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Sunday, July 1, 2012

चुटकी भर सिन्दूर

कल इंडियन आयडल पर आशा भोसले को देखा पूरे शृंगार और आभूषणों के साथ, मन को बहुत अच्छा लगा कि इस आयु में भी किसी समारोह में जाते समय वे प्रेज़ेंटेबल होना पसन्द करती हैं। उसी बात पर गांधी और टैगोर के बीच का वह सम्वाद याद आया जब टैगोर ने मलिन होकर दूसरों के सामने जाने को हिंसा का ही एक रूप बताया था। अधिकांश व्यक्ति सुन्दर दिखना चाहते हैं। सफ़ेद बाल वाले उन्हें रंगने पर लगे हैं, झुर्रियों वाले बोटॉक्स या फेसलिफ़्ट की शरण में जा रहे हैं। प्राकृतिक रूप से या फिर कीमोथेरेपी आदि के प्रभाव से बाल गिर जाने पर लोग विग, वीविंग या केश-प्रत्यारोपण आदि अपना रहे हैं। कितने लोग तो कद बढाने के लिये अति-कष्टप्रद और खर्चीली हड्डी-तोड़ शल्यक्रिया भी करा रहे हैं। गोरेपन की क्रीम की तो बात ही क्या की जाये, उसे हम भारतीयों से बेहतर कौन पहचानता है।

भारतीय संस्कृति की विविधता उसकी परम्पराओं में झलकती है। लगभग दो दशक पहले की माधुरी पत्रिका में लता मंगेशकर का मांग भरा चित्र देखकर हिन्दी क्षेत्रों में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया था। असलियत जानने पर बहुत से लोग बगले झाँकते नज़र आये थी। गांगेय क्षेत्र में जहाँ मांग भरना सुहाग का प्रतीक बन गया है वहीं अधिकांश महाराष्ट्र में एक नन्हीं बच्ची भी शृंगार के रूप में मांग भर सकती है। रुहेलखण्ड में तो मुसलमान विवाहितायें भी सुनहरी अफ़शाँ या चन्दन से मांग भरती हैं। लेकिन दक्षिण भारतीय विवाह पद्धति में वैवाहिक स्थिति का प्रदर्शन सिन्दूर से नहीं बल्कि मंगलसूत्र से होता है। हाँ, मंगलसूत्र को कभी-कभी रोचना से अलंकृत किया जाता है।

सिन्दूर प्रसाधन है?
ठीक से पता नहीं कि भारत में सिन्दूर कब और कहाँ नारी की वैवाहिक स्थिति का प्रतीक बन गया लेकिन इतना तो हम सब को मानना पड़ेगा कि विवाह संस्कार की ही तरह कर्णछेदन, मुंडन और यज्ञोपवीत भी कभी एक बड़े समुदाय के सांस्कारिक जीवन का महत्वपूर्ण भाग रह चुके हैं। जहाँ कई माँएं स्वयं ही बढ़-चढ़कर बचपन में ही अपनी बेटियों के नाक कान छिदवा देती हैं वहीं आजकल लड़कों का कर्णछेदन - जोकि शास्त्रानुसार लड़के, लड़की सभी के लिये समान था - अव्वल तो होता ही नहीं, यदि हो भी तो कान सचमुच नहीं छेदा जाता है। इसी प्रकार पुरोहितों के अतिरिक्त आजकल शायद ही कोई पुरुष शिखाधारी दिखता हो। यज्ञोपवीत भी कम से कम उत्तर भारत से तो ग़ायब ही होता जा रहा है।


वस्त्रों की बात आने पर भी यही दिखता है कि स्त्रियाँ तो फिर भी साड़ी आदि के रूप में भारतीय परिधान को बचाकर रखे हुए हैं परंतु पुरुष न जाने कब के धोती छोड़ पजामा और फिर पतलून और जींस आदि में ऐसे लिपटे हैं कि एक औसत भारतीय मर्द को अचानक धोती बांधना पड़ जाये तो शायद वह उसे तहमद की तरह लपेट लेगा। कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी का, टाई लगाने वाले दाढी का, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।

यह सारी बातें शायद यहाँ लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ती यदि पिछले 8-10 दिनों में मेरे द्वारा पढे जाने वाले ब्लॉग्स पर शृंगार, परम्परा और व्याधि से सम्बन्धित विषयों पर तीन अलग-अलग प्रविष्टियाँ पढने को नहीं मिलतीं। अधिकांश व्यक्ति स्वयं भी सुन्दर दिखना चाहते हैं और जाने-अनजाने अपने आसपास भी सौन्दर्य देखना चाहते हैं यह समझने के लिये हमें सौन्दर्य सम्बन्धित व्यवसायों के आंकड़े देखने की ज़रूरत नहीं है। स्त्रियों को शृंगारप्रिय बताने वाले पुरुषों को भी दर्ज़ी, नाई, आदि की व्यवसायिक सेवायें लेते हुए देखा जा सकता है। उनकी उंगली में अंगूठी और गले में सोने की लड़ या हाथ में डिज़ाइनर घड़ी होना आजकल कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यदि माथे का बेना/टीका शृंगार है तब टाई को क्या कहेंगे? आखिर इस सब को किसी जेंडर विशेष या व्याधि या परम्परा से बांधा ही क्यों जाये? व्यक्तिगत विषयों को हम व्यक्तिगत निर्णयों पर क्यों नहीं छोड़ देते, खासकर तब जब हमारे देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विविधता की दीर्घकालीन परम्परा रही है।  

एक पल रुककर विचारिये, और हमारे महान राष्ट्र की महानतम परम्परा का और अपने अन्य देशवासियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आदर कीजिये, धन्यवाद!
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