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जावेद मामू के पिछले खंड में आपने पढा:
हिन्दुस्तान का दिल है दिल्ली
और दिल्ली का दिल बरेली
अब पढिये आगे की कहानी:
जावेद मामू दो अखबार मंगाते थे, एक हिन्दी का और दूसरा उर्दू का। हिन्दी समाचार पढ़ते समय कोई नया या कठिन शब्द सामने आने पर वे मुझसे ही सहायता मांगते थे। मैं उनको उस कठिन हिन्दी शब्द को आम बोलचाल की भाषा में अनूदित करके समझा देता था। उदाहरण के लिए, जब वे मुझसे पूछते थे, "सोपानबद्ध क्या होता है?" तो मैं उन्हें उर्दू समकक्ष "सीढ़ी-दर-सीढ़ी" बता देता था। वे अक्सर कहते थे कि अगर मैं न होता तो उनके हिन्दी अखबार के आधे पैसे बेकार ही जाते। इसी बहाने से वे कभी-कभी मुझे हिन्दी ब्रिगेड का नाम लेकर चिढ़ाते भी थे। उदाहरण के लिए, वे कहते, "अच्छा खासा नाम था बनारस, बोलने में कितना अच्छा लगता था, हिन्दी ब्रिगेड ने बदलकर कर दिया वाणाणसी..."
वाराणसी को अपने अजीब मजाकिया ढंग से नाक से वाणाणसी कहते हुए वह "णा" की ध्वनि को बहुत लंबा खींचते थे। आख़िर एक दिन मैंने उन्हें बताया कि वाराणसी का एक और नाम भी था। बनारस से कहीं ज़्यादा खूबसूरत और उससे छोटा भी। जो किसी भी भाषा और लिपि में उतनी ही सुन्दरता से लिखा, पढ़ा, और सुना जा सकता था जैसे की मूल संस्कृत में। वह प्राचीन नाम था - काशी। "काशी" नाम सुनने के बाद से उनका वह मज़ाक बंद हो गया। आज सोचता हूँ तो याद आता है कि तब से अब तक देश में कितना कुछ बदल गया है। बंबई मुम्बई हो गया, मद्रास चेन्नई हो गया और कलकत्ता कोलकाता में बदल गया। और तो और, अब तो बैंगलोर भी बदलकर बेंगळूरू हो गया है। मज़े की बात है कि इन में से एक भी बदलाव हिन्दी ब्रिगेड का कराया हुआ नहीं है। हिन्दी ब्रिगेड तो बनारस को काशी कराने की भी नहीं सोच सकी मगर अफ़सोस कि आज भी सारे अपमान हिन्दी ब्रिगेड के हिस्से में ही आकर गिरते हैं।
उस समय की बरेली में हिन्दी के कई रूप प्रचलित थे। शुद्ध परिष्कृत खड़ी बोली, देशज उर्दू, ब्रजभाषा, और अवधी, ये सभी बोली और समझी जाती थीं। सिर्फ़ उर्दू की लिपि अलग थी। मैं काफ़ी साफ़ उर्दू बोलता था मगर पढ़ लिख नहीं सकता था। मेरे दादाजी फारसी के ज्ञाता रहे थे मगर इस समय वे इस संसार में नहीं थे। जावेद मामू को रोज़ उर्दू अखबार पढ़ते देखकर एक दिन मेरे मन में भी उर्दू की लिपि पढ़ना-लिखना सीखने की इच्छा हुई। उस दिन से जावेद मामू ने प्रतिदिन अपने काम से थोड़ा समय निकालकर मुझे उर्दू लिखना-पढ़ना सिखाना शुरू किया।
एक दिन मैं उनकी दूकान पर खडा था। शायरी पर बात हो रही थी। तभी एक मौलवी साहब कड़ुआ तेल लेने आए। दो मिनट चुपचाप खड़े होकर हम दोनों की बातचीत सुनी और फिर जावेद मामू से मुखातिब हुए। पूछने लगे, "ये सब क्या चल्लिया है?"
"ये हमसे उर्दू सीख रहे हैं" जावेद मामू ने समझाया
"कमाल है, ये क्या विलायत से आए हैं जो इन्हें उर्दू नहीं आती?" मौलवी साहब ने बड़े आश्चर्य से पूछा।
जब जावेद मामू ने बताया कि मैं उसी मुहल्ले में रहता हूँ तो मौलवी साहब गुस्से में बुदबुदाने लगे, "हिन्दुस्तान में ऐसे-ऐसे लोग भी रहते हैं जिन्हें उर्दू ज़ुबाँ नहीं आती है।"
स्पष्ट है कि मौलवी साहब को भारत के भाषायी वैविध्य का आभास न था, लेकिन उनकी विचित्र मुखमुद्रा के कारण यह घटना मेरे मन में स्थायी हो गयी।
उत्तर प्रदेश में शायद आज भी गन्ना और चीनी बहुत होता हो। उन दिनों तो रूहेलखंड का क्षेत्र चीनी का कटोरा कहलाता था। बरेली और आसपास के क्षेत्रों में कई चीनी मिलों के अलावा बहुत सारी खंडसालें थीं। गुड, शक्कर बूरा, बताशे और चीनी के बने मीठे खिलौनों आदि के कुटीर उद्योग भी वहाँ इफ़रात में थे। हमारे घर के पास भी एक बड़ी सी खंडसाल थी। वह खंडसाल हर साल गन्ने की फसल के दिनों में कुछ निश्चित समय के लिए खुलती थी। उन दिनों में आस-पास के गाँवों से किसान लोग मटकों में शीरा भर-भर कर अपनी बारी के इंतज़ार में खंडसाल के बाहर सैकडों बैलगाड़ियों में पंक्ति बनाकर खड़े रहते थे। मीठे शीरे की खुशबू हवा में बिखर जाती थी। उस खुशबू से जैसे मधुमक्खियाँ इकट्ठी हो जाती हैं वैसे ही छोटे-छोटे गंजे और शैतान बच्चों के झुंड के झुंड वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। कभी मौका लग जाए तो वे मांगकर शीरा खा लेते थे। और कभी जब शीरा घर ले जाना हो तो चलती बैलगाड़ी के पीछे चुपचाप लटककर एक-आध मटका फोड़ देते थे और टपकते शीरे के नीचे चुपचाप अलुमीनम का कोई कटोरा आदि लगाकर उसे भर लेते थे और जब तक गाड़ीवान को पता लगे, भाग जाते थे। अक्सर दोनों पक्षों के बीच गालियों का आदान प्रदान होता रहता था। गाड़ी वाले कोई ठेठ देहाती गाली देते और गंजी वानर सेना उसका जवाब उर्दू की निहायत ही भद्दी गालियों से देती। कभी कोई चोर पकड़ में आ जाता था तो किसान उसे मुर्गा भी खूब बनाते थे और तरह-तरह की रोचक हरकतें, जैसे बन्दर-नाच आदि करने की सज़ा देते थे। बेचारे गरीब किसानों की मेहनत के घड़े टूटते देखकर अफ़सोस भी होता था लेकिन आमतौर पर यह सब स्थिति काफी हास्यास्पद और मनोरञ्जक होती थी।
[अगला भाग]
जावेद मामू के पिछले खंड में आपने पढा:
हिन्दुस्तान का दिल है दिल्ली
और दिल्ली का दिल बरेली
अब पढिये आगे की कहानी:
जावेद मामू दो अखबार मंगाते थे, एक हिन्दी का और दूसरा उर्दू का। हिन्दी समाचार पढ़ते समय कोई नया या कठिन शब्द सामने आने पर वे मुझसे ही सहायता मांगते थे। मैं उनको उस कठिन हिन्दी शब्द को आम बोलचाल की भाषा में अनूदित करके समझा देता था। उदाहरण के लिए, जब वे मुझसे पूछते थे, "सोपानबद्ध क्या होता है?" तो मैं उन्हें उर्दू समकक्ष "सीढ़ी-दर-सीढ़ी" बता देता था। वे अक्सर कहते थे कि अगर मैं न होता तो उनके हिन्दी अखबार के आधे पैसे बेकार ही जाते। इसी बहाने से वे कभी-कभी मुझे हिन्दी ब्रिगेड का नाम लेकर चिढ़ाते भी थे। उदाहरण के लिए, वे कहते, "अच्छा खासा नाम था बनारस, बोलने में कितना अच्छा लगता था, हिन्दी ब्रिगेड ने बदलकर कर दिया वाणाणसी..."
वाराणसी को अपने अजीब मजाकिया ढंग से नाक से वाणाणसी कहते हुए वह "णा" की ध्वनि को बहुत लंबा खींचते थे। आख़िर एक दिन मैंने उन्हें बताया कि वाराणसी का एक और नाम भी था। बनारस से कहीं ज़्यादा खूबसूरत और उससे छोटा भी। जो किसी भी भाषा और लिपि में उतनी ही सुन्दरता से लिखा, पढ़ा, और सुना जा सकता था जैसे की मूल संस्कृत में। वह प्राचीन नाम था - काशी। "काशी" नाम सुनने के बाद से उनका वह मज़ाक बंद हो गया। आज सोचता हूँ तो याद आता है कि तब से अब तक देश में कितना कुछ बदल गया है। बंबई मुम्बई हो गया, मद्रास चेन्नई हो गया और कलकत्ता कोलकाता में बदल गया। और तो और, अब तो बैंगलोर भी बदलकर बेंगळूरू हो गया है। मज़े की बात है कि इन में से एक भी बदलाव हिन्दी ब्रिगेड का कराया हुआ नहीं है। हिन्दी ब्रिगेड तो बनारस को काशी कराने की भी नहीं सोच सकी मगर अफ़सोस कि आज भी सारे अपमान हिन्दी ब्रिगेड के हिस्से में ही आकर गिरते हैं।
उस समय की बरेली में हिन्दी के कई रूप प्रचलित थे। शुद्ध परिष्कृत खड़ी बोली, देशज उर्दू, ब्रजभाषा, और अवधी, ये सभी बोली और समझी जाती थीं। सिर्फ़ उर्दू की लिपि अलग थी। मैं काफ़ी साफ़ उर्दू बोलता था मगर पढ़ लिख नहीं सकता था। मेरे दादाजी फारसी के ज्ञाता रहे थे मगर इस समय वे इस संसार में नहीं थे। जावेद मामू को रोज़ उर्दू अखबार पढ़ते देखकर एक दिन मेरे मन में भी उर्दू की लिपि पढ़ना-लिखना सीखने की इच्छा हुई। उस दिन से जावेद मामू ने प्रतिदिन अपने काम से थोड़ा समय निकालकर मुझे उर्दू लिखना-पढ़ना सिखाना शुरू किया।
एक दिन मैं उनकी दूकान पर खडा था। शायरी पर बात हो रही थी। तभी एक मौलवी साहब कड़ुआ तेल लेने आए। दो मिनट चुपचाप खड़े होकर हम दोनों की बातचीत सुनी और फिर जावेद मामू से मुखातिब हुए। पूछने लगे, "ये सब क्या चल्लिया है?"
"ये हमसे उर्दू सीख रहे हैं" जावेद मामू ने समझाया
"कमाल है, ये क्या विलायत से आए हैं जो इन्हें उर्दू नहीं आती?" मौलवी साहब ने बड़े आश्चर्य से पूछा।
जब जावेद मामू ने बताया कि मैं उसी मुहल्ले में रहता हूँ तो मौलवी साहब गुस्से में बुदबुदाने लगे, "हिन्दुस्तान में ऐसे-ऐसे लोग भी रहते हैं जिन्हें उर्दू ज़ुबाँ नहीं आती है।"
स्पष्ट है कि मौलवी साहब को भारत के भाषायी वैविध्य का आभास न था, लेकिन उनकी विचित्र मुखमुद्रा के कारण यह घटना मेरे मन में स्थायी हो गयी।
उत्तर प्रदेश में शायद आज भी गन्ना और चीनी बहुत होता हो। उन दिनों तो रूहेलखंड का क्षेत्र चीनी का कटोरा कहलाता था। बरेली और आसपास के क्षेत्रों में कई चीनी मिलों के अलावा बहुत सारी खंडसालें थीं। गुड, शक्कर बूरा, बताशे और चीनी के बने मीठे खिलौनों आदि के कुटीर उद्योग भी वहाँ इफ़रात में थे। हमारे घर के पास भी एक बड़ी सी खंडसाल थी। वह खंडसाल हर साल गन्ने की फसल के दिनों में कुछ निश्चित समय के लिए खुलती थी। उन दिनों में आस-पास के गाँवों से किसान लोग मटकों में शीरा भर-भर कर अपनी बारी के इंतज़ार में खंडसाल के बाहर सैकडों बैलगाड़ियों में पंक्ति बनाकर खड़े रहते थे। मीठे शीरे की खुशबू हवा में बिखर जाती थी। उस खुशबू से जैसे मधुमक्खियाँ इकट्ठी हो जाती हैं वैसे ही छोटे-छोटे गंजे और शैतान बच्चों के झुंड के झुंड वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। कभी मौका लग जाए तो वे मांगकर शीरा खा लेते थे। और कभी जब शीरा घर ले जाना हो तो चलती बैलगाड़ी के पीछे चुपचाप लटककर एक-आध मटका फोड़ देते थे और टपकते शीरे के नीचे चुपचाप अलुमीनम का कोई कटोरा आदि लगाकर उसे भर लेते थे और जब तक गाड़ीवान को पता लगे, भाग जाते थे। अक्सर दोनों पक्षों के बीच गालियों का आदान प्रदान होता रहता था। गाड़ी वाले कोई ठेठ देहाती गाली देते और गंजी वानर सेना उसका जवाब उर्दू की निहायत ही भद्दी गालियों से देती। कभी कोई चोर पकड़ में आ जाता था तो किसान उसे मुर्गा भी खूब बनाते थे और तरह-तरह की रोचक हरकतें, जैसे बन्दर-नाच आदि करने की सज़ा देते थे। बेचारे गरीब किसानों की मेहनत के घड़े टूटते देखकर अफ़सोस भी होता था लेकिन आमतौर पर यह सब स्थिति काफी हास्यास्पद और मनोरञ्जक होती थी।
[अगला भाग]