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Saturday, August 30, 2014

ठेसियत की ठोसियत

मिच्छामि दुक्खड़म (मिथ्या मे दुष्कृतम)
जैसे ऋषि-मुनियों का ज़माना पुण्य करने का था वैसे आजकल का ज़माना आहत होने का है। ठेस आजकल ऐसे लगती है जैसे हमारे जमाने में दिसंबर में ठंड और जून में गर्मी लगती थी। अखबार उठाओ तो कोई न कोई आहत पड़ा है। रेडियो पर खबर सुनो तो वहाँ आहत होने की गंध बिखरी पड़ी है। टेलीविज़न ऑन करो तो वहाँ तो हर तरफ आहत लोग लाइन लगाकर खड़े हैं।

ये सब आहत टाइप के, सताये गए, असंतुष्ट प्राणी संसार के आत्मसंतुष्ट वर्ग से खासतौर से नाराज़ लगते हैं। कोई इसलिए आहत है कि जिस दिन उसका रोज़ा था उस दिन मैंने अपने घर में अपने लिए चाय क्यों बनाई। कोई इसलिए आहत है कि जब आतंकी हत्यारे के मजहब या विचारधारा के अनुसार सारे पाप जायज़ थे तो उसे क्षमादान देने के उद्देश्य से कानून में ज़रूरी बदलाव क्यों नहीं दिया गया। कोई किसी के कविता लिखने से आहत है, कोई कार्टून बनाने से, तो कोई बयान देने से। किसी को किसी की किताब प्रतिबंधित करानी है तो कोई किताब के अपमान से आहत है।

भारत से निरामिष ब्लॉग पर अब न आने वाले एक भाई साहब तो इसी बात से आहत थे कि ये पशुप्रेमी लोग मांसाहार क्यों नहीं करते। अमेरिका में कई लोग इस बात पर आहत हैं कि हर मास-किलिंग के बाद बंदूक जैसी आवश्यकता को कार जैसी अनावश्यक विलासिता की तरह नियमबद्ध करने की बात क्यों उठती है। जहाँ, धर्मातमा किस्म के लोग विधर्मियों और अधर्मियों से आहत हैं वहीं व्यवस्थाहीन देशों में आतंक और मानव तस्करी जैसे धंधे चलाने वाले गैंग, धर्मपालकों से आहत हैं क्योंकि धर्म के बचे रहते उनकी दूकानदारी वैसे ही आहत हो जाती है, जैसे जैनमुनियों के अहिंसक आचरण से किसी कसाई का धंधा।  

चित्र इन्टरनेट से साभार, मूल स्रोत अज्ञात
गरज यह है कि आप कुछ भी करें, कहीं भी करें, किसी न किसी की भावना को ठेस पहुँचने ही वाली है। लेकिन क्या कभी कोई इस ठेसियत की ठोसियत की बात भी करेगा? किसी को लगी ठेस के पीछे कोई ठोस कारण है भी या केवल भावनात्मक अपरिपक्वता है। आहत होने और आहत करने में न मानसिक परिपक्वता है, न मानवता, और न ही बुद्धिमता। आयु, अनुभव और मानसिक परिपक्वता बढ़ने के साथ-साथ हमारे विवेक का भी विकास होना चाहिए। ताकि हम तेरा-मेरा के बजाय सही-गलत के आधार पर निर्णय लें और फिजूल में आहत होने और आहत करने से बचें। कभी सोचा है कि सदा दूसरों को चोट देते रहने वाले भी खुद को ठेस लगाने के शिकवे के नीचे क्यों दबे रहते हैं? क्या रात की शिकायत के चलते सूर्योदय प्रतिबंधित किया जाना चाहिए? साथ ही यह भी याद रहे कि भावनाओं का ख्याल रखने जैसे व्यावहारिक सत्कर्म की आशा उनसे होती है जिन्हें समझदार समझा जाता है। और समझदार अक्सर निराश नहीं करते हैं। आग लगाने, भावनाएं भड़काने, आहत रहने या करने के लिए समझ की कमी एक अनिवार्य तत्व जैसा ही है

न जाने कब से ठेस लगने-लगाने पर बात करना चाहता था लेकिन संशय यही था कि इससे भी किसी न किसी की भावना आहत न हो जाये। लेकिन आज तो पर्युषण पर्व का आरंभ है सो ठोस-अठोस सभी ठेसाकुल सज्जनों, सज्जनियों से क्षमा मांगने के इस शुभ अवसर का लाभ उठाते हुए इस आलेख को हमारी ओर से हमारे सभी आहतों के प्रति आधिकारिक क्षमायाचना माना जाय। हमारी इस क्षमा से आपके ठेसित होते रहने के अधिकार पर कोई आंच नहीं आएगी।
शुभकामनाएँ!
अपराधसहस्त्राणि क्रियन्ते अहर्निशं मया। दासोयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योहं तव दर्शनात्।।
* संबन्धित कड़ियाँ * 

Wednesday, May 29, 2013

दूरभाष वार्ता मुखौटों से

चेहरे पर चेहरा

- ट्रिङ्ग ट्रिङ्ग 

- हॅलो?

- नमस्ते जी!

- नमस्ते की ऐसी-तैसी! बात करने की तमीज़ है कि नहीं?

- जी?

- फोन करते समय इतना तो सोचना चाहिए कि भोजन का समय है

- क्षमा कीजिये, मुझे पता नहीं था

- पता को मारिए गोली। पता तो चले कि आप हैं कौन?

- जी ... मैं ... अमर अकबर एंथनी, ट्रिपल ए डॉट कॉम लिटरेरी ग्रुप से ...

- ओह, सॉरी जी, आपने तो हमें पुरस्कृत किया था ... हैलो! आप पहले बता देते, तो कोई ग़लतफ़हमी नहीं होती,  हे हे हे!

- जी, वो मैं ... आपके तेवर देखकर ज़रा घबरा गया था

- अजी, जब से आपने सम्मानित किया, अपनी तो किस्मत ही खुल गई। उस साल जब आपके समारोह गया तो वहाँ कुछ ऐसा नेटवर्क बना कि पिछले दो साल में 12 जगह से सम्मानपत्र मिल चुके हैं, दो प्रकाशक भी तैयार हो गये हैं, अभी - मैंने अग्रिम नहीं दिया है बस ...

- यह तो बड़ी खुशी की बात है। मैं यह कहना चाह रहा था कि ...

- इस साल के कार्यक्रम की सूची बन गई?

- जी, बात ऐसी है कि ...

- मेरा नाम तो इस बार और बड़े राष्ट्रीय सम्मान के लिये होगा न? इसीलिये कॉल किया न आपने?

- जी, इस बार मैं राष्ट्रीय पुरस्कार समिति में नहीं हूँ ...

- ठीक तो है, आप इस लायक हैं ही नहीं ...

- जी?

- रत्ती भर तमीज़ तो है नहीं, भद्रजनों को लंच के समय डिस्टर्ब करते हैं आप?

- लेकिन मैंने तो क्षमा मांगी थी

- मांगना छोड़िए, अब थोड़ा शिष्टाचार सीखिये

- हैलो, हैलो!

- कट, कट!

- लगता है कट गया। बता ही नहीं पाया कि इस बार मैं अंतरराष्ट्रीय सम्मान समिति (अमेरिका) का जज हूँ। अच्छा हुआ इनका नखरीलापन पहले ही दिख गया। अब किसी सुयोग्य पात्र को सम्मानित कर देंगे।

Friday, March 8, 2013

या देवी सर्वभूतेषु ...

मातृभूमि और मातृभाषा से जुड़े रहने के उद्देश्य से केबल का भारतीय पैकेज लिया हुआ था। जो चैनल, जब खोलो तब या तो सास, ननद बहू एक दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र रचती नज़र आती थीं या कोई पीर, तांत्रिक, बाबा अपनी जादुई कृपा बरसाते दिखते थे। ज़ी के अंतर्राष्ट्रीय संस्करण पर तो हिन्दी समाचारों का भी चुनाव, प्रस्तुति, वाचन, भाषा आदि हर स्तर पर इतना बुरा हाल था कि हर समाचार कार्यक्रम के बाद रक्त का दवाब शायद बढ़ ही जाता होगा। अब ढलती उम्र में स्वास्थ्य का ध्यान रखना भी ज़रूरी है, सो न चाहते हुए भी इन अति-निम्न-स्तरीय चैनलों का पत्ता काटना ही पड़ा।

लेकिन टीवी बंद कर देने भर से दुर्घटनाएँ तो नहीं रुकतीं। समाचार बंद नहीं होते। दूसरा पक्ष यह भी है कि समाचार का मतलब मीडिया और सोशल मीडिया के परोसे विज्ञापन भर भी नहीं होता। समाचारों के व्यवसायीकरण के बाद जिन विषयों में आपकी रुचि है, जो घटना आपको उद्वेलित करती है उसके बारे में आपको पता ही नहीं लगता है जब तक कि समाचार-व्यवसायियों के लिए उस घटना की कोई बाजारू-कीमत (मार्केट वैल्यू) न हो।

न जाने कितनी ही खबरें हमारे पास आने से पहले ही अंग्रेज़ीनुमा हिन्दी में आँय-बाँय कहने वाले टीवी समाचार-निर्माताओं के पेपरवेट तले दाब दी जाती हैं। आज महिला दिवस पर इनमें से कुछ खबरों का संघर्ष स्वाभाविक है ताकि हम साल में कम से कम एक दिन यह सोचें कि हमारा देश, हमारा समाज जा किधर रहा है।

एक जोड़ा पर और असीमित आकाश
दिसंबर में दिल्ली में हुए बलात्कार और हत्याकांड ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था लेकिन देश की नारियां रोज़ ही अनेक कठिनाइयों से गुजरती हैं। कुछ तो बहादुरी से मुक़ाबला करते जान दे देती हैं, कुछ जीती हैं इस उम्मीद में कि कल आज से बेहतर होगा और कुछ ऐसे टूटती हैं कि अपनी जान खुद ही दे देती हैं। कौन बनेगा करोड़पति में आ चुकीं झारखंड की सोनाली को मुहल्ले के गुंडों की अनुचित हरकतों का विरोध करने की कीमत तेज़ाब से अपना चेहरा और दृष्टि खोकर चुकानी पड़ी थी। मामला स्पष्ट था फिर भी उनके पिता को अपना पक्ष रखने के लिए अनगिनत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। यहाँ तक कि सोनाली ने एक बार सरकार से इच्छामृत्यु की अपील भी कर डाली थी। लेकिन कई मामले सोनाली जैसे साफ नहीं होते। केरल के कुन्नूर की निवासी माँ-बेटी सुल्फजा (58) और सरीना (23) इस साल जनवरी में अजमेर स्थित ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की गर्म खौलती विशाल कढाही 'छोटी देग' में कूद गई थीं। काफी प्रयासों के बाद भी वे दोनों केवल तीन दिन तक जीवित रहीं। परिवार में एक पिता-पुत्र भी हैं जो घटनास्थल पर नहीं थे। गरीबी, और अवसाद के अलावा इस परिवार के बारे में अधिक कुछ भी पता नहीं लगा।

बेघर बच्चों की दुर्गति की खबरें तो अक्सर पढ़ने को मिलती थीं लेकिन अब घरेलू नौकरी के नाम पर लड़कियों की तस्करी और फिर महानगरों में उनका शोषण भी सामान्य होता जा रहा लग रहा है। पिछले साल अपनी तेरह वर्षीया नौकरानी को द्वारका (दिल्ली) के घर में बाहर से बंद करके विदेशयात्रा पर चले जाने वाले डॉक्टर की बात तो आपको याद होगी ही। हरियाणा में रोहतक के बहुचर्चित अपना घर मामले में सौ से अधिक बालिकाओं के संस्थागत यौन शोषण में घर की कर्ता-धर्ता जसवंती और अन्य अनेक सरकारी-असरकारी लोगों की गँठजोड़ के आसार दिखते हैं।

नेपाल से लाई गई 12 वर्षीय घरेलू नौकरानी को आठ महीने तक प्रताड़ित करने के मामले में 42 वर्षीय फिल्म अभिनेत्री हुमा खान को दिसंबर 2012 मे सजा सुनाई गई। हुमा के सहआरोपी शमीउद्दीन शेख पर उस बालिका के साथ कई बार दुराचार करने का आरोप था लेकिन सबूतों के अभाव में शमीउद्दीन बरी हो गया।

भारत में छेड़छाड़, दहेज-हत्या, प्रताड़न जैसे अपराधों के अलावा महिलाओं की खरीद-बेच भी एक गंभीर समस्या है जिसके तार अंतर्राष्ट्रीय तस्करों, जिहादियों, आतंकवादियों के गिरोहों और भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के धृष्ट गँठजोड़ के सहारे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश तक फैले हुए हैं।

लेकिन यह अमानवीयता दक्षिण एशिया तक सीमित नहीं। इस अपसंस्कृति का निर्यात भारत उपमहाद्वीप के बाहर भी हो रहा है। भारतीय नारी विदेश में भी अबला बनाई जा रही है। सन 2007 में न्यूयॉर्क की पुलिस ने सुगंध का व्यापार करने वाले भारतीय मूल के करोड़पति दंपति महेंद्र मुरलीधर सभनानी और वर्षा सभनानी को अपने घर में इंडोनेशियाई मूल की दो महिलाओं को कई सालों तक गुलामों की तरह बंदी बनाकर रखने, बेगार लेने और प्रताड़ित करने के आरोप में गिरफ्तार किया था। इन महिलाओं को बात-बेबात मारा-पीटा जाता था, कभी बार-बार ठंडे पानी से नहाने को मजबूर किया गया तो कभी बहुत-सी मिर्च फाँकने पर। इन दोनों को न तो वेतन मिलता था और न ही घर से बाहर निकलने की आज़ादी थी। एक दिन एक महिला किसी तरह भागकर फटे कपड़ों में बाहर घूमती दिखी। किसी चौकन्ने नागरिक ने गड़बड़ी भाँपकर पुलिस को सूचना दी, तब सारा मामला खुला। ये महिलाएं पर्यटक वीसा पर अमेरिका आई थीं और उनके पासपोर्ट सभानानी परिवार के कब्जे में थे।

अवैध कागजातों के जरिये ही अलबनी (न्यू यॉर्क राज्य) लाई गई वलसम्मा मथाई को एक विशाल महल के भारतीय मूल के मालिकों की रोज़ 17 घंटे तक सेवा करने के एवज में सोने के लिए एक बड़ी अलमारी मिली थी। उनके हिस्से में न छुट्टी के लिए कोई दिन था और न ही उस घर को छोड़कर जाने की आज्ञा। महल की मालकिन "ऐनी जॉर्ज" ने अदालत में अपने को बेकसूर बताते हुए कहा कि निजी हैलिकॉप्टर दुर्घटना में मरे अपने पति की गतिविधियों के बारे में उसे कुछ पता नहीं है। कोई स्वतंत्र निर्णय लेने पर पति तो उसकी पिटाई ही करता था।

हैदराबाद से अवैध रूप से लंडन ले जाई गई उस भारतीय महिला की कहानी और भी दुखद है जिसे समान परिस्थितियों में तीन परिवारों शमीनीयूसूफ़-अलीमुद्दीन, शहनाज़-एनकार्टा, शशि-बलराम ने न केवल आर्थिक-श्रम शोषण किया बल्कि उनका यौन शोषण भी होता रहा।

ऐसा भी नहीं है कि इस प्रकार के अपराधों में केवल अनिवासियों का नाम आया हो। भारत सरकार के उच्च पदों पर रहने वाले लोगों पर भी विदेशों में इस प्रकार के शोषण के आरोप लगते रहे हैं। न्यूयॉर्क में भारत के वाणिज्यदूत प्रभु दयाल का मामला भी वैसा ही है। उन पर पैंतालीस वर्षीया संतोष भारद्वाज ने रोज़ाना, हफ़्ते के सातों दिन, करीब 15 घंटों तक घर का काम करने पर मजबूर करने और न्यायिक न्यूनतम ($7.5 डॉलर प्रति घंटा) से भी कम वेतन (एक डॉलर) देने का मुक़दमा न्यूयॉर्क की संघीय अदालत में दायर किया है, जिसमें प्रभु दयाल के साथ उनकी पत्नी चांदनी औऱ बेटी अकांक्षा का नाम भी शामिल है। कम वेतन, अधिक काम के अतिरिक्त उन्हें एक छोटी सी कोठारी में ही सोना पड़ता था। सन 2011 में एक दिन जब प्रभु दयाल किसी मीटिंग में थे और उनकी पत्नी सो रही थीं, संतोष मौक़ा पाकर उनके घर से निकल भागीं और पुलिस के पास पहुँचीं। मज़े कि बात यह है कि इस मुकदमे के दौरान प्रभु दयाल के परिवार के वकील रवि बत्रा के नेतृत्व में 100 भारतीयों ने प्रभु दयाल के समर्थन में प्रदर्शन भी किया। इनका कहना था कि भारतीय समुदाय किसी भी तरह प्रभु दयाल को अकेला नहीं छोड़ सकता। संतोष भारद्वाज के पास अमरीका में रहने के लिए वैध दस्तावेज़ नहीं हैं। यदि पल भर के लिए बाकी सारी बातें झूठ मान भी ली जाएँ तो एक भारतीय राजनयिक का एक अवैध आप्रवासी को घरेलू नौकर रखना क्या दर्शाता है?

न्यूयॉर्क में ही एक अदालत ने फरवरी 2012 में भारतीय उपदूतावास की प्रेस सलाहकार नीना मल्होत्रा और उनके पति जोगेश मल्होत्रा को अपनी सेविका शांति गुरूङ्ग पर किए गए बर्बर अत्याचारों और मानसिक प्रताड़ना के लिए 15 लाख डॉलर का मुआवजा देने का आदेश दिया था। इन पति-पत्नी ने भी अपनी सेविका के कागज-पत्र अपने कब्जे में लेने के बाद उसका घर से आवागमन बंद कर दिया था और धमकाते थे कि बाहर निकलने पर उसे पुलिस से पकड़वाने, पीटने, बलात्कार करने के बाद सामान की तरह वापस हिंदुस्तान भिजवा देंगे। वीसा बनवाने के समय उन्होने 17 वर्षीय शांति से कई सारे झूठ बुलवाए थे।

इन घटनाओं की पीडिताओं को संसार के समृद्धतम देश में रहते हुए न तो कभी मानसिक प्रसन्नता का अनुभव हुआ होगा और न ही यहाँ उपलब्ध उन्नत सुविधाओं यथा चिकित्सा आदि से साबका पड़ा होगा जबकि इनके नियोक्ता (या शोषक?) पढे लिखे और शक्तिशाली धनिक थे। सारी दुनिया में महिला दिवस एक पर्व होगा, होगा उल्लास का दिन लेकिन शोषक प्रवृत्ति वाले धनाढ्यो की सताई महिलाओं के लिए साल में एक बार आने वाले इस दिन का कोई मतलब नहीं है।
"अफ़ग़ान पुरुषों को शिक्षित होने की ज़रूरत है। क्षमा कीजिये, अफ़ग़ानिस्तान के पुरूषों का आचरण अच्छा नहीं है। उन्हें और पढ़ने की ज़रूरत है।" ~ अफ़गान राजकुमारी "इंडिया"
वैसे नारी उत्थान की सारी ज़िम्मेदारी हम भारतीयों के मजबूत चौड़े कंधों पर ही नहीं सिमटी। देश के उत्तर में नेपाल, भूटान और तिब्बत के आगे एक देश चीन भी है जहां मार्क्स, माओ वगैरह के नाम पर दुनिया भर की समस्याओं को सुलझाकर समाज को एकदम बराबर कर दिये जाने के दावे किए जाते हैं। तो खबर यह है कि वहाँ की महिलाएं अपने पेट पर कपड़े आदि बांधकर गर्भवती दिखने का प्रयास कर रही हैं ताकि ट्रेन, बस आदि में उन्हें भी सीट मिलने की संभावना बने।

हर दिन पिछले दिन से बेहतर हो! आपको महिला दिवस की बधाई! 

Sunday, July 1, 2012

चुटकी भर सिन्दूर

कल इंडियन आयडल पर आशा भोसले को देखा पूरे शृंगार और आभूषणों के साथ, मन को बहुत अच्छा लगा कि इस आयु में भी किसी समारोह में जाते समय वे प्रेज़ेंटेबल होना पसन्द करती हैं। उसी बात पर गांधी और टैगोर के बीच का वह सम्वाद याद आया जब टैगोर ने मलिन होकर दूसरों के सामने जाने को हिंसा का ही एक रूप बताया था। अधिकांश व्यक्ति सुन्दर दिखना चाहते हैं। सफ़ेद बाल वाले उन्हें रंगने पर लगे हैं, झुर्रियों वाले बोटॉक्स या फेसलिफ़्ट की शरण में जा रहे हैं। प्राकृतिक रूप से या फिर कीमोथेरेपी आदि के प्रभाव से बाल गिर जाने पर लोग विग, वीविंग या केश-प्रत्यारोपण आदि अपना रहे हैं। कितने लोग तो कद बढाने के लिये अति-कष्टप्रद और खर्चीली हड्डी-तोड़ शल्यक्रिया भी करा रहे हैं। गोरेपन की क्रीम की तो बात ही क्या की जाये, उसे हम भारतीयों से बेहतर कौन पहचानता है।

भारतीय संस्कृति की विविधता उसकी परम्पराओं में झलकती है। लगभग दो दशक पहले की माधुरी पत्रिका में लता मंगेशकर का मांग भरा चित्र देखकर हिन्दी क्षेत्रों में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया था। असलियत जानने पर बहुत से लोग बगले झाँकते नज़र आये थी। गांगेय क्षेत्र में जहाँ मांग भरना सुहाग का प्रतीक बन गया है वहीं अधिकांश महाराष्ट्र में एक नन्हीं बच्ची भी शृंगार के रूप में मांग भर सकती है। रुहेलखण्ड में तो मुसलमान विवाहितायें भी सुनहरी अफ़शाँ या चन्दन से मांग भरती हैं। लेकिन दक्षिण भारतीय विवाह पद्धति में वैवाहिक स्थिति का प्रदर्शन सिन्दूर से नहीं बल्कि मंगलसूत्र से होता है। हाँ, मंगलसूत्र को कभी-कभी रोचना से अलंकृत किया जाता है।

सिन्दूर प्रसाधन है?
ठीक से पता नहीं कि भारत में सिन्दूर कब और कहाँ नारी की वैवाहिक स्थिति का प्रतीक बन गया लेकिन इतना तो हम सब को मानना पड़ेगा कि विवाह संस्कार की ही तरह कर्णछेदन, मुंडन और यज्ञोपवीत भी कभी एक बड़े समुदाय के सांस्कारिक जीवन का महत्वपूर्ण भाग रह चुके हैं। जहाँ कई माँएं स्वयं ही बढ़-चढ़कर बचपन में ही अपनी बेटियों के नाक कान छिदवा देती हैं वहीं आजकल लड़कों का कर्णछेदन - जोकि शास्त्रानुसार लड़के, लड़की सभी के लिये समान था - अव्वल तो होता ही नहीं, यदि हो भी तो कान सचमुच नहीं छेदा जाता है। इसी प्रकार पुरोहितों के अतिरिक्त आजकल शायद ही कोई पुरुष शिखाधारी दिखता हो। यज्ञोपवीत भी कम से कम उत्तर भारत से तो ग़ायब ही होता जा रहा है।


वस्त्रों की बात आने पर भी यही दिखता है कि स्त्रियाँ तो फिर भी साड़ी आदि के रूप में भारतीय परिधान को बचाकर रखे हुए हैं परंतु पुरुष न जाने कब के धोती छोड़ पजामा और फिर पतलून और जींस आदि में ऐसे लिपटे हैं कि एक औसत भारतीय मर्द को अचानक धोती बांधना पड़ जाये तो शायद वह उसे तहमद की तरह लपेट लेगा। कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी का, टाई लगाने वाले दाढी का, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।

यह सारी बातें शायद यहाँ लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ती यदि पिछले 8-10 दिनों में मेरे द्वारा पढे जाने वाले ब्लॉग्स पर शृंगार, परम्परा और व्याधि से सम्बन्धित विषयों पर तीन अलग-अलग प्रविष्टियाँ पढने को नहीं मिलतीं। अधिकांश व्यक्ति स्वयं भी सुन्दर दिखना चाहते हैं और जाने-अनजाने अपने आसपास भी सौन्दर्य देखना चाहते हैं यह समझने के लिये हमें सौन्दर्य सम्बन्धित व्यवसायों के आंकड़े देखने की ज़रूरत नहीं है। स्त्रियों को शृंगारप्रिय बताने वाले पुरुषों को भी दर्ज़ी, नाई, आदि की व्यवसायिक सेवायें लेते हुए देखा जा सकता है। उनकी उंगली में अंगूठी और गले में सोने की लड़ या हाथ में डिज़ाइनर घड़ी होना आजकल कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यदि माथे का बेना/टीका शृंगार है तब टाई को क्या कहेंगे? आखिर इस सब को किसी जेंडर विशेष या व्याधि या परम्परा से बांधा ही क्यों जाये? व्यक्तिगत विषयों को हम व्यक्तिगत निर्णयों पर क्यों नहीं छोड़ देते, खासकर तब जब हमारे देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विविधता की दीर्घकालीन परम्परा रही है।  

एक पल रुककर विचारिये, और हमारे महान राष्ट्र की महानतम परम्परा का और अपने अन्य देशवासियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आदर कीजिये, धन्यवाद!
निरामिष पर ताज़ा आलेख: भोजन में क्रूरता: 1. प्रस्तावना - फ़ोइ ग्रा
रेडियो प्लेबैक इंडिया की प्रस्तुति: बिम्ब एक प्रतिबिम्ब अनेक: शब्दों के चाक पर - 5
* सम्बन्धित कड़ियाँ * 
* लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज़
* भारतीय संस्कृति के रखवाले
* कितने सवाल हैं लाजवाब?
* ब्राह्मण कौन?
* विश्वसनीयता का संकट