जावेद मामू - पिछले अंश: खंड 1; खंड 2]
जावेद मामू के पिछले खंड में आपने पढा:
"गाडी वाले कोई ठेठ देहाती गाली देते और गंजी वानर सेना उसका जवाब उर्दू की निहायत ही भद्दी गालियों से देती। कभी कोई चोर पकड़ में आ जाता था तो किसान उसे मुर्गा भी खूब बनाते थे और तरह तरह की हरकतें जैसे बन्दर-नाच आदि करने की सज़ा देते थे ..."
अब पढिये आगे की कहानी:
कभी-कभी शीरे की चाहत में बच्चे किसानों की खिदमत में अपने आप ही कुछ बाजीगरी या शेरो-शायरी करने को उत्सुक रहते थे। बैलगाड़ी वाले किसान लोग अक्सर कोई विषय देते थे और शीरा पाने के इच्छुक बच्चे उस शब्द पर आधारित शायरी गाकर सुनाते थे। और जनाब, शायरी तो ऐसी गज़ब की होती थी कि मिर्ज़ा ग़ालिब सुन लें तो ख़ुद अपनी कब्र में पलटियाँ खाने लग जाएँ। ऐसे समारोहों के समय छोटे बच्चे तो मजमा लगाते ही थे, राहगीर भी रूककर भरपूर मज़ा लेते थे। मैं भी ऐसी कई मजलिसों का चश्मदीद गवाह रहा हूँ इसलिए बरसों बीतने के बाद भी बहुत सी लाजवाब शायरी हूबहू प्रस्तुत कर सकता हूँ। प्रस्तुत है ऐसी ही एक झलक, मुलाहिज़ा फ़रमाएँ - विषय है "गंजी चाँद":
पहला बच्चा, "हम थे जिनके सहारे, उन्ने जूते उतारे, और सर पे दे मारे, क्या करें हम बेचारे, हम थे जिनके सहारे..."
दूसरा बच्चा, "गंजी कबूतरी, पेड़ पे से उतरी, कौव्वे ने उसकी चाँद कुतरी..."
एक दोपहरी को जब मैं जावेद मामू से बात कर रहा था उस समय कुछ उद्दंड बच्चों ने पत्थर मारकर एक गाड़ीवान के कई सारे घड़े एक साथ तोड़ दिए और गाडी के पीछे लटककर उनमें से बहता हुआ शीरा बर्तनों में इकठ्ठा करने लगे। एकाध घड़े की बात पर कोई भी किसान कुछ नहीं कहता था मगर तीन-चार घड़े टूटते देखकर इस किसान को काफी गुस्सा आया और उसने ग्रामीण बोली में उन बच्चों को जमकर खरी-खोटी सुनाईं। जब उसे लगा कि बच्चों पर उसकी बोली का कोई असर नहीं हुआ तो उसने शहरी ज़ुबान में चिल्लाकर ज़ोर आजमाया, "ज़रा देखो तो इन छुटके डकैतन को, कोई तो बतावै जे मुसलमान बालक ही काहे हमार घड़ा फोड़त हैं?
हालांकि उस गाडीवान की व्यथा, शिकायत और आरोप तीनों में सच्चाई थी, उसकी बात सुनकर मैं थोड़ा असहज हो गया था। मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या कहूँ। जब तक मैं शब्द ढूंढ पाता, जावेद मामू ने पलटकर जवाब दिया, "भाई तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो, हिन्दू अपने बच्चों की और उनकी पढ़ाई की परवाह करते हैं। हमारे लोग तो इन दोनों से ही लापरवाह रहते हैं।"
किसान जवाब में कुछ कहे बिना अपनी गाड़ी में चलता गया। बच्चे जावेद मामू की आवाज़ सुनकर छितर गए। मैं पाषाणवत खडा था कि मामू मेरी ओर उन्मुख हुए और एक पुरानी हिन्दी फ़िल्म का गीत गुनगुनाने लगे, "तालीम है अधूरी, मिलती नहीं मजूरी, मालूम क्या किसी को दर्द ऐ निहाँ हमारा..."
मैं सोचने लगा कि उन पंक्तियों में उनके तत्कालीन समाज का कितना सजीव चित्रण था। शायद मेरा ध्यान पाकर उनको आगे की पंक्तियाँ गाने का हौसला मिला। निम्न पंक्तियों तक पहुँचने तक तो उनकी आँख से अश्रुधार बहने लगी, "मिल जुल के इस वतन को ऐसा बनायेंगे हम, हैरत से मुँह तकेगा सारा जहाँ हमारा..."
वे रूंधे हुए गले से बोले, "राजू बेटा, मैं चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान को दुनिया के सामने शान से सर ऊँचा करके खड़ा कराने वालों में हिंद के मुसलमान सबसे आगे खड़े हों।"
मुझे अच्छी तरह याद है कि उस समय फखरुद्दीन अली अहमद भारत के राष्ट्रपति थे। और वे भारत के पहले मुस्लिम राष्ट्रपति नहीं बल्कि डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन के बाद दूसरे थे। उनकी पत्नी बेगम आबिदा अहमद ने बाद में बरेली से चुनाव भी लड़ा और सांसद बनीं। ऐवान-ऐ-गालिब की प्रमुख बेगम बाद में महिला कॉंग्रेस की अध्यक्षा भी बनीं।
इस घटना के तीन दशक बाद, आज जब मैं ट्रेन में बैठा हुआ था तब मुझे इस इत्तेफाक पर खुशी हुई कि देश के वर्तमान राष्ट्रपति ऐ पी जे अब्दुल कलाम न सिर्फ़ मुस्लिम थे बल्कि एक वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने देश का सर ऊँचा करने में बहुत योगदान दिया था। बिल्कुल वैसे ही, जैसा सपना जावेद मामू देखा करते थे। तीस साल में कितना कुछ बदल गया, मगर अफ़सोस कि इतना कुछ बदलना बाकी है। बरेली के आसपास के ग्रामीण मुस्लिम इलाकों में गुस्साई भीड़ ने अज्ञानवश पोलियो निवारण के लिए आने वालों पर हमले किए क्योंकि उनके बीच ऐसी अफ़वाहें फैलाई गयीं कि इस दवा से उनके बच्चे निर्वंश हो जायेंगे। छोटी-छोटी बातों पर फ़तवा जारी कर देने वाले धार्मिक नेताओं में से किसी ने भी अपने समाज के लिए घातक इन घटनाओं को संज्ञान में नहीं लिया है। न ही पुलिस द्वारा अभी तक इन हमलों के लिए किसी जिम्मेदार आदमी को पकड़ा गया है।
मैं विचारमग्न था कि, "हाशिम का सुरमा..." और "दीनानाथ की लस्सी..." की आवाजों ने मेरा ध्यान भंग किया। मेरा बरेली स्टेशन आ गया था। मैं ट्रेन से उतरा तो देखा कि टिल्लू मुझे लेने स्टेशन पर आया था। इतने दिन बाद उसे देखकर खुशी हुई। हम गले लगे। टिल्लू के साथ उसका पाँच-वर्षीय बेटा पाशू भी था। पाशू बिल्कुल वैसा ही दिख रहा था जैसा कि तीस साल पहले टिल्लू दिखता था।
घर के आसपास सब कुछ बदल गया था। इतना बदलाव था कि अगर मैं अकेला आता तो शायद उस जगह को पहचान भी न पाता। घर की शक्ल भी बदल चुकी थी और उसके सामने की इमारतें भी एकदम चकाचक दिख रही थीं। खंडसाल की ज़मीन बेचकर लाला जी ने बाहर कहीं बड़ा व्यवसाय लगाया था। खंडसाल की जगह पर एक शानदार इमारत बन गयी थी। टिल्लू ने बताया कि यह भव्य इमारत जावेद मामू की है जहाँ उन्होंने एक आधुनिक आटा चक्की लगाई है। वे अभी भी परचूनी की दूकान चलाते हैं मगर नई दुकान उनकी पुरानी बित्ते भर की दुकान से कहीं बड़ी और बेहतर है।
मैं मामू की फ्लोर मिल की ओर चल रहा था। जब तक मैं जावेद मामू को देख पाता, टिल्लू ने मुझे उनके बारे में बहुत सी नयी बातें बताईं। जावेद मामू हर साल दो बच्चों के स्कूल की किताबों का प्रबंध करते हैं। बीस साल पहले जब यह अफवाह उड़ी कि किसी ने मुहर्रम के जुलूस पर पत्थर फेंका है और गुस्साई मुस्लिम भीड़ हिन्दुओं की दुकानें जलाने के लिए दौड़ पड़ी थी तो जावेद मामू सीना तानकर उन लोगों के सामने खड़े हो गये और उन्हें चुनौती दी कि एक भी हिन्दू की दूकान जलाने से पहले उन्हें मामू की दुकान जलानी पड़ेगी। बाद में उन्होंने सबको समझाया कि लूट और आगज़नी किसी एक समुदाय को नहीं जलाती है, यह देश का चैनो-अमन जलाती है और इसमें अंततः सभी को जलना पड़ता है। भीड़ ने उनकी बात को ध्यान से सुना और मामूली हील-हुज्जत के बाद माना भी। उनकी उस तक़रीर के बाद से मुहल्ले में कभी भी टकराव की नौबत नहीं आयी। टिल्लू ने बताया कि मामू के बेटे ने हाल ही में मेडिकल शिक्षा पूरी की है और दिल्ली में एक महंगे अस्पताल की नौकरी को ठुकराकर पास के मीरगंज क्षेत्र में ग्रामीणों की सेवा का प्राण लिया है।
जावेद मामू की बूढ़ी आँखों ने मुझे पहचानने में बिल्कुल भी देर नहीं लगाई, "अरे राजू बेटा तुम, आओ, आओ मेरे हिन्दी के मास्साब!" वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ मेरी ओर बढ़े। अपनी बाहें फैलाकर वे बोले, "बेटा पास आओ, इतने दिनों बाद तुम्हें ठीक से देख तो लूँ ..."
जब मैंने आगे बढ़कर उनके चरण छुए तो उनकी आँखों से आँसू टप-टप बह रहे थे।
[समाप्त]
हमने शुरू से अंत तक पढ़ा. सोच रहा हूँ की पाक रिश्ते हुआ करते थे. माहौल तो पिछले २० या ३० साल में ही बदला है. बहुत ही आभार अपने इस संस्मरण को हम सब तक पहुँचने का.
ReplyDeleteआपने तो हमको भी रूला दिया।
ReplyDeleteक्या संस्मरण लिखा है आपने...आप तो शब्दों के जादूगर हैं...वाह...
ReplyDeleteनीरज
दिल को छू लेने वाली पोस्ट।
ReplyDeleteऔर हाँ, पैरोडी भी मजेदार है।
मानवीय रिश्ते हमेशा मजहब और जातपात पर भारी रहे हैं. बहुत सुंदर संस्मरण.
ReplyDeleteरामराम.
कुछ रिश्ते दिल से जुड जाते हैं। और हम उन्हें कभी नहीं भूल पाते हैं।
ReplyDeleteसीधे दिल में उतर गया .संस्मरण..............कुछ देर के लिए सोचता रह गया क्या हो गयी है हमारे समाज को, आज हम सब कुछ हैं बस इंसान नही रहे
ReplyDeleteआज पूरी कहानी एक साथ पढ़ी....बस डूब ही गई उसमे......बहुत ही बारीकी से आपने स्थिति परिस्थितियों को उभारा है...
ReplyDeleteसचमुच मन भर आया,आँखें नम हो गयीं पढ़कर......
" वे रूंधे हुए गले से बोले, "राजू बेटा, मैं चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान को दुनिया के सामने शान से सर ऊंचा करके खडा करने वालों में हिंद के मुसलमान सबसे आगे खड़े हों।".....
आपका साधुवाद...बहुत सही किया आपने यह कथा सुनाकर.....यह जरूरत है आज की......दिलों के बीच दूरियां फैलाने वाले तो असंख्य हैं........जरूरत दूरियों को पाटने की है.
बहुत सुन्दर संस्मरण. आपकी बरेली भी शायद ही अब वैसी रही हो .
ReplyDeleteसही कहा था आपने, कितना कुछ बदल गया है।
Deleteस्मरणीय कहानी रही यह ! आभार !
ReplyDeleteओह ! जावेद मामू को सलाम !
ReplyDeleteदेर से ही सही, आपके जावेद मामू को 60वे गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबस यही अपराध मैं हर बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं.
ReplyDeleteआज ज़रूरत है, हज़ारों जावेद मामू की, ग्रामीण इलाकों में विशेषकर उत्तर प्रदेश में , जिससे जावेद मामू का सपना सच हो जाये. मैं पिछले तीन सालों में वहां के अंतरंग में घूमा, तो पाया कि आम आदमी अभी भी दाल रोटी की ही जुगाड में रमा है, और हिंदु मुसलमान का फ़रक कहीं भी इतना रेखांकित नही जितना कि भारत के दूसरे भाग में.
बजाज हिंदुस्तान लिमिटेड (शक्कर कारखाना)के एक बडे़ अधिकारी नें ये स्वीकार किया कि हमारे एच. आर . डिपार्टमेंट वाले इस बात का खास ध्यान देतें है, कि उनकी मीलों में हिंदुओं और मुसलमानों का औसत और अनुपात बना रहे, क्योंकि इससे उनके उत्पादकता पर अच्छा प्रभाव पडता है. मगर जब भी चुनाव आते हैं तो ये संतुलन बिगडने लगता है, क्योंकि तब सभी जातीय समीकरण में बंट जाते है.
कुछ लोग बूढे पीपल की तरह होते है जहाँ मिल जायो सर पे हाथ रख देते है......
ReplyDeleteआज तो सब ओर कंस मामू ही मिलते है, काश हर धर्म मै आप के जावेद मामू जेसे लोग हो ओर भटके हुये लोगो को समझाये.्बहुत ही सुंदर लेख लिखा , ओर मेने एक एक शव्द पढा.
ReplyDeleteधन्यवाद
ओह! मामू तो अत्यन्त प्रिय चरित्र हैं। कुछ ऐसे मामू, और देश का माहौल बदल जाये!
ReplyDeletekripya blogvani ka hissa banane ka tareeka batayein..
ReplyDeleteअनुराग जी,
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी लगी कहानी. आपकी इस कहानी 'जावेद मामू' ने तो मुझे भी बरेली शहर की याद दिला दी जहाँ मुझे भी कुछ बार जाने का मौका मिला था. 'कुछ बार' इसलिए कि हम बेटियों को कहीं भी अकेले जाने या अधिक घूमने-फिरने की इजाजत नहीं थी. अपने बचपन की यादों का इतना अच्छा विवरण दिया है आपने - बाजार की चहल-पहल और बच्चों के जमघट आदि की कि सारा चित्र आंखों के आगे आ रहा है वहां का. मैं जब-जब गई हूँ भारत तो बरेली से ही होकर जाना पड़ता है अपने मायके. और इस समय आप की कहानी ने मुझे बरेली वाले दीनानाथ की स्वादिष्ट मोटी सी मलाई और पिस्ता पड़ी लस्सी याद दिला दी है. जो बरेली में रूककर पीती थी. स्वाद भी याद रहा है. लेकिन उनकी लस्सी अब हर बार पतली होती जाती है, और मलाई की मात्रा भी करीब-करीब नहीं के बराबर हो गई है. आपकी बचपन के मीठे अनुभव की कहानी से वोह मीठी लस्सी की यादें भी ताज़ा हो गईं हैं. कहानी व लस्सी की याद दोनों के लिए धन्यबाद.
अनुराग जी,
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी लगी कहानी. आपकी इस कहानी 'जावेद मामू' ने तो मुझे भी बरेली शहर की याद दिला दी जहाँ मुझे भी कुछ बार जाने का मौका मिला था. 'कुछ बार' इसलिए कि हम बेटियों को कहीं भी अकेले जाने या अधिक घूमने- फिरने की इजाजत नहीं थी. अपने बचपन की यादों का इतना अच्छा विवरण दिया है आपने - बाजार की चहल-पहल और बच्चों के जमघट आदि की कि सारा चित्र आंखों के आगे आ रहा है वहां का. मैं जब-जब गई हूँ भारत तो बरेली से ही होकर जाना पड़ता है अपने मायके. और इस समय आप की कहानी ने मुझे बरेली वाले दीनानाथ की स्वादिष्ट मोटी सी मलाई और पिस्ता पड़ी लस्सी याद दिला दी है. जो बरेली में रूककर पीती थी. स्वाद भी याद रहा है. लेकिन उनकी लस्सी अब हर बार पतली होती जाती है, और मलाई की मात्रा भी करीब-करीब नहीं के बराबर हो गई है. आपकी बचपन के मीठे अनुभव की कहानी से वोह मीठी लस्सी की यादें भी ताज़ा हो गईं हैं. कहानी व लस्सी की याद दोनों के लिए धन्यबाद.
बहुत ही बढिया कहानी..
ReplyDeleteहमारे ऑटोवाले करिमचा होते थे जो आज भी ऑटो चलाते हैं..कपडे सिलने वाले हकिम साहब .. और अभी कुछ दिन पहले ही ईद पर आसिफ का ईद मुबारक का फोन आया. आसिफ हमारी फैक्ट्री में काम करता है...
सब इंसान हैं... नफरत फ़ैलाने वाले कोई और हैं.. यह उनका कारोबार है...
मनोज
अनुराग जी क्या कहू पढना शुरू किया तो पढ़ती चली गई ...जैसे रुकने का मन ही नहीं था काश आप और कुछ भी लिखते इस कहानी में .....ना इसे एसे ना ले की मुझे ये अधूरी लगी पर एसा लगा की और पढू और पढू आपकी बरेली के बारे में.....
ReplyDeletethanks anurag ji for this narration.
ReplyDeleteयह छूटा हुआ था..फेसबुक ने पढ़ा दिया। बहुत अच्छी कहानी।
ReplyDeleteआपने तो एक अलग ही संसार में ले जा कर खड़ा कर दिया. शायद मेरी माँ के बचपन की हल्द्वानी ऐसी रही हो. रोचक और प्रेरक.
ReplyDeleteघुघूती बासूती
आँखे नाम कर दी ..... जावेद मामू की जिंदादिली ने।
ReplyDeleteआँखे नम कर दी ..... जावेद मामू की जिंदादिली ने।
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