Tuesday, July 10, 2012

प्रेम की चुभन - कविता

हम थे वो थीं, और समाँ रंगीन ...
(चित्र व रचना: अनुराग शर्मा)

बेक़रारी मेरे दिल को क्या हो गई
आँख ही आँख में आप क्या कह गये

नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
सभी समझे मगर इक वही रह गये

पलकें झपकाना भूले हैं मेरे नयन
जादू ऐसा वे तीरे नज़र कर गये

पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
दर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये

ज़िन्दगानी मेरी काम आ ही गई
जीते जी हम भी घायल हुए मर गये



41 comments:

  1. चलिए छुटकारा मिल गया मोह माया से ....

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  2. दयानिधि वत्सJuly 10, 2012 at 10:35 AM

    अरे वाह, आज तो आपका अंदाज बेहद पसंद आ रहा है|

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  3. ऐसी नज़रों का क्या कीजे जो नज़रों की जुबाँ न समझे.

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  4. :)बारिश ज्यादा हो गई लगता है वहाँ.

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    1. नहीं जी, सूखा पड़ा है।

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  5. bahut sundar rachna ke sath hajir hai aap.....badhai

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  6. वाह...शानदार गज़ल है!! :)

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  7. जितना उन्माद, उतनी ही चुभन होती है प्रेम में।

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  8. क्या कहूँ कुछ कहा नही जाए
    बिन कहे भी रहा नहीं जाए
    रात रात भर करवट मैं बदलूँ
    दर्द जिगर का सहा नहीं जाए॥

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  9. जो मैं ऐसा जानती, प्रेम किए दुख होय।
    जगत ढिंढोरा पीटती, प्रेम न करियो कोय।।

    सनातन चिन्‍ता, सनातन व्‍यथा, सनातन प्रकटीककरण। तसल्‍ली कीजिए कि ऐसे अकेले नहीं हैं आप। मेरी ही तरह कइयों को यह गजल अपना बयान-ए-हालात लगेगा।

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  10. नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
    सभी समझे मगर इक वही रह गये

    यही एक सचाई है

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  11. नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
    सभी समझे मगर इक वही रह गये

    जज्बातों का अनूठा प्रवाह ...!

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  12. पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
    दर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये !

    बेहतरीन , आनंद आ गया अनुराग भाई !

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  13. ek kavita yahaan daenae kaa man haen aap kahae to dae hi dun

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    1. स्वागत है, इस ब्लॉग की शुरू से एक ही पॉलिसी रही है: मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।

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  14. :-)
    बहुत सुन्दर...
    मगर टेक्निकली सही गज़ल के लिए पहली लाइन कुछ यूँ कर लीजिए..

    बेक़रार मेरे दिल को क्यूँ कर गये ..
    आँख ही आँख में क्या कह गये

    सादर
    अनु

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  15. बहुत बढ़िया पंक्तियाँ है......

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  16. सभी समझे मगर वही रह गए,

    ...यही है असल गम,जिसे हम सह गए !!

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  17. माटी की सोंधी खुश्बू सी ...बहुत सुंदर ....

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  18. नज़रों ने बड़ा जुलुम किया। जिसे समझना था वो समझा नहीं बाकी सभी ने घायल किया।

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  19. बहुत खूब..अक्सर ऐसा ही होता है...दिल खुद ही कहता है और खुद ही सुनता है

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  20. हम थे वो थीं, और समाँ रंगीन .

    नहीं समझे जी, खुलकर बताईये:)

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    1. @नहीं समझे जी, खुलकर बताईये:)

      समझों को समझाना क्या,
      नासमझों को बतलाना क्या?

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  21. नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
    सभी समझे मगर इक वही रह गये ...
    क्या बात है ...

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  22. पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
    दर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये

    बढ़िया पंक्तिया सुंदर रचना .....
    कौनसा मौसम लगा है
    दर्द भी लगता सगा है !
    प्रेम की यह चुभन भी अच्छी लगती है !

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  23. नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
    सभी समझे मगर इक वही रह गये
    क्या बात..
    बढ़िया ग़ज़ल..

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  24. वाह!
    घुघूतीबासूती

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  25. नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
    सभी समझे मगर इक वही रह गये ...
    बहुत खूब।

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  26. नज़रों से तीर निकल रहे हैं .
    शायद अरमान मचल रहे हैं . :)

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  27. पलकें झपकाना भूले हैं मेरे नयन
    जादू ऐसा वे तीरे नज़र कर गये

    सुन्दर पंक्तियाँ ... आभार

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  28. पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
    दर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये .......
    फासले रह भी जाते हैं बीच में क्या किया जाये साहब...

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  29. ज़िन्दगानी मेरी काम आ ही गई
    जीते जी हम भी घायल हुए मर गये

    बहुत गजब...सीधे दिल के आरपार होने वाली रचना, शुभकामनाएं.

    रामराम

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  30. पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
    दर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये ...

    वाह ... क्या बात है .. पास आके भी फांसले रह गए ... होता है कई बार इश्क में ऐसा भी .. अच्छी रचना है ...

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  31. बेहद खुबसूरत ... लाजवाब ..

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  32. बहुत शानदार ग़ज़ल शानदार भावसंयोजन हर शेर बढ़िया है आपको बहुत बधाई

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मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।