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Tuesday, October 25, 2016

अनंत से अनंत तक - कविता

(अनुराग शर्मा)

जीवन क्या है एक तमाशा
थोड़ी आशा खूब निराशा

सब लीला है सब माया है
कुछ खोया है कुछ पाया है

न कुछ आगे न कुछ पीछे
कुछ ऊपर ही न कुछ नीचे

जो चाहे वो अब सुन कहले
उस बिन्दु से न कुछ पहले

उस बिन्दु के बाद नहीं कुछ
होगा भी तो याद नहीं कुछ

जो कुछ है वह सभी यहीं है
जितना सुधरे वही सही है.
सेतु हिंदी काव्य प्रतियोगिता में आपका स्वागत है, संशोधित अंतिम तिथि: 10 नवम्बर, 2016

Saturday, January 9, 2016

मेरा दर्द न जाने कोय - कविता

दर्द मेरा न वो ताउम्र कभी जान सके
बेपरवाही यही उनकी मुझे मार गई॥
तेरे मेरे आँसू की तासीर अलहदा है
बेआब  नमक सीला, वो दर्द से पैदा है
सब दर्द तेरे सच हैं सखी, मानता हूँ मैं
और उनके वजूहात को भी जानता हूँ मैं

पर उनके बहाने से जब टूटती हो तुम
बेवजहा बहुत मुझसे जो रूठती हो तुम

तुम मुझको जलाओ तो कोई बात नहीं है
अपनी उँगलियों को भी तो भूनती हो तुम

ये बात मेरे दिल को सदा चाक किए है
यूँ तुमसे कहीं ज़्यादा मैंने अश्क पिये हैं

मिटने से मेरे दर्द भी मिट जाये गर तेरा
तो सामने रखा है तेरे सुन यह सर मेरा

तेरे दर्द का मैं ही हूँ सबब जानता हूँ मैं
सब दर्द तेरे सच हैं सखी, मानता हूँ मैं।

Thursday, May 23, 2013

सच्चे फांसी चढ़दे वेक्खे - कहानी

ग्राहक: कोई नई किताब दिखाओ भाई
विक्रेता: यह ले जाइये, मंत्री जी की आत्मकथा, आधे दाम में दे दूंगा
ग्राहक: अरे, ये आत्मकथाएँ सब झूठी होती हैं
विक्रेता: ऐसा ज़रूरी नहीं, इसमें 25% सच है, 25% झूठ
ग्राहक: तो बाकी 50% कहाँ गया?
विक्रेता: उसी के लिये 50% की छूट दे रहा हूँ भाई...
बैंक में हड़बड़ी मची हुई थी। संसद में सवाल उठ गए थे। मामा-भांजावाद के जमाने में नेताओं पर आरोप लगाना तो कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार आरोप ऐसे वित्तमंत्री पर लगा था जो अपनी शफ़्फाक वेषभूषा के कारण मिस्टर "आलमोस्ट" क्लीन कहलाता था। आलमोस्ट शब्द कुछ मतकटे पत्रकारों ने जोड़ा था जिनकी छुट्टी के निर्देश उनके अखबार के मालिकों को पहुँच चुके थे। बाकी सारा देश मिस्टर शफ़्फाक की सुपर रिन सफेदी की चमकार बचाने में जुट गया था।

सरकारी बैंक था सो सामाजिक बैंकिंग की ज़िम्मेदारी में गर्दन तक डूबा हुआ था। सरकारी महकमों और प्रसिद्धि को आतुर राजनेताओं द्वारा जल्दबाज़ी में बनाई गई किस्म-किस्म की अधकचरी योजनाओं को अंजाम तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी ऐसे बैंकों पर ही थी। एक रहस्य की बात बताऊँ, चुनावों के नतीजे उम्मीदवार के बाहुबल, सांप्रदायिक भावना-भड़काव, पार्टी की दारू-पत्ती वितरण क्षमता के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करते थे कि इलाके की बैंक शाखा ने कितने छुटभइयों को खुश किया है।

पैसे बाँटने की नीति सरकारी अधिकारी और नेता बनाते थे लेकिन उसे वापस वसूलने की ज़िम्मेदारी तो बैंक के शाखा स्तर के कर्मचारियों (भारतीय बैंकिंग की भाषा के विपरीत इस कथा में "कर्मचारी" शब्द में अधिकारी भी शामिल हैं) के सिर पर टूटती थी। पुराने वित्तमंत्री आस्तिक थे सो जब कोई त्योहार आता था, अपने लगाए लोन-मेले में अपनी पार्टी और अपनी जाति के अमीरों में बांटे गए पैसे को लोन-माफी-मेला लगाकर वापसी की परेशानी से मुक्त करा देते थे। लेकिन "आस्तिक" दिखना नए मंत्री जी के गतिमान व्यक्तित्व और शफ़्फाक वेषभूषा के विपरीत था। उनके मंत्रित्व कल में बैंक-कर्मियों की मुसीबतें कई गुना बढ़ गईं क्योंकि नए लोन-मेलों के बाद की नियमित लोन-माफी की घोषणा होना बंद हो गया। बेचारे बैंककर्मियों को इतनी तनख्वाह भी नहीं मिलती थी कि चन्दा करके देश के ऋण-धनी उद्योगपतियों के कर्जे खुद ही चुका दें।

बैंकर दुखी थे। मामला गड़बड़ था। वित्तमंत्री ने न जाने किस धुन में आकर सरकारी बैंकों  की घाटे में जाने की प्रवृत्ति पर एक धांसू बयान दिया था और लगातार हो रहे घाटे पर कड़ाई से पेश आने की घोषणा कर डाली। जोश में उन्होने घाटे वाले खाते बंद करने पर बैंकरों को पुरस्कृत करने की स्कीम भी घोषित कर दी। इधर नेता का मुस्कराता हुआ चेहरा टीवी पर दिखा और उधर कुछ सरफिरे पत्रकारों की टोली ने बैंक का पैसा डकारकर कान में तेल डालकर सो जाने वाले उस नगरसेठ के उन दो खातों की जानकारी अपने अखबार में छाप दी जो संयोग से नेताजी का मौसेरा भाई होता था।

विदेश में अर्थशास्त्र पढे मंत्री जी को बैंकों के घाटे के कारणों जैसे कि बैंकों की सामाजिक-ज़िम्मेदारी, उन पर लादी गई सरकारी योजनाओं की अपरिपक्वता, नेताओं और शाखाओं की अधिकता, स्टाफ और संसाधनों की कमी, क़ानूनों की ढिलाई और बहुबलियों का दबदबा आदि के बारे में जानकारी तो रही होगी लेकिन शायद उन्हें अपने भाई भतीजों के स्थानीय अखबारों पर असर की कमी के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी। अखबार का मामला सुलट तो गया लेकिन साढ़े चार  साल से हाशिये पर बैठे विपक्ष के हाथ ऐसा ब्रह्मास्त्र लग गया जिसका फूटना ज़रूरी था।
 
संसद में प्रश्न उठा। सरकारी अमला हरकत में आ गया। पत्रकारों की नौकरी चली गई। एक के अध्यापक पिता नगर पालिका के प्राइमरी स्कूल में गबन करने के आरोप में स्थानीय चौकी में धर लिए गए। दूसरे की पत्नी पर अज्ञात गुंडों ने तेज़ाब फेंक दिया। नेताजी के भाई ने उसी अखबार में अपने देशप्रेम और वित्तीय प्रतिबद्धता के बारे में पूरे पेज का विज्ञापन एक हफ्ते तक 50% छूट पर छपवाया।

बैंक के ऊपर भाईसाहब के घाटे में गए दोनों ऋणों को तीन दिन में बंद करने का आदेश आ गया। जब बैंक-प्रमुख की झाड़ फोन के कान से टपकी तो शाखा प्रमुख अपने केबिन में सावधान मुद्रा में खड़े होकर रोने लगे। उसी वक़्त प्रभु जी प्रकट हुए। बेशकीमती सूट में अंदर आए भाईसाहब के साथ आए सभी लोग महंगी वेषभूषा में थे। उनके दल के पीछे एक और दल था जो इस बैंक के कर्मियों जैसा ही सहमा और थका-हारा दीख रहा था।

डील तय हो चुकी थी। भाईसाहब ने एक खाता तो मूल-सूद-जुर्माना-हर्जाना मिलाकर फुल पेमेंट करके ऑन द स्पॉट ही बंद करा दिया। इस मेहरबानी के बदले में बैंक ने उनका दूसरा खाता बैंक प्रमुख और वित्त मंत्रालय प्रमुख के मूक समझौते के अनुसार सरकारी बट्टे-खाते में डालकर माफ करने की ज़िम्मेदारी निभाई। शाखा-प्रमुख को बैंक के दो बड़े नॉन-परफोरमिंग असेट्स के कुशल प्रबंधन के बदले में प्रोन्नति का उपहार मिला और अन्य कर्मियों को मंत्रालय की ताज़ा मॉरल-बूस्टर योजना के तहत सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी का नकद पुरस्कार। मौसेरे भाई के तथाकथित अनियमितताओं वाले दोनों खातों के बंद हो जाने के बाद मंत्री जी ने भरी संसद में सिर उठाकर बयान देते हुए विपक्ष को निरुत्तर कर दिया।

एक मिनट, इस कहानी का सबसे प्रमुख भाग तो छूट ही गया। दरअसल एक और व्यक्ति को भी प्रोन्नति पुरस्कार मिला। भाईसाहब के साथ बैंक में पहुँचे थके-हारे दल का प्रमुख नगर के ही एक दूसरे सरकारी बैंक का शाखा-प्रमुख था। उसे नगर में उद्योग-विकास के लिए ऋण शिरोमणि का पुरस्कार मिला। भाई साहब के बंद हुए खाते का पूरा भुगतान करने के लिए उसकी शाखा ने ही उन्हें एक नया लोन दिया था।
[समाप्त]

Sunday, November 25, 2012

एक शाम गीता के नाम - चिंतन

सुखिया सब संसार है खाए और सोये।
दुखिया दास कबीर है जागे और रोये।

ज्ञानियों की दुनिया भी निराली है। जहाँ एक तरफ सारी दुनिया एक दूसरे की नींद हराम करने में लगी हुई है, वहीं अपने मगहरी बाबा दुनिया को खाते, सोते, सुखी देखकर अपने जागरण को रुलाने वाला बता रहे हैं। जागरण भी कितने दिन का? कभी तो नींद आती ही होगी। या शायद एक ही बार सीधे सारी ज़िंदगी की नींद की कसर पूरी कर लेते हों, कौन जाने! मुझे तो लगता है कि कुछ लोग कभी नहीं सोते, केवल मृत्यु उनकी देह को सुलाती है। सिद्धार्थ को बोध होने के बाद किसका घर, कैसा परिवार। मीरा का जोग जगने के बाद कौन सा राजवंश और कहाँ की रानी? बस "साज सिंगार बांध पग घुंघरू, लोकलाज तज नाची।" जगने-जगाने की स्थिति भी अजीब है। जिसने देखी-भोगी उसके लिए ठीक, बाकियों के लिये संत कबीर के ही शब्दों में:

अकथ कहानी प्रेम की कहे कही न जाय।
गूंगे केरी शर्करा, खाए और मुस्काय।।

पतंजलि के योग सूत्र के अनुसार योग का अर्थ चित्तवृत्तियों का निरोध है। अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा उनका निरोध संभव है। बचपन से अपने आसपास के लोगों को जीवन की सामान्य प्रक्रियाओं के साथ ही योगाभ्यास भी करते पाया। सर पर जितने दिन बाबा का हाथ रहा उन्हें नित्य प्राणायाम और त्रिकाल संध्या करते देखा। त्रिकाल संध्या की हज़ारों साल पुरानी परम्परा तो उनके साथ ही चली गयी, उनका मंत्रोच्चार आज भी मन के किसी कोने में बैठा है और यदा-कदा उन्हीं की आवाज़ में सुनाई देता है।
जैसे आदमी पुराने वस्त्र त्याग कर नये ग्रहण करता है, वैसे ही आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है। मगर ऐसी सूक्ष्म आत्मा को क्या चाटें ? ऐसी आत्मा न खा-पी सकती है, न भोग कर सकती है, न फिल्म देख सकती है। ~ हरिशंकर परसाई
पटियाली सराय के वे सात घर एक ही परिवार के थे। पंछी उड़ते गए, घोंसले रह गए समय के साथ खँडहर बनने के लिए। पुराने घरों में से एक तो किसी संतति के अभाव में बहुत पहले ही दान करके मंदिर बना दिया गया था। एक युवा पुत्र की मोहल्ले के गुंडों द्वारा हत्या किया जाना दूसरे घर के कालान्तर में खँडहर बनाने का कारण बना। कोई बुलाये से गये, तो कुछ स्वजन स्वयं निकल गए। घर खाली होते गए। इन्हीं में से छूटे हुए एक लबे-सड़क घर के मलबे को मोहल्ले के छुटभय्ये नेता द्वारा अपने ट्रक खड़े करने के लिए हमसार कराते देखता था। जब गर्मियों की छुट्टियों में सात खण्डों में से एक अकेला घर आबाद होता था तब कभी मन में आया ही नहीं कि एक दिन यह घर क्या, नगर क्या, देश भी छूट जायेगा। हाँ, दुनिया छूटने का दर्द तब भी दिल में था। संयोग है कि भरा पूरा परिवार होते हुए भी उस घर को बेचने हम दो भाइयों को ही जाना पड़ा। घर के अंतिम चित्र जिस लैपटॉप में रखे उसकी डिस्क इस प्रकार क्रैश हुई कि एक भी चित्र नहीं बचा।

बाबा रिटायर्ड सैनिक थे। अंत समय तक अपना सब काम खुद ही किया। उस दिन आबचक की सफाई करते समय दरकती हुई दीवार से कुछ ईंटें ऊपर गिरीं, अपने आप ही रिक्शा लेकर अस्पताल पहुँचे। हमेशा प्रसन्न रहने वाले बाबा को जब मेरे आगमन के बारे में बताया गया तो दवाओं की बेहोशी में भी उन्होंने आँख-मुँह खोले बिना हुंकार भरी और अगले दिन अस्पताल के उसी कमरे में हमसे विदा ले ली। दादी एक साल पहले जा चुकी थीं। मैं फिर से कछला की गंगा के उसी घाट पर खड़ा कह रहा था, "हमारा साथ इतना ही था।"

धर्म और अध्यात्म से जितना भी परिचय रहा, बाबा और नाना ने ही कराया। संयोग से उनका साथ लम्बे समय तक नहीं रहा। उनकी अनुपस्थिति का खालीपन आज भी बना हुआ है। जीवन में मृत्यु की अटल उपस्थिति की वास्तविकता समझते हुए भी मेरा मन कभी उसे स्वीकार नहीं सका। हमारा जीवन हमारे जीवन के गिर्द घूमता रहता है। शरीर माध्यम खलु धर्म साधनं। सारा संसार, सारी समझ इस शरीर के द्वारा ही है। जान है तो जहान है। इसके अंत का मतलब? मेरा अंत मतलब मेरी दुनिया का अंत। कई शुभचिंतकों ने गीता पढ़ने की सलाह दी ताकि आत्मा के अमरत्व को ठीक से समझ सकूँ। दूसरा अध्याय पढ़ा तो सर्वज्ञानी कृष्ण जी द्वारा आत्मा के अमरत्व और शरीर के परिवर्तनशील वस्त्र होने की लम्बी व्याख्या के बाद स्पष्ट शब्दों में कहते सुना कि यदि तू इस बात पर विश्वास नहीं करता तो भी - और सर्वज्ञानी का कहा यह "तो भी" दिल में किसी शूल की तरह चुभता है - तो भी इस निरुपाय विषय में शोक करने से कुछ बदलना नहीं है।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।

एक बुज़ुर्ग मित्र से बातचीत में कभी मृत्यु का ज़िक्र आया तो उन्होंने इसे ईश्वर की दयालुता बताया जो मृत्यु के द्वारा प्राणियों के कष्ट हर लेता है। गीता में उनकी बात कुछ इस तरह प्रकट हुई दिखती है:

मृत्युः सर्वहरश्चाहम् उद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा॥

मेरे प्रिय व्यक्तित्वों में से एक विनोबा भावे ने अन्न-जल त्यागकर स्वयं ही इच्छा-मृत्यु का वरण किया था। मेरी दूसरी प्रिय व्यक्ति मेरिलिन वॉन सेवंट से परेड पत्रिका के साप्ताहिक प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम में किसी ने जब यह पूछा कि संभव होता तो क्या वे अमृत्व स्वीकार करतीं तो उन्होंने नकारते हुए कहा कि यदि जीवनत्याग की इच्छा होने पर भी अमृत्व के बंधन के कारण जीवन पर वह अधिकार न रहे तो वह अमरता भी एक प्रकार की बेबसी ही है जिसे वे कभी नहीं चाहेंगी। अपने उच्चतम बुद्धि अंक के आधार पर मेरिलिन विश्व की सबसे बुद्धिमती व्यक्ति हैं। कुशाग्र लोगों के विचार मुझे अक्सर आह्लादित करते हैं, लेकिन नश्वरता पर मेरिलिन का विचार मैं जानना नहीं चाहता।

सिद्धांततः मैं अकाल-मृत्यु का कारण बनने वाले हर कृत्य के विरुद्ध हूँ। जीवन और मृत्यु के बारे में न जाने कितना कुछ कहा, लिखा, पढ़ा, देखा, अनुभव किया जा चुका है। शिकार, युद्ध, जीवहत्या, मृत्युदंड, दैहिक, दैविक ताप आदि की विभीषिकाओं से साहित्य भरा पड़ा है। संसार अनंत काल से है, मृत्यु होते हुए भी जीवन तो है ही। नश्वरता को समझते हुए, उसे रोकने का हरसंभव प्रयास करते हुए भी हम उसे स्वीकार करते ही हैं। लेकिन यह स्वीकृति और समझ हमारे अपने मन की बात है जो हमारे इस क्षणभंगुर शरीर से बंधा हुआ है। मतलब यह कि हमारी हर समझ, हमारा बोध हमारे जीवन तक ही सीमित है। लेकिन क्या यह बोध है भी? हमने सदा दूसरों की मृत्यु देखी है, अपनी कभी नहीं। कैसी उलटबाँसी है कि अपने सम्पूर्ण जीवन में हम सदा जीवित ही पाए गए हैं। जीवन, मृत्यु, पराजीवन, आदि के बारे में हमारी सम्पूर्ण जानकारी या/और कल्पनाएँ भी हमारे इसी जीवन और शरीर के द्वारा अनुभूत हैं। क्या इस जीवन के बाद कोई जीवन है? चाहते तो हैं कि हो लेकिन चाहने भर से क्या होता है?

हम न मरे मरै संसारा। हमको मिला जियावनहारा।। (संत कबीर)

ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या। मेरी दुनिया शायद मेरा सपना भर नहीं। मेरे जीवन से पहले भी यह थी, और मेरे बाद भी रहेगी। हाँ, जिस भी मिट्टी से बना मैं आज अपने अस्तित्व के प्रति चैतन्य हूँ वह चेतना और वह अस्तित्व दोनों ही मरणशील हैं। यदि मैं दूसरा पक्ष मानकर यह स्वीकार कर भी लूं कि कोई एक आत्मा वस्त्रों की तरह मेरा शरीर त्यागकर किसी नए व्यक्ति का नया शरीर पहन लेगी तो भी वह अस्तित्व मेरा कभी नहीं हो सकता। क्या वस्त्र कभी किसी शरीर पर आधिपत्य जमा सकते हैं? ईंट किसी घर की मालकिन हो सकती है? कुछ महीने में मरने वाली रक्त-कणिका क्या अपने धारक शरीर की स्वामिनी हो सकती है? वह तो शरीर के सम्पूर्ण स्वरुप को समझ भी नहीं सकती। मेरा अस्तित्व मेरे शरीर के साथ, बस। उसके बाद, ब्रह्म सत्यम् ...

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक:।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धामम् परमं मम ॥

(उस परमपद को न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और न अग्नि। जिस लोक को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में कभी वापस नहीं आता, ऐसा मेरा परमधाम है। (श्रीमद्भागवद्गीता)

जीवन की नश्वरता और कर्मयोग की अमरता की समझ देने के लिए गीता का आभार और आभार उन पूर्वजों का जिन्होंने जान देकर भी, कई बार पीढ़ियों तक भूखे, बेघरबार, खानाबदोश रहकर देस-परदेस भागते-दौड़ते हुए, कई बार अक्षरज्ञानरहित होकर भी अद्वितीय ज्ञान, समझ और विचारों को, इन ग्रंथों को भविष्य की पीढियों की अमानत समझकर संजोकर रखा और अपने घरों में जीवित रखी स्वतंत्र विचार की, वार्ता की, शास्त्रार्थ की, मत-मतांतर और वैविध्य के आदर की, शाकाहार और अहिंसा की, प्राणिमात्र पर दया की अद्वितीय भारतीय परम्परा। धन्य हैं हम कि इस भारतभूमि में जन्मे!

ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय। ॐ शान्ति शान्ति शान्ति।।


स्वामी विवेकानंद के शब्द, येसुदास का स्वर, संगीत सलिल चौधरी का

Thursday, July 26, 2012

मियाँमार की चीख-पुकार

सदाबहार मौसम वाले भाई संजय अनेजा ने खाचिड़ी की कहानी सुनाकर बचपन की याद दिला दी। अपना बचपन उतना धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा था, शायद इसीलिये बचपन की चार सबसे पुरानी यादें उस जगह (रामपुर) की हैं जिसका नाम ही देश के एक आदर्श व्यक्तित्व "पुरुषोत्तम" के नाम पर है। इन यादों में से एक मन्दिर, एक गुरुद्वारा और एक पुस्तकालय की है। चौथी अपने एक हमउम्र मित्र के साथ शाम के समय पुलिया पर बैठकर समवेत स्वर में "बम बम भोले" कहने की है। श्रावणमास में "बम बम" भजने का आनन्द ही और है लेकिन लगता है कि मेरी जन्मभूमि अब उतनी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही।

आज भी याद है कि बरेली में दिन का आरम्भ ही मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से होता था। अज़ान ही नहीं बल्कि अलस्सुबह उनपर धार्मिक गायन प्रारम्भ हो जाता था। आकाशवाणी रामपुर पर भी सुबह आने वाले धार्मिक गीतों के कार्यक्रम में कम से कम एक मुस्लिम भजन भी होता ही था। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदाय समान रूप से जातियों में विभाजित थे। हमारी गली में ब्राह्मण, बनिये और कायस्थ रहते थे। उस गली के अलावा हर ओर विभिन्न जातियों के मुसलमान रहा करते थे। भिश्ती, नाई, दर्ज़ी, बढई, घोसी, क़साई, राजपूत, और न जाने क्या-क्या? मुसलमानों के बीच कई जातियाँ - जिन्हें वे ज़ात कहते थे - ऐसी भी थीं जो हिन्दुओं में होती भी नहीं थीं। उस ज़माने में कुछ जातियों ने धर्म की दीवार तोड़कर जाति-सम्बन्धी अंतर्धार्मिक संगठन बनाने के प्रयास भी किये थे मगर मज़हब की दीवार शायद बहुत मजबूत है। अगर ऐसा न होता तो इस सावन पर बरेली के शाहाबाद मुहल्ले में साल में बस एक बार शिव के भजन बजाये जाने पर दिन में पाँच बार लाउडस्पीकरों पर नमाज़ पढने वाला वर्ग भड़कता क्यों? हर साल अपना समय बदलने वाला रमज़ान क्या हज़ारों साल से अपनी जगह टिके सावन को रोक देगा? यह कौन सी सोच है? यह क्या होता जा रहा है मेरे शहर को?

मेरा शहर? यह आग तो हर जगह लगी हुई है। बरेली के बाद फैज़ाबाद में दंगा होने की खबरें आईं। लेकिन जो खबर अपना ड्यू नहीं पा सकी वह थी असम में बंगलाभाषी मुसलमानों द्वारा हज़ारों मूलनिवासियों के गाँव के गाँव फूंक डालने की। ऐसा कैसे हो जाता है जब किसी क्षेत्र के मूल निवासी अपने ही देश, गाँव, घर में असुरक्षित हो जाते हैं? दूसरी भाषा, धर्म, प्रदेश और देश के लोग बाहर से आकर जो चाहे कर सकते हैं? और यह पहली बार तो नहीं है जब बंगाली मुसलमानों ने सामूहिक रूप से असमी आदिवासियों के साथ इस तरह का कृत्य किया है।

लगभग इसी प्रकार की हिंसा का विलोमरूप महाराष्ट्र में हिन्दीभाषियों के विरुद्ध हुई हिंसा के रूप में देखने को मिला था। हर समुदाय दूसरे समुदाय से आशंकित है। लेकिन इस आशंका के बीच भी कुछ समुदाय ऐसे क्यों हैं कि वे हिंसक भी हैं और फिर अपने को सताया हुआ भी बताते रहते हैं?

श्रावण के पहले सोमवार पर श्रीनगर के एक प्राचीन शिव मन्दिर में अर्चना करते दलाई लामा का एक चित्र इंटरनैट पर आने के मिनटों बाद ही मुसलमान नामों की प्रोफ़ाइलों से उनके ऊपर गाली-गलौज शुरू हो गई। कई गालीकारों ने म्यानमार के दंगों में मुसलिम क्षति की बात भी की थी। यह बात समझ आती है कि कम्युनिस्ट चीन के साये में पल रहे म्यानमार के तानाशाही शासन में न जाने कब से सताये जा रहे बौद्धों के दमन के समय मुँह सिये बैठे लोग मुसलमानों की बात आते ही मुखर हो गये लेकिन इस मामले से बिल्कुल असम्बद्ध दलाई लामा को विलेन बनाने का प्रयास किसने शुरू किया यह बात समझ नहीं आती। अपने देश में भी राष्ट्रीय समस्याओं से आँख मून्दकर अमन का राग अलापने वाले लोग अब म्यानमार में मुसलमानों के इन्वॉल्व होते ही मियाँमार-मियाँमार चिल्लाना शुरू हो गये हैं।

अवनीश कुमार देव
हिंसा-प्रतिहिंसा ग़लत है, निन्दनीय है। पर ऐसा क्यों होता है कि अपनी हिंसक मनोवृत्ति और हिंसक प्रतीकों को दूसरों से मनवाने की ज़िद लिये बैठे लोगों से भरे समुदाय को दुनिया भर में बस अपने धर्म के पालकों के प्रति हुआ अन्याय ही दिखता है? कोई आँख इतनी बदरंग कैसे हो सकती है? वैसे हिंसा और धर्म का एक और सम्बन्ध भी है। जहाँ एक वर्ग धर्मान्ध होकर हिंसा कर रहा है वहीं हिंसक-विचारधारा वाला एक दूसरा वर्ग किसी भी धर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। अपने को मज़दूरों का प्रतिनिधि बताने वाली इस विचारधारा ने अब तक न जाने कितने देशों में कम्युनिज़्म लाने के नाम पर इंसानों को कीड़ों-मकौड़ों की तरह कुचला है। ऐसे ही लोगों ने पिछले दिनों मनेसर में हिंसा का वह नंगा नाच किया है जिसकी किसी सभ्य समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मारुति सुज़ूकी के मानव संसाधन महाप्रबन्धक अवनीश कुमार देव को मनेसर परिसर के अंदर चल रही वार्ता के दौरान जिस प्रकार जीवित जलाया गया उससे आसुरी शक्तियों के मन का मैल और उसका बड़ा खतरा एक बार फिर जगज़ाहिर हुआ है।

दिल्ली में मेट्रो स्टेशन के लिये गहरी खुदाई होने पर मृद्भांडों की खबर मिलते ही मुस्लिम समुदाय सभी नियम कानूनों को ताक़ पे रखकर, नियमों और न्यायालय के आदेश का खुला उल्लंघन करके न केवल सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है बल्कि वहाँ रातों-रात एक नई मस्जिद भी बना दी जाती है। तब सिकन्दर बख्त का वह कथन याद आता है जिसमें उन्होंने ऐसा कुछ कहा था कि इस देश में बहुसंख्यक समाज डरकर रहता है क्योंकि अपने को अल्पसंख्यक कहने वालों ने देश के टुकड़े तक कर दिये और बहुसंख्यक उसे रोक भी न सके। तथाकथित अल्पसंख्यक और भी बहुत कुछ कर रहे हैं। मज़े की बात यह है कि यह "अल्पसंख्यक" वर्ग जैन, सिख, पारसी, बौद्ध और विभिन्न जनजातियों आदि जैसा अल्पसंख्यक नहीं है। विविधता भरे इस देश में यह समुदाय हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ा बहुसंख्यक है।

समाज में हिंसा और असंतोष बढता जा रहा है इतना तो समझ में आता है। लेकिन दुख इस बात का है कि प्रशासन और व्यवस्था नफ़रत के इस ज़हरीले साँप को इतनी ढील क्यों दे रही है? समय रहते इसे काबू में किया जाये। रस्सी को इतना ढीला मत छोड़ो कि पूरा ढांचा ही भरभराकर गिर जाये। एक बार लोगों के मन में यह बात आ गयी कि प्रशासन के निकम्मेपन के चलते जनता को अपनी, अपने परिवार, देश, धर्म, संस्कृति, इंफ़्रास्ट्रक्चर, व्यवसाय की ज़िम्मेदारी व्यक्तिगत स्तर पर खुद ही उठानी है तो आज के अनुशासनप्रिय लोग भी आत्मरक्षा के लिये प्रत्याघात पर उतर आयेंगे और फिर हालात काफ़ी खराब हो सकते हैं।
गिरा के दीवारें जलाया मकाँ जो, मुड़ के जो देखा लगा अपना अपना
कोई वर्ग सताया हुआ क्यों होता है? लोग पीढियों तक क्यों रोते हैं? किसके किये का फल किसे मिलता है? लीबिया, सीरिया, ईराक़, ईरान, सूडान, सोमालिया और अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं, बल्कि पख्तून फ़्रंटियर, पाक कब्ज़े वाला कश्मीर, बलूचिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश का हाल भी देखिये। जो लोग आज़ादी से पहले भारत तोड़ने के मंसूबे बांध रहे थे, उनकी औलादें आज भी उनकी करनी को और अपनी क़िस्मत को रो रही हैं। कम लोगों को याद होगा कि बाद में पाकिस्तानी दमन के प्रतीक बने शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत तोड़कर पाकिस्तान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रकृति कैसे काम करती है, मुझे नहीं पता लेकिन इतना पता है कि स्वार्थी की दृष्टि संकीर्ण ही नहीं आत्मघातक भी होती है। जो लोग आज़ादी के दशकों बाद भी इस देश में आग लगाने के प्रयासों में लगे हैं उनकी कितनी आगामी पीढियाँ कितना रोयेंगी इसका अन्दाज़ भी उन्हें समय रहते ही लग जाये तो बेहतर है। जो लोग इतिहास की ग़लतियों से सबक़ नहीं लेते उन्हें वह सब फिर से भोगना पड़ता ही है।


किसका पाकिस्तान, किसका हिन्दुस्तान, किसकी धरती, किसका देश
(पाकिस्तानी पत्रकार हसन निसार)
सम्बन्धित कड़ियाँ
* जावेद मामू - कहानी
* क़ौमी एकता - लघुकथा
* हिन्दी बंगाली भाई भाई - कहानी
* मैजस्टिक मूंछें - चिंतन
* खजूर की गुलामी - शीबा असलम फ़हमी
* जामा मस्जिद में दलाई लामा - मानसिक हलचल
* मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन ऑफ असम [मूसा]

Thursday, June 21, 2012

व्यवस्था - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

हाथ में गुलदस्ता लेकर वह कमरे में घुसी तो वहाँ का हाल देखकर भौंचक्की रह गई। सब कुछ बिखरा पड़ा था। बिस्तर कपड़ों से भरा था, कमीज़ें, पतलूनें, बनियान, पाजामा, मोज़े आदि तो थे ही, सूट और टाइयाँ भी मजगीले से पड़े थे। गुड़ी-मुड़ी से पड़े साफ़ कपड़ों के बीच एकाध पहने हुए कपड़े भी थे। ग़नीमत यही थी कि पहनी हुई ज़ुराबें कमरे के एक कोने में इकट्ठी थीं। अलमारियों के अलावा भी हर ओर किताबें, नोटबुकक्स, डायरियाँ, रजिस्टर, सीडी, डीवीडी और ब्लू रे आदि डिस्क जमा थीं। और पढने की मेज़? राम, राम! हर आकार के बीसियों कागज़ जिनपर तरह-तरह के नोट्स लिखे हुए थे।

अनेक फ़्लैश ड्राइव्स, पैन, पैंसिलें, एलर्जी और दर्द की दवाओं की डब्बियाँ, पेपर-कटर, हथौड़ी, पेंचकस जैसे छोटे मोटे औज़ार नेल-कटर, कैंची, टेप डिस्पैंसर आदि से प्रतियोगिता कर रहे थे। मेज़ पर चश्मों, बटुओं, पासबुकों, चैकबुकों और रोल किये हुए कई पोस्टरों के बीच अपने लिये जगह बनाते हुए किंडल, टैबलैट, फ़ोन और लैपटॉप पड़े थे। मेज़ के नीचे रखे वर्कस्टेशन से न जाने कितने तार निकलकर मेज़ पर ही रखी हुई कई बाहरी हार्ड डिस्क ड्राइवों को जोड़कर एक अजीब सा मकड़जाल बना रहे थे। उसके ऊपर दो-तीन पत्रिकायें भी पड़ी थीं। साथ की छोटी सी मेज़ पर एक बड़ा सा प्रिंटर रखा था जिस पर कार्डबोर्ड के दो डिब्बे भी एक के ऊपर एक भिड़ाये हुए थे। साथ में ही डाक में आने-जाने वाले पत्रों को छाँटने के लिये एक पोर्टेबल दराज ज़बर्दस्ती अड़ा दिया गया था जोकि अब गिरा तब गिरा की हालत में अपने को संतुलित करने का प्रयास कर रहा था।

बुकशेल्व्स पर किताबों के अलावा भी जिस किसी चीज़ की कल्पना की जा सकती है वह सब मौजूद थी। अपने खोल से कभी निकाले न गये अखबारों के रोल, डम्बल्स, कलाकृति सरीखी मोमबत्तियाँ, देश-विदेश से जमा किया गया कबाड़। कितनी तो कलाई घड़ियाँ ही थीं। पाँच छः तरह के हैड फ़ोन पड़े थे। लैपटॉप के पहियों वाले दो बैग कन्धे पर टांगने वाले थैले को कोने की ओर खिसका रहे थे। कपड़ों की अलमारी के दोनों पट खुले हुए थे और वहाँ से भी काफ़ी कुछ बाहर आने की प्रतीक्षा में था। चाय, कॉफ़ी द्वारा अन्दर से काले पड़े कप, तलहटी में दूध का निशान छोड़ते हुए गिलास और सेरियल की कटोरियाँ। पास पड़ा कूड़ेदान कागज़ों में गर्दन तक डूबा हुआ था।

"हे भगवान! ये क्या हाल बना रखा है?"

"समय नहीं मिला, अगले इतवार को सब ठीक कर दूंगा।"

"आज क्यों नहीं? आज भी तो इतवार ही है।"

"कर ही देता, लेकिन सामान रखने की जगह ही नहीं बची है। न जाने लोग कैसे स्पेस मैनेज करते हैं। लगता है इस काम में मुझे विशेषज्ञ की सहायता की ज़रूरत है।"

"थिंक ऑउट ऑफ़ द बॉक्स!"

"वाह, मेरा ही वाक्यांश मेरे ही सर पर!"

"बेसमेंट में रख दें?"

" ... लेकिन मुझे तो इन सब चीज़ों की ज़रूरत रोज़ ही पड़ती है, ... इसी कमरे में रखना पड़ेगा।"

"तो फिर ... कुछ बॉक्स लेकर ..."

"अरे हाँ, क्लीयर प्लास्टिक के दो बड़े डब्बे ले आता हूँ। उनसे सब सामान व्यवस्थित भी जायेगा और मुझे दिखता भी रहेगा।"

तीन हफ़्ते बाद वह फिर आयी तो कमरे के स्वरूप में अंतर था। उस अव्यवस्था के बीच आड़े-टेढे पड़े दो खाली डब्बे भी अब बाकी सामान के साथ अपने रहने की जगह बना चुके थे।

[समाप्त]

Thursday, May 27, 2010

माय नेम इज खान [कहानी]

अट्ठारह घंटे तक एक ही स्थिति में बैठे रहना कितनी बड़ी सजी है इसे वही बयान कर सकता है जिसने भारत से अमेरिका का हवाई सफ़र इकोनोमी क्लास में किया हो. अपन तो इस असुविधा से इतनी बार गुज़र चुके हैं कि अब यह सामान्य सी बात लगती है. मुश्किल होती है परदेस में हवाई अड्डे पर उतरने के बाद आव्रजन कार्यवाही के लिए लम्बी पंक्ति में लगना.

आम तौर पर कर्मचारी काफी सभ्य और विनम्र होते हैं. खासकर भारतीय होने का फायदा तो हमेशा ही मिल जाता है. कई बार लोग नमस्ते कहकर अभिवादन भी कर चुके हैं. फिर भी, हम लोग ठहरे हिन्दुस्तानी. वर्दी वाले को देखकर ही दिल में धुक-धुक सी होने लगती है. खैर वह सब तो आसानी से निबट गया. अब एक और जांच बाकी थी. हुआ यह कि इस बार साम्बाशिवं जी ने बेलपत्र लाने को कहा था जो हमने दिल्ली में कक्कड़ साहब के पेड़ से तोड़कर एक थैले में रख लिए थे. यहाँ आकर डिक्लेर किये तो पता लगा कि आगे अपने घर की फ्लाईट पकड़ने से पहले फूल-पत्ती-जैव विभाग की जांच और क्लियरेंस ज़रूरी है. अरे वाह, यहाँ तो अपना भारतीय बन्दा दिखाई दे रहा है. चलो काम फ़टाफ़ट हो जाएगा.

नेम प्लीज़

शर्मा

कैसे हैं शर्मा जी? नेपाल से कि हिन्दुस्तान से?

दिल में आया कहूं कि हिन्दी बोल रहा है और पासपोर्ट देखकर भी देश नहीं पहचानता, कमाल का आदमी है. मगर फिर बात वहीं आ गयी कि हुज्जतियों से बचकर ही रहना चाहिए, खासकर जब वे अधिकारी हों.

कितने साल से हैं यहाँ?

कोई सात-आठ साल से

सात या आठ

हूँ... सात साल आठ महीने...

तो ऐसा कहिये न.

कब गए थे हिन्दुस्तान?

एक महीना पहले.

अब कब जायेंगे?

पता नहीं... अभी तो आये हैं.

हाँ यहाँ आके वहाँ कौन जाना चाहेगा?

भंग पीते हैं क्या?

नहीं तो!

तो ये पत्ते किसलिए लाये हैं? क्या देसी बकरी पाली हुई है?

किसी ने पूजा के लिए मंगाए हैं.

नशीले हैं?

नहीं बेल के हैं

कौन सी बेल?

एक फल होता है. थोड़ा जल्दी कर लीजिये, मेरी फ्लाईट निकल जायेगी.

एक घंटे की हुज्जत के बाद साहब को दया आ गयी.

चलो छोड़ दे रहा हूँ आपको. क्या याद करेंगे किस नरमदिल अफसर से पाला पडा था.

फ्लाईट तो निकल चुकी थी. चलते-चलते मैंने पूछा, "क्या नाम है आपका? भारत में कहाँ से हैं आप?"

"माय नेम इज खान... सलीम खान! इस्लामाबाद से."
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इस व्यंग्य का ऑडियो आवाज़ पर उपलब्ध है. सुनने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें.

Thursday, February 12, 2009

खाली प्याला - समापन किस्त

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. वह हमेशा चाय पीकर खाली प्याले मेरी मेज़ पर छोड़ देता था. आगे पढिये कि मैंने उसे कैसे झेला। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी; तीसरी कड़ी; चौथी कड़ी]
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मुझे लगता है कि ज़िंदगी से हर दाँव हारे हुए उस बेबस इंसान पर आता हुआ मेरा रहम उन खाली प्यालों पर आए हुए मेरे गुस्से से कहीं भारी था।

उस शाखा में मेरा कार्यकाल कब पूरा हो गया, पता ही न चला। मेरा तबादला महाराष्ट्र में सात पर्वतों से घिरे एक सुदूर ग्राम में हो गया था। मेरी विदाई-सभा में सारे सहकर्मियों ने मेरी प्रशंसा में कोई कसर न छोड़ी। जिन लोगों को आरम्भ में मैं फूटी आँख न सुहाता था जब उन्होंने तारीफ़ के पुल बांधे तो मेरा सीना गर्व से फूल गया। शाखा की ओर से और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत रूप से भी मुझे उपहारों से लाद दिया। सभी दिख रहे थे परन्तु नीलाम्बक्कम नदारद था। उस दिन वह छुट्टी पर था। पूछने पर अमर ने बताया कि उसका इकलौता स्वेटर उसे आगरा की ठण्ड से नहीं बचा सका। मैंने नीलाम्बक्कम की अनुपस्थिति के बारे में अधिक ध्यान नहीं दिया। शायद मेरे मन में उसके प्रति दयाभाव से ज़्यादा कुछ भी नहीं था। वैसे भी मैं अपनी नयी शाखा के बारे में बहुत उत्साहित था।

नयी जगह आकर मैं बहुत खुश था। मेरी नयी शाखा बहुत अच्छी थी। गाँव हरी-भरी पहाड़ियों से घिरी एक सुंदर घाटी में स्थित था। शाखा में कागजी काम तो कम था मगर बाहर घूम-फिरकर करने के लिए कामों की कमी नहीं थी। छोटी सी शाखा थी जिसमें मेरे अलावा केवल पाँच लोग थे। सभी बहुत खुशमिजाज़ और मित्रवत थे, विशेषकर मोहिनी जिसने अपने आप ही मुझे मराठी सिखाने की जिम्मेदारी ले ली थी।

वहाँ रहकर मैंने पहली बार भारत के ग्रामीण विकास में सरकारी बैंकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को करीब से देखा। हमारी शाखा के सहयोग से क्षेत्र के 12 गाँवों की काया पलट हुयी थी। दूध के लिए गाय-भैसें, ईंधन के लिए गोबर गैस, और सिंचाई के लिए सामूहिक जल-संरक्षण परियोजनाओं ने किसानों के जीवन-स्तर को बहुत सुधारा था। इस गाँव में ही पहली बार मैंने गरीबी-रेखा से नीचे रह रहे लोगों को भी बेधड़क बैंक आते-जाते देखा।

पूरा गाँव एक बड़े परिवार की तरह था। हम छः लोग भी इस परिवार का अभिन्न अंग थे। गाँव में किसी न किसी बहाने से आए-दिन दावतें होती रहती थीं। न जाने क्यों, गाँव की हर दावत मांसाहार पर केंद्रित होती थी। जब मोहिनी को मेरी खानपान की सीमाओं का पता लगा तो उसने मुझे इन दावतों से बचाने की जिम्मेदारी भी ले ली। वह मुझे अपने घर ले जाती और कुछ नया पकाकर खिलाती थी। मुझे यह मानना पड़ेगा कि उस गाँव के लोग बहुत ही सहिष्णु और उदार थे। खासकर मोहिनी मेरे प्रति बहुत ही सहनशील थी।

गाँव में रहते हुए भी अमर के साथ मेरा पत्र-व्यवहार जारी रहा। एक दिन शाखा में उसका ट्रंक-कॉल आया। पता लगा कि आगरा में काम करते हुए जब एक दिन मैंने अपने खाते से पैसे निकाले तो मेरा चेक गलती से किसी ग्राहक के खाते में घटा दिया गया था। बाद में जब विदाई पर मैंने अपना खाता बंद करके बचा हुआ पैसा निकाला तो बैलेंस शून्य होने के बजाय असलियत में ऋण में बदल गया था। जब उस ग्राहक ने अपने खाते में पैसा कम पाया तो गलती का पता लगा।

मैं चिंतित हुआ। इतने दिनों के प्रशिक्षण में मैं यह जान चुका था कि किसी कर्मचारी के बचत खाते में किसी भी कारण से उधार हो जाना एक बहुत ही गंभीर त्रुटि थी जिसकी सज़ा निलंबन तक हो सकती थी। लेकिन साथ ही मुझे आगरा शाखा में अपनी लोकप्रियता का ध्यान आया। शाखा से मेरी विदाई के भाषणों में कहे गये शब्द भी कान में मधुर संगीत की भांति झंकृत हुए। मेरी आंखों के सामने ऐसा चित्र साकार हुआ जिसमें कई सहकर्मी मेरे खाते में पैसा डालने के लिए एक-दूसरे से मुकाबला कर रहे थे। मैं यह जानने को उत्सुक था कि अंततः मेरे मित्रों में से कौन सफल हुआ। आख़िर मेरा मधुर व्यवहार और मेरी लोकप्रियता बेकार थोड़े ही जाने वाली थी।

"कोई आगे नहीं आया ..." अमर ने कहा, "... कुछ लोग तो मामले को तुंरत ही ऊपर रिपोर्ट कराना चाहते थे।"

"यह कल के लड़के समझते क्या हैं अपने को?"

"अफसर बन गए तौ बैंक खरीद ली क्या इन्ने?"

"क़ानून सबके लिए बराबर है। रिपोर्ट करो।"

अमर ने बताया कि उपरोक्त जुमले मेरे कई "नज़दीकी" मित्रों ने उछाले थे। उसकी बातें सुनकर मैं सन्न रह गया। हे भगवान्! कितने झूठे थे वे पढ़े-लिखे, सुसंस्कृत लोग। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि दोस्ती का दम भरने वाले वे लोग मेरी अनुपस्थिति में ऐसा व्यवहार करेंगे। मैं अपने भविष्य को दांव पर लगा देख पा रहा था। एक छोटी सी भूल मेरा आगे का करियर चौपट कर सकती थी।

"फ़िर क्या हुआ? क्या उन्होंने ऊपर रिपोर्ट किया? मेरे सामने क्या रास्ता है अब?" मुझे पता था कि अमर के खाते में कभी भी इतना पैसा नहीं होता था कि वह इस मामले में मेरी सहायता कर सका हो।

"जल्दी बताओ, मैं क्या करूँ?" मैंने उद्विग्न होकर पूछा।

"बेफिक्र रहो ..." अमर ने मुझे दिलासा देकर कहा, "नीलाम्बक्कम ने ज़रूरी रक़म अपने खाते से चुपचाप तुम्हारे खाते में ट्रांसफर कर दी।"

अमर ने बताया कि नीलाम्बक्कम तो यह भी चाहता था कि मुझे इस बात का पता ही न लगे लेकिन अमर ने सोचा कि मुझे बताना चाहिए।

"इस दुनिया में अच्छे लोगों के साथ कभी भी बुरा नहीं होना चाहिए" अमर ने मेरे बारे में नीलाम्बक्कम के शब्द दोहराए तो कृतज्ञता से मेरा दिल भर आया।

मैंने रात भर सोचकर नीलाम्बक्कम को एक सुंदर सा "धन्यवाद" पत्र लिखा और पैसों के साथ भेज दिया। नीलाम्बक्कम की और से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मुझे पता भी नहीं कि आज वह कहाँ है मगर मेरी शुभकामनाएँ हमेशा उसके और अशोक के साथ हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर ने उनके सब सपने ज़रूर साकार किए होंगे। सच्चाई के प्रति मेरे विश्वास को आज भी बनाए रखने में नीलाम्बक्कम जैसे लोगों का बहुत योगदान है।

[समाप्त]

Wednesday, February 11, 2009

खाली प्याला - चौथी कड़ी

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके. उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला. आगे पढिये कि नीलाम्बक्कम कौन था। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी; तीसरी कड़ी]
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एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके। उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला। उनके मुर्दार चेहरे पर मैंने पहली बार मुस्कान देखी। मेरे नमस्कार के उत्तर में उन्होंने उत्साह से उछालते हुए कार्ड मेरी और बढ़ाया और फिर शब्दों को सहेजते हुए टूटी-फूटी हिन्दी में जो कहा उससे मुझे समझ आया कि उनका बेटा हाई स्कूल पास हो गया था। मैंने उनके हाथ से कार्ड लिया, पढा और वापस करते हुए खुश होकर उन्हें बधाई भी दी। कुछ देर तक वे भाव-विह्वल होकर अपने बेटे अशोक के बारे में बताते रहे। जितना कुछ मैं समझ सका उससे पता लगा कि अपनी इस होनहार इकलौती संतान को उन्होंने बड़े जतन से पाला है। उसकी माँ तो जन्म देते ही चल बसी थी। तब से नीलाम्बक्कम अशोक का माँ-बाप दोनों ही बन गया। अशोक बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता था। उसके परीक्षा-परिणाम से यह स्प्पष्ट था कि उसके लिए यह काम ज़्यादा कठिन नहीं होगा। इस छोटी सी मुलाक़ात के बाद नीलाम्बक्कम जी अपना पोस्टकार्ड और अशोक की यादें साथ लेकर वापस अपनी सीट पर चले गए मगर जोश में चाय पीकर छूटा हुआ खाली प्याला मेरी मेज़ पर छोड़ गए।

इसके बाद तो वे रोजाना ही मेरी मेज़ पर आ जाते थे और कुछ देर बात करके ही जाते थे। शायद तब तक उन्हें भी यह अहसास हो गया था कि मैं वह बादल था जो सिर्फ़ छाया देना जानता था, गरजना नहीं। कभी कभार वे काम से सम्बंधित बातें भी करते थे मगर उनकी अधिकांश बातें उनकी दिवंगत पत्नी या उनके पुत्र के चारों और ही घूमती थीं। मैं दावे से कह सकता हूँ कि एक हफ्ते के अन्दर मैंने नीलाम्बक्कम के बारे में जितना जाना था उतना उस शाखा के अन्य कर्मी उनके साथ महीनों रहकर भी नहीं जान सके होंगे। इतना स्पष्ट था कि उस व्यक्ति का भूत उसकी मृत पत्नी थी और उसका भविष्य मीलों दूर बैठा उसका प्रिय बेटा। ऐसा लगता था जैसे उसके जीवन की एकमात्र प्रेरणा उसका बेटा ही था। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अशोक को जीवन की सारी खुशियाँ देना ही रह गया था। कभी-कभी यह सोचकर दुःख भी होता था कि बेचारा बूढ़ा अपने अकेले प्रियजन से इतनी दूर इन बेरहम और स्वार्थी अजनबियों के बीच क्या पाने के लिए पड़ा हुआ है।

समय बीतने के साथ उनके मुझसे बात करने की आवृत्ति बढ़ती गयी। और उसके साथ ही बढ़ती गयी, मेरी मेज़ पर छोड़े गए उनके जूठे खाली प्यालों की संख्या। मैं बचपन से ही अपने संयम और शांत स्वभाव के लिए ख्यात हूँ। सब जानते हैं कि जिन परिस्थितियों में सामान्यजन क्रोध से पागल हो जाते हैं, मैं उनमें भी प्राकृतिक रूप से सहज रहता हूँ। मेरी इस प्रकृति का एक धुर-विरोधी पक्ष भी है जो सिर्फ़ मैं बेहतर जानता हूँ। वह यह कि मैं बड़ी-बड़ी चुनौतियाँ भले ही बड़ी आसानी से नज़रंदाज़ कर सकता होऊँ, छोटी-छोटी बदतमीजियाँ भी अगर लगातार होती रहें तो मुझे बहुत गुस्सा दिलाती हैं। एक बेशऊर व्यक्ति द्वारा बार-बार मेरी मेज़ पर जूठे प्याले छोड़ जाना भी ऐसी ही छोटी सी बदतमीजी थी जिसे कोई भी अन्य व्यक्ति शायद आसानी से नज़रंदाज़ कर देता। मगर मैं तो मैं ही हूँ - क्या करूँ?

मेरे मित्र कहते हैं कि मेरा चेहरा तो शीशे की तरह साफ़ है जिसके भाव कोई अंधा भी पढ़ सकता है। मगर नीलाम्बक्कम शायद भाव पढने की कला का इकलौता अपवाद था। उसका छोड़ा हुआ हर जूठा प्याला मेरे रक्तचाप को और अधिक बढ़ाता जाता था। कभी-कभी मेरा मन करता था कि उसे सामने बिठाकर पूरी विनम्रता से यह समझाऊँ कि उसके हर जूठे कप की जिम्मेदारी भी उसकी ही है, मेरी नहीं। अगर वह उसे काउंटर पर नहीं रख सकता है तो कहीं और रखे, या फिर चाय पीये ही नहीं। जब मैं अच्छे मूड में नहीं होता था तब तो दिल करता था कि उस खाली प्याले को घुमाकर उसीके सर पर दे मारूँ। मैं किसी को आसानी से बख्शता नहीं हूँ लेकिन न जाने क्यों यह दोनों विकल्प मेरे मन में ही रखे रह गए। न मैंने कभी उसे प्याला मारा और न ही उसकी इस परेशान करने वाली आदत का ज़िक्र उससे किया। मुझे लगता है कि ज़िंदगी से हर दाँव हारे हुए उस बेबस इंसान पर आता हुआ मेरा रहम उन खाली प्यालों के कारण आने वाले गुस्से से कहीं भारी था।

[क्रमशः]

Tuesday, February 10, 2009

खाली प्याला - भाग ३

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे अधिकाँश सहकर्मी मेरे आगरा शाखा में आने से खुश नहीं थे। वहाँ बस एक एक अपवाद था, अमर सहाय सब्भरवाल. अमर का बूढा और नीरस अधिकारी नीलाम्बक्कम उस शाखा की सज्जा में कहीं से भी फिट नहीं बैठता था. आगे पढिये कि नीलाम्बक्कम कौन था। [पहली कड़ी; दूसरी कड़ी]
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झंडूखेड़ा-प्रवास नीलाम्बक्कम के जीवन का सबसे कठिन तप सिद्ध हुआ। वह लखनऊ की उर्दू भी नहीं समझ सकता था, झंडूखेड़ा की ब्रजभाषा का तो कहना ही क्या। उसे शहर के मामूली जेबकतरे का सामना करना भी नहीं आता था, तो फ़िर आगरा देहात के लठैतों को कैसे झेलता? झंडूखेडा में उसे उत्तर-प्रदेश के गाँव के क़ानून-व्यवस्था एवं मूलभूत सुविधाओं से रहित कठिन जीवन का अनुभव पहली बार हुआ था। उस अकेले विधुर के लिए उम्र के इस पड़ाव पर ऐसी असुविधाओं का पहली बार सामना करना आसान नहीं था। ऊपर से उसे यह भी पता नहीं था कि व्यवहार कुशलता किस चिडिया का नाम है। वह लेन-देन, बख्शीश-व्यवहार के मामले में भी बिल्कुल कोरा था।

न वह प्रबंधन में निपुण था, और न ही उसे ग्रामीण बैंकिंग से जुडी राजनीति ही आती थी। गाँव वालों और बैंक-कर्मी, दोनों का ही उस पर दवाब था। साथ ही खंड विकास अधिकारी को भी उसके आने से काफी असुविधा होने लगी थी। नतीजा, महीने भर में ही उसका जीवन नरक हो गया। हालत यह हो गयी कि बैंक के आगरा क्षेत्रीय कार्यालय के बड़े अधिकारियों के घर आकर घंटों रोना उसके सप्ताहांत का आवश्यक नियम बन गया। जब उसने वापस क्लर्क बनने की संभावनाएं तलाशीं तो कहा गया कि पदावनति तो हो जायेगी मगर दो साल तो उसे उत्तर भारत में ही पूरे करने पड़ेंगे। उसी समय किसी सहृदयी ने आगरा छावनी शाखा में बहुत दिनों से खाली पड़े एक पद को ढूंढ निकाला और नीलाम्बक्कम जी यहाँ आकर सुशोभित हो गए। इस शाखा में भी उसके प्रति व्यवहार में कोई ख़ास बदलाव नहीं था। कोई भी उसे इज्ज़त से नहीं देखता था। वह फ़िर भी खुश था क्योंकि यहाँ कम से कम उसकी जान तो खतरे में नहीं थी।

उसकी अल्प-शिक्षा का भी मज़ाक उड़ता था और उसके रंग-रूप का भी, कभी-कभार उसकी अंग्रेजी का भी। मगर सबसे ज़्यादा मज़ाक उड़ता था उसकी वेश-भूषा का। उसे शायद कभी यह पता नहीं चला कि उसकी हवाई चप्पल, ढीली-ढाली कमीज़ और लिफाफे जैसी पतलून उसके सबसे बड़े दुश्मन थे। अमर के अलावा कोई भी उससे बात नहीं करता था। दोपहर का खाना भी वह अकेला अपनी सीट पर बैठकर खाता था। और तो और, प्रबंधक को भी जब उसके विभाग में कोई काम होता था तो वह नीलाम्बक्कम को दरकिनार कर अमर को ही बताता था।

मैंने नीलाम्बक्कम को कभी इस व्यवहार का बुरा मानते या शिकायत करते नहीं देखा। करता भी किससे? इस शाखा में तो शायद उसका दुखड़ा सुनने वाला कोई था भी नहीं। शायद इस भेदभाव को उसने झंडूखेडा से अपने बचाव का भुगतान समझकर आत्मसात कर लिया था।

समय बीतता गया। देखते-देखते मेरे आगरा-प्रवास का एक महीना पूरा हो गया। इस बीच में वहाँ मेरे लिए काफी परिवर्तन हुए। अमर के अतिरिक्त भी बहुत से सहकर्मी मेरे मित्र बने। खान को मेरी उर्दू पसंद आयी तो मिश्रा जी को मेरा निर्व्यसन होना। बाकी लोगों को भी मुझमें कोई अनुकरणीय सूत्र मिल ही गया था। जिन्हें नहीं भी मिला उन्हें भी इतने दिनों में इतना विश्वास तो हो ही गया था कि मैं उनको कोई हानि नहीं पहुँचाने वाला हूँ। खाली समय में वे लोग अक्सर मुझे घेरकर खड़े हो जाते थे और काम से सम्बंधित या व्यक्तिगत बातें करते थे। कोई मुझे अपनी मजदूर युनियन में लेना चाहता था तो कोई अपनी दूर की भतीजी का रिश्ता चाहता था। अपने स्थानीय होने के दम पर वे मेरी हर तरह से सहायता करने में भी एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते दिखाई देते थे।

एक सुबह को नीलाम्बक्कम जी अपनी सीट से उठे और सीधे मेरी मेज़ पर आकर रुके। उनके एक हाथ में एक पोस्टकार्ड था और दूसरे में उनकी सद्य-समाप्त चाय का खाली प्याला। उनके मुर्दार चेहरे पर मैंने पहली बार मुस्कान देखी।

[क्रमशः]

Friday, February 6, 2009

खाली प्याला - भाग २

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे सहकर्मी मेरे आने से खुश नहीं थे। आगे पढिये कि वहाँ एक अपवाद भी था - अमर सहाय सब्भरवाल।
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उस पूरी शाखा में अगर कोई एक व्यक्ति मेरे साथ बात करता था तो वह था अमर सहाय सब्भरवाल। अमर एक पतला दुबला खुशमिजाज लड़का था जोकि अपने ऊपर भी व्यंग्य कर सकता था। एक दिन उसने अंग्रेजी में अपने नाम का संक्षिप्तीकरण किया तो हम दोनों खूब हँसे। अपने उत्सुक व्यक्तित्व के अनुरूप ही मैं अपने आस-पास के माहौल को अच्छी तरह से जानना-परखना चाहता था। अमर की सांगत से यह काम सरल हो गया था। हम दोनों एक साथ भोजन करते थे। चूंकि मुझे टाइप करना नहीं आता था, अमर मुझे अपनी प्रगति-रिपोर्ट टाइप करने में सहायता करने लगा।

बचत खाते के काउंटर के ठीक पीछे मुझे कागज़-पत्र और खातों से भरी हुई एक बड़ी सी मेज़ दे दी गयी। कम्प्यूटर तो उस ज़माने में प्रचलित नहीं थे - कम से कम भारतीय बैंकिंग व्यवसाय में तो उनकी घुसपैठ नहीं हो पायी थी। सारे लेखे-जोखे बड़े-बड़े बही खातों में लिखे जाते थे। इन खातों में लकडी के मुखपृष्ठ होते थे और अन्दर के लेखा पृष्ठों को एक चाभी द्वारा सुरक्षित कर देने की व्यवस्था थी।

अमर मेरे सामने ही बचत बैंक काउंटर पर बैठता था। उसके साथ में दो अन्य लिपिक भी थे। इन तीनों के पीछे एक वयस्थ व्यक्ति भी बैठता था। बाद में पता लगा कि उस व्यक्ति का नाम नीलाम्बक्कम था और वह अमर का अधिकारी था, कभी-कभार मैं सोचता था कि नौजवानों से घिरी उस शाखा में सेवानिवृत्ति की आयु वाला वह व्यक्ति क्या कर रहा है।

हमेशा की तरह इस बार भी अमर ने मेरी उत्सुकता को शांत किया। उसीसे पता लगा कि नीलाम्बक्कम दरअसल उतना वृद्ध नहीं है जितना दिखता है। अमर ने बताया कि नीलाम्बक्कम तमिलनाडु के एक गाँव से था। वह एक विधुर था और इस शाखा के अन्य कर्मियों जैसा उच्च शिक्षित भी नहीं था। वह लिपिक भारती हुआ था और बहुत इच्छा के बावजूद कभी प्रोन्नति-परीक्षा पास नहीं कर सका था। मगर देखिये किस्मत भी कैसे-कैसे रंग दिखाती है। बिल्ली के भाग्य से छींका फूटा और बैंक ने अपनी प्लेटिनम जुबली के उपलक्ष्य में अपने उन कर्मचारियों को प्रोन्नति देकर पुरस्कृत करने का निर्णय किया जिन्होंने तीस वर्षों तक इसी बैंक में निष्कलंक सेवा की हो और वे अधिकारी बनकर अपने प्रदेश से बाहर जाने को तैयार हों।

अंधा क्या चाहे, दो आँखें। नीलाम्बक्कम जी ने फ़टाफ़ट इस अवसर का लाभ उठाया और अधिकारी बनकर आगरा के पास के एक डकैतियों के लिए बदनाम गाँव झंडूखेड़ा में विराजमान हो गए। अपने जीवन के सबसे बड़े सपने को सार्थक करने के लिए उन्हें अपने इकलौते बेटे को तमिलनाडु में ही एक हॉस्टल में छोड़ना पडा। झंडूखेड़ा आने तक उन्हें हिन्दी का एक अक्षर भी लिखना, पढ़ना या बोलना नहीं आता था। दुर्भाग्य से झंडूखेड़ा के ग्रामीणों को उनकी तमिलीकृत अंग्रेजी का एक शब्द भी समझ नहीं आता था। इतनी बात सुनाकर अमर ने अपने स्वभाव के अनुसार मज़ाक करते हुए कहा कि नीलाम्बक्कम की अंग्रेजी समझने के लिए उसे एक साल तक तमिल सीखनी पडी थी।
[क्रमशः]

Thursday, February 5, 2009

खाली प्याला - कहानी

उस दफ्तर में काम कर पाना कोई आसान बात नहीं थी। वहाँ मेरी बात सुनने का वक़्त किसी के पास नहीं था। न ही किसी को यह जानने की ज़रूरत थी कि मैं उनकी शाखा का कर्मचारी नहीं था। न तो मैं उनके अस्त-व्यस्त लेखे संतुलित करने वहाँ गया था और न ही उनकी महीनों से लम्बित पडी कानूनी विवरणी बनाने। उनके असंतुष्ट ग्राहकों के प्रति भी मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती थी। मैं तो एक परिवीक्षाधीन अधिकारी था जो कि उस शाखा में कुछ महीने सिर्फ़ प्रशिक्षण के लिए पहुँचा था और चार महीने बाद किसी और शहर में उड़ जाने वाला था। अभी दो साल तक मुझे देश भर में अलग-अलग जगहों की ख़ाक छाननी थी। ग्रामीण बैंकिंग सीखने किसी ठेठ देहात जाना था तो कॉर्पोरेट बैंकिंग सीखने किसी महानगर की बड़ी शाखा में भी समय बिताना था। और इन तबादलों के बीच में कई बार बंगलोर भी जाना होता था बैंकिंग और प्रबंधन की सैद्धांतिक कक्षाओं के लिए, जहाँ मेरे बाकी बैचमेट्स भी होते थे। सीखते भी थे, मस्ती भी करते थे और एक दूसरे से अपने अनुभव भी बांटते थे।

बैंक हमारी शिक्षा पर काफी संसाधन झोंकता था। मुख्यालय में मानव संसाधन विभाग के अंतर्गत एक खंड सिर्फ़ हमारे विकास और निगरानी के लिए रहता था। शाखाओं को अपने काम के लिए हमारा दुरुपयोग न करने के स्पष्ट निर्देश थे। हमारे कामों की सूची शाखा में हमारे पहुँचने से पहले ही पहुँच जाती थी। हर महीने प्रगति रिपोर्ट भी बनती थी। मगर फिर भी कुछ घिसे हुए प्रबंधक निर्देशों व प्रणाली के बीच में गहरे गोता लगाकर कोई न कोई ऐसा छिद्र ज़रूर निकाल लाते थे कि हममें से कई लोगों का सारा दिन उनका काम करते ही बीत जाता था। शाखा प्रबंधक जितना निकम्मा और गैर-जिम्मेदार होता था, हमें उतना ही ज़्यादा काम मिलता था क्योंकि उस शाखा में एक हम ही होते थे जो ऐसे प्रबंधक की सुनते थे। अब आपने इतनी देर तक मेरी बात ध्यान से सुनी है तो मेरा भी फ़र्ज़ बनता है कि मैं विषय से न भटकूँ और मुख्य मुद्दे पर वापस आ जाऊं।

यह बैंक दक्षिण भारतीय था इसलिए इसे उत्तर में पैर ज़माना उतना आसान नहीं था। (ज्ञान दत्त जी की भाषा में कहूं तो - हमारे बैंक के पास इनिशिअल एडवांटैज नहीं था।) उत्तर में हमारी शाखाएँ भी कम थीं और उनमें भी करोड़ों का व्यापार करने बड़ी शाखाएँ तो नाम-मात्र की ही थीं। हमारे बैंक की आगरा शाखा उत्तर भारत की प्रमुख शाखाओं में से एक थी। पर्यटन, निर्यात आदि का काम तो था ही, सैनिक छावनी होने के कारण सेना का भी काफी बड़ा कारोबार हमारे साथ ही होता था। इसके अलावा हम उस इलाके के ग्रामीण बैंकों के प्रायोजक भी थे।

हमारे बैंक में बहुत से अधिकारियों को अच्छी हिन्दी बोलनी नहीं आती थी। कई लोगों को भारत में रहते हुए भी भारत की सांस्कृतिक विविधता का अहसास भी कम था। सुदूर दक्षिण से आए अधिकाँश उच्चाधिकारियों को उत्तर के क्षेत्रों का इतिहास-भूगोल कुछ भी पता न था। इन सब कमियों की भरपाई करने के लिए बैंक अक्सर यह बात ध्यान में रखता था कि अपने सबसे चटक अधिकारियों को ही उत्तर में भेजता था - खासकर बड़ी शाखाओं में। यह लोग खासे पढ़े-लिखे और मेहनती तो थे ही, युवा, तेज़-तर्रार और महत्त्वाकांक्षी भी थे। आगरा में भी मेरे सारे सहकर्मी ऐसे ही थे। उपरोक्त बातों के अतिरिक्त इनमें एक और समानता भी थी - इनमें से किसी को भी मेरा वहाँ रहना पसंद न था। पता नहीं उन्हें मेरा कमउम्र होना नापसंद था या मेरा सीधे अधिकारी बन जाना परन्तु इतना ज़रूर था कि अगर उनका बस चलता तो वे पहले दिन ही मुझे खिड़की से उठाकर बाहर फेंक देते...
[क्रमशः]

नोट:अभी तक मैंने बहुत सी कहानियाँ लिखी हैं. कुछ प्रकाशित भी हुई हैं मगर ज़्यादातर इस वजह से मेरी डायरी में ही सिमटी रहीं क्योंकि मुझे हिन्दी टाइप करना नहीं आता था. इसी कारण से प्रस्तुत कहानी मुझे अंग्रेजी में लिखनी पड़ी थी. अब यूनिकोड के आने से वह समस्या भी हल हो गयी है. आपने पहले भी कहानियों को पसंद किया है. उसी से प्रोत्साहित होकर मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में यह कथा सामने रख रहा हूँ. कुछ अन्य कहानियाँ और संस्मरण नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं:
जावेद मामू
वह कौन था
सौभाग्य
सब कुछ ढह गया
करमा जी की टुन्न-परेड
गरजपाल की चिट्ठी
लागले बोलबेन
तरह तरह के बिच्छू
ह्त्या की राजनीति
मेरी खिड़की से इस्पात नगरी
हिंदुत्वा एजेंडा
केरल, नारी मुक्ति और नेताजी
दूर के इतिहासकार
सबसे तेज़ मिर्च - भूत जोलोकिया
हमारे भारत में
मैं एक भारतीय
नसीब अपना अपना
संस्कृति के रखवाले





Sunday, February 1, 2009

जावेद मामू - समापन किस्त

जावेद मामू - पिछले अंश: खंड 1; खंड 2]
जावेद मामू के पिछले खंड में आपने पढा:
"गाडी वाले कोई ठेठ देहाती गाली देते और गंजी वानर सेना उसका जवाब उर्दू की निहायत ही भद्दी गालियों से देती। कभी कोई चोर पकड़ में आ जाता था तो किसान उसे मुर्गा भी खूब बनाते थे और तरह तरह की हरकतें जैसे बन्दर-नाच आदि करने की सज़ा देते थे ..."
अब पढिये आगे की कहानी:


कभी-कभी शीरे की चाहत में बच्चे किसानों की खिदमत में अपने आप ही कुछ बाजीगरी या शेरो-शायरी करने को उत्सुक रहते थे। बैलगाड़ी वाले किसान लोग अक्सर कोई विषय देते थे और शीरा पाने के इच्छुक बच्चे उस शब्द पर आधारित शायरी गाकर सुनाते थे। और जनाब, शायरी तो ऐसी गज़ब की होती थी कि मिर्ज़ा ग़ालिब सुन लें तो ख़ुद अपनी कब्र में पलटियाँ खाने लग जाएँ। ऐसे समारोहों के समय छोटे बच्चे तो मजमा लगाते ही थे, राहगीर भी रूककर भरपूर मज़ा लेते थे। मैं भी ऐसी कई मजलिसों का चश्मदीद गवाह रहा हूँ इसलिए बरसों बीतने के बाद भी बहुत सी लाजवाब शायरी हूबहू प्रस्तुत कर सकता हूँ। प्रस्तुत है ऐसी ही एक झलक, मुलाहिज़ा फ़रमाएँ - विषय है "गंजी चाँद":

पहला बच्चा, "हम थे जिनके सहारे, उन्ने जूते उतारे, और सर पे दे मारे, क्या करें हम बेचारे, हम थे जिनके सहारे..."

दूसरा बच्चा, "गंजी कबूतरी, पेड़ पे से उतरी, कौव्वे ने उसकी चाँद कुतरी..."

एक दोपहरी को जब मैं जावेद मामू से बात कर रहा था उस समय कुछ उद्दंड बच्चों ने पत्थर मारकर एक गाड़ीवान के कई सारे घड़े एक साथ तोड़ दिए और गाडी के पीछे लटककर उनमें से बहता हुआ शीरा बर्तनों में इकठ्ठा करने लगे। एकाध घड़े की बात पर कोई भी किसान कुछ नहीं कहता था मगर तीन-चार घड़े टूटते देखकर इस किसान को काफी गुस्सा आया और उसने ग्रामीण बोली में उन बच्चों को जमकर खरी-खोटी सुनाईं। जब उसे लगा कि बच्चों पर उसकी बोली का कोई असर नहीं हुआ तो उसने शहरी ज़ुबान में चिल्लाकर ज़ोर आजमाया, "ज़रा देखो तो इन छुटके डकैतन को, कोई तो बतावै जे मुसलमान बालक ही काहे हमार घड़ा फोड़त हैं?

हालांकि उस गाडीवान की व्यथा, शिकायत और आरोप तीनों में सच्चाई थी, उसकी बात सुनकर मैं थोड़ा असहज हो गया था। मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या कहूँ। जब तक मैं शब्द ढूंढ पाता, जावेद मामू ने पलटकर जवाब दिया, "भाई तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो, हिन्दू अपने बच्चों की और उनकी पढ़ाई की परवाह करते हैं। हमारे लोग तो इन दोनों से ही लापरवाह रहते हैं।"

किसान जवाब में कुछ कहे बिना अपनी गाड़ी में चलता गया। बच्चे जावेद मामू की आवाज़ सुनकर छितर गए। मैं पाषाणवत खडा था कि मामू मेरी ओर उन्मुख हुए और एक पुरानी हिन्दी फ़िल्म का गीत गुनगुनाने लगे, "तालीम है अधूरी, मिलती नहीं मजूरी, मालूम क्या किसी को दर्द ऐ निहाँ हमारा..."

मैं सोचने लगा कि उन पंक्तियों में उनके तत्कालीन समाज का कितना सजीव चित्रण था। शायद मेरा ध्यान पाकर उनको आगे की पंक्तियाँ गाने का हौसला मिला। निम्न पंक्तियों तक पहुँचने तक तो उनकी आँख से अश्रुधार बहने लगी, "मिल जुल के इस वतन को ऐसा बनायेंगे हम, हैरत से मुँह तकेगा सारा जहाँ हमारा..."

वे रूंधे हुए गले से बोले, "राजू बेटा, मैं चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान को दुनिया के सामने शान से सर ऊँचा करके खड़ा कराने वालों में हिंद के मुसलमान सबसे आगे खड़े हों।"

मुझे अच्छी तरह याद है कि उस समय फखरुद्दीन अली अहमद भारत के राष्ट्रपति थे। और वे भारत के पहले मुस्लिम राष्ट्रपति नहीं बल्कि डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन के बाद दूसरे थे। उनकी पत्नी बेगम आबिदा अहमद ने बाद में बरेली से चुनाव भी लड़ा और सांसद बनीं। ऐवान-ऐ-गालिब की प्रमुख बेगम बाद में महिला कॉंग्रेस की अध्यक्षा भी बनीं।

इस घटना के तीन दशक बाद, आज जब मैं ट्रेन में बैठा हुआ था तब मुझे इस इत्तेफाक पर खुशी हुई कि देश के वर्तमान राष्ट्रपति ऐ पी जे अब्दुल कलाम न सिर्फ़ मुस्लिम थे बल्कि एक वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने देश का सर ऊँचा करने में बहुत योगदान दिया था। बिल्कुल वैसे ही, जैसा सपना जावेद मामू देखा करते थे। तीस साल में कितना कुछ बदल गया, मगर अफ़सोस कि इतना कुछ बदलना बाकी है। बरेली के आसपास के ग्रामीण मुस्लिम इलाकों में गुस्साई भीड़ ने अज्ञानवश पोलियो निवारण के लिए आने वालों पर हमले किए क्योंकि उनके बीच ऐसी अफ़वाहें फैलाई गयीं कि इस दवा से उनके बच्चे निर्वंश हो जायेंगे। छोटी-छोटी बातों पर फ़तवा जारी कर देने वाले धार्मिक नेताओं में से किसी ने भी अपने समाज के लिए घातक इन घटनाओं को संज्ञान में नहीं लिया है। न ही पुलिस द्वारा अभी तक इन हमलों के लिए किसी जिम्मेदार आदमी को पकड़ा गया है।

मैं विचारमग्न था कि, "हाशिम का सुरमा..." और "दीनानाथ की लस्सी..." की आवाजों ने मेरा ध्यान भंग किया। मेरा बरेली स्टेशन आ गया था। मैं ट्रेन से उतरा तो देखा कि टिल्लू मुझे लेने स्टेशन पर आया था। इतने दिन बाद उसे देखकर खुशी हुई। हम गले लगे। टिल्लू के साथ उसका पाँच-वर्षीय बेटा पाशू भी था। पाशू बिल्कुल वैसा ही दिख रहा था जैसा कि तीस साल पहले टिल्लू दिखता था।

घर के आसपास सब कुछ बदल गया था। इतना बदलाव था कि अगर मैं अकेला आता तो शायद उस जगह को पहचान भी न पाता। घर की शक्ल भी बदल चुकी थी और उसके सामने की इमारतें भी एकदम चकाचक दिख रही थीं। खंडसाल की ज़मीन बेचकर लाला जी ने बाहर कहीं बड़ा व्यवसाय लगाया था। खंडसाल की जगह पर एक शानदार इमारत बन गयी थी। टिल्लू ने बताया कि यह भव्य इमारत जावेद मामू की है जहाँ उन्होंने एक आधुनिक आटा चक्की लगाई है। वे अभी भी परचूनी की दूकान चलाते हैं मगर नई दुकान उनकी पुरानी बित्ते भर की दुकान से कहीं बड़ी और बेहतर है।

मैं मामू की फ्लोर मिल की ओर चल रहा था। जब तक मैं जावेद मामू को देख पाता, टिल्लू ने मुझे उनके बारे में बहुत सी नयी बातें बताईं। जावेद मामू हर साल दो बच्चों के स्कूल की किताबों का प्रबंध करते हैं। बीस साल पहले जब यह अफवाह उड़ी कि किसी ने मुहर्रम के जुलूस पर पत्थर फेंका है और गुस्साई मुस्लिम भीड़ हिन्दुओं की दुकानें जलाने के लिए दौड़ पड़ी थी तो जावेद मामू सीना तानकर उन लोगों के सामने खड़े हो गये और उन्हें चुनौती दी कि एक भी हिन्दू की दूकान जलाने से पहले उन्हें मामू की दुकान जलानी पड़ेगी। बाद में उन्होंने सबको समझाया कि लूट और आगज़नी किसी एक समुदाय को नहीं जलाती है, यह देश का चैनो-अमन जलाती है और इसमें अंततः सभी को जलना पड़ता है। भीड़ ने उनकी बात को ध्यान से सुना और मामूली हील-हुज्जत के बाद माना भी। उनकी उस तक़रीर के बाद से मुहल्ले में कभी भी टकराव की नौबत नहीं आयी। टिल्लू ने बताया कि मामू के बेटे ने हाल ही में मेडिकल शिक्षा पूरी की है और दिल्ली में एक महंगे अस्पताल की नौकरी को ठुकराकर पास के मीरगंज क्षेत्र में ग्रामीणों की सेवा का प्राण लिया है।

जावेद मामू की बूढ़ी आँखों ने मुझे पहचानने में बिल्कुल भी देर नहीं लगाई, "अरे राजू बेटा तुम, आओ, आओ मेरे हिन्दी के मास्साब!" वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ मेरी ओर बढ़े। अपनी बाहें फैलाकर वे बोले, "बेटा पास आओ, इतने दिनों बाद तुम्हें ठीक से देख तो लूँ ..."

जब मैंने आगे बढ़कर उनके चरण छुए तो उनकी आँखों से आँसू टप-टप बह रहे थे।
[समाप्त]

Wednesday, January 28, 2009

जावेद मामू - भाग २

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जावेद मामू के पिछले खंड में आपने पढा:
हिन्दुस्तान का दिल है दिल्ली
और दिल्ली का दिल बरेली


अब पढिये आगे की कहानी:

जावेद मामू दो अखबार मंगाते थे, एक हिन्दी का और दूसरा उर्दू का। हिन्दी समाचार पढ़ते समय कोई नया या कठिन शब्द सामने आने पर वे मुझसे ही सहायता मांगते थे। मैं उनको उस कठिन हिन्दी शब्द को आम बोलचाल की भाषा में अनूदित करके समझा देता था। उदाहरण के लिए, जब वे मुझसे पूछते थे, "सोपानबद्ध क्या होता है?" तो मैं उन्हें उर्दू समकक्ष "सीढ़ी-दर-सीढ़ी" बता देता था। वे अक्सर कहते थे कि अगर मैं न होता तो उनके हिन्दी अखबार के आधे पैसे बेकार ही जाते। इसी बहाने से वे कभी-कभी मुझे हिन्दी ब्रिगेड का नाम लेकर चिढ़ाते भी थे। उदाहरण के लिए, वे कहते, "अच्छा खासा नाम था बनारस, बोलने में कितना अच्छा लगता था, हिन्दी ब्रिगेड ने बदलकर कर दिया वाणाणसी..."

वाराणसी को अपने अजीब मजाकिया ढंग से नाक से वाणाणसी कहते हुए वह "णा" की ध्वनि को बहुत लंबा खींचते थे। आख़िर एक दिन मैंने उन्हें बताया कि वाराणसी का एक और नाम भी था। बनारस से कहीं ज़्यादा खूबसूरत और उससे छोटा भी। जो किसी भी भाषा और लिपि में उतनी ही सुन्दरता से लिखा, पढ़ा, और सुना जा सकता था जैसे की मूल संस्कृत में। वह प्राचीन नाम था - काशी। "काशी" नाम सुनने के बाद से उनका वह मज़ाक बंद हो गया। आज सोचता हूँ तो याद आता है कि तब से अब तक देश में कितना कुछ बदल गया है। बंबई मुम्बई हो गया, मद्रास चेन्नई हो गया और कलकत्ता कोलकाता में बदल गया। और तो और, अब तो बैंगलोर भी बदलकर बेंगळूरू हो गया है। मज़े की बात है कि इन में से एक भी बदलाव हिन्दी ब्रिगेड का कराया हुआ नहीं है। हिन्दी ब्रिगेड तो बनारस को काशी कराने की भी नहीं सोच सकी मगर अफ़सोस कि आज भी सारे अपमान हिन्दी ब्रिगेड के हिस्से में ही आकर गिरते हैं।

उस समय की बरेली में हिन्दी के कई रूप प्रचलित थे। शुद्ध परिष्कृत खड़ी बोली, देशज उर्दू, ब्रजभाषा, और अवधी, ये सभी बोली और समझी जाती थीं। सिर्फ़ उर्दू की लिपि अलग थी। मैं काफ़ी साफ़ उर्दू बोलता था मगर पढ़ लिख नहीं सकता था। मेरे दादाजी फारसी के ज्ञाता रहे थे मगर इस समय वे इस संसार में नहीं थे। जावेद मामू को रोज़ उर्दू अखबार पढ़ते देखकर एक दिन मेरे मन में भी उर्दू की लिपि पढ़ना-लिखना सीखने की इच्छा हुई। उस दिन से जावेद मामू ने प्रतिदिन अपने काम से थोड़ा समय निकालकर मुझे उर्दू लिखना-पढ़ना सिखाना शुरू किया।

एक दिन मैं उनकी दूकान पर खडा था। शायरी पर बात हो रही थी। तभी एक मौलवी साहब कड़ुआ तेल लेने आए। दो मिनट चुपचाप खड़े होकर हम दोनों की बातचीत सुनी और फिर जावेद मामू से मुखातिब हुए। पूछने लगे, "ये सब क्या चल्लिया है?"

"ये हमसे उर्दू सीख रहे हैं" जावेद मामू ने समझाया

"कमाल है, ये क्या विलायत से आए हैं जो इन्हें उर्दू नहीं आती?" मौलवी साहब ने बड़े आश्चर्य से पूछा।

जब जावेद मामू ने बताया कि मैं उसी मुहल्ले में रहता हूँ तो मौलवी साहब गुस्से में बुदबुदाने लगे, "हिन्दुस्तान में ऐसे-ऐसे लोग भी रहते हैं जिन्हें उर्दू ज़ुबाँ नहीं आती है।"

स्पष्ट है कि मौलवी साहब को भारत के भाषायी वैविध्य का आभास न था, लेकिन उनकी विचित्र मुखमुद्रा के कारण यह घटना मेरे मन में स्थायी हो गयी।

उत्तर प्रदेश में शायद आज भी गन्ना और चीनी बहुत होता हो। उन दिनों तो रूहेलखंड का क्षेत्र चीनी का कटोरा कहलाता था। बरेली और आसपास के क्षेत्रों में कई चीनी मिलों के अलावा बहुत सारी खंडसालें थीं। गुड, शक्कर बूरा, बताशे और चीनी के बने मीठे खिलौनों आदि के कुटीर उद्योग भी वहाँ इफ़रात में थे। हमारे घर के पास भी एक बड़ी सी खंडसाल थी। वह खंडसाल हर साल गन्ने की फसल के दिनों में कुछ निश्चित समय के लिए खुलती थी। उन दिनों में आस-पास के गाँवों से किसान लोग मटकों में शीरा भर-भर कर अपनी बारी के इंतज़ार में खंडसाल के बाहर सैकडों बैलगाड़ियों में पंक्ति बनाकर खड़े रहते थे। मीठे शीरे की खुशबू हवा में बिखर जाती  थी। उस खुशबू से जैसे मधुमक्खियाँ इकट्ठी हो जाती हैं वैसे ही छोटे-छोटे गंजे और शैतान बच्चों के झुंड के झुंड वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। कभी मौका लग जाए तो वे मांगकर शीरा खा लेते थे। और कभी जब शीरा घर ले जाना हो तो चलती बैलगाड़ी के पीछे चुपचाप लटककर एक-आध मटका फोड़ देते थे और टपकते शीरे के नीचे चुपचाप अलुमीनम का कोई कटोरा आदि लगाकर उसे भर लेते थे और जब तक गाड़ीवान को पता लगे, भाग जाते थे। अक्सर दोनों पक्षों के बीच गालियों का आदान प्रदान होता रहता था। गाड़ी वाले कोई ठेठ देहाती गाली देते और गंजी वानर सेना उसका जवाब उर्दू की निहायत ही भद्दी गालियों से देती। कभी कोई चोर पकड़ में आ जाता था तो किसान उसे मुर्गा भी खूब बनाते थे और तरह-तरह की रोचक हरकतें, जैसे बन्दर-नाच आदि करने की सज़ा देते थे। बेचारे गरीब किसानों की मेहनत के घड़े टूटते देखकर अफ़सोस भी होता था लेकिन आमतौर पर यह सब स्थिति काफी हास्यास्पद और मनोरञ्जक होती थी।
[अगला भाग]

Tuesday, January 27, 2009

जावेद मामू - कहानी

मैं स्टेशन पर बैठा हुआ झुंझला रहा था। रेल अपने नियत समय से पूरे दो घंटे लेट थी। देसाई जी की बात सही है कि आम भारतीय ट्रेनों की लेटलतीफी से इतना त्रस्त रहता है कि आपातकाल में रेल को वक़्त पर चलाने के बदले में अपनी आजादी गिरवी रखकर भी खुश था। रेल के आते ही मेरा गुस्सा और झुंझलाहट दोनों हवा हो गए। दौड़कर अपना डिब्बा ढूंढा और सीट पर कब्ज़ा कर के बैठ गया। मैं बहुत खुश था। खुश होने की वजह भी थी। इतने लंबे अंतराल के बाद बरेली जो जा रहा था। पूरे तीस साल और तीन महीने बाद अपना बरेली फिर से देखने को मिलेगा। न जाने कैसा होगा मेरा शहर। वक़्त की आंधी ने शायद अब तक सब कुछ उलट-पुलट कर दिया हो। जो भी हो बरेली का अनूठापन तो कभी भी खो नहीं सकता। किसी शायर ने कहा भी है:

हिन्दुस्तान का दिल है दिल्ली, और दिल्ली का दिल बरेली

आज मैं जो भी हूँ, जैसा भी हूँ और जहाँ भी हूँ, उसमें बरेली का बहुत बड़ा हाथ है। मेरे बचपन का एक बड़ा हिस्सा वहाँ बीता है। जैसा कि सभी लोग लोग जानते-समझते हैं, हिन्दुस्तान की जनसंख्या मुख्यतः हिन्दू है। लेकिन बरेली वाले जानते हैं कि हमारे शहर में हिन्दुओं से ज़्यादह मुसलमान बसते हैं। हमारे मुहल्ले में सिर्फ़ हमारी गली हिन्दुओं की थी। बाकी तो सब मुसलमान ही थे। कुछेक मामूली फर्क के अलावा बरेली के हिन्दू और मुसलमान में कोई ख़ास अन्तर न था। वे सदियों से एक दूसरे के साथ रहते आए थे और 1857 में उन्होंने एक साथ मिलकर एक साल तक बरेली को अंग्रेजों से आजाद रखा था। नगर के 'लक्ष्मीनारायण मन्दिर' को लोग आज भी "चुन्ना मियाँ का मन्दिर" कहकर ही बुलाते हैं। हमारे इलाके में बस एक हमारा मन्दिर था बाकी सब तरफ़ मस्जिदें ही दिखती थी। हमारे दिन की शुरूआत अजान के स्वरों के साथ ही होती थी। मुहर्रम के दिनों में हम भी दोस्तों के साथ हर तरफ़ लकडी के विशालकाय ताजियों के जुलूस देखने जाया करते थे। कहते हैं कि बरेली जैसे विशाल और शानदार ताजिये दुनिया भर में कहीं नहीं होते। होली-दीवाली वे हमारे घर आकर गुझियाँ खाते, पटाखे छोड़ते, रंग लगवाते, और मोर्चे लड़ते थे। ईद पर वे मेरे लिए सेवइयाँ भी लाते थे।

सच तो यह है कि एक परम्परागत ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर भी मुझे वर्षों तक हिन्दू-मुसलमान का अन्तर पता नहीं था। काश! मेरा वह अज्ञान आज भी बना रहता तो कितना अच्छा होता। हमारे घर में दाल-चावल जावेद हुसैन की दुकान से आता था और सब्जी-फल आदि बाबू खान के यहाँ से। आटा नसीम की चक्की पर पिसता था और मेरी पतंगें नफीस की दुकान से आती थीं। हमारा नाई भी मुसलमान था और दर्जी भी। हमारा पहला रेडियो भी बिजली वाले तनवीर अहमद की दुकान से आया था और वह सारे भजन के रिकॉर्ड भी जिन्हें सुन-सुनकर मैं बड़ा हुआ।

मेरे आस-पास बिखरे भाँति-भाँति के लोगों में जावेद हुसैन एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने मेरे बालमन को बहुत प्रभावित किया। वे मेरे मामा जी के मित्र थे इसलिए मैं उन्हें मामू कहता था। हमारे घर के सामने ही उनकी परचूनी की दुकान थी। मैं लगभग रोज़ ही सामान की पर्ची लेकर उनकी दुकान पर जाता था और घर-ज़रूरत का सामान लाया करता था। उनके अन्य ग्राहकों के विपरीत मुझे किसी चीज़ का भाव पूछने की आवश्यकता न थी क्योंकि हमारा हिसाब महीने के अंत में होता था। उनकी दुकान में मेरा समय सामान लेने से ज़्यादा उनसे बातचीत करने में और अपने से बिल्कुल भिन्न उनके दूसरे ग्राहकों की जीवन-शैली देखने-समझने में बीतता था। उनकी दुकान वह स्थल था जहाँ मैं अपने मुस्लिम पड़ोसियों को नज़दीक से देखता था।

वे सभी गरीब थे। उनमें से अधिकाँश तो इतने गरीब थे कि आपमें से बहुत से लोग कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। उनके कपड़े अक्सर गंदे और फटे हुए होते थे। आदमी और लड़के तो आमतौर पर सिर्फ़ उतने ही कपड़े पहनते थे जिनसे शरीर का कुछ ज़रूरी भाग ढँक भर जाए। लड़कियों की दशा भी कोई ख़ास बेहतर नहीं होती थी। हाँ, औरतें ज़रूर नख-शिख तक काले या सफ़ेद बुर्के से ढँकी होती थीं। तब मुझे यह देखकर भी आश्चर्य होता था कि अधिकाँश बच्चों का सर घुटा हुआ होता था। इसी कारण से वे बच्चे अक्सर एक दूसरे को 'अबे गंजे' कहकर भी बुलाते थे। अब मैं जानता हूँ कि उनके सर घुटाकर उनके माता-पिता बार-बार बाल कटाने के कष्ट से बच जाते थे और गंजा सर उन बच्चों को थोडा साफ़ भी रखता था जिनके लिए नहाना भी किसी विलास से कम नहीं था। जो भी हो वे सभी बच्चे मेरी तरह गंभीर और नीरस न होकर बड़े ही खुशमिजाज़, जीवंत और रोचक थे।

मुझे घर में कोई पालतू जानवर रखने की आज्ञा नहीं थी। इसके कई कारण दिए जाते थे। एक तो इससे उस पशु-पक्षी की स्वतन्त्रता का हनन होता था। दूसरे यह कि अधिकाँश पालतू पशु-पक्षी घर में आने लायक शुद्ध भी नहीं माने जाते थे। इस नियम के कुछ अपवाद भी थे। हमारी एक मौसी के घर में एक सुंदर, बड़ा सा तोता था जो सभी आने-जाने वालों को जय राम जी की कहता था। कुछ रिश्तेदारों के घर में कुत्ते भी पले थे। बाद में कुछ बड़ा होने पर मैंने जाना कि तोता और कुत्ता दोनों ही प्रकृति से अहिंसक माने जाते थे और यह दोनों ही पूर्ण शाकाहारी भोजन पर बहुत अच्छी तरह पल जाते थे। मुझे याद है कि मौसी के तोते को मेरे हाथ से अमरुद और हरी मिर्च खाना बहुत पसंद था। मगर मेरे मुसलमान पड़ोसियों के पास गज़ब के पालतू जानवर थे। रंग बिरंगे बज्रीगर से लेकर बड़े-बड़े कछुए तक, जो भी जानवर आप सोच सकते हैं वे सभी उनके पास थे। और अक्सर मैं बड़ों की निगाह बचाकर उन जानवरों के साथ खेल भी लेता था।

जावेद मामू दो अखबार मंगाते थे, एक हिन्दी का और दूसरा उर्दू का। हिन्दी समाचार पढ़ते समय जब भी उनके सामने कोई नया या कठिन शब्द आ जाता तो वे मुझसे ही सहायता मांगते थे।
[अगला भाग]

Tuesday, January 6, 2009

वह कौन था [समापन किस्त]

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पिछली दो किस्तों में आपने पढा कि किस तरह विपरीत प्रकृति के दो सहकर्मी एक दूसरे के मित्र बने और बिछड़ गए। एक दिन ख़बर आयी आतंकवादी दरिंदों द्वारा कल्लर की हत्या की। फ़िर क्या हुआ? आईये देखें इस कड़ी में। पिछली कड़ियाँ यहाँ उपलब्ध हैं खंड 1; खंड 2; आपके सुझाव, शिकायतें और टिप्पणियाँ मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं। कृपया बताइये ज़रूर कि आप इस कहानी के बारे में क्या सोचते हैं.
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यह ज़रूर सपना ही होगा। अगर हकीकत थी तो यह तय है कि सच्चे दिल से माँगी गयी दुआओं में सचमुच बड़ा असर होता है। मेरे सामने एक हट्टा-कट्टा आदमी चला आ रहा था। ऐसा लगता था जैसे कि किसी ने कल्लर को हवा भरकर फुला दिया हो। मुझे देखकर वह खुशी के मारे ज़ोर से चिल्लाया, "अरे मेरे चुनमुन, तू तो आज भी वैसा ही है मैन।"

"अरे, कल्लर ज़िंदा है क्या?" मेरा मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया। मैं तो हमेशा ही भगवान् से यह मनाता था कि उसके मरने की ख़बर झूठ हो। फ़िर भी उसे सामने देखकर मुझे अचम्भा तो बहुत हुआ। शायद यह मेरा भ्रम ही हो मगर वह पहले से काफी फर्क लग रहा था। इतने दिनों में वह न सिर्फ़ मोटा हुआ था बल्कि मुझे तो वह पहले से कुछ लंबा भी लग रहा था।

मेरा दिमाग कुछ समझ नहीं पा रहा था। रंग-रूप, चटख वेश-भूषा, लाउड हाव-भाव और ज़ोर-ज़ोर से बोलना, यह व्यक्ति कल्लर न हो यह हो ही नहीं सकता था। क्या भगवान् ने मेरी पुकार सुन ली? वह मरा नहीं था? अखबार की कतरन ही झूठी थी या फ़िर आतंकवादियों के हत्थे उसी नाम का कोई और व्यक्ति चढ़ गया था? मैं खुशी से उछलता हुआ उसकी और लपका। उसने भी आगे बढ़कर मुझे गले लगाया।

"आज सिगरेट के बिना कैसे?" मैंने आश्चर्य से पूछा, "छोड़ दी क्या?"

"नहीं चुनमुन, तुझसे मिलने आ रहा था सो बिल्कुल जेंटलमैन बनकर आया मैन!" वह अपने विशिष्ट अंदाज़ में बोला, "क्यों डर गया क्या मुझे देखकर?"

"अरे मैं भूत नहीं हूँ, तू खुश नहीं है क्या कि मैं मरा नहीं?" वह हमेशा जैसे ही हँसते हुए बोला।

"मेरी खुशी को कौन समझ सकता है" मैंने आश्चर्य मिश्रित आल्हाद से कहा।

"हाँ, मैं तो जानता हूँ तुझे, साढ़े तीन महीने झेला है!" मुझसे मिलकर वह बहुत खुश था, "याद है तुझसे दिल्ली में मिलने का वादा किया था मैंने, आरा छोड़ते समय?"

भोजन का वक़्त था। मैंने हम दोनों के लिए खाना मंगाया और हम लोग बातें करने लगे। उसने बताया कि वह कभी सरकारी अफसर बना ही नहीं था। न ही उसने स्कूल के दिनों के बाद कभी कश्मीर के शालीमार बाग़ में कदम ही रखा। वह तो सिटीबैंक छोड़कर कलकत्ता में जीवन बीमा निगम में चला गया था। ख़बर पढ़कर उसके घर में भी काफी हंगामा हुआ था। अनिता तो इतनी बीमार हो गयी थी कि अगर वह सचमुच जीवित न पहुँचता तो शायद मर ही जाती। बाद में पता लगा कि मुजाहिदीन का शिकार व्यक्ति राजनगर का था भी नहीं। किसी तरह से अखबार की दो खबरें उलट-पुलट हो गयी थीं। कैसे हुईं या फ़िर उसका ही नाम क्यों आया, इसके बारे में उसको कुछ मालूम नहीं था।

हमने आरा की बहुत सी बातें याद कीं। वह सभी साथियों के बारे में पूछता रहा। बहुत उत्साह से उसने अपने और परिवार के बारे में भी काफी बातें बताईं। उसने अनिता से शादी कर ली थी। बहन की पढाई पूरी होकर रामगढ में शादी हो गई थी। माता-पिता कभी राजनगर तो कभी रामगढ में रहते हैं। कभी कलकत्ता नहीं आते। उन्हें बड़े शहर और छोटे फ्लैट पसंद नहीं हैं, यह बताते हुए वह थोड़ा उदास हो गया। कुछ देर और रूककर वह निकल गया। उसकी उसी दिन की कलकत्ता की जहाज़ की टिकट बुक थी इसलिए वह ज़्यादा देर रुक नहीं सकता था।

चलने से पहले हमारे बीच अपने कार्डों का आदान प्रदान हुआ। उसने मुझे जीवन बीमा निगम का अपना कार्ड दिया। कार्ड पर उसका घर का फ़ोन नंबर नहीं छपा था तो उसने मेरी मेज़ पर सीडी पर लिखने के लिए पड़े एक स्थायी मार्कर को उठाकर उसीसे लिख दिया। कुछ ही क्षणों में वह जैसे आया था वैसे ही मुस्कराता हुआ चला गया। मैं उस दिन बड़ा खुश था।



आरा प्रवास में कल्लर ने अपने कैमरे से मेरे बहुत से फोटो लिए थे. उन्ही में से एक.

रात में घर पहुँचकर मैंने पत्नी को बड़ी उतावली से दिन की घटना सुनाई। रात में सोने से पहले यूँ ही मैंने अखबार की कतरन देखने के लिए विनोबा के गीता प्रवचन की किताब हाथ में ली। सारी किताब झाड़ी मगर उसमें कल्लर की कतरन नहीं मिली। पत्नी ने भी ढूंढा, मगर कागज़ का वह टुकडा कहीं नहीं था। उसे सिर्फ़ एक संयोग समझकर मैंने पत्नी को दिखाने के लिए बटुए में से कल्लर का कार्ड निकाला तो पाया कि मेरे हाथ में जो कार्ड था वह बिल्कुल कोरा था - कुछ भी नहीं, स्थायी मार्कर का लाल निशान तक नहीं।

महीने के अंत में जब कैंटीन वाले हर्ष बहादुर ने मेरा महीने भर का बिल दिया तो उसमें हर रोज़ का सिर्फ़ एक ही लंच लगा हुआ था। मैंने उसे बुलाकर गलती सही करने को कहा मगर वह अड़ा रहा कि उसने हर दिन मेरे लिए सिर्फ़ एक ही खाना भेजा है। पूरे महीने में किसी दिन भी मेरे नाम से दो लंच नहीं आए। प्रशांत को भी याद नहीं आता कि कल्लर नाम का मेरा कोई पुराना मित्र मुझसे मिलने दफ्तर आया था। राजेश कहता है कि जब वह पिछली बार राजनगर गया था तो कल्लर के परिवार से मिला था और इस बात में शक की कोई भी गुंजाइश नहीं है कि कल्लर का पार्थिव शरीर हमारे बीच नहीं है। उसने यह भी बताया कि उस घटना के कुछ दिन बाद ही अनिता भी डेंगू जैसी किसी बीमारी का शिकार होकर चल बसी।

वह दिन है और आज का दिन, जब भी समय मिलता है मैं टेलीफोन निर्देशिकाओं में, नेटवर्किंग साइट्स पर, और इन्टरनेट पर कल्लर के नाम की खोज करता हूँ। जब भी कोई पुराना सहकर्मी मिलता है तो उसके बारे में पूछता हूँ। मगर कभी भी उसके जीवित होने की कोई जानकारी नहीं मिली।
[समाप्त]


[नोट: इस कहानी के सभी पात्र, नाम, स्थान, संस्थान, व्यवसाय तथा घटनाएँ काल्पनिक हैं. यहाँ तक कि इस कहानी का लेखक और उसका चित्र भी पूर्णतः काल्पनिक है।]

Monday, January 5, 2009

वह कौन था [खंड २]

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वह कौन था कहानी का खंड १ पढने के लिए कृपया यहाँ पर क्लिक करें।
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राजेश जब राजनगर के मिशन हाई स्कूल का प्राचार्य था तब कल्लर भी उसी स्कूल में पढता था। तब से ही वे एक दूसरे को जानते थे। बंगलोर में वे दोनों एक ही होटल में रुके थे और सुबह शाम प्रशिक्षण केन्द्र व होटल के बीच एक साथ ही आते जाते थे। स्वभाव में एकदम विपरीत होते हुए भी वे दोनों एक दूसरे से बहुत घुले-मिले थे।

इस प्रशिक्षण के बाद मुझे आरा में पोस्टिंग मिली थी। बाकी सब साथी भी देश भर में बिखरी शाखाओं में बिखर जाने वाले थे। राजेश चेन्नई जा रहा था। वह तो कहीं भी रहकर खुश था। ज़्यादातर लोगों को अपने मन मुताबिक पोस्टिंग मिल गयी थीं। सभी लड़कियों को अपने-अपने गृह नगर में ही रहने को मिला था। यह पोस्टिंग्स सिर्फ़ चार महीने के लिए थीं। इनमें हमें कोई सरकारी निवास नहीं मिलने वाला था। अलबत्ता किराए के नाम पर हर महीने एकमुश्त तय रकम ज़रूर मिलनी थी। छोटे नगरों में मिलने वाली रकम किराए के लिए काफी थी। मगर आरा जैसे मध्यम आकार के नगर में न तो चार महीने के लिए कोई घर मिलता और न ही किसी घर का किराया उस रकम में पूरा पड़ने वाला था।

राजेश ने बताया कि कल्लर को भी आरा में ही एक और ब्रांच में जाना है। कल्लर - और कुछ हद तक राजेश भी - चाहता था कि मैं और कल्लर किसी ठीक-ठाक से होटल में साथ ही रहें। दोनों का मासिक किराया मिलाकर इतना पैसा बन जायेगा कि किसी रहने लायक होटल में एक सूइट मिल सके। मैं कल्लर जैसे लड़के के साथ रह सकूंगा इसमें मुझे शक था। शराब और मांसाहार उसकी दैनिक खुराक में शामिल थे और मैं ठहरा शुद्ध शाकाहारी। वह चेन-स्मोकर और मैं टी-टोटलर। मगर वह तो चिपक सा ही गया। राजेश ने हम दोनों को साथ बैठाकर समझाया कि नए शहर में साथ रहना हम दोनों के ही हित में है और विपरीत आदतें होने के कारण हम लोगों को एक दूसरे के अनुभव से बहुत कुछ सीखने की गुंजाइश भी है। वैसे भी बैंकिंग एक ऐसा व्यवसाय हैं जिसमें न तो किसी का भरोसा ही किया जा सकता है और न ही भरोसे के बिना काम चल सकता है।

राजेश की बात हम दोनों की मगज में धंस गयी। हमने एक दूसरे को बर्दाश्त करने का वायदा किया और प्रशिक्षण पूरा होने पर एक ही रेल से एकसाथ आरा पहुँच गए। कल्लर ने हमारे साथ के एक और प्रशिक्षु के द्वारा किसी से पहले से ही कहकर एक होटल में एक कमरा भी बुक कर लिया था। शुरू में तो मुझे थोड़ी कठिनाई हुई। फ़िर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। कुछ ही दिनों में मैंने देखा कि कल्लर दोस्त बनाने में काफी माहिर था। थोड़े ही दिनों में हम दोनों शहर में काफी लोकप्रिय हो गए।

आरा में हम दोनों ने एक दूसरे को बेहतर पहचाना। मुझे पता लगा कि वह बहुत सा पैसा इसलिए कमाना चाहता है ताकि जीवन भर अभावों में रहे उसके बूढ़े माता-पिता अपना शेष जीवन सुख से गुजार सकें। वह जीवन में सफलता इसलिए पाना चाहता है ताकि अपने बचपन की मित्र अनिता के सामने शादी का प्रस्ताव रख सके। मैंने पाया कि शोर-शराबे के शौकीन उस कुछ-कुछ उच्छ्रन्खल लड़के के भी अपने बहुत से ख्वाब हैं। तथाकथित फैशन और आधुनिकता के पीछे भागने वाला कल्लर भी अपने से ज़्यादा अपने माँ-बाप के लिए जीना चाहता था। वह यह भी चाहता था कि अपनी छोटी बहन को अच्छी तरह पढा-लिखा सके।

मेरी अगली पोस्टिंग लखनऊ में थी। मैं खुश था कि राजेश भी वहीं पास के एक कसबे में आ रहा था। इसी बीच में कल्लर को सिटीबैंक से नौकरी का बुलावा आया और उसने अपना त्यागपत्र दे दिया। वह कहता था कि वह सिटीबैंक में भी रुकने वाला नहीं है। जो कंपनी भी उसे ज़्यादा पैसा देती रहेगी, वह वहाँ जाता रहेगा - सरकारी, लोक, निजी, छोटी, बड़ी, देशी, विदेशी, चाहे जैसा भी उपक्रम हो। जिस दिन मैं आरा से लखनऊ के लिए चला, उससे दो हफ्ते पहले ही वह अपनी नई नौकरी के लिए दिल्ली जा चुका था। उस ज़माने में सेल फ़ोन का प्रचलन नहीं था सो हम लोग ज़्यादा संपर्क में नहीं रहे।

लखनऊ में राजेश से अक्सर मुलाक़ात होती रहती थी। फ़ोन पर तो लगभग रोजाना ही बात होती थी। आज जब मैंने फ़ोन पर उसके "हेल्लो" सुनी तो इसे रोजाना का आम फ़ोन काल ही समझा। क्या पता था कि वह कल्लर के बारे इतनी बड़ी ख़बर सुनाने वाला था। आगरा के चार महीने के प्रवास के दौरान मैंने कल्लर नाम के उस ऊपर से शोर-शराबा करते रहने वाले लड़के को नज़दीक से देखा था। कुछ सहनशक्ति तो मैंने भी विकसित की थी और शायद उसकी प्रकृति में भी मेरे साथ रहने से कुछ परिवर्तन आए थे।

राजेश के चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई थी। उसने आते ही चुपचाप एक अंग्रेजी समाचारपत्र की कतरन मेरे सामने रख दी। कतरन में कल्लर के जाने की ख़बर को विस्तार से दिया हुआ था। श्रीनगर के एक बाग़ में कुछ आतंकवादियों ने दिनदहाडे राजनगर के मूल निवासी एक सरकारी अफसर श्रीमान कल्लर को पकड़कर उसका नाम पूछा जब नाम से समझ नहीं आया तो उसका धर्म पूछा। जैसे ही हमलावरों को यह तसल्ली हो गयी कि वह मुसलमान नहीं है तब पहले तो उन्होंने उसे इतना पीटा कि वह अपने होश खो बैठा और उसके बाद उसे पहले ही खदेड़ दिए गए विस्थापित पंडितों से खाली कराये गए एक लकडी के मकान में डालकर ज़िंदा ही जला दिया। दो दिन बाद किसी स्थानीय व्यक्ति ने गुमनाम फ़ोन करके एक मकान में आग लगने की सूचना दी। बाद में सारा किस्सा खुला और यह ख़बर अखबारों की सुर्खी बनी।

हे भगवान्, एक मासूम व्यक्ति का इतना भयावह अंत! सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वह आतंकवादियों के धर्म का नहीं था। यह स्वीकार कर पाना भी असंभव था कि आज के सभ्य समाज में भी जाहिलिया युग के हैवान न सिर्फ़ छुट्टे घूम रहे हैं बल्कि जिसे चाहें, जब चाहें, अपनी हैवानियत का निशाना भी बना सकते हैं।

जब मैंने राजेश को याद दिलाया कि कल्लर तो सिटीबैंक में था तब उसने बताया कि वह दिल्ली छोड़कर एक सरकारी नौकरी में श्रीनगर चला गया था। जब मैंने यह शंका व्यक्त की कि राजनगर से उस नाम का कोई और व्यक्ति भी तो हो सकता है जो भारत सरकार की नौकरी में हो तो राजेश ने बताया कि वह राजनगर के आदिवासी ईसाई समुदाय को बहुत अच्छी तरह से जानता है। और यह व्यक्ति हमारे कल्लर के अतिरिक्त और कोई नहीं है।

उन दिनों मैंने विनोबा भावे के गीता प्रवचन पढ़ना शुरू किया था। मैं घर से दफ्तर आते-जाते रोजाना ही वह पुस्तक पढता था। दो दिन पहले ही पुस्तक पूरी हुई थी और उस समय मेरी मेज़ पर रखी थी। मैंने उस कतरन को उसी पुस्तक में रख दिया। शाम को मैं पुस्तक अपने साथ घर ले गया। घर जाकर मैंने उस कतरन को कितनी बार पढा, मैं बता नहीं सकता। मैंने कल्लर पर पड़ने वाले हर प्रहार को अपने ऊपर महसूस किया। हाथ-पाँव तोडे गए इंसान को ज़िंदा जला दिया जाना कैसे सहन हुआ होगा, मैं सोच भी नहीं पाता था। ईश्वर अपनी संतानों पर ऐसे अत्याचार क्यों होने देता है, यह बात समझ ही न आती थी। बार-बार ईश्वर के अस्तित्व को ही सिरे से नकारने को जी करता था।

आपको शायद सुनने में विरोधाभास सा लगे मगर मुझे ईश्वर के प्रति क्षोभ से मुक्ति भी ईश्वर के प्रति दृढ़ आस्था से ही मिली। धीरे-धीरे समय बीता। मैं नौकरी में स्थायी हो गया। दिल्ली में स्थानान्तरण हुआ, शादी हुई, परिवार बना। कल्लर की बात ध्यान से उतर चुकी थी कि एक दिन वही किताब पत्नी के हाथ लगी। कतरन पढ़कर वह सहम सी गयी। फ़िर पूछा तो मैंने सारी बात बतायी। तब तक शायद मैंने कभी भी उससे कल्लर के बारे में कोई बात नहीं की थी। बहुत देर तक हम दोनों चुपचाप रहे फ़िर मैंने कतरन उसके हाथ से लेकर वापस उसी किताब में रख दी और किताब को अपनी जगह पर वापस पहुँचा दिया।

अगले दिन मैं अपने एक निकटस्थ सहकर्मी प्रशांत को काम के सिलसिले में कुछ बात बताकर हटा ही था कि मैंने जो देखा उससे मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं।
[क्रमशः]

Sunday, January 4, 2009

वह कौन था - कहानी

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“कल्लर नहीं रहा!"

राजेश का फ़ोन था। वह हमेशा कम शब्दों में बात करता है, वैसे ही बिना किसी भूमिका के बोला। कल्लर मेरा और राजेश का सहकर्मी था। राजेश को हिन्दी बहुत अच्छी तरह नहीं आती है। इसलिए मुझे लगा कि शायद वह कल्लर के नौकरी छोड़ने की बात कर रहा है। यह तो मुझे पहले से ही पता था कि कल्लर यह नौकरी छोड़कर एक विदेशी बैंक में चला गया था।

"वह नौकरी छोड़ कर दिल्ली गया है, मुझे पता है" मैंने कहा।

"नहीं, कल्लर इस नो मोर अलाइव। ही इज डैड। उसको आतंकवादियों ने मार दिया।"

"दिल्ली में कौन से आतंकवादी हैं?" मैंने पूछा। दिल राजेश की बात पर यकीन करने को तैयार ही न था।

"उसको कश्मीर में मारा है, मैं लंच में तेरे दफ्तर आ रहा हूँ, सब बताता हूँ" राजेश ने मानो मेरे अविश्वास को पढ़ लिया था।

मेरा दिल राजेश की बात मानने को बिल्कुल तैयार नहीं था। वैसे भी कल्लर के कश्मीर जाने की कोई वजह नहीं थी। कुछ ही दिन पहले तो वह अपनी नई नौकरी के लिए दिल्ली गया था - इतनी जल्दी यह सब। और फ़िर भगवान् भी तो हैं। क्या वह कुछ नहीं देखते? राजेश को ज़रूर कोई गलतफहमी हुई है।

हम तीनों ने ही यह नौकरी सौ के लगभग युवाओं के साथ बंगलोर में एक ही दिन शुरू की थी। लगभग एक महीने का प्रशिक्षण लिया और फ़िर उसके बाद सब देश भर में अलग-अलग शाखाओं में बिखर गए। कल्लर को पहली बार वहीं देखा था। टी ब्रेक में और कभी उसके बिना भी वह और कुछ और लड़के धूम्रपान के लिए कक्ष से बाहर आकर खड़े हो जाते थे। एक दिन मैंने उसे लैशिवॉन को समझाते हुए सुना, "सिगरेट पीने से लड़कियों पर बहुत अच्छा इम्प्रेशन पड़ता है।" उसके विचार, दोस्त, प्राथमिकताएं, पृष्ठभूमि, सभी कुछ मुझसे एकदम मुख्तलिफ थे। हम दोनों में दोस्ती होने की कोई संभावना नहीं थी। हाँ, दुआ-सलाम ज़रूर होती थी, वह तो सबसे ही होती थी।

प्रशिक्षण के दौरान जिन दो-तीन लोगों से मेरी मित्रता हुई, राजेश उनमें से एक था। उम्र में मुझसे काफी बड़े राजेश को इस नौकरी में आरक्षण का लाभ मिला था वरना शायद वह आयु सीमा से बाहर होता। मैं उस बैच का सबसे छोटा अधिकारी था। कुछ ही दिनों के साथ में मैंने राजेश की प्राकृतिक सदाशयता को पहचान लिया और हम लोग मित्र बन गए।

जान-पहचान बढ़ने पर पता लगा कि वह झारखंड के आदिवासी अंचल से था, मिशनरी स्कूलों में पढा था। जनसेवा का जज्बा बचपन से ही दिल में था इसलिए पादरी बनकर दबे कुचले आदिवासियों की सेवा को ही लक्ष्य बनाकर एक धार्मिक संस्था से जुड़ गया। उसका हर कदम पादरी बनने की दिशा में ही चला। पश्चिमी अध्यात्म, मसीही चंगाई आदि में शिक्षा चलती रही। अविवाहित रहने का संकल्प लिया। अपने बैंक खाते बंद करके कोई निजी धन न रखने की चर्च की बंदिश को माना। सारा भारत घूमा और समय आने पर उसने आदिवासी क्षेत्रों में चल रहे मिशनरी स्कूलों में प्राचार्य का काम भी किया। वह अपनी संस्था में जितना अधिक आगे बढ़ता गया, उसका परोपकारी मन उतना ही घुटने लगा। अपने देशी और विदेशी वरिष्ठ अधिकारियों के मन, वचन और कर्म में उसे बड़े विरोधाभास दिखने लगे। उसके किसी भी सुझाव को माना नहीं जाता था। यहाँ तक कि उसकी कई बातों को तो विधर्मी का ठप्पा लगाने की कोशिश भी की गयी। बिना बैंक-खाते वाले लोगों को उसने दान के धन पर हर तरह का भोग-विलास करते पाया और अविवाहित रहने का प्रण करने वालों को कामना के वशीभूत होते भी देखा।

जनोत्थान की उसकी जिद ने संस्था के अन्दर न सिर्फ़ अलोकप्रिय ही बनाया बल्कि बाद के दिनों में चर्च के लेखांकन में हुई कई छेड़छाड़ उस पर थोपी गयीं। जब पुराने अभिलेखागार में शोर्ट-सर्किट से लगी मामूली सी आग का ज़िम्मा भी उस पर लादकर पुलिस में रपट लिखायी गयी तो उसने उस संस्था से बाहर आने का मन बना लिया। नौकरी के लिए उम्र निकल चुकी थी और अपने नाम से जेब में एक धेला भी न था। ऐसे में उसने अपनी शिक्षा और आदिवासी प्रमाणपत्र का उपयोग कर के यह परीक्षा दी और चुनकर हम सबके साथ प्रशिक्षण के लिए आ गया।
[क्रमशः]

Wednesday, December 10, 2008

सौभाग्य - कहानी - अन्तिम कड़ी [भाग ५]

सौभाग्य की अन्तिम कड़ी प्रस्तुत है। अब तक की कथा यहाँ उपलब्ध है:
सौभाग्य - खंड १
सौभाग्य - खंड २
सौभाग्य - खंड ३
सौभाग्य - खंड ४


रणबीर के साथ मेरी शादी पापा के आशीर्वाद से हुई। कोई भी सहेली मेरी शादी में नहीं आयी। सबको यही लगता था कि मैंने आदित्य के साथ अन्याय किया है। किसी को भी मेरे दिल का हाल जानने की फुरसत न थी। मुझे यकीन था कि वह तो आयेगा ही। अरविन्द के द्वारा मेरी ख़बर तो उस तक पहुँचती ही होगी यह मुझे मालूम था। मगर वह भी न आया। उसकी तरफ़ से बस एक बधाई तार आया। बाद में भी उसकी कोई ख़बर न मिली। और कुछ नहीं तो आकर गुस्सा तो कर सकता था। मगर उसने गुस्सा भी नहीं किया और न ही कोई शिकवा। चुपचाप मेरी ज़िंदगी से चला गया। शादी के दो साल बाद करिश्मा पैदा हुयी। दिन, मास और फ़िर वर्ष बीतते गए। करिश्मा स्कूल भी जाने लगी।

पुराने मित्रों में सिर्फ़ अरविंद से कभी-कभार बस स्टॉप पर मुलाक़ात हो जाती थी। बाद में ऐसी ही किसी एक मुलाक़ात में अरविंद ने एक बार बताया कि आदित्य ने निशा से शादी कर ली। आदित्य और निशा - इससे ज्यादा बेमेल रिश्ता मैंने सुना न था। कहाँ आदित्य जैसा देवता आदमी और कहाँ एक नंबर की बदतमीज़ और नकचढ़ी निशा। बदतमीज़ क्यों न होती? चौधरी सुच्चा सिंह की बेटी जो ठहरी। चौधरी सुच्चा सिंह हमारी बिरादरी के सबसे नामी-गिरामी आदमी थे। बड़े-बड़े नेताओं से उठना बैठना था। वजह यह थी कि सारी बिरादरी के वोट उनके इशारे पर ही चलते थे। उनके प्रयासों से ही हम लोगों को आरक्षण मिला था। खानदानी पैसे वाले थे। सारा परिवार पढ़ा-लिखा भी था। कहते हैं कि भगवान सारे सुख किसी को भी नहीं देता है। बस उनके बच्चे ही ख़राब निकले। बड़ा बेटा गुंडागर्दी में पड़ गया। कॉलेज के दिनों में ही किसी हत्याकाण्ड में भी उसका नाम आया था। उसके दोस्तों को सज़ा भी हुई थी। मगर कहते हैं कि चौधरी ने अपने रसूख के बल पर उसको साफ़ बचा लिया था। मुक़दमे के दौरान ही उसे पढ़ने के बहाने इंग्लैंड भिजवा दिया था। अब तो वापस आने से रहा।

आदित्य के दादाजी चौधरी के परिवार के ज्योतिषी थे। चौधरी उनको बहुत मानते थे और कहते थे कि उनकी वजह से ही यह परिवार हमेशा चमका और कितना भी बुरा वक़्त आने पर भी कभी संकट में नहीं पडा। निशा का बचपन से ही आदित्य के घर आना जाना था। आदित्य को भी उसके घर में सभी पसंद करते थे। और निशा भी हमेशा से किसी फौजी अफसर से ही शादी करना चाहती थी। फ़िर भी इस शादी पर मुझे अचम्भा हुआ। निशा ने वह खजाना पा लिया था जो मेरे हाथ से फिसल चुका था। मुझे निशा से रश्क होने लगा। निशा ने ज़रूर पिछले जन्म में कोई बड़ी तपस्या की होगी। उस रात भी मुझे नींद नहीं आयी। वह रात मेरी ज़िंदगी की सबसे लम्बी रात थी।

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"आँख से यह मोती क्यों गिरा, इसके बारे में, मुझे कुछ बताना चाहती हो?” उसने बिना किसी दृढ़ता के मुझसे पूछा।

पहले भी उसकी हर बात बिना किसी दृढ़ बन्धन के होती थी। मुझे अच्छा नहीं लगता था। मैं चाहती थी कि वह मुझ पर अपना अधिकार जताए। अगर मैं उसकी बात का जवाब न दूँ तो वह जिद करके मुझसे दोबारा पूछे। अगर कभी वह मुझ पर गुस्सा भी करता तो शायद मुझे अच्छा ही लगता। मगर मेरी यह इच्छा कभी पूरी नहीं हुई। उसने कभी भी किसी बात की जिद नहीं की थी। न तो ज़िद करके अपने किसी सवाल का जवाब माँगा और न ही कभी मुझ पर गुस्सा हुआ।

तब मैंने उसके व्यक्तित्व के इस अंग को कभी नहीं सराहा। आज इतने साल बाद पहली बार मैंने उसके व्यवहार के इस बड़प्पन को समझा। पहली बार अपने आप को उसकी बराबरी का परिपक्व पाया। क्या रणबीर की तानाशाही में रहने के कारण ही मैं ऐसा समझ रही हूँ? या फिर मेरी उम्र ने मुझे विकसित किया है। जो भी हो, इतना सच है कि वह आज भी हमेशा जैसा था।

“तुम इतने दिन से मिले क्यों नहीं मुझसे? इतने साल तक मेरी कोई ख़बर नहीं ली? क्या कभी भी दिल्ली आना नहीं होता है?" लाख कोशिश करने पर भी मैं शिकवा किया बिना न रह सकी, "चिट्ठी न सही, फ़ोन तो कर सकते थे कभी?”

वह शांति से सुनता रहा।

“मेरी याद नहीं आयी कभी?” मैं बोलती रही।

“यादें कहाँ छूटती हैं? मिला नहीं तो क्या, तुम्हारी एक-एक बात आज भी याद है मुझे।”

“शादी के बाद अपनी मरजी के अलावा और भी बहुत सी बातें होती हैं जिनका ध्यान रखना पड़ता है। और क्या कहूँ, तुम तो ख़ुद ही समझदार हो” उसने सफाई सी दी।

“नहीं, मैं तो बुद्धू हूँ। और यह बात मैं साबित कर चुकी हूँ रणबीर से शादी कर के।”

“मगर तुमने तो अपनी मरजी से शादी की थी?”

“वह मेरा बचपना था। मुझे रणबीर से कभी शादी नहीं करनी चाहिए थी।”

“तो क्या ऋतिक रोशन से?” वह मुस्कुराया, “उसी की फैन थीं न तुम?”

कितने बरस बाद वह निश्छल मुस्कान देखने को मिली थी। मैं अपनी खुशी को शब्दों में बयान नहीं कर सकती।

“नहीं वह तो कुछ भी नहीं है मेरे परफेक्ट मैच के सामने।”

“परफेक्ट मैच? कौन है वह खुशनसीब, ज़रा हम भी तो सुनें? ” वह शरारत से मुस्कुराया।

“तुम, और कौन?” मैंने झूठमूठ गुस्सा दिखाते हुए कहा, “मेरे मुँह से अपनी तारीफ सुनना चाहते हो?”

“…”

“मैंने तुम्हें नहीं पहचाना। बहुत बड़ी गलती की। उसी की सज़ा आज तक भुगत रही हूँ।”

“ऐसा मत कहो प्रीति” उसकी मुस्कान एकदम से गायब हो गयी। एक गहरा विषाद सा उसके चेहरे पर उतर आया। मैंने कभी भी उसे इतना उदास नहीं देखा था। मैं तो यह जानती ही नहीं थी कि वह कभी उदास भी दिख सकता है। मुझे समझ नहीं आया कि वह मेरी बात से आहत क्यों हुआ। मैंने तो उसकी तारीफ़ ही की थी।

“निशा कितनी खुशनसीब है जो उसे तुम जैसा पति मिला” मैं अपनी ही रौ में बोली।

“प्रीति, प्लीज़ ऐसा बिल्कुल मत कहो। यह सच नहीं है” वह ऐसे बोला मानो बहुत पीड़ा में हो। मुझे समझ नहीं आया कि वह इतना असहज क्यों हो रहा था।

“काश मैं निशा की जगह होती।” मेरे मुँह से निकल ही गया, “मैं कभी अपनी किस्मत से लड़ने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकी। वरना हमारी दुनिया कुछ अलग ही होती।”

“तुम्हें लगता है कि तुम मेरे साथ खुश रहतीं?” वह एक पल को ठिठका फिर बोला, “तुम सोचती हो कि निशा मेरे साथ बहुत खुश है?”

मैं समझी नहीं वह क्या कहना चाह रहा था, वह कुछ उलझी उलझी बातें कर रहा था।

“बिल्कुल भी खुश नहीं थी वह मेरे साथ। या तो झगड़ा करती थी या दिन-रात रोती थी। मैंने एकाध बार मनो-चिकित्सक के पास जाने की बात भी उठाई तो वह और सारा चौधरी परिवार मेरे ख़िलाफ़ भड़क गया कि मैं उनकी बेटी को पागल कर देना चाहता हूँ।”

मैं उसके चेहरे की पीड़ा को स्पष्ट देख पा रही थी मगर नहीं जानती थी कि उसका क्या करूँ।

“प्रीति, यह दुनिया बहुत कठिन है। सही-ग़लत, अच्छे-बुरे को पहचानना आसान नहीं है। हमें सिर्फ़ अपने घाव दिखते हैं। सुंदर-सुंदर कपडों के नीचे दूसरे लोग कितने घाव लेकर जी रहे हैं उसका हमें कतई एहसास नहीं है। इसलिए हमें दूसरों से ईर्ष्या होती है। सच तो यह है कि अपने सारे घावों के बावजूद हम दूसरों से ज़्यादा खुशनसीब हो सकते हैं मगर हमें इस बात का ज़रा सा भी अंदाज़ नहीं होता है।”

मैं उसकी बात ध्यान से सुन रही थी।

“सुख दुःख दोनों हमारे अन्दर ही हैं।”

मुझे उसकी बात कुछ कुछ समझ आने लगी थी।

“पता है हमारी समस्या क्या है?" उसने बहुत प्यार से कहा, मानो किसी बच्चे को समझा रहा हो, “झूठी उम्मीदों में फँसकर हम सच्ची खुशियों को दरकिनार करते रहते हैं।”

“…”

“अपूर्णता जीवन की कमी नहीं बल्कि उसका असली मतलब है। जीवन एक खोज है, एक सफर है। जीवन मंजिल नहीं है, यही जीवन की सुन्दरता है। मौत सम्पूर्ण हो सकती है परन्तु जीवन अधूरा ही होता है।”

“…”

“आधा-अधूरा जो भी मिले उसे अपनाना सीखना होगा। छोटी छोटी खुशियाँ ही हमें बड़ा बनती हैं जबकि बड़ी बड़ी उम्मीदें हमें छोटा कर देती हैं।"

“…”

“याद रखना कि अगर तुम्हारी शादी रणबीर से न हुई होती तो तुम्हें करिश्मा नही मिलती। अपने सौभाग्य को पहचानो, तभी खुशी मिलेगी।”

“निशा साथ में आयी है? ” मैंने पूछा, “क्या मैं उससे मिल सकती हूँ?” सोचती थी कि शायद मैं उसे अहसास दिला पाऊँ कि वह किस हीरे की बेक़द्री कर रही है।

उसके चेहरे पर अजब सी उदास मुस्कान कौंधी और वह कुछ शब्द ढूँढता हुआ सा लगा।

“निशा ने यह शादी सिर्फ़ अपने माता-पिता से विद्रोह करने के लिए की थी। उसने कई बार पुलिस बुलाई थी मुझ पर प्रताड़ना का आरोप लगाकर। मैं दहेज़ विरोधी एक्ट में जेल भी गया। कुछ तो पुलिस-रिकार्ड की वजह से और काफी कुछ ससुर जी के प्रभाव की वजह से नौसेना ने डिसऑनरेब्ल डिस्चार्ज देकर निकालने की कोशिश की मगर बाद में आरोप साबित नहीं हो पाये और आखिरकार मुझे बहाल किया। आज उसी सिलसिले में मुख्यालय आया था।”

“हे भगवान्! कब हुआ था यह सब? ” मुझे निशा पर बेहिसाब गुस्सा आ रहा था।

“कुछ साल पहले” उसने मुस्कुराते हुए कहा मानो कुछ हुआ ही न हो, “अब तो हमारा तलाक़ हुए भी एक साल हो चुका है।”

हम सोना-रूपा के सामने खड़े थे। मेरी भूख मर चुकी थी।

[समाप्त]

सौभाग्य - कहानी [भाग ४]

सौभाग्य की चौथी कड़ी प्रस्तुत है। पहले सोचा था कि इस कहानी की एक कड़ी प्रतिदिन लिखने का प्रयास करूंगा। उम्मीद थी कि आपको पसंद आयेगी। आपका सुझाव है कि कड़ी थोड़ी और बड़ी हो, सो हाज़िर है एक और बड़ी कड़ी। बाद की टिप्पणियों से पता लगा कि कड़ियों में देरी आखरने लगी है, सो सुबह शाम एक-एक कड़ी लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। अब तक की कथा यहाँ उपलब्ध है:
सौभाग्य - खंड १
सौभाग्य - खंड २
सौभाग्य - खंड ३


वह तो स्वभाव से ही निडर था। कभी भी किसी की परवाह नहीं करता था। मगर मुझे तो घर में सबका ही ख्याल रखना था। दीदी ने माँ-बाप की इच्छा के विरुद्ध घर त्यागकर दूसरी जाति में शादी की थी। एक साल बाद भाई ने भी घर में सबके बहुत मना करने के बाद भी लड़-झगड़ कर एक निम्न कोटि के परिवार में विवाह कर लिया। पापा ने उसी दिन उसको अपनी संपत्ति से बेदखल कर दिया और मुझसे वचन ले लिया कि मैं अपनी मर्जी से शादी नहीं करूंगी। इस बात को बहुत समय हो गया था। पापा ने दीदी और भइया को वापस स्वीकार भी कर लिया था। मुझे लगा कि सब कुछ ठीक हो गया है। ऊपर से आदित्य का प्यार। मैं तो पापा को दिए इस वचन को पूरी तरह भूल भी गयी थी।

एक दिन मैंने पापा को आदित्य के बारे में सब कुछ सच-सच बता दिया। उसी क्षण मेरी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गयी। पापा का वह भयानक रूप मैं कभी भूल नहीं सकती। उस समय रात के ग्यारह बज रहे थे। उन्होंने उसी वक्त मुझे घर से निकल जाने को कहा। मैंने बहुत समझाने की कोशिश की मगर उन पर तो जैसे भूत सा सवार था। अब याद करके भी आश्चर्य होता है कि हमेशा अपनी शर्तों पर जीने वाले दीदी और भय्या भी इस बार पापा की ही तरफदारी कर रहे थे।

दीदी और भय्या ने अपनी बातों से मुझे बार-बार यह यकीन भी दिलाया कि अपने दोनों बड़े बच्चों द्वारा अपनी मर्जी से विवाह कर लेने की वजह से माँ-पापा पहले ही बहुत टूट चुके हैं। अगर मैं भी उनकी इच्छा का ख्याल नहीं करूंगी तो वे लोग गुस्से में न जाने क्या कर बैठें। अगर कुछ उलटा-सीधा हो गया तो घर का कोई भी सदस्य मुझे कभी माफ़ नहीं करेगा।

पापा के गुस्से के अलावा मुझे एक और बात का भी डर था। वह था हमारी जातियों का। आदित्य एक सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार से था और मुझे कॉलेज में प्रवेश भी आरक्षित कोटा में मिला था। दीदी हमेशा कहती थी, "यह पण्डे-पुजारी बड़े ही दोगले होते हैं। जिस दिन भी उसे तेरी जाति का पता लगेगा, दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देगा।” हालांकि मुझे यकीन था कि आदित्य ऐसा लड़का नहीं था मगर वक्त की धार किसने देखी है। अगर वह कभी भी दुनिया के बहकावे में आ जाता तो मैं तो कहीं की भी न रहती।

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मैंने उसे फ़ोन करके सारी बात बताई और कहा कि मैं पापा का दिल नहीं तोड़ सकती हूँ।

"तुम मुझे भूल जाओ हमेशा के लिए। समझो मैं मर गयी।”

मुझे लगा कि वह कहेगा, "तुम्हारे लिए मैं सारी उम्र कुँवारा रहूँगा।” मगर उसने ऐसा कुछ नहीं कहा।

"ऐसा कैसे हो सकता है? तुम उनकी बेटी हो प्रॉपर्टी नही। नहीं मानते तो न मानें। हम उनके बिना ही शादी करेंगे।"

"उनके बिना? अभी तो शादी हुई भी नहीं है, तुम पहले ही मुझे अपने परिवार से अलग करना चाहते हो?" मुझे उसकी बात बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी।

"नहीं, मैं उनकी और इन्सल्ट नहीं कर सकती” शायद मैं बहुत कमज़ोर थी - या शायद मैं दीदी-भैय्या की तरह स्वार्थी नहीं होना चाहती थी। कारण जो भी हो, मैं उसी समय यह समझ गयी थी कि मैं अपने परिवारजनों को नाराज़ नहीं कर पाऊँगी।

“शायद हमारा साथ बस यहाँ तक ही था। आज से हमारा रिश्ता ख़त्म।” मैंने जैसे-तैसे कहा।

मुझे लगा वह झगड़ा करेगा, मुझे बुरा भला कहेगा, वह रूठेगा, मैं मनाऊंगी। मगर उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उसने चुपचाप फ़ोन रख दिया। उस दिन के बाद मैंने जब भी उसका नम्बर मिलाने की कोशिश की उसने फ़ोन कभी उठाया ही नहीं।

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दो हफ्ते बाद हम सुनीता के घर में मिले। उसने बताया कि उसने नौसेना की नौकरी स्वीकार कर ली थी और वह उस दिन ही मुम्बई जा रहा था।

“चिट्ठी लिखोगे न?”

“नहीं।”

“क्यों?”

“इतनी तो लिखीं, कभी किसी का जवाब तक नहीं आया। और फिर अब चिट्ठी लिखने की कोई वजह भी तो नहीं बची है।”

वह सच ही तो कह रहा था। मैंने कभी भी उसके लिखे नोट का जवाब नहीं दिया था। सोचती थी कि वह कभी भी बुरा नहीं मानेगा। उस दिन मैं सारी रात रोती रही। दीदी मुझे दिलासा दिलाते हुए कहती रही, “अच्छा ही हुआ उसका यह पलायनवादी रूप शादी से पहले ही दिख गया, शादी के बाद तुझे अकेला छोड़कर चल देता तो क्या करती?”

भाभी ने भी समझाया, “सच्चा प्यार करने वाले इस तरह मझधार में छोड़कर नहीं चल देते हैं।”

किताबों में, किस्से-कहानियों में भी हमेशा जन्म-जन्मान्तर के साथ के बारे में ही पढ़ा था। मैं उसके जाने पर यकीन नहीं कर पा रही थी। मुझे उस पर अपने से भी ज्यादा विश्वास था। मुझे लगता था कि मैं चाहे कुछ भी करूँ, वह कभी भी मुझे छोड़कर नहीं जायेगा।

वह दिन और आज का दिन। वह मेरी ज़िंदगी से ऐसा गया कि बहुत कोशिश करने पर भी पता ही न चला कि कहाँ है, कैसा है और किस हाल में है। मैंने भी धीरे धीरे ज़िंदगी की सच्चाई को स्वीकार कर लिया। कभी किसी को यह अहसास नहीं होने दिया कि मेरे दिल के किसी कोने में वह आज भी रहता है, हँसता है, गुनगुनाता है, और कविता भी करता है।

[क्रमशः]