कल इंडियन आयडल पर आशा भोसले को देखा पूरे शृंगार और आभूषणों के साथ, मन को बहुत अच्छा लगा कि इस आयु में भी किसी समारोह में जाते समय वे प्रेज़ेंटेबल होना पसन्द करती हैं। उसी बात पर गांधी और टैगोर के बीच का वह सम्वाद याद आया जब टैगोर ने मलिन होकर दूसरों के सामने जाने को हिंसा का ही एक रूप बताया था। अधिकांश व्यक्ति सुन्दर दिखना चाहते हैं। सफ़ेद बाल वाले उन्हें रंगने पर लगे हैं, झुर्रियों वाले बोटॉक्स या फेसलिफ़्ट की शरण में जा रहे हैं। प्राकृतिक रूप से या फिर कीमोथेरेपी आदि के प्रभाव से बाल गिर जाने पर लोग विग, वीविंग या केश-प्रत्यारोपण आदि अपना रहे हैं। कितने लोग तो कद बढाने के लिये अति-कष्टप्रद और खर्चीली हड्डी-तोड़ शल्यक्रिया भी करा रहे हैं। गोरेपन की क्रीम की तो बात ही क्या की जाये, उसे हम भारतीयों से बेहतर कौन पहचानता है।
भारतीय संस्कृति की विविधता उसकी परम्पराओं में झलकती है। लगभग दो दशक पहले की माधुरी पत्रिका में लता मंगेशकर का मांग भरा चित्र देखकर हिन्दी क्षेत्रों में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया था। असलियत जानने पर बहुत से लोग बगले झाँकते नज़र आये थी। गांगेय क्षेत्र में जहाँ मांग भरना सुहाग का प्रतीक बन गया है वहीं अधिकांश महाराष्ट्र में एक नन्हीं बच्ची भी शृंगार के रूप में मांग भर सकती है। रुहेलखण्ड में तो मुसलमान विवाहितायें भी सुनहरी अफ़शाँ या चन्दन से मांग भरती हैं। लेकिन दक्षिण भारतीय विवाह पद्धति में वैवाहिक स्थिति का प्रदर्शन सिन्दूर से नहीं बल्कि मंगलसूत्र से होता है। हाँ, मंगलसूत्र को कभी-कभी रोचना से अलंकृत किया जाता है।
ठीक से पता नहीं कि भारत में सिन्दूर कब और कहाँ नारी की वैवाहिक स्थिति का प्रतीक बन गया लेकिन इतना तो हम सब को मानना पड़ेगा कि विवाह संस्कार की ही तरह कर्णछेदन, मुंडन और यज्ञोपवीत भी कभी एक बड़े समुदाय के सांस्कारिक जीवन का महत्वपूर्ण भाग रह चुके हैं। जहाँ कई माँएं स्वयं ही बढ़-चढ़कर बचपन में ही अपनी बेटियों के नाक कान छिदवा देती हैं वहीं आजकल लड़कों का कर्णछेदन - जोकि शास्त्रानुसार लड़के, लड़की सभी के लिये समान था - अव्वल तो होता ही नहीं, यदि हो भी तो कान सचमुच नहीं छेदा जाता है। इसी प्रकार पुरोहितों के अतिरिक्त आजकल शायद ही कोई पुरुष शिखाधारी दिखता हो। यज्ञोपवीत भी कम से कम उत्तर भारत से तो ग़ायब ही होता जा रहा है।
वस्त्रों की बात आने पर भी यही दिखता है कि स्त्रियाँ तो फिर भी साड़ी आदि के रूप में भारतीय परिधान को बचाकर रखे हुए हैं परंतु पुरुष न जाने कब के धोती छोड़ पजामा और फिर पतलून और जींस आदि में ऐसे लिपटे हैं कि एक औसत भारतीय मर्द को अचानक धोती बांधना पड़ जाये तो शायद वह उसे तहमद की तरह लपेट लेगा। कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी का, टाई लगाने वाले दाढी का, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।
यह सारी बातें शायद यहाँ लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ती यदि पिछले 8-10 दिनों में मेरे द्वारा पढे जाने वाले ब्लॉग्स पर शृंगार, परम्परा और व्याधि से सम्बन्धित विषयों पर तीन अलग-अलग प्रविष्टियाँ पढने को नहीं मिलतीं। अधिकांश व्यक्ति स्वयं भी सुन्दर दिखना चाहते हैं और जाने-अनजाने अपने आसपास भी सौन्दर्य देखना चाहते हैं यह समझने के लिये हमें सौन्दर्य सम्बन्धित व्यवसायों के आंकड़े देखने की ज़रूरत नहीं है। स्त्रियों को शृंगारप्रिय बताने वाले पुरुषों को भी दर्ज़ी, नाई, आदि की व्यवसायिक सेवायें लेते हुए देखा जा सकता है। उनकी उंगली में अंगूठी और गले में सोने की लड़ या हाथ में डिज़ाइनर घड़ी होना आजकल कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यदि माथे का बेना/टीका शृंगार है तब टाई को क्या कहेंगे? आखिर इस सब को किसी जेंडर विशेष या व्याधि या परम्परा से बांधा ही क्यों जाये? व्यक्तिगत विषयों को हम व्यक्तिगत निर्णयों पर क्यों नहीं छोड़ देते, खासकर तब जब हमारे देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विविधता की दीर्घकालीन परम्परा रही है।
एक पल रुककर विचारिये, और हमारे महान राष्ट्र की महानतम परम्परा का और अपने अन्य देशवासियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आदर कीजिये, धन्यवाद!
* लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज़
* भारतीय संस्कृति के रखवाले
* कितने सवाल हैं लाजवाब?
* ब्राह्मण कौन?
* विश्वसनीयता का संकट
भारतीय संस्कृति की विविधता उसकी परम्पराओं में झलकती है। लगभग दो दशक पहले की माधुरी पत्रिका में लता मंगेशकर का मांग भरा चित्र देखकर हिन्दी क्षेत्रों में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया था। असलियत जानने पर बहुत से लोग बगले झाँकते नज़र आये थी। गांगेय क्षेत्र में जहाँ मांग भरना सुहाग का प्रतीक बन गया है वहीं अधिकांश महाराष्ट्र में एक नन्हीं बच्ची भी शृंगार के रूप में मांग भर सकती है। रुहेलखण्ड में तो मुसलमान विवाहितायें भी सुनहरी अफ़शाँ या चन्दन से मांग भरती हैं। लेकिन दक्षिण भारतीय विवाह पद्धति में वैवाहिक स्थिति का प्रदर्शन सिन्दूर से नहीं बल्कि मंगलसूत्र से होता है। हाँ, मंगलसूत्र को कभी-कभी रोचना से अलंकृत किया जाता है।
सिन्दूर प्रसाधन है? |
वस्त्रों की बात आने पर भी यही दिखता है कि स्त्रियाँ तो फिर भी साड़ी आदि के रूप में भारतीय परिधान को बचाकर रखे हुए हैं परंतु पुरुष न जाने कब के धोती छोड़ पजामा और फिर पतलून और जींस आदि में ऐसे लिपटे हैं कि एक औसत भारतीय मर्द को अचानक धोती बांधना पड़ जाये तो शायद वह उसे तहमद की तरह लपेट लेगा। कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी का, टाई लगाने वाले दाढी का, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।
यह सारी बातें शायद यहाँ लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ती यदि पिछले 8-10 दिनों में मेरे द्वारा पढे जाने वाले ब्लॉग्स पर शृंगार, परम्परा और व्याधि से सम्बन्धित विषयों पर तीन अलग-अलग प्रविष्टियाँ पढने को नहीं मिलतीं। अधिकांश व्यक्ति स्वयं भी सुन्दर दिखना चाहते हैं और जाने-अनजाने अपने आसपास भी सौन्दर्य देखना चाहते हैं यह समझने के लिये हमें सौन्दर्य सम्बन्धित व्यवसायों के आंकड़े देखने की ज़रूरत नहीं है। स्त्रियों को शृंगारप्रिय बताने वाले पुरुषों को भी दर्ज़ी, नाई, आदि की व्यवसायिक सेवायें लेते हुए देखा जा सकता है। उनकी उंगली में अंगूठी और गले में सोने की लड़ या हाथ में डिज़ाइनर घड़ी होना आजकल कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यदि माथे का बेना/टीका शृंगार है तब टाई को क्या कहेंगे? आखिर इस सब को किसी जेंडर विशेष या व्याधि या परम्परा से बांधा ही क्यों जाये? व्यक्तिगत विषयों को हम व्यक्तिगत निर्णयों पर क्यों नहीं छोड़ देते, खासकर तब जब हमारे देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विविधता की दीर्घकालीन परम्परा रही है।
एक पल रुककर विचारिये, और हमारे महान राष्ट्र की महानतम परम्परा का और अपने अन्य देशवासियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आदर कीजिये, धन्यवाद!
- निरामिष पर ताज़ा आलेख: भोजन में क्रूरता: 1. प्रस्तावना - फ़ोइ ग्रा* सम्बन्धित कड़ियाँ *
- रेडियो प्लेबैक इंडिया की प्रस्तुति: बिम्ब एक प्रतिबिम्ब अनेक: शब्दों के चाक पर - 5
* लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज़
* भारतीय संस्कृति के रखवाले
* कितने सवाल हैं लाजवाब?
* ब्राह्मण कौन?
* विश्वसनीयता का संकट
@ दक्षिण भारतीय विवाह पद्धति में वैवाहिक स्थिति का प्रदर्शन सिन्दूर से नहीं बल्कि मंगलसूत्र से होता है। हाँ, मंगलसूत्र को कभी-कभी रोचना से अलंकृत किया जाता है।
ReplyDeleteसच है - और मैंने यह भी देखा की यहाँ की स्त्रियाँ मंगलसूत्र को "सुहाग" से अधिक "प्रेम" की निशानी की तरह देखती हैं | जब किसी पूजा में जा कर कुमकुम लेती हैं - तो अपने माथे और कंठ पर कुमकुम लगाने से पहले मंगलसूत्र पर कुमकुम लगाती हैं, jaise vah priy pati hi hon, jinke liye eeshwar kaa ashirwad le rahi hon | और हाँ - मेरी कई सहेलियां - जब पति से लड़ाई हो जाये - और रूठ जाएँ, तो गुस्से में मंगलसूत्र उतार भी देती हैं :) - जैसे वह मंगलसूत्र ही अपना पति हो, जिससे रूठ गयी हों :) फिर मना लेते हैं पति - तो वही पहना भी देते हैं दोबारा :) अब यदि यह "सुहाग" की निशानी मानी जाय -तब तो यह संभव नहीं न ? नहीं - यह प्रेम की निशानी जैसा ज्यादा लगता है मुझे :) |
यहाँ के पुरुषों में भी अपने संस्कारों से बहुत प्रेम देखा - सच तो यह है की यहाँ आने से पहले का पूरा जीवन मैंने मध्य प्रदेश के अलग अलग शहरों या दिल्ली में बिताया - और जैसे संस्कार यहाँ घर घर, जन जन में देखे - वहां नहीं | मैं यहाँ "नोर्थ इंडियन"के रूप में देखि जाती हूँ, और मुझे बड़े प्रेम से बड़ी उम्र की लेडीज़ बतातीं - की देखो ऐसा करो , ऐसा न करो, और क्यों करो, या न करो | यह व्यंग्य कभी नहीं सुना की - अरे, इसे इतना भी नहीं पता ? या - ये नोर्थ इंडियन के संस्कार हैं | या - इतनी बड़ी होकर इतना भी नहीं जानती |
@ कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी की, टाई लगाने वाले दाढी की, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।
हाँ - यह अजीब है ही | और जो ब्लॉग भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि कहाते हैं - वे अपने आप को खाप पंचायत का रूप देने लगें, विरोधी टिप्पणीकर्ता को "लिव इन" आदि के ताने दे कर अपमानित करने का प्रयास करें, या उन्हें मानसिक अजीर्ण का शिकार बताएं, एक विधवा के नोर्मल जीवन जीने को उसके अपने पति से प्रेम न होने का प्रतीक बताएं, आदि - तब तो और भी अजीब सा लगता है |
इससे उस blog की ही नहीं, बल्कि पूरी भारतीय सोच पर प्रश्न उठते हैं, क्योंकि ब्लॉग के नाम में देश का नाम होता है | विदेशी भी यदि गूगल में ढूंढें "भारत संस्कृति स्त्री सुहाग बाध्यता " तो जिन लिनक्स की लिस्ट आती है - उससे भारतीय सोच के बारे में क्या सन्देश फैलेगा ? यह सोचना चाहिए लेखकों को |
विश्लेषण उत्कृष्ट अति, साधुवाद गंभीर |
ReplyDeleteसजना सजना के लिए, पे बढ़िया तकरीर |
पे बढ़िया तकरीर,बिबिधता को समझाया |
पुरुष पराई पीर, समझ अब तक न पाया |
सौन्दर्य उपासक मर्म, करे खुद नव अन्वेषण |
हो नारी पर गर्म, नकारे निज विश्लेषण ||
आज जो सुहाग के प्रतीक बन गए हैं, वे प्रारम्भ में सुन्दरता के ही प्रतीक थे। कालांतर में सुन्दर दिखना केवल सधवा स्त्रियों का ही अधिकार रह गया तो इन प्रसाधनों को सुहाग का प्रतीक मान लिया गया। आज इसी कारण युवतियां सुन्दरता के इन प्रतीकों से परहेज करती हैं क्योंकि वे सुहाग से जोड़ दिये गए हैं। पुरुषों में किसी भी परिधान को विवाह से नहीं जोडा गया तो वे कुछ भी पहने, कोई विवाद नहीं होता।
ReplyDeleteबिलकुल - यदि वस्तुएं सिर्फ सौन्दर्य के accessories की ही तरह रहे और इन्हें "सुहाग" से न जोड़ा जाए - तो ये बड़ी प्यारी लगती हैं - क्योंकि इनमे "बाध्यता" नहीं होती | वह सुमन जी की कविता पढी थी बचपन में
Delete"हम पंछी उन्मुक्त गगन के - पिंजरबद्ध न गा पायेंगे
कनक तीलियों से टकराकर - पुलकित पंख टूट जायेंगे |"
जब कोई भी वस्तु दासता का द्योतक बन जाती है - तो वह भले ही फिर "कनक तीलियाँ" ही हों - नहीं ही भाती |
भावपूर्ण बढ़िया पोस्ट... माथे पर सिन्दूर सौभाग्य का प्रतीक समझा जाता है ... आभार
ReplyDeleteअभिनेत्री रेखा का मांग भर कर समारोह में जाना भी कई बार चर्चा का विषय बन चुका है . देश के उत्तर पश्चिम राज्यों में सिंदूर सुहाग का ही प्रतीक है , इसलिए इन राज्यों में सिर्फ विवाहित महिलाओं द्वारा ही इसका प्रयोग किया जाता है .
ReplyDelete@ व्यक्तिगत विषयों को हम व्यक्तिगत निर्णयों पर क्यों नहीं छोड़ देते, खासकर तब जब हमारे देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विविधता की दीर्घकालीन परम्परा रही है। एक पंक्ति में ही पूरा सार है ! . किसी को सादगी पसंद है तो कोई खूब सज धज कर रहना पसंद करता है ,शृंगार व्यक्तिगत ईच्छा पर ही निर्भर होना चाहिए !
@ जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी की, टाई लगाने वाले दाढी की, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।
ReplyDeleteपढ़ कर मन तृप्त हुआ , धन्यवाद आप ने कहा हम जैसे कहते तो लोग इसमे भी नमक चीनी करते, आप ने कहा है तो जरुर ये सब कहने वाले एक बार इस पर विचारेंगे |
खुद को हर समय सुन्दर बनाये या ना बनाये किन्तु ये जरुर ध्यान दे की आप साफ सुथरे और सलीके से रहे , बीस दिन पुरानी गन्दी जींस और टी शर्ट पहने और कहे हमें सुन्दर दिखने की चाह नहीं है ,तो ये कोई बात नहीं हुई , लोगों को इस बात का फर्क समझना चाहिए |
वैसे अभिनेत्री रेखा को भी मांगभर सिन्दूर लगाये कई अवसरों पर देखा है
ReplyDeleteसिन्दूर, बिछिया ,बिंदी ...पायल या कोई भी भारतीय श्रृंगार प्रसाधन मानती हूँ सौंदर्य को और मादकता देते है और छवि को पवित्रता (?) पर आज कल की भागदौड़ में चूड़ियाँ पायले disturb करती है :-)
श्रृंगार तो नारी का अधिकार है............
ReplyDeleteइसे कोई न छीने....
बहुत प्यारी पोस्ट.
सादर
अनु
आपकी बात सही है।
ReplyDeleteलेकिन कुछ लोग होते हैं जिन्हें वे जैसे हैं वैसे ही रहना अच्छा लगता है। मेरे बाल सोलह-सत्रह साल की उमर में ही सफेद होना शुरू हो गए थे। मैंने आज तक न तो कभी खिजाब लगाया और न ही मेंहदी का उपयोग किया। विवाह हुआ तो अंगूठी और गले में चेन डाली गई। लेकिन बस दो दिन बाद ही मैंने उतार दी।
वक्त के साथ साथ पहनावा भी बदलता जाता है.... परन्तु आज भी औरतों के मामले में हम पुरातन वादी ही है, खासकर सिंदूर और अन्य सुहाग संबधित वस्तुओं/कपड़ों के विषय में.
ReplyDeleteसुन्दरता मन को प्रसन्न करती है . इसलिए सुन्दर दिखने के लिए प्रयास ज़रूर किये जाने चाहिए . हालाँकि स्थान और अवसर अनुसार श्रृंगार सोच समझ कर करना चाहिए . श्रृंगार महिलाओं की सुन्दरता में चार चाँद लगा देता है . लेकिन कभी कभी ओवर मेकप आकर्षण को कम भी कर देता है .
ReplyDeleteअन्य देशवासियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आदर कीजिये, धन्यवाद!
ReplyDeleteok done
लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी की, टाई लगाने वाले दाढी की, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।
ReplyDeleteये बात...एकदम सही जगह पर चोट की है.
संतुलित लेख ..... व्यक्तिगत स्वतन्त्रता होनी ही चाहिए .... सिंदूर , चूड़ियाँ , बिछिए मात्र विवाह के द्योतक न हों जिनको पसंद हो वही इनका उपयोग करे ...
ReplyDelete...अपने आप को व्यवस्थित या जहाँ तक हो सके सुन्दर रूप में प्रस्तुत करना छिछोरापन नहीं है!...नहीं स्त्रिओं के लिए यह बुरा आचरण है और ना ही पुरुषों के लिए इसमें कोई बुराई है!...ज्यादातर तो यह प्रक्रिया व्यक्तिका अपना स्वयं का आत्मविश्वास बढाने के लिए होती है...इसे मात्र दिखावा कहना सही नहीं है!...बहुत महत्वपूर्ण विषय, धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यवाद राजेश जी!
ReplyDeleteUMDA VISHAY...AUR TIPPNIYA..KAFI KUCH SIKHNE KO MILA...
ReplyDeleteअद्भुत श्रृंगारिक ज्ञानवर्धक जानकारी मिली .श्रृंगार महिला ही नहीं पुरुषों का भी प्रिय शौक है ,
ReplyDeleteकृष्ण को ही देख लीजिये ......
सिंदूर लगाना
ReplyDeleteप्रेम का प्रतीक हैं या सुहागिन होने का ??
शादी क्या मन से होती हैं या इसमे तन का होना अति आवश्यक हैं
रेखा जिस को प्रेम करती हैं
वो जब तक इस दुनिया में हैं रेखा अपने को सुहागिन मान रही हैं
अगर रेखा ने अपने मन से किसी को अपना सर्वस्व मान लिया हैं तो क्या ये करना गुनाह है ??
प्रेम की पराकाष्ठा विवाह नहीं हैं प्रेम की पराकाष्ठा प्रेम करने वाले का समर्पण हैं जिस से वो प्रेम करता हैं उसके लिये
विवाह सामजिक बंधन हैं , प्रेम मन का बंधन हैं
सिंदूर सिंगार भी हो सकता हैं , प्रेम की पराकाष्ठा का प्रतीक भी हो सकता हैं
रेखा की मांग में सिंदूरी रेखा , अमित { टंकण की गलती की हैं } प्रेम हैं
शानदार आलेख।
ReplyDeleteसजना-संवरना, स्मार्ट और सुंदर बने रहना, सजग रहने की निशानी है। सफेद बाल लिये, दाढ़ी बढ़ाकर घूमना जीवन जीने की अपनी शैली हो सकती है लेकिन जो अपनी सुंदरता के प्रति सचेत रहते हैं उनकी आलोचना करना बुरी बात है। यह भी देखने की बात है कि लापरवाही कौन कर रहा है। वे जो वैज्ञानिक हैं, दार्शनिक हैं, हमेशा अपनी सोंच में डूबे रहने वाले कवि हैं या वो जो 'काम का न काज का दुश्मन अनाज का' है और 'निठल्लू का चूल्हा' बना बेमतल सुलग रहा है।
खामख्वाह सुलगने वालों के लिये 'निठल्लू का चूल्हा' प्रतीक मज़ेदार है। :)
Deleteसजाव श्रृंगार के मामले में एक दिक्कालीय सांस्कृतिक सापेक्षता है मगर अब विश्व एक साझे सांस्कृतिक युग की और बाद रहा है -सौदर्य के ये सभी प्रतिमान बदल ही जायेगें देर सबेर ....मेरे मन की बात तो यह है कि सहज सौन्दर्य को इनमें से किसी भी बनाव श्रृंगार की दरकार नहीं है!
ReplyDeleteअच्छा लगना अति व्यक्तिगत है, उस पर टोका टोकी क्यों की जाये भला..
ReplyDeleteसमाज अपनी दिशा स्वयं तय कर लेगा।
ReplyDeleteक्या ही अच्छा होता हम भी देख पाते लोगों को खलीता, धोती, गमछा, जनेऊ और खडाऊं पहने हुए। रोज़-रोज़ पतलून, पैंट-शर्ट, कोट, टक्सीडो , सफारी, जैकेट, विंड चीटर, रंनिंग शूज, बूट, शूज पहने देख कर तंग आ गए हैं। भारतीयता भारतीय पुरुषों में देखने को आँखें तरस गयीं हैं अब तो । :)
ReplyDeleteबहुत महत्वपूर्ण ही विषय,
धन्यवाद!
अधिकतर लोग अपने लिए अलग पैमाने बनाते हैं और दूसरों के लिये अलग. इसी का नतीजा है ये सब.
ReplyDeleteBhool sudhaar :
ReplyDeleteबहुत ही महत्वपूर्ण विषय,
धन्यवाद!
हमेशा से यही मानना रहा है कि यह सबकी
ReplyDeleteअपनी इच्छा पर निर्भर है कि वे क्या पहने और कैसे रहें ...... ? वैसे हमारे समाज और परिवारों में आजकल टोकाटाकी काफी कम हो गयी है .....
सिंदूर ,चूड़ी आदि शृंगार प्रसाधनों में गिनाये गये हैं .आज प्रतिमान बदल रहे हैं
ReplyDeleteअब महिलायें बाहर निकल कर काम करती हैं जहाँ निर्धारित सुहाग-चिह्न पहन कर जाना उन्हें अपने कार्य-स्थल के अनुकूल नहीं लगता.उनका अपना व्यक्तित्व है .कैसे रहें यह उनकी व्यक्तिगत रुचि की बात है.
हम महिलाएँ तो ये सब लिख-लिख कर थक गए...अब आपके लिखने का ही असर हो शायद और महिलाओं को उनके हाल...उनकी रुचिनुसार श्रृंगार के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाये.
ReplyDeleteवस्त्राभूषण की रूचि-अरूचि, प्रदर्शन-प्रतीक, सहजता-असहजता सभी व्यक्तिगत मंतव्यों और मानसिकता के अधीन रहते है। कोई महिला अगर अपने तरीके से सज-संवर कर ही आत्मगौरव महसुस करना चाहती है तो उसे अधिकार है वहीं कोई विधवा निर्धारित सुहाग-चिह्न का परित्याग कर शोक-दुखादि को प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करना चाहती है तो यह भी उसका अधिकार है, बस बचा जीवन महत्वपूर्ण है, वह कुछ भी निर्धारण करे उसके अपने लिए सहज होना चाहिए।
ReplyDeleteमध्यकाल में जब नारी पराश्रीत थी सुहाग का बहुत बड़ा महत्व था तब उसी महत्व को रेखांकित करते प्रतीक चिह्नों का अभ्युदय हुआ। अब वह समर्थ है और अपने पैरों पर जीवन-संग्राम कर सकती है। ऐसे में प्रतीक औचित्यहीन हो जाते है और शृंगार व्यक्तिगत रूचि तक सीमित।
पारंपरिक साज-श्रृंगार का अपना महत्त्व है.यह किसी के लिए संस्कार तो किसी के लिए महज़ फैशन भर का मामला है.इसलिए दोनों स्थितियाँ अपनी-अपनी जगह सही हैं.आज हम जबरन मांग में सिन्दूर नहीं भरवा सकते.विवाहित स्त्री के लिए ही पहले से इस तरह के नियम बने हैं,पुरुषों के लिए नहीं.
ReplyDeleteव्यक्तिगत स्वतंत्रता से ही रोचक विविधता संभव होती है, जो जीवन में रंग भरती है.
ReplyDeleteमुझे लगता है सजने धजने से आदमी मे आत्मविश्वास भी आता है। इस बार सोचा था कि अब बाल सफेद ही रहने दूँ मगर खुद को सच मे उम्र से अधिक बूढी महसूस करती हूँ बीमारी मे सजने संवरने का दिल नही होता लेकिन मैने महसूस किया है कि जिस दिन खुद पर कुछ ध्यान दूँ उस दिन खुद को स्वस्थ महसूस करती हूँ।ापने मन मुताविक आदमी को जरूर शालीनता सेसज धज कर रहना शाहिये। शुभकामनायें।
ReplyDeleteसजना संवरना सबको पसंद है, यह एक अच्छी बात भी है देखने भर से आप उस व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंदाजा लगा सकते है !
ReplyDeleteकई बार सौन्दर्य के पीछे कुरूप मन भी दिखाई देता है इसलिए उपरी सजा संवरा सौन्दर्य तात्कालिक प्रभावित करता है ! तन के साथ अगर मन भी सुंदर हो तो
क्या बात है ! सुहाग के चिन्ह केवल प्रेम के प्रतीक है,जिसे परम्परा का हिस्सा बनाया गया है ! वैसे भी आजकल स्त्री, पुरुष की सोच में
काफी परिवर्तन आ चूका है क्या पहने क्या न पहने ये उनकी व्यक्तिगत सोच है !
बेहतरीन आलेख .....आभार !
श्रंगार व्यक्ति की रूचि पर छोड़ देना चाहिए...
ReplyDeleteक्या ही अच्छा हो जिसका जो मन हो उसको वैसा करने दिया जाय ... हां परम्परा का पालन जरूर हो पर दोनों तरफ से हो तो अच्छा है ... दबाव न हो तो जयादा अच्छा है ..
ReplyDeleteअनुराग भाई..बहुत ही भावपूर्ण पोस्ट लिखी है आपने!!!
ReplyDeleteबात नई बिलकुल ही नहीं है किन्तु कहने का ढंग एकदम नया, अनूठा और भरपूर रोचक। किसी को निशाने पर लिए बिना सब को, सब कुछ कह देने का ऐसा तरीका पहली ही बार देखा/जाना।
ReplyDeleteवाह।
Mere sanskaar samaaj kee den hain. Alag-alag samaaj me alag-alag reeti-riwaaj hain. Apane reeti-riwaajon ko uchch samajhanaa manushya kee kamjoree hai. Apne riwaajon ko ham datum maante hain. Usase nimna ko ghrinashpad aur uphaas yogya.Maithil brahmanon men machhalee kaa prachlan hai. Atah we log murgaa yaa phir anya maansaahar se ghrina lekin machhalee kee prashansaa kartehain. Anya shaakaahaaree brahmanon ke liye machhalee bhee tyaajya hai. Lahsun-pyaaj nahee khaane balon ke liye ye shaakaahaar bhee tyaajya hain.
ReplyDeleteआपकी पर उपदेश देने वालों पर की गई बात बहुत सही है.
ReplyDeleteबढ़िया लेख.
आज ही मैंने मुम्बई में नर्सों से सज संवार की अपेक्षा पर लेख लिखा है.
घुघूतीबासूती
लोग विचारने लगें तो फिर दिक्कत ही क्या थी :)
ReplyDelete