Saturday, August 30, 2014

ठेसियत की ठोसियत

मिच्छामि दुक्खड़म
जैसे ऋषि-मुनियों का ज़माना पुण्य करने का था वैसे आजकल का ज़माना आहत होने का है। ठेस आजकल ऐसे लगती है जैसे हमारे जमाने में दिसंबर में ठंड और जून में गर्मी लगती थी। अखबार उठाओ तो कोई न कोई आहत पड़ा है। रेडियो पर खबर सुनो तो वहाँ आहत होने की गंध बिखरी पड़ी है। टेलीविज़न ऑन करो तो वहाँ तो हर तरफ आहत लोग लाइन लगाकर खड़े हैं।

ये सब आहत टाइप के, सताये गए, असंतुष्ट प्राणी संसार के आत्मसंतुष्ट वर्ग से खासतौर से नाराज़ लगते हैं। कोई इसलिए आहत है कि जिस दिन उसका रोज़ा था उस दिन मैंने अपने घर में अपने लिए चाय क्यों बनाई। कोई इसलिए आहत है कि जब आतंकी हत्यारे के मजहब या विचारधारा के अनुसार सारे पाप जायज़ थे तो उसे क्षमादान देने के उद्देश्य से कानून में ज़रूरी बदलाव क्यों नहीं दिया गया। कोई किसी के कविता लिखने से आहत है, कोई कार्टून बनाने से, तो कोई बयान देने से। किसी को किसी की किताब प्रतिबंधित करानी है तो कोई किताब के अपमान से आहत है।

भारत से निरामिष ब्लॉग पर अब न आने वाले एक भाई साहब तो इसी बात से आहत थे कि ये पशुप्रेमी लोग मांसाहार क्यों नहीं करते। अमेरिका में कई लोग इस बात पर आहत हैं कि हर मास किलिंग के बाद बंदूक जैसी आवश्यकता को कार जैसी अनावश्यक विलासिता की तरह नियमबद्ध करने की बात क्यों उठती है। जहाँ, धर्मातमा किस्म के लोग विधर्मियों और अधर्मियों से आहत हैं वहीं व्यवस्थाहीन देशों में आतंक और मानव तस्करी जैसे धंधे चलाने वाले गैंग, धर्मपालकों से आहत हैं क्योंकि धर्म के बचे रहते उनकी दूकानदारी वैसे ही आहत हो जाती है, जैसे जैनमुनियों के अहिंसक आचरण से किसी कसाई का धंधा।  

चित्र इन्टरनेट से साभार, मूल स्रोत अज्ञात
गरज यह है कि आप कुछ भी करें, कहीं भी करें, किसी न किसी की भावना को ठेस पहुँचने ही वाली है। लेकिन क्या कभी कोई इस ठेसियत की ठोसियत की बात भी करेगा? किसी को लगी ठेस के पीछे कोई ठोस कारण है भी या केवल भावनात्मक अपरिपक्वता है। आहत होने और आहत करने में न मानसिक परिपक्वता है, न मानवता, और न ही बुद्धिमता। आयु, अनुभव और मानसिक परिपक्वता बढ़ने के साथ-साथ हमारे विवेक का भी विकास होना चाहिए। ताकि हम तेरा-मेरा के बजाय सही-गलत के आधार पर निर्णय लें और फिजूल में आहत होने और आहत करने से बचें। कभी सोचा है कि सदा दूसरों को चोट देते रहने वाले भी खुद को ठेस लगाने के शिकवे के नीचे क्यों दबे रहते हैं? क्या रात की शिकायत के चलते सूर्योदय प्रतिबंधित किया जाना चाहिए? साथ ही यह भी याद रहे कि भावनाओं का ख्याल रखने जैसे व्यावहारिक सत्कर्म की आशा उनसे होती है जिन्हें समझदार समझा जाता है। और समझदार अक्सर निराश नहीं करते हैं। आग लगाने, भावनाएं भड़काने, आहत रहने या करने के लिए समझ की कमी एक अनिवार्य तत्व जैसा ही है

न जाने कब से ठेस लगने-लगाने पर बात करना चाहता था लेकिन संशय यही था कि इससे भी किसी न किसी की भावना आहत न हो जाये। लेकिन आज तो पर्युषण पर्व का आरंभ है सो ठोस-अठोस सभी ठेसाकुल सज्जनों, सज्जनियों से क्षमा मांगने के इस शुभ अवसर का लाभ उठाते हुए इस आलेख को हमारी ओर से हमारे सभी आहतों के प्रति आधिकारिक क्षमायाचना माना जाय। हमारी इस क्षमा से आपके ठेसित होते रहने के अधिकार पर कोई आंच नहीं आएगी।
शुभकामनाएँ!
अपराधसहस्त्राणि क्रियन्ते अहर्निशं मया। दासोयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योहं तव दर्शनात्।।
* संबन्धित कड़ियाँ * 

20 comments:

  1. .
    .
    .
    एक ठोस ठेस पहुंचाई आपने कईयों को... :)


    ...

    ReplyDelete
  2. औंधे घड़े पर कितना भी पानी डालें लुढ़कता चला जाएगा -आप किनकी बात कर रहे हैं !

    ReplyDelete
  3. लोग ऐसे ही ठेस की ठसाक़त ठोकते है, स्वपर समान ठेस संवेदनाओं वालों को उलट ठेस नहीं लगती।

    ReplyDelete
  4. नुकीली ठेस! मधु-व्यंग और मधु-हास की शैली है यह। ठेसित रहने वाले ये नहीं समझते। और समझते भी हों तो यथास्थिति के मारे, बेचारे अपनी धुन में रहने के मदमस्त।

    ReplyDelete
  5. वाह बहुत अच्छे क्या पता हमें भी कुछ अक्ल आ जाये अब :)

    ReplyDelete
  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (01-09-2014) को "भूल गए" (चर्चा अंक:1723) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद शास्त्री जी।

      Delete
  7. जाने अनजाने ऐसा होता ही है .... शुभकामनायें

    ReplyDelete
  8. वाह ! आहत होने के कितने नायाब नुस्खे गिना दिए आपने...पर्युषण पर्व की शुभकामनायें

    ReplyDelete
  9. मजे की बात यह है कि आहत करने वाले स्वयं को भी आहत होने वाले की किसी न किसी बात से आहत महसूस करते हैं ।जैसे शनिवार को टी वी में एक सन्यासी के बयान से कुछ लोग आहत हैं, जबकि सन्यासी के अनुसार वह आहत होने वालों के कृत्य से स्वयं आहत है ।

    ReplyDelete
  10. आहत रहने में बहुत राहत है. यदि हम आहत नहीं होंगे तो हम पर तो किसी की दृष्टि ही नहीं पड़ेगी. यदि किसी भले मानुष से आहत हुए तो बेचारा सौरी भी कह देगा, जो आहत होने के केक पर आइसिंग का काम भी करेगा.
    अति आहत,
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  11. शुभ अवसर का लाभ उठाते हुए एक बढ़िया आलेख :)

    ReplyDelete
  12. ठेस लगा दी आपने बहुत !
    मगर कोई बात नहीं ! अभी क्षमा मांगने का समय काफी है !
    नुकीली ठेस लगाती पोस्ट !

    ReplyDelete
  13. ठेस ठोस ही होना चाहिए अगर सही बात और सही दृष्टिकोण के लिए है ... खुश तो हर किसी को हर कोई कर ही नहीं सकता ... भगवान् स्वयं भी नहीं कर सके थे ...

    ReplyDelete
  14. "आहत होने और आहत करने में न मानसिक परिपक्वता है, मानवता, और न ही बुद्धिमता।"

    So true!

    ReplyDelete

मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।