गया है। महाभारत के यक्षप्रश्न की याद तो हम सब को है। कुबेर की सम्मिलित प्रजा का नाम पुण्यजन है जिसमें यक्ष तथा रक्ष दोनों ही शामिल हैं। ।

महर्षि पुलस्त्य के पुत्र महामुनि विश्रवा ने भारद्वाज जी की कन्या इळविळा का पाणिग्रहण किया। उन्हीं से कुबेर की उत्पत्ति हुई। इसलिये उनका पूरा नाम कुबेर ऐडविड और कुबेर वैश्रवण है। विश्रवा की दूसरी पत्नी, दैत्यराज माली की पुत्री कैकसी के रावण, कुंभकर्ण और विभीषण हुए जो कुबेर के सौतेले भाई थे। विश्रवा की पुत्रों में कुबेर सबसे बड़े थे। रावण ने अपनी मां और नाना से प्रेरणा पाकर कुबेर का पुष्पक विमान और उनकी स्वर्णनगरी लंकापुरी तथा समस्त संपत्ति पर कब्जा करने के हिंसक प्रयास किए।

रावण के अत्याचारों से चिंतित कुबेर ने जब अपने एक दूत को रावण के पास क्रूरता त्यागने के संदेश के साथ भेजा तो रावण ने क्रुद्ध होकर उस दूत को मार-काटकर अपने सेवक राक्षसों को खिला दिया। यह घटनाक्रम जानकर कुबेर को दुख हुआ। अंततः यक्षों और राक्षसों में युद्ध हुआ। बलवान परंतु सरल यक्ष, मायावी, नृशंस राक्षसों के आगे टिक न सके, राक्षस विजयी हुए। रावण ने माया से कुबेर को घायल करके उनका पुष्पक विमान ले लिया। कुबेर अपने पितामह पुलत्स्य के पास गये। पितामह की सलाह पर कुबेर ने गौतमी के तट पर शिवाराधना की। फलस्वरूप उन्हें 'धनपाल' की पदवी, पत्नी और पुत्र का लाभ हुआ। कुछ जनश्रुतियों के अनुसार कुबेर का एक नेत्र पार्वती के तेज से नष्ट हो गया, अत: वे एकाक्षीपिंगल भी कहलाए। तपस्थली का वह स्थल कुबेरतीर्थ और धनदतीर्थ नाम से विख्यात है। ब्रजक्षेत्र में स्थित माना जाने वाला यह तीर्थ कहाँ है?

धनार्थियों के लिए कुबेर पूजा का विशेष महत्व है। परंपरा के अनुसार लक्ष्मी जी चंचला हैं, कभी भी कृपा बरसा देती हैं। लेकिन कुबेर संसार की समस्त संपदा के रक्षक हैं। उनकी अनिच्छा होते ही धन-संपदा अपना स्थान बदल लेती है। समस्त धन के संरक्षक कुबेर की मर्जी न हो तो लक्ष्मी चली जाती हैं। दीपावली पर बहीखाता पूजन के साथ कुबेर पूजन, तुला पूजन तथा दीपमाला पूजन का भी रिवाज है। महाराज कुबेर के कुछ मंत्र:
आह्वान मंत्र: आवाहयामि देव त्वामिहायाहि कृपां कुरु। कोशं वर्धय नित्यं त्वं परिरक्ष सुरेश्वर।।
कुबेर मंत्र: ॐ कुबेराय नम:
कुबेर मंत्र: धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च। भगवान् त्वत्प्रसादेन धनधान्यादिसम्पद:।।
अष्टाक्षर कुबेर मंत्र: ॐ वैश्रवणाय स्वाहा।
षोडशाक्षर कुबेर मंत्र: ॐ श्रीं ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नम:
पंच्चात्रिशदक्षर कुबेर मंत्र - ॐ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा।


और हाँ, भारतीय रिज़र्व बैंक के आगे कुबेर की नहीं, यक्ष और यक्षी/यक्षिणी की मूर्ति है। और हँसता हुआ चीनी लाफिंग बुद्धा भी बुद्ध नहीं बल्कि शायद एक यक्ष है। और हाँ, बाबा शोभन सरकार को शायद कुबेर पूजन की ज़रूरत है।
तमसो मा ज्योतिर्गमय
दीपावली की शुभकामनायें। आपका जीवन ज्योतिर्मय हो!

दिग्दर्शक मिलता नहीं खुद राह गढ़ने चल पड़े
सूरज नहीं चंदा नहीं कुछ दीप मिलकर जल पड़े

Friday, October 4, 2013

पितृ पक्ष - महालय

साल के ये दो सप्ताह - इस पखवाड़े में हज़ारों की संख्या में वानप्रस्थी मिशनरी पितर वापस आते थे अपने अपने बच्चों से मिलने, उनको खुश देखकर खुशी बाँटने, आशीष देने. साथ ही अपने वानप्रस्थ और संन्यास के अनुभवों से सिंचित करने। दूर-देश की अनूठी संस्कृतियों की रहस्यमयी कथाएँ सुनाने। रास्ते के हर ग्राम में सम्मानित होते थे। जो पितर ग्राम से गुज़रते वे भी और जो संसार से गुज़र चुके होते वे भी, क्योंकि मिलन की आशा तो सबको रहती थी। कितने ही पूर्वज जीवित होते हुए भी अन्यान्य कारणों से न आ पाते होंगे, कुछ जोड़ सूनी आँखें उन्हें ढूँढती रहती होंगी शायद।

साल भर चलने वाले अन्य उत्सवों में ग्रामवासी गृहस्थ और बच्चे ही उपस्थित होते थे क्योंकि 50+ वाले तो संन्यासी और वानप्रस्थी थे। सो उल्लास ही छलका पड़ता था, जबकि इस उत्सव में गाम्भीर्य का मिश्रण भी उल्लास जितना ही रहता था। समाज से वानप्रस्थ गया, संन्यास और सेवा की भावना गयी, तो पितृपक्ष का मूल तत्व - सेवा, आदर, आद्रता और उल्लास भी चला गया।

भारतीय संस्कृति में ग्रामवासियों के लिए उत्सवों की कमी नहीं थी। लेकिन वानप्रस्थों के लिए तो यही एक उत्सव था, सबसे बड़ा, पितरों का मेला। ज़ाहिर है ग्रामवासी जहाँ पितृपूजन करते थे वहीं पितृ और संतति दोनों मिलकर देवपूजन भी करते थे। विशेषकर उस देव का पूजन जो पितरों को अगले वर्ष के उत्सव में सशरीर आने से रोक सकता था। यम के विभिन्न रूपों को याद करना, जीवन की नश्वरता पर विचार करते हुए समाजसेवा की ओर कदम बढ़ाना इस पक्ष की विशेषता है। अपने पूर्वजों के साथ अन्य राष्ट्रनायकों को याद करना पितृ पक्ष का अभिन्न अंग है। मृत्यु की स्वीकृति, और उसका आदर -
मालिन आवत देखि करि, कलियाँ करीं पुकार। फूले फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बार।। ~ कबीर

केवल अपनी वंशरेखा के पितर ही नहीं, बल्कि परिवार में निःसंतान मरे लोगों के साथ-साथ गुरु. मित्र, सास, ससुर आदि के श्राद्ध की परम्परा याद दिलाती है कि कृतज्ञता भारतीय सभ्यता के केंद्र में है। अविवाहित और निःसंतान रहे भीष्म पितामह का श्राद्ध सभी वर्णों द्वारा किया जाना भी अपने रक्त सम्बंध और जाति-वर्ण आदि से मुक्त होकर हुतात्माओं को याद करने की रीति से जोड़ता है। मैं और मेरे के भौतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर, आज और अभी के लाभ को भूलकर, हमारे और सबके, बीते हुए कल के सत्कृत्यों और उपकार को श्रद्धापूर्वक स्मरण करने का प्रतीक है श्राद्ध।

आज पितृविसर्जनी अमावस्या को अपने पूर्वजों को विदा करते समय उनके सत्कर्मों को याद करने का, उनके अधूरे छूटे सत्संकल्पों को पूरा करने का निर्णय लेने का दिन है।

क्षमा प्रार्थना
अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योऽहं तव दर्शनात्।

पिण्ड विसर्जन मन्त्र
ॐ देवा गातुविदोगातुं, वित्त्वा गातुमित। मनसस्पतऽइमं देव, यज्ञ स्वाहा वाते धाः॥

पितर विसर्जन मन्त्र - तिलाक्षत छोड़ते हुए
ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः ।। सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न् कामान् ददन्तु मे॥ ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां ।। सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ॥ इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः ।। वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ॥

देव विसजर्न मन्त्र - पुष्पाक्षत छोड़ते हुए
ॐ यान्तु देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम्। इष्ट कामसमृद्ध्यर्थ, पुनरागमनाय च॥

सभी को नवरात्रि पर्व पर हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएँ!

Tuesday, October 23, 2012

दशहरे के बहाने दशानन की याद


नवरात्रि के नौ दिन भले ही देवी और श्रीराम के नाम हों, दशहरा तो महर्षि विश्रवा पौलस्त्य और कैकसी के पुत्र महापंडित रावण ने मानो हर ही लिया है। और हो भी क्यों न? इसी दिन तो अपने अंतिम क्षणों में श्रीराम के अनुरोध पर गुरु बनकर रावण ने दशरथ पुत्रों को आदर्श राज्य की शिक्षा दी थी। दैवी धन के संरक्षक और उत्तर दिशा के दिक्पाल कुबेर रावण महाराज के अर्ध-भ्राता थे। कुछ कथाओं के अनुसार सोने की लंका और पुष्पक विमान कुबेर के ही थे परंतु बाद में पिता की आज्ञा से वे इन्हें रावण को देकर उत्तर की ओर चले गये और अल्कापुरी में अपनी नयी राजधानी बनायी।

भारतीय ग्रंथों में रावण जैसे गुरु चरित्र बहुत कम हैं। वीणावादन का उस्ताद माना जाने वाला रावण सुरुचि सम्पन्न सम्राट था। वह षड्दर्शन और वेदत्रयी का ज्ञाता है। जैन विश्वास है कि वह अलवर के रावण पार्श्वनाथ मन्दिर में नित्य पूजा करता था। कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र का राक्षस-ताल उसके भार से बना माना जाता है। कैलाश पर्वत पर पडी क्षैतिज रेखायें रावण द्वारा इस पर्वत को शिव सहित लंका ले जाने के असफल प्रयास के चिह्न हैं। ब्रह्मज्ञान उसके जनेऊ की फांस में बन्धा है। फिर वह राक्षस कैसे हुआ? उसके नारे "वयम रक्षामः" को भारतीय तट रक्षकों ने अपने नारे के रूप में अपनाया है। यह नारा ही राक्षस वंश की विशेषताओं को दर्शाने के लिये काफी है। ध्यान से देखने पर इस नारे में दो बातें नज़र आती हैं - एक तो यह कि राक्षस अपनी रक्षा स्वयम कर सकने का गौरव रखते हैं और दूसरी अंतर्निहित बात यह भी हो सकती है कि राक्षसों को अपनी शक्ति, सम्पन्नता और पराक्रम का इतना दम्भ है कि वे अपने को ही सब कुछ समझते हैं। याद रहे कि राक्षस, दानवों और दैत्यों से अलग हैं।

ऐसा कहा जाता है कि रावण ने काव्य के अतिरिक्त ज्योतिष और संगीत पर ग्रंथ लिखे हैं। रावण की कृतियों में आज "शिव तांडव स्तोत्र" सबसे प्रचलित है। मुझे छन्द का कोई ज्ञान नहीं है फिर भी केवल अवलोकन मात्र से ही आदि शंकराचार्य की कई रचनायें इसी छन्द का पालन करती हुई दिखती हैं। रावण के वयम रक्षामः में ईश्वर की सहायता के बिना अपनी रक्षा स्वयम करने का दम्भ उसके सांख्य-धर्मी होने की ओर भी इशारा करती है। हमारे परनाना के परिवार के सांख्यधर होने के कारण "रावण के खानदानी" होने का मज़ाकिया आक्षेप मुझे अभी भी याद है। सांख्यधर शब्द ही बाद में संखधर, शंखधार और शकधर आदि रूपों में परिवर्तित हुआ। वयम रक्षामः से पहले, कुवेर के शासन में लंका का नारा वयम यक्षामः था जिसमें यक्षों की पूजा-पाठ की प्रवृत्ति का दर्शन होता है जोकि राक्षस जीवन शैली के उलट है।

दूसरी ओर भगवान राम द्वारा लंकेश के विरुद्ध किये जा रहे युद्ध में अपनी विजय के लिये सेतुबंध रामेश्वर में महादेव शिव की स्तुति के समय का यज्ञ व प्राण-प्रतिष्ठा में वेदमर्मज्ञ पंडित रावण को बुलाना और अपने ही विरुद्ध विजय का आशीर्वाद रामचन्द्र जी को देने के लिये रामेश्वरम् आना निःशंक रावण की नियमपरायणता और धार्मिक निष्पक्षता का प्रमाण है।

मथुरा (मधुरा, मधुवन, मधुपुरी) के राजा मधु (मधु-कैटभ वाला) से रावण की बहिन कुम्भिनी का विवाह हुआ था। इसी कुम्भिनी और भाई कुम्भकर्ण के नाम पर दक्षिण के नगर कुम्भाकोणम का नामकरण हुआ माना जाता है। मध्य प्रदेश के मन्दसौर नाम का सम्बन्ध मन्दोदरी से समझा जाता है। यहाँ शहर से बाहर रावण की मूर्ति बनी है और रावण दहन नहीं होता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का बिसरख ग्राम (ग्रेटर नॉएडा) रावण के पिता ऋषि विश्रवा से सम्बन्धित समझा जाता है। खरगोन (Khargone) नगर भी खर (खर दूषण वाला खर) का क्षेत्र है। खरगोन से 55 किलोमीटर दूर सिरवेल महादेव मन्दिर की प्रसिद्धि इसलिये है कि यहाँ पर रावण ने अपने दशानन महादेव को अर्पित किये थे। जोधपुर/मंडोर क्षेत्र के कुछ ब्राह्मण (दवे कुल/श्रीमाली समाज) अपने को रावण का वंशज मानते हैं। जोधपुर के अमरनाथ महादेव मन्दिर में रावण की प्राण प्रतिष्ठा का विश्व हिन्दू परिषद द्वारा विरोध एक खबर बना था। पता नहीं चला कि बाद में प्रशासन ने क्या किया। यदि किसी को इस बारे में वर्तमान स्थिति की जानकारी है तो कृपया बताइये। मौरावा के लंकेश्वर महादेव का रावण दशहरे पर भी नहीं मरता है। सिंहासन पर बैठे राजा रावण की यह सात मीटर ऊँची प्रस्तर मूर्ति अब तक 200 से अधिक दशहरे देख चुकी है और इसकी नियमित पूजा-अर्चना होती है। विदिशा के रावणग्राम में भी नियमित रावण-पूजा होती है। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित प्राचीन धार्मिक तीर्थ बैजनाथ में भी विजया दशमी को रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है। कानपुर निवासी तो शायद दशहरे पर शिवाला के दशानन मन्दिर में रावण के दर्शन कर रहे होंगे।

कभी कभी, एक प्रश्न मन में उठता है - श्रीराम ने एक रावण का वध करने पर उस हिंसा का प्रायश्चित भी किया था। हम हर साल रावण मारकर कौन सा तीर मार रहे हैं?

आप सभी को दुर्गापूजा और दशहरे की शुभकामनायें। पाप का नाश हो धर्म का कल्याण हो और हम समाज और संसार को काले सफेद में बाँटने के बजाये उसे समग्र रूप में समझने की चेष्टा करें।

शुभमस्तु!



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(17 अक्टूबर 2010)

Saturday, August 11, 2012

वैजयंती, मेरे आंगन की - हरे कृष्णा!

वैजयंती की मुस्कान
* गवेधुक - वैजयन्ती माला *
(चित्र व परिचय: अनुराग शर्मा)

प्रसिद्ध अभिनेत्री और नृत्यांगना वैजयंतीमाला बाली लोक सभा सांसद रह चुकी हैं| वैजयंती माला का जन्म 13 अगस्त 1936 को मैसूर के एक आयंगर परिवार में हुआ। वे गॉल्फ़ की खिलाड़ी हैं और आज भी भरतनाट्यम का नियमित अभ्यास करती हैं| उनका विवाह डॉ. चमन लाल बाली के साथ हुआ। उन्हें जन्मदिन की अग्रिम शुभकामनायें!

प्राकृतिक मोती - वैजयंती के बीज
जन्माष्टमी आकर गई ही है। पूरा देश कृष्णमय हो रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का वर्णन आने पर मयूरपंख और वैजयंती माला का ज़िक्र आना भी स्वाभाविक है। आज की इस पोस्ट का विषय भी यही दूसरी वाली वैजयंती माला है। भारतीय ग्रंथों के अनुसार यह वैजयंतीमाला श्रीकृष्ण के सीने पर सुशोभित होती है। शुभ्र श्वेत से लेकर श्यामल तक लगभग पाँच रंगों में उपलब्ध इसके मोती जैसे बीज प्राकृतिक रूप से ही छिदे हुए होते हैं और बिना सुई के ही माला में पिरोये जा सकते हैं। इसकी राखी और ब्रेसलैट आदि भी आसानी से बनाये जा सकते हैं। वैजयंती के पौधे का वैज्ञानिक नाम Coix lacryma-jobi है। संस्कृत में इसका एक नाम गवेधुक भी है। इसे अंग्रेज़ी में जॉब्स टीयर्स (job's tears) भी कहते हैं। चीनी में चुआंगू और जापानी में हातोमूगी के नाम से जाना जाता है। इसके मोती/बीज/दाने अमेरिका में चीनी किराने की दुकानों के साथ-साथ ऐमेज़ोन डॉट कॉम पर सरलता से उपलब्ध है जबकि भारत में भोज्य पदार्थ, सौन्दर्यबोध या पूजा सामग्री सभी प्रकार से हमारी परम्परा के अनेक अंगों की भांति यह पौधा भी उपेक्षित रह गया है।

गवेधुक के मोती जैसे फल वाला जंगली पौधा
ऐसा माना जाता है कि चावल के स्थान पर वैजयंती खाने से शरीर के कॉलेस्टरॉल में - विशेषकर बुरे कॉलेस्टरॉल में -कमी आती है। परंतु यह धारणा भी है कि यह दवाओं के साथ - विशेषकर डायबिटीज़ में - विचित्र व्यवहार कर सकता है। वैसे भी किसी भी दवा के सेवन के समय भोज्य पदार्थों के बारे में विशिष्ट सावधानी रखने की सलाह दी जाती है। वैजयंती एक जिजीविषा भरा पौधा है जो भारत के समस्त मैदानी क्षेत्रों में आराम से उग आता है। कीड़े-बीमारियों आदि से नैसर्गिक रूप से सुरक्षित वैजयंती के बीज हिन्द-चीन क्षेत्र के अनेक देशों में भोजन के लिये आटे के रूप में या चावल के विकल्प के रूप में खाये जाते हैं। कोरिया और चीन में इसके पेय और मदिरा भी बनाई जाती है। जापान में इसका सिरका और थाइलैंड में चाय भी बनती है। आश्चर्य नहीं कि यह पौधा भारतीय खेतों में अपने आप उग आता हो और अज्ञानवश खरपतवार समझकर उखाड़ दिया जाता हो। वैजयंती के बीज आरम्भ में धवल और नर्म होते हैं। कच्चे बीज को आसानी से छीला जा सकता है। पकने के साथ ही यह कड़े और स्निग्ध होते जाते है।

यह खर-पतवार वैजयंती नहीं है
वैसे पूजा सामग्री आदि बेचने वाले कुछ उद्यमी पहले से ही वैजयंती माला बेचते रहे हैं। लेकिन पिछले दिनों से वास्तु और ज्योतिष के फ़ैशन में आने के बाद से जहाँ रत्न आदि के व्यापार में उछाल आया है वहाँ वैजयंती माला के चित्र भी इंटरनैट पर दिखने लगे हैं। (वैजयंती माला का एक चित्र यहाँ देखा जा सकता है।) इन आधुनिक घटनाओं से इतर बहुत से भारतीय घरों में वैजयंती के पौधे लम्बे समय से लगे हैं। मेरे परिवार के कुछ घरों में भी ये पौधे हैं और उसके बीज (मोती या दाने) मेरे पास पिट्सबर्ग में भी रहे हैं। लेकिन सामान्यजन में इसकी जानकारी कम है। कई वर्ष पहले अंतर्जाल पर शायद किसी वैज्ञानिक पहेली में भी केलि के पौधे को वैजयंती बताया जा रहा था।

केलि (कैना लिली) भी वैजयंती नहीं है - यह चित्र गिरिजेश राव द्वारा
लेकिन इस बार जब एक आत्मीय की फ़ेसबुक वाल पर केलि के लिये वैजयंती नाम देखा तो पहचान के इस भ्रम पर रोशनी डालने के लिये वैजयंती पर लिखने का मन किया। लगता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्रों में केलि के पौधे (कैना लिली) को किसी भ्रमवश वैजयंती समझा जा रहा है। इसके फूलों के तो हार भी बनते नहीं देखे, माला - वह भी वैजयंती - बनने की तो सम्भावना ही नहीं दिखती। पेड़-पौधों व पशु-पक्षियों के नामों के विषय में आलस अवाँछनीय होते हुए भी भारत में सामान्य है। ऐसे अज्ञान को बढावा देकर हम अन्जाने ही अपनी विरासत से दूर होते जा रहे हैं। सोमवल्ली जैसे पौधों की पहचान तो आज असम्भव सी दिखती है। ऐसे में ज़रूरत है कि भ्रम को बढावा देने से बचा जाये और जहाँ कहीं, जितनी बहुत पहचान बाकी रह गयी है उसे बचाया जाये।

गवेधुक, वैजयंती, जॉब्स टीयर्स - कितने नाम!
जब वैजयंती (या गवेधुक) पर लिखने की सोची तो यूँ ही मन में आया कि एक पौधा पिट्सबर्ग में उगाकर भी देखा जाये। कई गमलों में बीज लगाने के बाद उनमें से एक में घास-फूस जैसा जो कुछ भी उगा उसे उगने दिया। एक महीने में ही वैजयंती का पौधा अपनी अलग पहचान बताने लायक बड़ा हो गया है। यहाँ प्रस्तुत चित्र उसी पौधे का है। यह पौधा कुश घास जैसा दिखता है और मोती आने से पहले इसे ठीक से पहचान पाना या सामान्य घास से अलग कर पाना कठिन है। घास जैसे पौधों पर गिरिजेश ने पिछले वर्ष एक बहुत बढिया आलेख लिखा था, यदि आप फिर से पढना चाहें तो उसका लिंक इस आलेख के नीचे दिया गया है। आभार!

वैजयंती घास का सौन्दर्य
.
"नहीं! वह सपना नहीं हो सकता।" देवकी ने कहा, "वह यहीं था, मेरे पास। मेरी नासिका में अभी तक उसकी वैजयंती माला के पुष्पों की गंध है। मेरे कानों में उसकी बाँसुरी के स्वर हैं। उसने छुआ भी था मुझे ..."

"तो तुम्हारा कृष्ण वंशी बजाता है?'' वसुदेव हँस पड़े, ''तुम्हें किसने बताया कि वह वंशी बजाता है? यादवों का राजकुमार वंशी बजाता है। वह ग्वाला है या चरवाहा कि वंशी बजाता है। तुमने कब देखा कि वह वैजयंती माला धारण करता है?"
[डॉ नरेंद्र कोहली के उपन्यास वसुदेव से एक अंश - लगता है नरेंद्र कोहली भी वैजयंती-माला को किसी खुशबूदार फूल का हार ही मान रहे हैं]
.


आप सभी को कृष्ण जन्माष्टमी पर्व की हार्दिक बधाई!
सम्बन्धित कड़ियाँ *
* वैजयंती - विकीपीडिया
* कास, कुश, खस, दर्भ, दूब, बाँस के फूल और कुछ मनबढ़

Saturday, March 24, 2012

अफ़वाहों का गणित

पुरानी घटना है। आस पड़ोस के सब लोग गणेश जी को दूध पिलाने के लिये दौड़ रहे थे। हमारी पड़ोसन भी आयीं ताकि वे माँ के साथ निकट के मन्दिर में जा सकें। माँ ने पहले तो समझाने का प्रयास किया फिर अचानक ही साथ चलने को तैयार हो गयीं। दूध के लोटे-गिलास के बजाय एक खाली चम्मच लिया और वहाँ जाकर संगेमरमर की मूर्ति की गर्दन से लगा दिया। पल भर में ही चम्मच दूध से भर गया। पड़ोसन को भी दिख गया कि मूर्ति दूध पी नहीं रही थी बल्कि दुग्ध-स्नान कर रही थी।

आजकल अफ़वाहें भी तकनीक की बेल के सहारे काफ़ी ऊँची उठ चुकी हैं। एक एस एम एस आता है या कोई ईमेल मिलती है और हम आश्चर्य से भर जाते हैं। सब कुछ अनोखा, इतना अनूठा कि संयोग शब्द कुछ हल्का लगने लगे। हम इतने प्रभावित हो जाते हैं कि जो मिलता है उसे उस ईमेल का विषय फ़टाफ़ट विस्तार के साथ बताने लगते हैं। कभी उस संदेश को आगे दो चार मित्रों को फ़ॉरवर्ड करते हैं और कभी ब्लॉग पोस्ट भी बना देते हैं। उत्साह के बीच ये बात दिमाग़ में आती ही नहीं कि वह सन्देश अफ़वाह भी हो सकता है। पहले किसी अफ़वाह के फैलने की रफ़्तार धीमी थी परंतु आजकल तो बस्स ...

क्या आपने कभी जानने का प्रयास किया है कि इन अफ़वाहों के पीछे कौन छिपा है? कौन हमारे भोले विश्वास का लाभ उठाकर अपना उल्लू सिद्ध करना चाहता है? अपने अभिनेता बेटे की हाई प्रोफ़ाइल फ़िल्म के विश्व-व्यापी उद्घाटन के समय भारत के एक फ़िल्म निर्माता को अंडरवर्ल्ड से पैसा देने की धमकी मिलती है। वह पुलिस में जाता है। पुलिस उसकी सुरक्षा में लग जाती है। तभी पड़ोसी देश का एक केबल नेटवर्क उस अभिनेता द्वारा उस देश का अपमान करने की खबर देता है। देशभक्ति की भावना से भरे भोले-भाले लोग उस अभिनेता के विरोध में घरों से बाहर निकल आते हैं। अभिनेता बेचारा सफ़ाई ही देता रह जाता है।

सम्बन्ध व्यवसायिक हों या पारिवारिक, वे तभी टिकते हैं जब उनमें दोनों पक्ष या तो लाभ में रहते हों या कम से कम एक पक्ष का लाभ हो रहा हो या कम से कम एक पक्ष इस सम्बन्ध के प्रति या तो निरपेक्ष हो या हानि भी सहने को तैयार हो। इसी प्रकार कुछ लोग कोई भी काम करते समय सबका भला देखते हैं। कुछ लोग केवल अपना भला देखते हैं। लेकिन इस सब से आगे बढकर कुछ लोग, देश या संस्थायें केवल इतना देखते हैं कि उनके काम से दूसरे व्यक्ति, संस्था या देश की हानि हो। उनके लिये यह दूसरा कोई व्यक्ति, संस्था या देश नहीं होता, वह होता है केवल एक प्रतिद्वन्द्वी बल्कि एक शत्रु, जिसे किसी भी कीमत पर नीचा दिखाना है, हराना है या नष्ट करना है।

मुझे याद पड़ता है कि एक अन्य पड़ोसी देश के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि हम हिन्दुस्तान से हज़ार साल तक लड़ेंगे, भले ही उसके लिये हमें घास खाना पड़े। पता नहीं उनके देश ने घास खाई या नहीं मगर पहले तो उस देश का एक बड़ा भूभाग अलग हुआ और फिर बचे हुए लोगों ने उस प्रधानमंत्री को फ़ाँसी पर लटका दिया। देश का चरित्र फिर भी काफ़ी हद तक वैसा ही रहा जैसा इन घटनाओं से पहले था। अपना इतिहास छिपाने और पड़ोसियों के विरुद्ध अफ़वाहें फैलाने का चलन वहाँ आज भी है और उस देश के पतन का एक बड़ा कारण है।

लेकिन ये अफ़वाहें फैलती क्यों हैं? पड़ोसी देश की समस्या तो ये है कि वहाँ इस्लाम के नाम पर कुछ भी कराया जा सकता है। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान के विरोध के नाम पर इंसानियत का खून आसानी से किया जा सकता है। उनके स्कूलों की किताबें हों या मदरसों के सबक, सबका एक छिपा एजेंडा है। वे भूल गये हैं कि नफ़रत की आग जब एक बार जलनी शुरू होती है फिर समदर्शी होकर अपना पराया नहीं देखती। वे अन्धे हों तो हों मगर वैविध्य, उदारता और सहिष्णुता की अति-प्राचीन परम्परा वाले हम लोग अफ़वाहों के चक्र को तोड़ने के बजाय उसे हवा क्यों देते हैं? शायद इसलिये कि अफ़वाह फैलाने वाले आपके मन की घुटन पहचानते हैं। वे जानते हैं कि आपके मन में क्या चल रहा हैं? अफ़वाहें अक्सर ऐसी भावनाओं का शोषण करती हैं जिनसे एक बड़े समूह को आसानी से चलायमान किया जा सके। ये भावनायें धर्म, देशप्रेम, ग़रीबी, अन्याय, असमानता आदि कुछ भी हो सकती हैं लेकिन अक्सर इनके द्वारा एक बड़े समूह को पीड़ित बताया जाता है।

अब्राहम लिंकन 
अफ़वाहों के कुछ विशेषज्ञ भी होते हैं। पहले सीधी-सच्ची जैसी लगने वाली अफवाहें फैलाकर जनता का रुख और उनकी परिपक्वता का स्तर पहचाना जाता है। समय के साथ अफ़वाहों को बदला या हटाया जाता है। कई बार ये अफ़वाहें प्रत्यक्ष होती हैं जबकि कई बार परोक्ष भी होती हैं। शीतल पेयों में पशु-उत्पाद होना, नेहरू जी का मुसलमान होना, जिन्ना का सैकुलर होना जैसी सामान्य प्रचलित अफ़वाहों का परिणाम समझ आ जाये तो उनका उद्देश्य और उद्गम पहचानना आसान हो जायेगा। साथ ही यदि हम अफ़वाह पर एक सरसरी नज़र डालें तो उसका झूठ एकदम सामने आ जायेगा।

आइये केवल विश्लेषण के उद्देश्य से एक ब्लॉग पर ताज़ा छपी एक पुरानी अफ़वाह का नया संस्करण देखें। मैंने जानकर इस अफ़वाह को इसलिये चुना है क्योंकि यह एक विख्यात परंतु सरल सी अफ़वाह है और इसका हमारे देश, धर्म, राजनीति, राष्ट्रनायक या  परिस्थितियों से भी कोई लेना-देना नहीं है। अफ़वाह लम्बी है, कृपया धैर्य रखिये।

1. प्रेसिडेंट लिंकन 1860 मे राष्ट्रपति चुने गये थे, केनेडी का चुनाव 1960 मे हुआ था।
2. लिंकन के सेक्रेटरी का नाम केनेडी तथा केनेडी के सेक्रेटरी का नाम लिंकन था।
3. दोनों राष्ट्रपतियों का कत्ल शुक्रवार को अपनी पत्नियों की उपस्थिति मे हुआ था।
4. लिंकन के हत्यारे बूथ ने थियेटर मे लिंकन पर गोली चला कर एक स्टोर मे शरण ली थी और केनेडी का हत्यारा ओस्वाल्ड, एक स्टोर मे केनेडी को गोली मार कर एक थियेटर मे जा छुपा था।
5. बूथ का जन्म 1839 मे तथा ओस्वाल्ड का 1939 मे हुआ था।
6. दोनों हत्यारों की हत्या मुकद्दमा चलने के पहले ही कर दी गयी थी।
7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का नाम जानसन था। एन्ड्रयु जानसन का जन्म 1808 मे तथा लिंडन जानसन का जन्म 1908 मे हुआ था।
8. लिंकन और केनेडी दोनों के नाम मे सात अक्षर हैं।
9. दोनों का संबंध नागरिक अधिकारों से जुडा हुआ था।
10. लिंकन की हत्या फ़ोर्ड के थियेटर में हुई थी, जबकी केनेडी फ़ोर्ड कम्पनी की कार मे सवार थे।

आश्चर्य है कि इसकी काट बहुत पहले प्रकाशित हो जाने के बाद भी यह दंतकथा आज तक सर्कुलेशन में है। आइये बिन्दुवार देखें इस विचित्र से सत्य में सत्य का प्रतिशत कितना है:

1. अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हर 4 वर्ष में होता है। इसलिये किन्हीं भी दो राष्ट्रपतियों के बीच का अंतर 4 से विभाज्य होगा। यह हम पर निर्भर है कि हम जो दो राष्ट्रपति चुनें उनके बीच का अंतर 56, 96, 100, 104 या 200 वर्ष है या कुछ और। यहाँ दो ऐसे राष्ट्रपति लिये गये हैं जिनकी हत्या हुई और उनके राष्ट्रपति बनने के वर्षों में सौ वर्ष का अंतर था।

2. यह पक्की बात है कि लिंकन के अनेक सचिवों में से किसी का उपनाम भी कैनेडी नहीं था।

3. सप्ताह के सात दिनों में से एक के होने की सम्भावना कितनी जटिल है। वैसे लिंकन की हत्या के समय उनकी पत्नी साथ नहीं थीं और उनकी मृत्यु शनिवार को हुई थी।

4. भागने के बाद बूथ ने अलग-अलग जगहों यथा घर, खेत, कुठार आदि में शरण ली थी परंतु स्टोर में नहीं।

5. इन दो राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर था, सो उनके हत्यारों के जन्म में भी 100 साल का अंतर कोई बड़ी बात नहीं है। मगर अफ़वाह का यह बिन्दु भी ग़लत है। बूथ का जन्म 1839 में नहीं बल्कि 1838 में हुआ था। वैसे, ओसवाल्ड केनेडी का हत्यारा था - इस बात पर आज भी बहुत से लोगों को विश्वास नहीं है।

6. चलिये एक बिन्दु तो सच है, वैसे राष्ट्रपति के हत्यारों का घटनास्थल पर ही मारा जाना एक सामान्य सम्भावना है।

7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का कुलनाम जॉंन्सन होना सचमुच एक सन्योग है। जॉंन्सन अमेरिका का एक सामान्य नाम है। यदि दोनों जॉंन्सन के नाम भी समान होते तब ज़रूर आश्चर्य होता। या फिर उत्तराधिकारियों के नाम क्रमशः कैनेडी व लिंकन होते तब तो मैं भी इस अफ़वाह पर पूर्ण विश्वास करता। दोनों राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर उनके उत्तराधिकारियों के समान अंतर को ही साबित करता है। यदि उत्तराधिकारियों का अंतर 75 या 125 साल भी होता तो क्या फ़र्क पड़ना था?

8. यूरोपीय मूल के नामों में 7 अक्षर होना अनोखी बात नहीं है। वैसे कैनेडी के नाम "जॉन" में 7 नहीं चार अक्षर थे।

9. आश्चर्य? अमेरिका के हर राष्ट्रपति का नाम मानव अधिकारों से जुड़ा है, कइयों को नोबल शांति पुरस्कार भी मिल चुके हैं।

10. कैनेडी लिंकन कम्पनी द्वारा बनाई हुई लिंकन कॉंटिनेंटल लिमुज़िन में सवार थे। हाँ, लिंकन कम्पनी फ़ोर्ड कम्पनी के स्वामित्व में अवश्य है लेकिन क्या स्टेट बैंक ऑफ़ ट्रावनकोर को स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया कहा जा सकता है? दूसरी बात यह कि लिंकन कार का नाम ही राष्ट्रपति लिंकन के सम्मान में रखा गया था। इसलिये एक शताब्दी बाद आये कैनेडी की कार का नाम लिंकन होना आसान सी बात है। अनोखी बात तब होती जब लिंकन की कार का नाम कैनेडी होता।

क्या मैं कुछ अधिक ही विद्रोही हो रहा हूँ? शायद ऐसा हो क्योंकि किसी भी सन्देश को बिना विचारे दोहराते हुए देखना मुझे अजीब लगता है। वह भी तब जब अफ़वाह की तथ्यात्मक काट लम्बे समय पहले प्रकाशित हो चुकी हो। यदि अफ़वाहें राष्ट्र को उद्वेलित करके समुदायों के बीच नफ़रत पैदा करके राष्ट्रीय नागरिकों, सेवाओं या सम्पत्ति की हानि करने लगें तब तो हमारी ज़िम्मेदारी और भी बढ जाती है। ध्यान रखिये कि राष्ट्र की हानि कराने वाले राष्ट्रभक्ति का मुखौटा भले ही ओढ लें, वे रहेंगे राष्ट्रद्रोही ही। मेरा तो सभी मित्रों से यही अनुरोध है कि कुछ भी पढते सुनते वक़्त दिमाग का प्रयोग कीजिये, खुलकर सवाल पूछिये। सम्पादक के नाम आपका पत्र या किसी ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी यदि प्रकाशित न हो तो अपनी बात अपने ब्लॉग पर कहिये। कुछ भी करिये मगर अनुसरण सत्य का ही कीजिये। याद रहे कि पाकिस्तान कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता। हाँ यदि पाकिस्तान फिर से भारतीय परम्परा अपनाये तो उनकी काफ़ी समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं। क्या कहते हैं आप?

Wednesday, December 7, 2011

क़ौमी एकता - लघुकथा

"अस्सलाम अलैकुम पण्डित जी!  कहाँ चल दिये?

"अरे मियाँ आप? सलाम! मैं ज़रा दुकान बढ़ा रहा था। मुहर्रम है न आज!"

"तो? इतनी जल्दी क्यों? आप तो रात-रात भर यहाँ बैठते हैं। आज दिन में ही?"

"क्या करें मियाँ, बड़ा खराब समय आ गया है। आपको पता नहीं पिछली बार कितना फ़जीता हुआ था? और फिर आज तो तारीख भी ऐसी है।"

"अरे पुरानी बातें छोड़ो पण्डित जी। आज तो आप बिल्कुल बेखौफ़ हो के बैठो। आज मैं यहीं हूँ।"

"मियाँ, पिछली बार आपके मुहल्ले का ही जुलूस था जिसने आग लगाई थी।"

"मुआफ़ी चाहता हूँ पण्डित जी, तब मैं यहाँ था नहीं, इसीलिये ऐसा हो सका। अब मैं वापस आ गया हूँ, सब ठीक कर दूँगा।"

"अजी आपके होने से क्या फ़र्क पड़ेगा? कहीं आपकी भी इज़्ज़त न उतार दें मेरे साथ।"

"उतारने दीजिये न, वो मेरी ज़िम्मेदारी है! लेकिन आप दुकान बन्द नहीं करेंगे आज।"

"शर्मिन्दा न करें, आपकी बात काटना नहीं चाहता हूँ, पर मैं रुक नहीं सकता ... जान-माल का सवाल है।"

"पर-वर कुछ नहीं। आज मैं यहीं बैठकर चाय पियूँगा। जुलूस गुज़र जाने तक यहीं बैठूंगा। देखता हूँ कौन तुर्रम खाँ आगे आता है।"

"क्यों अपने आप को कठिनाई में डाल रहे हो मियाँ? इतने समय के बाद मिले हो। मेरे साथ घर चलो, वहीं बैठकर चाय भी पियेंगे, बातें भी करेंगे। खतरा मोल मत लो। "

"न! खुदा कसम पूरा जुलूस गुज़र जाने तक मैं आज यहाँ से उठने वाला नहीं । होरी से कहकर यहीं दो चाय मंगवाओ।"

"आप समझ नहीं रहे हैं मियाँ, अब पहले वाली बात नहीं रही। आज की पीढ़ी हम बुज़ुर्गों की भावनाएँ नहीं समझती। हम जैसों को ये अपना दुश्मन मानते हैं।"

"आप यक़ीन कीजिये, इन लौंडे-लपाड़ों में किसी की मज़ाल नहीं जो मेरे सामने खड़ा हो जाये। आज जुलूस उठने से पहले सही-ग़लत सब समझा के आया हूँ मैं।"

"जैसी आपकी मर्ज़ी मियाँ! होरी, जा मुल्ला जी के लिये एक स्पेशल चाय बना ला फ़टाफ़ट!"

"एक नहीं, दो!"

"अरे मैं अभी चाय पी नहीं पाऊंगा, मौत के मुँह में बैठा हूँ।"

"वो परवरदिग़ार सबकी हिफ़ाज़त करता है। जब तक मैं यहाँ हूँ, आप बेफ़िक्र होकर बैठिए।"

"बेफ़िकर? ज़रा पलट के देखिये! आ गये हुड़दंगी। शीशे तोड़ रहे हैं। ताजिये दिखने से पहले तो जलाई हुई दुकानों का धुआँ दिखने लगा है।"

"या खुदा! ये कैसे हो गया? चलने से पहले मैने सबको समझाया था, क़ौमी एकता पर एक लम्बी तकरीर दी थी।"

"बस ऐसे ही होता है आजकल। एक कान से सुनकर दूसरे से निकालते हैं। अब मेरी जान और दुकान आपके हवाले है।"

"ज़ाकिर!, हनीफ़! क्या हो रहा है ये सब? क्या बात तय हुई थी जुलूस उठने से पहले?"

"अरे आप यहाँ? सब खैरियत तो है?"

"मुझे क्या हुआ? थोड़ा तेज़ चलकर पण्डितजी से मिलने आ गया था।"

"शहर का माहौल इतना खराब है। आपको ऐसे बिना-बताये ग़ायब नहीं होना चाहिये था।"

"बेटा, ये पण्डित रामगोपाल हैं, मेरे लिये सगे भाई से भी बढ़कर हैं।"

"वो तो ठीक है। लेकिन आपको ग़ायब देखके वहाँ तो ये उड़ गयी कि हिन्दुओं ने आपको अगवा कर लिया है ... हमने बहुत रोका. मगर जवान खून है, बेक़ाबू हो गया। हम भी क्या करते? किस-किस को समझाते?"

Monday, April 4, 2011

नव सम्वत्सर शुभ हो!

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कमाल का राष्ट्र है अपना भारत। ब्राह्मी से नागरी तक की यात्रा में पैशाची आदि न जाने कितनी ही लिपियाँ लुप्त हो गयीं। आश्चर्य नहीं कि आज भारतभूमि तो क्या विश्व भर में कोई विद्वान सिन्धु-सरस्वती सभ्यता की मुहरों को निर्कूट नहीं कर सके हैं। हडप्पा की लिपि तो बहुत दूर (कुछ सहस्र वर्ष) की बात है, एक महीना पहले जब विष्णु बैरागी जी ने "यह कौन सी भाषा है" पूछा था तो ब्लॉग-जगत की विद्वत्परिषद बगलें झांक रही थी। जबकि वह भाषा आज भी प्रचलित है और वह लिपि भी 40 वर्ष पहले तक प्रचलित थी।

आज भले ही हम गले तक आलस्य, लोभ और भ्रष्टाचार में डूबे पड़े हों, एक समय ऐसा था कि हमारे विचारक मानव-मात्र के जीवन को बेहतर बनाने में जुटे हुए थे। लम्बे अध्ययन और प्रयोगों के बाद भारतीय विद्वानों ने ऐसी दशाधारित अंक पद्धति की खोज की जो आज तक सारे विश्व में चल रही है। भले ही अरबी फारसी आज भी दायें से बायें लिखी जाती हों, परंतु अंक वहाँ भी हमारे ही हैं, हमारे ही तरीके से लिखे जाते हैं, और हिंदसे कहलाते हैं।

जब धरा के दूसरे भागों में लोग नाक पोंछना भी नहीं जानते थे भारत में नई-नई लिपियाँ जन्म ले रही थीं, और कमी पाने पर सुधारी भी जा रही थीं। निश्चित है कि उनमें से अनेकों अस्थाई थीं और शीघ्र ही काल के गाल में समाने वाली थीं। आश्चर्य की बात यह है कि नई और बेहतर लिपियाँ आने के बाद भी अनेकों पुरानी लिपियाँ आज भी चल रही हैं, भले ही उनके क्षेत्र सीमित हो गये हों।

भारत की यह विविधता केवल लेखन-क्रांति में ही दृष्टिगोचर होती हो, ऐसा नहीं है, कालगणना के क्षेत्र में भी हम लाजवाब हैं। लिपियों की तरह ही कालचक्र पर भी प्राचीन भारत में बहुत काम हुआ है। जितने पंचांग, पंजिका, कलैंडर, नववर्ष आपको अकेले भारत में मिल जायेंगे, उतने शायद बाकी विश्व को मिलाकर भी न हों। भाई साहब ने भारतीय/हिन्दू नववर्ष की शुभकामना दी तो मुझे याद आया कि अभी दीवाली पर ही तो उन्होंने ग्रिगेरियन कलैंडर को धकिया कर हमें "साल मुबारक" कहा था।

आज आरम्भ होने वाला विक्रमी सम्वत नेपाल का राष्ट्रीय सम्वत है। वैसे ही जैसे "शक शालिवाहन" भारत का राष्ट्रीय सम्वत है। वैसे तमिलनाडु के हिन्दू अपना नया साल सौर पंचांग के हिसाब से तमिल पुत्तण्डु, विशु पुण्यकालम के रूप में या थईपुसम के दिन मनाते हैं। इसी प्रकार जैन सम्वत्सर दीपावली को आरम्भ होती है। सिख समुदाय परम्परागत रूप से विक्रम सम्वत को मानते थे परंतु अब वे सम्मिलित पर्वों के अतिरिक्त अन्य सभी दैनन्दिन प्रयोग के लिये कैनैडा में निर्मित नानकशाही कलैंडर को मानते हैं। युगादि का महत्व अन्य सभी नववर्षों से अधिक इसलिये माना जाता है क्योंकि आज ही के दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि-सृजन किया था, ऐसी मान्यता है।

आज का दिन देश के विभिन्न भागों में गुडी पडवो, युगादि, उगादि, चेइराओबा (चाही होउबा), चैत्रादि, चेती-चाँद, बोहाग बिहू, नव संवत्सर आदि के नाम से जाना जाता है। यद्यपि उत्सव का दिन प्रचलित सम्वत और उसके आधार (सूर्य या चन्द्रमा या दोनों) पर इधर-उधर हो जाता है। भारत और नेपाल में शक और विक्रमी सम्वत के अतिरिक्त कई पंचांग प्रचलित हैं। आज के दिन पंचांग और वर्षफल सुनने का परम्परागत महत्व रहा है। मुझे तो आज सुबह अमृतवेला में काम पर निकलना था वर्ना हमारे घर में आज के दिन विभिन्न रसों को मिलाकर बनाई गई "युगादि पच्चड़ी" खाने की परम्परा है।
हर भारतीय संवत्सर का एक नाम होता है और उस कालक्षेत्र का एक-एक राजा और मंत्री भी। संवत्सर के पहले दिन पड़ने वाले वार का देवता/नक्षत्र संवत्सर का राजा होता है और वैसाखी के दिन पड़ने वाले वार का देवता/नक्षत्र मंत्री होता है।
यही नव वर्ष गुजरात के अधिकांश क्षेत्रों में दीपावली के अगले दिन बलि प्रतिपदा (कार्तिकादि) के दिन आरम्भ होगा। जबकि काठियावाड के कुछ क्षेत्रों में आषाढादि नववर्ष भी होगा। सौर वर्ष का नव वर्ष वैशाख संक्रांति (बैसाखी) के अनुसार मनाया जाता है और यह 14 अप्रैल 2011 को होगा। नव वर्ष का यह वैसाख संक्रांति उत्सव उत्तराखंड में बिखोती, बंगाल में पोइला बैसाख, पंजाब में बैसाखी, उडीसा में विशुवा संक्रांति, केरल में विशु, असम में बिहु और तमिलनाडु में थइ पुसम के नाम से मनाया जाता है। श्रीलंका, जावा, सुमात्रा तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों कम्बोडिआ, लाओस, थाईलैंड में भी संक्रांति को नववर्ष का उल्लास रहता है। वहाँ यह पारम्परिक नव वर्ष सोंग्रन या सोंक्रान के नाम से आरम्भ होगा।        

भारतीय सम्वत्सर साठ वर्ष के चक्र में बन्धे हैं और इस तरह विक्रम सम्वत के हर नये वर्ष का अपना एक ऐसा नाम होता है जो कि साठ वर्ष बाद ही दोहराया जाता है। साठ वर्ष का चक्र ब्रह्मा,विष्णु और महेश देवताओं के नाम से तीन बीस-वर्षीय विभागों में बंटा है। दक्षिण भारत (तेलुगु/कन्नड/तमिल) वर्ष के हिसाब से इस संवत का नाम खर है। जबकि आज आरम्भ होने वाला विक्रम सम्वत्सर उत्तर भारत में "क्रोधी" नाम है। (उत्तर भारत के विक्रम संवतसर के नाम के लिये अमित शर्मा जी का धन्यवाद)

अनंतकाल से अब तक बने पंचांगों के विकास में विश्व के श्रेष्ठतम मनीषियों की बुद्धि लगी है। युगादि उत्सव अवश्य मनाइये परंतु साथ ही यदि अन्य भारतीय (सम्भव हो तो विदेशी भी) मनीषियों द्वारा मानवता के उत्थान में लगाये गये श्रम को पूर्ण आदर दे सकें तो हम सच्चे भारतीय बन सकेंगे। अपना वर्ष हर्षोल्लास से मनाइये परंतु कृपया दूसरे उत्सवों की हेठी न कीजिये।

आप सभी को सप्तर्षि 5087, कलयुग 5113, शक शालिवाहन 1933, विक्रमी 2068 क्रोधी/खरनामसंवत्सर की मंगलकामनायें!

साठ संवत्सर नाम

१. प्रभव
२. विभव
३. शुक्ल
४. प्रमुदित
५. प्रजापति
६. अग्निरस
७. श्रीमुख
८. भव
९. युवा
१०. धाता
११. ईश्वर
१२. बहुधान्य
१३. प्रमादी
१४. विक्रम
१५. विशु
१६. चित्रभानु
१७. स्वभानु
१८. तारण
१९. पार्थिव
२०. व्यय

२१. सर्वजित
२२. सर्वधर
२३. विरोधी
२४. विकृत
२५. खर
२६. नंदन
२७. विजय
२८. जय
२९. मन्मत्थ
३०. दुर्मुख
३१. हेवलम्बी
३२. विलम्ब
३३. विकारी
३४. सर्वरी
३५. प्लव
३६. शुभकृत
३७. शोभन
३८. क्रोधी
३९. विश्ववसु
४०. प्रभव

४१. प्लवंग
४२. कीलक
४३. सौम्य
४४. साधारण
४५. विरोधिकृत
४६. परिद्व
४७. प्रमादिच
४८. आनंद
४९. राक्षस
५०. अनल
५१. पिंगल
५२. कलायुक्त
५३. सिद्धार्थी
५४. रौद्र
५५. दुर्मथ
५६. दुन्दुभी
५७.रुधिरोदगारी
५८.रक्ताक्षी
५९. क्रोधन
६०. अक्षय
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सम्बन्धित कडियाँ
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* भारतीय काल गणना
* वर्ष और संवत्सर
* खरनाम सम्वत्सर पंचांग ऑनलाइन
* राष्ट्रीय नववर्ष - श्री शालिवाहन शक सम्वत 1933

Friday, October 16, 2009

तमसो मा ज्योतिर्गमय [इस्पात नगरी से - १८]

अमेरिकी राष्ट्रपति के निवास व्हाइट हाउस में कल एक ऐतिहासिक घटना हुई। बराक ओबामा ने भारतीय और एशियाई मूल के लोगों के बीच एक दिया जलाकर राष्ट्रपति निवास के पूर्वी कक्ष में ज्योति-उत्सव दीवाली मनायी। साथ ही उन्होंने अन्धकार पर प्रकाश और अज्ञान पर ज्ञान की विजय के प्रतीक दीपावली के लिए हिंदू, सिख, जैन एवं बौद्ध समुदाय के लोगों एवं अन्य सभी को सभी को विशेष रूप से बधाई दी।

कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति भवन में आधिकारिक रूप से दीवाली मनाने वाले वे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं मगर मुझे याद पड़ रहा है कि बुश परिवार ने भी हर साल दीवाली मनाई थी और उसकी शुभकामनाएं दी थीं भले ही वह समारोह आम रूटीन की तरह रहे हों।

इस अवसर पर शिव विष्णु मन्दिर के पुजारी नारायण आचार्य दिगालाकोटे ने शान्ति वचन कहे और पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय के भारतीय छात्रों के अ-कापेला (a cappella = वाद्य यंत्रों के बिना मुँह से उनकी आवाज़ बनाने वाले) दल "पेन मसाला" ने एक गीत भी प्रस्तुत किया। आइये देखते हैं समारोह की एक झलकी यूट्यूब पर व्हाइट हाउस के सौजन्य से:


Happy Diwali! आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं!
तमसो मा ज्योतिर्गमय...