हर सवाल लाजवाब |
जिनकी सात पीढियों में एक व्यक्ति भी सेना में नहीं गया वे धर्म, देश, जनसेवा के लिये दनादन ये सेना, वो सेना बनाये जा रहे हैं मगर किसी प्रकार के सकारात्मक परिवर्तन की बात में साथ न आ पाने के लिये उनके पास ठोस कारण हैं। एक मित्र की दीवार पर बड़ा रोचक सन्देश देखने को मिला
अन्ना जी मै देश हित के लिए आपका साथ भी दे देता. पर क्या करूँ हमारे सिलसिले भगत और सुभाष से मिलते है. हम हमारी मांगो के लिए अनशन नहीं करते ...
न चाहते हुए भी याद दिलाना पड़ा कि आपके सिलसिले जिन हुतात्माओं से मिलते हैं उनके बारे में पढेंगे तो पता चलेगा कि वे दोनों आपके जन्म से पहले ही अनशन पर बैठ चुके हैं। भगत सिंह ने मियाँवाली जेल में 1929 में अनशन किया था और सुभाषचन्द्र बोस ने 1939-40 में नज़रबन्दी से पहले अनशन किया था। भगत सिंह ने तो साथियों के साथ 116 दिन के अनशन का रिकार्ड स्थापित किया था। "बाघा जतिन" जतिन दास की मृत्यु इसी अनशन में हुई थी। मगर किया क्या जाये? संतोषः परमो धर्मः के देश में असंतोष तो बढ ही रहा है, भोली-भाली जनता के असंतोष को भड़काकर उसका राजनीतिक लाभ लेने वाले ठग भी बढते जा रहे हैं। और हम भी एक ऑटो में पढी अनाम कवि की सामयिक शायरी की निम्न पंक्तियों को कृतार्थ करने में लगे हैं:
कितने कमजर्फ हैं गुब्बारे चंद साँसों में फूल जाते हैं
थोड़ा ऊपर उठ जायें तो अपनी औकात भूल जाते हैं
कुछ जगह यह चिंता भी प्रकट की जा रही है कि सिगरेट जैसे आविष्कारों से भारतीय युवा पीढी पश्चिमी बुराइयों की ओर धकेली जा रही है। मासूम चिंतक जी को नहीं पता कि हुक्का भारत में आविष्कृत हुआ था। उन्हें यह जानकारी भी नहीं है कि चिलम-गांजे-भांग की भारतीय परम्परा इतनी देसी है कि साधुजनों के पास भी मिल जायेगी।
फरवरी का महीना आ रहा है। अंग्रेज़ी पतलून वाले नौजवानों के बिना जनेऊ-चोटी वाले झुंड के झुंड भारतीय संस्कृति के रक्षार्थ अबलाओं को लतिया कर वैलेंटाइंस डे की अपसंस्कृति के विरोध में कानून हाथ में लेने के लिये उस रास्ते पर निकलने वाले हैं जो तालेबान-टाइप अराजक तत्वों ने बुर्क़ा न पहनने वाली लड़कियों के मुख पर तेज़ाब फ़ेंककर दिखाया है।
किसी को विश्व बंधुत्व, सहिष्णुता और धर्म-निरपेक्षता खतरे में दिख रही है और किसी को गाय, धर्म, भाषा, और संस्कृति। हर बन्दा भयभीत है। और भयातुर आदमी जो भी करे जायज़ होता है। वह दूसरे लोगों की, या राज्य की सम्पत्ति जला सकता है, अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त किसी भी भाषा में लिखे साइनबोर्ड पर कालिख पोत सकता है, तोड़फ़ोड, हत्या आदि कुछ भी कर सकता है। समाजहित में सब जायज़ है।
इधर धुर वामपंथी विचारधारा के कुछ मित्र लम्बे समय से डफली पीटकर भगत सिंह को कम्युनिस्ट और अन्य क्रांतिकारियों को साम्प्रदायिक साबित करने में लगे हुए हैं वहीं उनके मुकाबले में स्वाभिमानवादी भी अपना शंख बजा रहे हैं। हाल में एक विडियो-महानायक को कहते सुना कि इस्कॉन (ISKCON) नामक अमेरिकी संस्था भारत में मन्दिर बनाकर हर साल भारी मुनाफ़ा विदेश ले जा रही है। ज्ञातव्य है कि इस्क़ॉन का मुख्यालय चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली मायापुर, भारत में है। प्रवचनकर्ता ने भावुक होकर यह भी बताया कि उसने तात्या टोपे के वंशजों को कानपुर में चाय बेचते देखा था। न किसी ने यह पूछा न किसी ने बताया कि यदि टोपे परिवार का वर्तमान व्यवसाय बुरा है तो उनके उत्थान के लिये वे भाषणवीर क्या करने वाले हैं। इससे पहले कई मित्र दुर्गा भाभी की तथाकथित "दुर्दशा" के बारे में यही लगभग यही (और पूर्णतः असत्य) कहानी सुना चुके हैं। तात्या टोपे के वंशजों की जानकारी उनकी वेबसाइट पर उपलब्ध है।
विकास की बात चलने पर चीनी तानाशाही के साथ हिटलर महान के गुणगान भी अक्सर कान में पड़ जाते हैं। साथ ही सारी दुनिया, विशेषकर जर्मनी पर भारतीय संस्कृति के प्रभाव के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है। परिचितों की एक बैठक में एक आगंतुक जर्मन वायुसेवा के नाम "लुफ़्तहंसा" के आधार पर यह सिद्ध कर रहे थे कि जर्मनी पर भारत का कितना प्रभाव था। बताने लगे कि जहाज़ किसी हंस की तरह आकाश में जाकर लुप्त सा हो जाता था इसलिये लुफ़्तहंसा (= लुप्त + हंस) कहलाया गया। वास्तविक हंसा की जानकारी अंग्रेज़ी में यहाँ है।
बची-खुची कसर चेन-ईमेलों द्वारा निकाली जा रही है। कहीं हिटलर को शाकाहारी बताया जा रहा है और कहीं चालीस साल की उम्र में बाज़ों का पुनर्जन्म हो रहा है। एक और दोस्त हैं, जिन्हें वैज्ञानिक धमाचौकड़ी मचाने का बड़ा शौक है। बताने लगे ऐतिहासिक मस्जिद के उस जादुई कुएँ के बारे में जिस पर मांगी गयी हर मन्नत पूरी होती है। एक शरारती बच्चे ने पूछ लिया, "अगर मैं मन्नत मांगूँ कि अब तक की सारी मन्नतें झूठी साबित हो जायें तो क्या होगा?" यह सवाल भी रह गया लाजवाब!
सम्बन्धित कड़ियाँ* विश्वसनीयता का संकट
* दूर के इतिहासकार
* मैजस्टिक मूंछें
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं?
* क्रोध कमज़ोरी है, मन्यु शक्ति है
* तात्या टोपे के वंशज
इस पर टिप्पणी करने के लिए तो वाकई बड़ी हिम्मत चाहिये. दुनिया मायावियों से भरी हुई है, जिसमें भारत में इनका काफी बड़ा हिस्सा मौजूद है. और ऐसे ही मायावी बेचारे मजबूर हैं, मजबूरों की सेवा करने के लिए. कोई न कोई तो इस गुरुतर दायित्व को निभाएगा ही. अब उन्होंने ही अपने कंधे पेश कर दिए.
ReplyDeleteजी, यही हाल है ... अंजामे गुलिस्ताँ क्या होगा?
Deleteकितने कमजर्फ हैं गुब्बारे चंद साँसों में फूल जाते हैं थोड़ा ऊपर उठ जायें तो अपनी औकात भूल जाते हैं ...........
ReplyDeletekya baat...kya baat...kya baat..........
hum bharat mata ke nounihal hain.....
kabhi arstoo ka abba to kabhi sukrat ke baap hain.....
pranam.
@हम भारत माता के नौनिहाल हैं
Deleteकभी अरस्तू के अब्बा, कभी सुकरात के बाप हैं
सुबहान अल्लाह!
बहुत कुछ अनकहा रह जाता है |
ReplyDeleteबढिया पोस्ट।
ReplyDeleteहम भारतीयो को महानता का रोग लग चुका है। हम महान, देश महान, संस्कृति महान है।
ReplyDeleteआज ही यहां एक महान खबर देखी, आस्ट्रेलीया के अखबार मे, मुखपृष्ठ पर फोटो सहित ....
"India's child poverty a 'a national shame'"
अपने देश की महानता पर गर्व हो आया!
@बची-खुची कसर
ReplyDeleteपब्लिक को भी तो कुछ न कुछ चाहिए... बिग बॉस - दाल रोटी माया-ममता दया(निधि)के अलावा भी.
कितने कमजर्फ हैं गुब्बारे चंद साँसों में फूल जाते हैं
ReplyDeleteथोड़ा ऊपर उठ जायें तो अपनी औकात भूल जाते हैं
प्रबुद्ध सज्जन इसी तरह गुब्बारे की हवा तनिक कम करते रहें तो कोई काम बने।
"अगर मैं मन्नत मांगूँ कि अब तक की सारी मन्नतें झूठी साबित हो जायें तो क्या होगा?"
ReplyDeleteहा हा हा!
असलियत यही है. तमाम शिक्षित लोग शिक्षित होने का दावा करते हैं, मगर असल शिक्षित होते नहीं, अपने अपने भ्रम में जी रहे होते हैं.
कचरा सामग्री / कचरा विचारधारा पर क्रिया-प्रतिक्रिया करने के बजाए उससे कन्नी काट कर दूर से निकल जाने में ही भलाई है.
रवि जी, प्रयास तो यही रहता है लेकिन कई बार अति इतनी हो जाती है कि रुका नहीं जाता है।
Deleteऔर भयातुर आदमी जो भी करे जायज़ होता है।..
ReplyDeleteकाफ़ी कुछ समाया है पोस्ट में :-)
यहाँ लोगों के के पास ढेरों वक़्त है और इसका उपयोग सब अपनी महत्ता दिखाने में ही खर्च कर देते हैं.
ReplyDeleteअनुराग जी !
ReplyDeleteहकीकत यही है इस देश की
कि चोरों को पकड़ने निकले हैं चोर
कातिल बने हैं जज, गूंगे करते हैं शोर
बलात्कारी देते हैं नैतिकता की दुहाई
देश को jaane दो bhaad में
raam bhajo bhaayee raam bhajo bhaayee
जी, आपकी बात सही है। हम अच्छों की कसौटी तो कड़ी करते जाते हैं और बाकियों को काफ़ी छूट देते है। भ्रष्टाचार और उद्दंडता के प्रति काफ़ी सहिष्णुता है देश में।
Deleteसवालों की बुछार तो है पर सवाल का जवाब सवाल ही में मिलता है, तो कहने को मन करता है कि तू लाजवाब है तेरा जवाब क्या होगा!!!
ReplyDeleteअच्छा लगा,केवल शाब्दिक जुगाली करने वाले आम विचारक,सुधारक को आईना दिखाने के लिए शुक्रिया।
ReplyDeleteअच्छा लगा,केवल शाब्दिक जुगाली करने वाले आम विचारक,सुधारक को आईना दिखाने के लिए शुक्रिया।
ReplyDeleteथोड़ा थोड़ा अन्धकार सबकी अपनी छाया में है, पर छायाओं के दूसरी ओर प्रकाश भी है।
ReplyDeleteजी ज़रूर, हम सबको मिलकर उसी प्रकाश को मैग्निफ़ाइ करना है शायद।
Delete...अपने स्तर पर हर कोई ईमानदार बना रह सके तो यह लड़ाई लड़ने की नौबत ही ना आये.
ReplyDeleteदेश-भक्ति केवल उपदेश से नहीं त्याग और सपर्पण से ही आएगी !
जी, सहमत हूँ।
Deleteलाज़वाब ही है अपना देश ।
ReplyDeleteकिन्तु परन्तु ..जीवन के अंग
ReplyDeleteउनके बिना दुनिया है बेरंग !!
मुद्दे तो बहुत हैं ...पर हम अपनी क्या कहें ....जो सेवा कर रहे हैं उससे फुर्सत तो मिले :)
:) प्रणाम मास्साब!
Deleteदुर्गा भाभी वाली बात हमने भी सुनी थी और आपसे इस बारे में बात भी हुई थी। प्रश्न, बेशक ऐसे-वैसे ही क्यों न हों, न होते तो बहुत से तथ्य अनजाने ही रह जाते। सही है कि सिर्फ़ बातों के ढोल बजाने से कुछ नहीं होता, लेकिन सब ’कौटिल्य’ चन्द्रगुप्त नहीं हो सकते और सब चन्द्रगुप्त कौटिल्य नहीं बन सकते। यथास्थिति को यूँ ही स्वीकार कर लेने से कहीं अच्छा है कि कुछ किया जाये, हाँ, प्रयास ईमानदारी से होना चाहिये।
ReplyDelete’लुप्त-हँस’ वाली बात तो बस अल्टीमेट है, हमने तो कुछ और ही सुन रखा था:)
ईमानदार प्रयास के बारे में आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ।
Deleteहर सवाल का जबाब ही सवाल है !
ReplyDeleteहमारे देसी विद्वानों का जवाब नहीं...हर जगह नज़र आते हैं :-))
ReplyDeleteआनन्द आ गया। आपके आवेश पर न्यौछावर। हर कोई उपदेश देने में लगा है - खुद कुछ करने से बचते हुए। मेरे मित्र श्री विजय वाते का एक शेर (जिसे पता नहीं कितनी बार, कहॉं-कहॉं लिख चुका हूँ) मेरी बात कहता है -
ReplyDeleteचाहते हैं सब कि बदले ये अँधेरों का निजाम
पर हमारे घर किसी बागी की पैदाइश न हो
प्रसंगवश्ा अनुरोध है कि आजाद और भगतसिंह के अनशन पर बैठने के प्रसंग सार्वजनिक करने का उपकार करें। ये प्रसंग या तो सर्वथा अज्ञात हैं या अल्पज्ञात।
भगत सिंह ने मियाँवाली जेल में 1929 में अनशन किया था और सुभाषचन्द्र बोस ने 1939-40 में नज़रबन्दी से पहले अनशन किया था। भगत सिंह ने तो साथियों के साथ 116 दिन के अनशन का रिकार्ड स्थापित किया था। "बाघा जतिन" जतिन दास की मृत्यु इसी अनशन में हुई थी। दोनों के छपे हुए सन्दर्भ मिल जायेंगे। फिलहाल मैं इन्टरनेट पर उपस्थित दो लिंक दे रहा हूँ:
Delete1. http://en.wikipedia.org/wiki/Hunger_strike#Gandhi_.26_Bhagat_Singh
2. http://www.preservearticles.com/201104085146/netaji-subhas-chandra-bose.html
विष्णु जी, यह जानकारी पोस्ट में भी जोड़ दी है, आभार!
Deleteहा हा ! लुप्त हंसा और बच्चे का सवाल - लाजवाब !
ReplyDeleteकुछ अपने स्वार्थ को साधे बिना करने की सोची जाये तो बात बने ......वैचारिक पोस्ट
ReplyDeleteआश्चर्य है ज्ञान का घटाटोप इस जमानें में भी बढ़ रहा है :(
ReplyDelete:)
ReplyDeleteदर-असल हम महानता का दर्प लेकर पैदा होते हैं, संसार की सारी महानटायें हमारे यहाँ हैं, संस्कृत को सारी भाषाओं की जननी बताने वाले हम हिन्दी में बात करने में असहज महसूस करते हैं और शायद शर्मिंदा भी|
ReplyDeleteकहीं पढ़ा था,
मेले में खोए होते तो कोई घर पहुँचा आता
हम घर में ही खोए हैं
कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे!
बहुत उम्दा रचना है..आप के ब्लॉग पर कुछ अलग ही पढने को मिलता है
ReplyDeleteकितने कमजर्फ हैं गुब्बारे चंद साँसों में फूल जाते हैं
ReplyDeleteथोड़ा ऊपर उठ जायें तो अपनी औकात भूल जाते हैं
आपने गागर में सागर भर दिया
प्रणाम आपके सुन्दर विचार के लिए
सवाल बेवकूफीपूर्ण हो सकते हैं मगर जवाब को सुनकर भी न गुनना, तह में जाने का प्रयास न करना, अपनी ही कहते जाना और भ्रम में जीते रहना, राक्षसी प्रवृत्ति है।
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट। अच्छा लगता है आपको पढना\ कभी कभी आपके आलेख किसी कविता का आभास भी देते हैं जिस से आलेख मे बोरीयत महसूस नही होती। शुभकामनायें।
ReplyDeleteये सब गडबड झाला है ... सब की अपनी अपनी ढपली है और सबको अपना अपना राग ही अच्छा लगता है ... दिलचस्प रहती है पर हर पोस्ट आपकी ...
ReplyDeleteअनुराग जी....उफ़्फ़, कहाँ कहाँ और कैसी कैसी चोट मारी है| आनंद आ गया !!
ReplyDeleteबहुत शोर है यहां। बहुत विरोधाभास।
ReplyDeleteशोर में से तथ्य निकालना भारत में सदैव कठिन काम रहा है। तभी शायद हिमालय की कन्दराओं में जाने की प्रथा बनी होगी।
हिमालय की कन्दरा - मुझे अब समझ आया। :)
Deleteमेरा भारत महान.
ReplyDeleteयह सब विरोधाभासी बातें हैं अपने देश में तभी तो कहा जाता है कि यहां विभिन्नता में एकता है! :)
ReplyDeleteक्या जनता तथाकथित रूप से जागरूक हो गई है ?
ReplyDeleteबढ़िया आलेख