चक्रव्यूह मानसिक स्थिति का एक ऐसा खोल है जिसे सुलझाने में ही जीवन की सारी विधाए मनुष्य उपयोग में लाता है, कभी सुलझता है कभी कर्मयोग स्थान बन जाता है चक्रव्यूह को विकास व विवसता के रूप में यंत्रवत हम उपयोग करते हैं ,शायद नियति भी यही है ......चिन्तनशील अभिव्यक्ति .. शुभकामनयें
यादों के बंधन ही वो डोर है जो जीवन से बांधे रहती है ....इसी चक्रव्यूह में घुमते घुमते ....आ जाती है जीवन जी शाम ....फिर ..... ''उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो .... न जाने किस गली में जिंदगी कि शाम हो जाये ....'' यही शेर याद आया पढ़ कर .... बहुत सुंदर रचना .... बधाई एवं शुभकामनायें .....
अच्छी प्रस्तुति । एक प्रयास - अज्ञानता के आवरण मेँ मोह याद नहीँ स्थति है । शब्दोँ की खेती बेमौसम भी तो होती है । औचित्य अहमियत रखता है । और औचित्य पल्लवित होता है मौन की शाख पर । आत्मविनिग्रह के बीज से ।
खुद से बात करना, सवाल करना खुद से। बहुत मुश्किल है, जवाब हासिल करना खुद से। किसी और से क्यों उधार लें मुश्किलें? खुद ही बरक्स होते हैं, रोज ही खुद से।
मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।
क्या बात है!!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 07-05-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-872 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
धन्यवाद!
Deleteस्मृतियाँ कभी ना छूटे!
ReplyDeleteजोर लगा बस उड़ जाना है,
ReplyDeleteएक दिन खुद से जुड़ जाना है।
बड़ा घुमावदार जीवन है....कहीं कुछ टूटता है तो कहीं जुड जाता है !
ReplyDeleteकुफ्र का कहर
ReplyDeleteअति सुंदर ...इसी तानेबाने में गुंथा है जीवन
ReplyDeleteबस एक ही उपाय है साक्षी होना !
ReplyDeleteअच्छी रचना .......
अज्ञान की उल्झनों का सटीक चित्रण!!
ReplyDeleteसम्यक् ज्ञान ही मात्र उपाय है।
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबंधन से मुक्ति आसान नहीं .....!
ReplyDeleteयादों के बंधन को बांधने की भी सीमायें होती हैं। सीमाओं पर अज्ञान का अंधकार रहता है। हम इसी अंधकार की यादों में जीवन जीते हैं।...बहुत सुंदर भाव हैं।
ReplyDeleteकभी तो यह चक्र टूटे
ReplyDeleteकभी तो टूटे ...
बहुत सुंदर।
संभव नहीं है यादों बाहर आ पाना
ReplyDeleteचक्रव्यूह मानसिक स्थिति का एक ऐसा खोल है जिसे सुलझाने में ही जीवन की सारी विधाए मनुष्य उपयोग में लाता है, कभी सुलझता है कभी कर्मयोग स्थान बन जाता है चक्रव्यूह को विकास व विवसता के रूप में यंत्रवत हम उपयोग करते हैं ,शायद नियति भी यही है ......चिन्तनशील अभिव्यक्ति .. शुभकामनयें
ReplyDeleteयादों के बंधन ही वो डोर है जो जीवन से बांधे रहती है ....इसी चक्रव्यूह में घुमते घुमते ....आ जाती है जीवन जी शाम ....फिर .....
ReplyDelete''उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो ....
न जाने किस गली में जिंदगी कि शाम हो जाये ....''
यही शेर याद आया पढ़ कर ....
बहुत सुंदर रचना ....
बधाई एवं शुभकामनायें .....
जीवन का विसियस सर्कल!!
ReplyDeleteयादों के चक्रव्यूह को वक्त ही तोड़ सकता है ।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteचक्र टूटते ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है ...किंतु मोक्ष इतनी सहज है क्या?
ReplyDeleteचाहते हैं जड़ भरत बनना....पर बन कहाँ पाते हैं?
अच्छी प्रस्तुति । एक प्रयास - अज्ञानता के आवरण मेँ मोह याद नहीँ स्थति है । शब्दोँ की खेती बेमौसम भी तो होती है । औचित्य अहमियत रखता है । और औचित्य पल्लवित होता है मौन की शाख पर । आत्मविनिग्रह के बीज से ।
ReplyDeleteyade aur jivan dono ek dusre se bandhe huye hai aur ham eske bina ji nahi sakte.
ReplyDeleteयह लखनऊ की भूलभुलैयां है।
ReplyDeleteयादें फिर उसी जगह वापस ले जाती हैं जहां से शुरू होता है जीवन ...
ReplyDeleteये जीवन का चक्र है जो जीवन के साथ ही टूटता है ...
जीवन चक्र यही है ....
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
बहुत सुन्दर....
ReplyDeleteशानदार..!!!!!!!
ReplyDeleteकोशिश करता है ,पूरा चक्र तोड़ नहीं पाता, बेचारा अभिमन्यु !
ReplyDeleteअब चक्र तो जब टूटेगा तब टूटेगा फिलहाल आप इसे यूं ही चलने दें उस मे ही सब की भलाई है !
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - लीजिये पेश है एक फटफटिया ब्लॉग बुलेटिन
शुक्रिया शिवम!
Deleteवाह ... बहुत गहन ... यह चक्रव्यूह ही तो नहीं टूटता
ReplyDeleteसुंदर अभिलाषा ...
ReplyDeleteखुद से बात करना, सवाल करना खुद से।
ReplyDeleteबहुत मुश्किल है, जवाब हासिल करना खुद से।
किसी और से क्यों उधार लें मुश्किलें?
खुद ही बरक्स होते हैं, रोज ही खुद से।
jeevan ki visham paristhitiyon se talmel krati post aabhar .mere blog par svagat hae.
ReplyDeleteपर टूटता कहाँ है..उल्टे उलझा ही लेता है..
ReplyDelete@ आहों में क्रंदन
ReplyDeleteक्रंदन में नाद
नाद की लहरियाँ
लहरियों पर सवार [भाव]
सवार बलवान
और उस
बलवान [भाव] की तीव्रता
कभी तो यह मंद पड़े.
कभी तो पड़े ...
अर्थात् "मर्मान्तक भावों की गति थामे नहीं थमती."
:)
Delete@@ यादों का सफ़र केवल बुद्धि से तय नहीं किया जा सकता. बौद्धिक विचार केवल 'अवरोधकों' की भूमिका निभाते हैं.
ReplyDeleteमैं जब भी अपने ब्लॉग यात्रा पर विहंगम दृष्टि डालता हूँ... कंगाल महसूस नहीं करता अपितु विश्वपटल पर अपने होने का एहसास करता हूँ.
यह चक्र तो चलते रहना है.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति.
बहुत ही गहरी सोच समेटे हैं..ये चंद पंक्तियाँ
ReplyDeleteऔर जो इस चक्र से बाहर हैं, वो इसे miss करते होंगे, यकीनन|
ReplyDelete:) यकीनन!?
Deleteशानदार शानदार शानदार !!!!!!
ReplyDelete