Thursday, June 21, 2012

व्यवस्था - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

हाथ में गुलदस्ता लेकर वह कमरे में घुसी तो वहाँ का हाल देखकर भौंचक्की रह गई। सब कुछ बिखरा पड़ा था। बिस्तर कपड़ों से भरा था, कमीज़ें, पतलूनें, बनियान, पाजामा, मोज़े आदि तो थे ही, सूट और टाइयाँ भी मजगीले से पड़े थे। गुड़ी-मुड़ी से पड़े साफ़ कपड़ों के बीच एकाध पहने हुए कपड़े भी थे। ग़नीमत यही थी कि पहनी हुई ज़ुराबें कमरे के एक कोने में इकट्ठी थीं। अलमारियों के अलावा भी हर ओर किताबें, नोटबुकक्स, डायरियाँ, रजिस्टर, सीडी, डीवीडी और ब्लू रे आदि डिस्क जमा थीं। और पढने की मेज़? राम, राम! हर आकार के बीसियों कागज़ जिनपर तरह-तरह के नोट्स लिखे हुए थे।

अनेक फ़्लैश ड्राइव्स, पैन, पैंसिलें, एलर्जी और दर्द की दवाओं की डब्बियाँ, पेपर-कटर, हथौड़ी, पेंचकस जैसे छोटे मोटे औज़ार नेल-कटर, कैंची, टेप डिस्पैंसर आदि से प्रतियोगिता कर रहे थे। मेज़ पर चश्मों, बटुओं, पासबुकों, चैकबुकों और रोल किये हुए कई पोस्टरों के बीच अपने लिये जगह बनाते हुए किंडल, टैबलैट, फ़ोन और लैपटॉप पड़े थे। मेज़ के नीचे रखे वर्कस्टेशन से न जाने कितने तार निकलकर मेज़ पर ही रखी हुई कई बाहरी हार्ड डिस्क ड्राइवों को जोड़कर एक अजीब सा मकड़जाल बना रहे थे। उसके ऊपर दो-तीन पत्रिकायें भी पड़ी थीं। साथ की छोटी सी मेज़ पर एक बड़ा सा प्रिंटर रखा था जिस पर कार्डबोर्ड के दो डिब्बे भी एक के ऊपर एक भिड़ाये हुए थे। साथ में ही डाक में आने-जाने वाले पत्रों को छाँटने के लिये एक पोर्टेबल दराज ज़बर्दस्ती अड़ा दिया गया था जोकि अब गिरा तब गिरा की हालत में अपने को संतुलित करने का प्रयास कर रहा था।

बुकशेल्व्स पर किताबों के अलावा भी जिस किसी चीज़ की कल्पना की जा सकती है वह सब मौजूद थी। अपने खोल से कभी निकाले न गये अखबारों के रोल, डम्बल्स, कलाकृति सरीखी मोमबत्तियाँ, देश-विदेश से जमा किया गया कबाड़। कितनी तो कलाई घड़ियाँ ही थीं। पाँच छः तरह के हैड फ़ोन पड़े थे। लैपटॉप के पहियों वाले दो बैग कन्धे पर टांगने वाले थैले को कोने की ओर खिसका रहे थे। कपड़ों की अलमारी के दोनों पट खुले हुए थे और वहाँ से भी काफ़ी कुछ बाहर आने की प्रतीक्षा में था। चाय, कॉफ़ी द्वारा अन्दर से काले पड़े कप, तलहटी में दूध का निशान छोड़ते हुए गिलास और सेरियल की कटोरियाँ। पास पड़ा कूड़ेदान कागज़ों में गर्दन तक डूबा हुआ था।

"हे भगवान! ये क्या हाल बना रखा है?"

"समय नहीं मिला, अगले इतवार को सब ठीक कर दूंगा।"

"आज क्यों नहीं? आज भी तो इतवार ही है।"

"कर ही देता, लेकिन सामान रखने की जगह ही नहीं बची है। न जाने लोग कैसे स्पेस मैनेज करते हैं। लगता है इस काम में मुझे विशेषज्ञ की सहायता की ज़रूरत है।"

"थिंक ऑउट ऑफ़ द बॉक्स!"

"वाह, मेरा ही वाक्यांश मेरे ही सर पर!"

"बेसमेंट में रख दें?"

" ... लेकिन मुझे तो इन सब चीज़ों की ज़रूरत रोज़ ही पड़ती है, ... इसी कमरे में रखना पड़ेगा।"

"तो फिर ... कुछ बॉक्स लेकर ..."

"अरे हाँ, क्लीयर प्लास्टिक के दो बड़े डब्बे ले आता हूँ। उनसे सब सामान व्यवस्थित भी जायेगा और मुझे दिखता भी रहेगा।"

तीन हफ़्ते बाद वह फिर आयी तो कमरे के स्वरूप में अंतर था। उस अव्यवस्था के बीच आड़े-टेढे पड़े दो खाली डब्बे भी अब बाकी सामान के साथ अपने रहने की जगह बना चुके थे।

[समाप्त]

48 comments:

  1. ऐसे दो तीन बॉक्स तो जीवन में भी चाहिये जिससे विचार व्यवस्थित हो सकें।

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    1. माँ हमेशा कहती थीं / हैं - "have a place fixed for everything (before you buy it) - and keep everything in its place after using it"

      यह भी कि "व्यवस्थित मन का दर्पण है व्यवस्थित घर | यदि मन में अव्यवस्था हो, तो वह बाहर भी झलकती है "

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    2. @कोई भी वस्तु लाने से पहले उसे रखने का स्थान तय कीजिये
      - एकांकी कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि रही यह उपयोगी सलाह, आभार!

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    3. कुछ लोग अव्यवस्थित रूप से व्यवस्थित होते हैं :)

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  3. :)इस व्यवस्था में हैप्पीबर्थ डे का केक खाना एक स्वादिष्ट एहसास है।

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  4. अव्यवस्थित कमरे की रुपरेखा शब्दों में क्या खूब झलकी ..पढ़ते हुए मन झुंझलाने लगा कि इस फैलाव को कोई कैसे समेटेगा . कई बार हो जाता है घर इतना ही अव्यवस्थित , सब सामान सामने ही चाहिए और करीने से रखने का समय नहीं तो खाली डब्बे खाली ही रहेंगे !
    अक्सर विचार भी यूँ ही रह जाते हैं व्यवस्थित होने के इंतज़ार में अव्यवस्थित !

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  5. वाह ...रोचक ...यही बिखराव तो जीवन है ...कहाँ समेट पाते हैं .....बस बढ़ता जाता है बिखराव ...सुंदर अभिव्यक्ति .

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  6. जीवन में एक ड्रॉप-बॉक्स हो नहीं तो यह क्लाउड-कम्प्यूटिंग से और बढ़िया संवर सकता है !

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  7. हूँ..... ऐसी व्यवस्था में सब समा जाता है :)

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  8. क्या किया जाय ,जिसकी जैसी आदत !

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  9. कथा का सुन्दर प्रवाह |
    प्रभावी भाव ||

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  10. हमारा देश में कुछ-कुछ इसी कहानी के ढर्रे पर चल रहा है, वक्त के साथ सब खुद ही एडजस्ट हो जाता है, अपने आप :) !

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  11. बक्से सा खाली पड़ा, ब्लॉगिंग भरा दिमाग |
    करनी पे अपने अड़ा, कैसे जाए जाग ?
    कैसे जाए जाग, जगाने वाला आये |
    देख जंक बिखराव, तरीके खूब सुझाए |
    लख विगड़े हालात, नहीं रविकर को बख्से |
    लौट जाय बिन बात, घूर अब खाली बक्से ||

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  12. :-)

    बहुत रोचक.....और वास्तविकता के बहुत करीब............

    अनु

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  13. इस तरह के कई लोगों को हमने ठीक किया है . :)

    लेकिन ऐसे मिलते बहुत हैं . न जाने कैसे जिंदगी बसर करते हैं

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  14. फोटो और लगा देते तो आनंद पूरा आता....

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    1. प्राइवेसी का सवाल भी है ...

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  15. अक्सर अव्यवस्था ज्यादा सुविधाजनक होती है.
    मज़ा आया पढ़ के!!

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  16. फिजिक्स का प्रोफ़ेसर कमरे का बढ़ा हुआ एंट्रापी मापता :)

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    1. अब फिजिक्स का प्रोफ़ेसर कहाँ से लाया जाये, वे सब तो बीएससी में ही हमसे तंग आकर बच निकले थे ...

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  17. अव्यवस्था के बीच व्यवस्था बना लें यही तो कुशलता है...बहुत रोचक कहानी...

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  18. बिल्‍कुल व्‍य‍वस्थित सा ... :)

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  19. कितनी आसानी से चीज़ें मिल जा सकती हैं..सामने ही तो पड़ी होती हैं..संभाल कर रखो..फिर ढुंढते रहो..:)

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  20. कभी-कभी लगता है, कुछ तो है मुझमे जो ठीकठाक है :)

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  21. कोशिश कभी व्यर्थ नहीं जाती है !

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  22. धन्यवाद शास्त्री जी!

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  23. हर वस्तु अपनी एक जगह बना ही लेती है, या ऐसा कहें कि हर वस्तु या व्यक्ति की अपनी एक खास जगह निश्चित होती है,या वस्तु हो या व्यक्ति अपने स्वभाव व गुणों के आधार पर ही जगह पाता है/बना लेता है... :-)

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  24. अनेक फ़्लैश ड्राइव्स, पैन, पैंसिलें, सरदर्द की दवाओं की डब्बियाँ, पेपर-कटर, हथौड़ी, पेंचकस जैसे छोटे मोटे औज़ार नेल-कटर, कैंची, टेप डिस्पैंसर आदि से प्रतियोगिता कर रहे थे। मेज़ पर चश्मों, बटुओं, पासबुकों, चैकबुकों और रोल किये हुए कई पोस्टरों के बीच अपने लिये जगह बनाते हुए एक किंडल, एक टैबलैट, एक फ़ोन और एक लैपटॉप पड़े थे।

    छड़े का घर ऐसा ही मिलता है .भैया जी आपकी नज़रों की बारीकी नहीं सूक्ष्मता को प्रणाम ...
    अदभूत लेखा मनभावन .....

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  25. तीन हफ़्ते बाद वह फिर आयी तो कमरे के स्वरूप में अंतर था। उस अव्यवस्था के बीच आड़े-टेढे पड़े दो खाली डब्बे भी अब बाकी सामान के साथ अपने रहने की जगह बना चुके थे।

    अपनी अपनी आदत है ..... डिब्बे ल कर भी आदत तो नहीं ही बदलनी थी .... रोचक कहानी

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  26. अपना गम लेकर कहीं और न जाया जाये,
    घर में बिखरी हुई चीजों को सजाया जाए...।

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  27. ये तो एकदम से मेरे कमरे का हाल-एहवाल है:)

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  28. कहानी,लेख,कविता क्या है ? हमारे विचारों की व्यवस्था ही तो है !
    अव्यवस्थित विचार बिखरे जीवन जैसा है इस कहानी के नायक जैसा ...
    सुंदर कहानी ....आभार !

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  29. अस्तव्यस्त मानसिकताओं का प्राक्ट्य स्वरूप ः)

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  30. वैसे तो मैं व्यवस्थित हूँ फिर भी कभी आपकी कहानी का एक किरदार बन जाता हूँ...

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  31. दो बोक्स में सिमटा जीवन ... कभी कभी बस ओअहल की जरूरत होती है व्यवस्थित होने के लिए ...

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  32. शायद इस अस्त व्यस्तता के पीछे भी कोई मनोवैज्ञानिक कारण रहता होगा? कुल मिलाकर इस रचना में कई जगह पाठक स्वयं को ही देखता है. बहुत सुंदर.

    रामराम

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    1. वापसी का स्वागत है ताऊ!

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  33. :) पूरा मेल बॉक्स ही स्पैम....... !

    बेहतरीन कहानी.

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  34. ......बहुत रोचक कहानी वास्तविकता के करीब

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  35. आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)

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  36. वैसे अस्त-व्यस्त जिन्दगी का अपना अलग ही आनंद है....अत्यधिक व्यस्था भी कभी-कभी दिखावे का अहसास कराती है......

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  37. लगता है कोई बम्‍बइया कमरा है।

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