हम थे वो थीं, और समाँ रंगीन ... |
बेक़रारी मेरे दिल को क्या हो गई
आँख ही आँख में आप क्या कह गये
नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
सभी समझे मगर इक वही रह गये
पलकें झपकाना भूले हैं मेरे नयन
जादू ऐसा वे तीरे नज़र कर गये
पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
दर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये
ज़िन्दगानी मेरी काम आ ही गई
जीते जी हम भी घायल हुए मर गये
चलिए छुटकारा मिल गया मोह माया से ....
ReplyDeleteअरे वाह, आज तो आपका अंदाज बेहद पसंद आ रहा है|
ReplyDeletemausam kaa asar hai
ReplyDeleteऐसी नज़रों का क्या कीजे जो नज़रों की जुबाँ न समझे.
ReplyDelete:)बारिश ज्यादा हो गई लगता है वहाँ.
ReplyDeleteनहीं जी, सूखा पड़ा है।
Deletebahut sundar rachna ke sath hajir hai aap.....badhai
ReplyDeleteवाह...शानदार गज़ल है!! :)
ReplyDeleteजितना उन्माद, उतनी ही चुभन होती है प्रेम में।
ReplyDeleteक्या कहूँ कुछ कहा नही जाए
ReplyDeleteबिन कहे भी रहा नहीं जाए
रात रात भर करवट मैं बदलूँ
दर्द जिगर का सहा नहीं जाए॥
जो मैं ऐसा जानती, प्रेम किए दुख होय।
ReplyDeleteजगत ढिंढोरा पीटती, प्रेम न करियो कोय।।
सनातन चिन्ता, सनातन व्यथा, सनातन प्रकटीककरण। तसल्ली कीजिए कि ऐसे अकेले नहीं हैं आप। मेरी ही तरह कइयों को यह गजल अपना बयान-ए-हालात लगेगा।
नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
ReplyDeleteसभी समझे मगर इक वही रह गये
यही एक सचाई है
नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
ReplyDeleteसभी समझे मगर इक वही रह गये
जज्बातों का अनूठा प्रवाह ...!
पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
ReplyDeleteदर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये !
बेहतरीन , आनंद आ गया अनुराग भाई !
ek kavita yahaan daenae kaa man haen aap kahae to dae hi dun
ReplyDeleteस्वागत है, इस ब्लॉग की शुरू से एक ही पॉलिसी रही है: मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।
Deleteकितथे है कविता?
Delete:-)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
मगर टेक्निकली सही गज़ल के लिए पहली लाइन कुछ यूँ कर लीजिए..
बेक़रार मेरे दिल को क्यूँ कर गये ..
आँख ही आँख में क्या कह गये
सादर
अनु
आभार अनु जी!
Deletesundar prastuti.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पंक्तियाँ है......
ReplyDeleteसभी समझे मगर वही रह गए,
ReplyDelete...यही है असल गम,जिसे हम सह गए !!
माटी की सोंधी खुश्बू सी ...बहुत सुंदर ....
ReplyDeleteनज़रों ने बड़ा जुलुम किया। जिसे समझना था वो समझा नहीं बाकी सभी ने घायल किया।
ReplyDeleteअब मैं क्या कहूँ !
ReplyDeleteबहुत खूब..अक्सर ऐसा ही होता है...दिल खुद ही कहता है और खुद ही सुनता है
ReplyDeleteहम थे वो थीं, और समाँ रंगीन .
ReplyDeleteनहीं समझे जी, खुलकर बताईये:)
@नहीं समझे जी, खुलकर बताईये:)
Deleteसमझों को समझाना क्या,
नासमझों को बतलाना क्या?
नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
ReplyDeleteसभी समझे मगर इक वही रह गये ...
क्या बात है ...
पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
ReplyDeleteदर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये
बढ़िया पंक्तिया सुंदर रचना .....
कौनसा मौसम लगा है
दर्द भी लगता सगा है !
प्रेम की यह चुभन भी अच्छी लगती है !
नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
ReplyDeleteसभी समझे मगर इक वही रह गये
क्या बात..
बढ़िया ग़ज़ल..
वाह!
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
ReplyDeleteसभी समझे मगर इक वही रह गये ...
बहुत खूब।
नज़रों से तीर निकल रहे हैं .
ReplyDeleteशायद अरमान मचल रहे हैं . :)
पलकें झपकाना भूले हैं मेरे नयन
ReplyDeleteजादू ऐसा वे तीरे नज़र कर गये
सुन्दर पंक्तियाँ ... आभार
पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
ReplyDeleteदर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये .......
फासले रह भी जाते हैं बीच में क्या किया जाये साहब...
ज़िन्दगानी मेरी काम आ ही गई
ReplyDeleteजीते जी हम भी घायल हुए मर गये
बहुत गजब...सीधे दिल के आरपार होने वाली रचना, शुभकामनाएं.
रामराम
सही है :)
ReplyDeleteपास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
ReplyDeleteदर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये ...
वाह ... क्या बात है .. पास आके भी फांसले रह गए ... होता है कई बार इश्क में ऐसा भी .. अच्छी रचना है ...
बेहद खुबसूरत ... लाजवाब ..
ReplyDeleteबहुत शानदार ग़ज़ल शानदार भावसंयोजन हर शेर बढ़िया है आपको बहुत बधाई
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