जैसे ऋषि-मुनियों का ज़माना पुण्य करने का था वैसे आजकल का ज़माना आहत होने का है। ठेस आजकल ऐसे लगती है जैसे हमारे जमाने में दिसंबर में ठंड और जून में गर्मी लगती थी। अखबार उठाओ तो कोई न कोई आहत पड़ा है। रेडियो पर खबर सुनो तो वहाँ आहत होने की गंध बिखरी पड़ी है। टेलीविज़न ऑन करो तो वहाँ तो हर तरफ आहत लोग लाइन लगाकर खड़े हैं।मिच्छामि दुक्खड़म (मिथ्या मे दुष्कृतम)
ये सब आहत टाइप के, सताये गए, असंतुष्ट प्राणी संसार के आत्मसंतुष्ट वर्ग से खासतौर से नाराज़ लगते हैं। कोई इसलिए आहत है कि जिस दिन उसका रोज़ा था उस दिन मैंने अपने घर में अपने लिए चाय क्यों बनाई। कोई इसलिए आहत है कि जब आतंकी हत्यारे के मजहब या विचारधारा के अनुसार सारे पाप जायज़ थे तो उसे क्षमादान देने के उद्देश्य से कानून में ज़रूरी बदलाव क्यों नहीं दिया गया। कोई किसी के कविता लिखने से आहत है, कोई कार्टून बनाने से, तो कोई बयान देने से। किसी को किसी की किताब प्रतिबंधित करानी है तो कोई किताब के अपमान से आहत है।
भारत से निरामिष ब्लॉग पर अब न आने वाले एक भाई साहब तो इसी बात से आहत थे कि ये पशुप्रेमी लोग मांसाहार क्यों नहीं करते। अमेरिका में कई लोग इस बात पर आहत हैं कि हर मास-किलिंग के बाद बंदूक जैसी आवश्यकता को कार जैसी अनावश्यक विलासिता की तरह नियमबद्ध करने की बात क्यों उठती है। जहाँ, धर्मातमा किस्म के लोग विधर्मियों और अधर्मियों से आहत हैं वहीं व्यवस्थाहीन देशों में आतंक और मानव तस्करी जैसे धंधे चलाने वाले गैंग, धर्मपालकों से आहत हैं क्योंकि धर्म के बचे रहते उनकी दूकानदारी वैसे ही आहत हो जाती है, जैसे जैनमुनियों के अहिंसक आचरण से किसी कसाई का धंधा।
चित्र इन्टरनेट से साभार, मूल स्रोत अज्ञात |
न जाने कब से ठेस लगने-लगाने पर बात करना चाहता था लेकिन संशय यही था कि इससे भी किसी न किसी की भावना आहत न हो जाये। लेकिन आज तो पर्युषण पर्व का आरंभ है सो ठोस-अठोस सभी ठेसाकुल सज्जनों, सज्जनियों से क्षमा मांगने के इस शुभ अवसर का लाभ उठाते हुए इस आलेख को हमारी ओर से हमारे सभी आहतों के प्रति आधिकारिक क्षमायाचना माना जाय। हमारी इस क्षमा से आपके ठेसित होते रहने के अधिकार पर कोई आंच नहीं आएगी।
शुभकामनाएँ!
अपराधसहस्त्राणि क्रियन्ते अहर्निशं मया। दासोयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योहं तव दर्शनात्।।
* संबन्धित कड़ियाँ *
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एक ठोस ठेस पहुंचाई आपने कईयों को... :)
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औंधे घड़े पर कितना भी पानी डालें लुढ़कता चला जाएगा -आप किनकी बात कर रहे हैं !
ReplyDeleteलोग ऐसे ही ठेस की ठसाक़त ठोकते है, स्वपर समान ठेस संवेदनाओं वालों को उलट ठेस नहीं लगती।
ReplyDeleteनुकीली ठेस! मधु-व्यंग और मधु-हास की शैली है यह। ठेसित रहने वाले ये नहीं समझते। और समझते भी हों तो यथास्थिति के मारे, बेचारे अपनी धुन में रहने के मदमस्त।
ReplyDeleteवाह बहुत अच्छे क्या पता हमें भी कुछ अक्ल आ जाये अब :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (01-09-2014) को "भूल गए" (चर्चा अंक:1723) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद शास्त्री जी।
Deleteजाने अनजाने ऐसा होता ही है .... शुभकामनायें
ReplyDeleteवाह ! आहत होने के कितने नायाब नुस्खे गिना दिए आपने...पर्युषण पर्व की शुभकामनायें
ReplyDeleteमजे की बात यह है कि आहत करने वाले स्वयं को भी आहत होने वाले की किसी न किसी बात से आहत महसूस करते हैं ।जैसे शनिवार को टी वी में एक सन्यासी के बयान से कुछ लोग आहत हैं, जबकि सन्यासी के अनुसार वह आहत होने वालों के कृत्य से स्वयं आहत है ।
ReplyDeleteआहत रहने में बहुत राहत है. यदि हम आहत नहीं होंगे तो हम पर तो किसी की दृष्टि ही नहीं पड़ेगी. यदि किसी भले मानुष से आहत हुए तो बेचारा सौरी भी कह देगा, जो आहत होने के केक पर आइसिंग का काम भी करेगा.
ReplyDeleteअति आहत,
घुघूती बासूती
शुभ अवसर का लाभ उठाते हुए एक बढ़िया आलेख :)
ReplyDeleteठेस लगा दी आपने बहुत !
ReplyDeleteमगर कोई बात नहीं ! अभी क्षमा मांगने का समय काफी है !
नुकीली ठेस लगाती पोस्ट !
ठेस ठोस ही होना चाहिए अगर सही बात और सही दृष्टिकोण के लिए है ... खुश तो हर किसी को हर कोई कर ही नहीं सकता ... भगवान् स्वयं भी नहीं कर सके थे ...
ReplyDeleteमेरी टिप्पणी खो गई :(
ReplyDeleteमेरी भी :(
DeleteVery Nice Post...
ReplyDeleteअच्छा लेख
ReplyDelete"आहत होने और आहत करने में न मानसिक परिपक्वता है, मानवता, और न ही बुद्धिमता।"
ReplyDeleteSo true!
बढ़िया आलेख :)
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