बैंक हमारी शिक्षा पर काफी संसाधन झोंकता था। मुख्यालय में मानव संसाधन विभाग के अंतर्गत एक खंड सिर्फ़ हमारे विकास और निगरानी के लिए रहता था। शाखाओं को अपने काम के लिए हमारा दुरुपयोग न करने के स्पष्ट निर्देश थे। हमारे कामों की सूची शाखा में हमारे पहुँचने से पहले ही पहुँच जाती थी। हर महीने प्रगति रिपोर्ट भी बनती थी। मगर फिर भी कुछ घिसे हुए प्रबंधक निर्देशों व प्रणाली के बीच में गहरे गोता लगाकर कोई न कोई ऐसा छिद्र ज़रूर निकाल लाते थे कि हममें से कई लोगों का सारा दिन उनका काम करते ही बीत जाता था। शाखा प्रबंधक जितना निकम्मा और गैर-जिम्मेदार होता था, हमें उतना ही ज़्यादा काम मिलता था क्योंकि उस शाखा में एक हम ही होते थे जो ऐसे प्रबंधक की सुनते थे। अब आपने इतनी देर तक मेरी बात ध्यान से सुनी है तो मेरा भी फ़र्ज़ बनता है कि मैं विषय से न भटकूँ और मुख्य मुद्दे पर वापस आ जाऊं।
यह बैंक दक्षिण भारतीय था इसलिए इसे उत्तर में पैर ज़माना उतना आसान नहीं था। (ज्ञान दत्त जी की भाषा में कहूं तो - हमारे बैंक के पास इनिशिअल एडवांटैज नहीं था।) उत्तर में हमारी शाखाएँ भी कम थीं और उनमें भी करोड़ों का व्यापार करने बड़ी शाखाएँ तो नाम-मात्र की ही थीं। हमारे बैंक की आगरा शाखा उत्तर भारत की प्रमुख शाखाओं में से एक थी। पर्यटन, निर्यात आदि का काम तो था ही, सैनिक छावनी होने के कारण सेना का भी काफी बड़ा कारोबार हमारे साथ ही होता था। इसके अलावा हम उस इलाके के ग्रामीण बैंकों के प्रायोजक भी थे।
हमारे बैंक में बहुत से अधिकारियों को अच्छी हिन्दी बोलनी नहीं आती थी। कई लोगों को भारत में रहते हुए भी भारत की सांस्कृतिक विविधता का अहसास भी कम था। सुदूर दक्षिण से आए अधिकाँश उच्चाधिकारियों को उत्तर के क्षेत्रों का इतिहास-भूगोल कुछ भी पता न था। इन सब कमियों की भरपाई करने के लिए बैंक अक्सर यह बात ध्यान में रखता था कि अपने सबसे चटक अधिकारियों को ही उत्तर में भेजता था - खासकर बड़ी शाखाओं में। यह लोग खासे पढ़े-लिखे और मेहनती तो थे ही, युवा, तेज़-तर्रार और महत्त्वाकांक्षी भी थे। आगरा में भी मेरे सारे सहकर्मी ऐसे ही थे। उपरोक्त बातों के अतिरिक्त इनमें एक और समानता भी थी - इनमें से किसी को भी मेरा वहाँ रहना पसंद न था। पता नहीं उन्हें मेरा कमउम्र होना नापसंद था या मेरा सीधे अधिकारी बन जाना परन्तु इतना ज़रूर था कि अगर उनका बस चलता तो वे पहले दिन ही मुझे खिड़की से उठाकर बाहर फेंक देते...
[क्रमशः]
नोट:अभी तक मैंने बहुत सी कहानियाँ लिखी हैं. कुछ प्रकाशित भी हुई हैं मगर ज़्यादातर इस वजह से मेरी डायरी में ही सिमटी रहीं क्योंकि मुझे हिन्दी टाइप करना नहीं आता था. इसी कारण से प्रस्तुत कहानी मुझे अंग्रेजी में लिखनी पड़ी थी. अब यूनिकोड के आने से वह समस्या भी हल हो गयी है. आपने पहले भी कहानियों को पसंद किया है. उसी से प्रोत्साहित होकर मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में यह कथा सामने रख रहा हूँ. कुछ अन्य कहानियाँ और संस्मरण नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं: | |
जावेद मामू वह कौन था सौभाग्य सब कुछ ढह गया करमा जी की टुन्न-परेड गरजपाल की चिट्ठी लागले बोलबेन तरह तरह के बिच्छू ह्त्या की राजनीति | मेरी खिड़की से इस्पात नगरी हिंदुत्वा एजेंडा केरल, नारी मुक्ति और नेताजी दूर के इतिहासकार सबसे तेज़ मिर्च - भूत जोलोकिया हमारे भारत में मैं एक भारतीय नसीब अपना अपना संस्कृति के रखवाले |
आपकी कहानियां जीवंत और अक्सर निजी संस्मरणों पर आधारित होती हैं जो कि अनायास ही बांध लेती हैं.
ReplyDeleteआपकी यह कहानी भी शुरुआत मे ही अच्छी खासी भूमिका बना चुकी है जो शायद आपके बैण्कींग जीवन के शुरुआती दिनों के अनुभवों से परिचय करवायेगी. हम अगले भाग का इन्तजार कर रहे हैं.
रामराम.
कहानी का यह प्रथम, संक्षिप्त खण्ड भरपूर कसावट वाला और जिज्ञासा जगाने वाला, रोचक है।
ReplyDeleteअगले अंश की प्रतीक्षा है।
पता नहीं उन्हें मेरा कमउम्र होना नापसंद था या मेरा सीधे अधिकारी बन जाना परन्तु इतना ज़रूर था कि अगर उनका बस चलता तो वे पहले दिन ही मुझे खिड़की से उठाकर बाहर फेंक देते...
ReplyDelete" ये शब्द हकीक़त ब्यान करते हैं क्योंकि इस स्थति का सामना हर उस नौजवान पीढी को करना पड़ता है जो होनहार और तेज होते है .....और समय से पहले उस मंजिल तक पहुंच जाते हैं जहां एक आम या समान्य ज्ञान रखने वाले व्यक्ति पहुंचते हैं .....शुरुआत अच्छी है ...आगे भी रोचकता बनी रहेगी ..."
Regards
खिड़की के बाहर खड़े होकर इंतज़ार कर रहे हैं।
ReplyDeleteअच्छा लिख रहे हैं।बहुत कुछ सीखने व जानने को भी मिल रहा है।बहुत रोचक शुरुआत है।प्रतिक्षा रहेगी..
ReplyDeleteकहानी के इस प्रथम भाग ने मन में एक जिज्ञासा उत्पन कर दी है. अब तो हर रोज आपके चिट्ठे पर आना पडेगा.कृ्प्या अगला भाग जरा जल्दी पोस्ट कीजिए.
ReplyDeleteबहुत सुंदर, क्या यह कहानी है या आप की अपनी जीवनी ??चलिये अनिल जी के साथ मै ओर ताऊ भी इंतजार कर रहे है, अगर किसी ने फ़ेंका तो ताऊ जा कर उसे सबक सीखायेगा, ताऊ को दोस्त इसी लिये बनाया है, मे ओर अनिल जी आप को लपक लेगे, ताकि आप का सुट ना खराब हो.
ReplyDeleteधन्यवाद
कविता तो आप अच्छी लिखते ही हैं, कहानी भी खूबसूरत लिखी है। अन्य कहानियों की प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteअगली कड़ी का इंतजार है ।
ReplyDeleteआपकी हर कहानी सच लगती है... संस्मरण लगती है. या तो ये संस्मरण ही होती हैं या फिर आप कुछ यूँ बाँध ले जाते हैं कहानी के फ्लो में की सबकुछ सच लगता है !
ReplyDeleteआपकी कहानियां एक अलग फ्लेवर वाली होती हैं मित्र। पिट्सबर्ग की कुछ रेसिपी है क्या उनके अन्दर?
ReplyDeleterochakta बनी रहती है आप की kahaaniyon में..........अंत तक पहुँचने की pratiksha रहती है
ReplyDeleteरोचक कहानी है, समापन कडी का इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteरोचक कहानी है, अगली कडी की प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteएक और कहानी या एक और संस्मरण? बहुत पहले कहीं पढा था कि जो कहानी सच पर आधारित नहीं होती, उसकी चूलें ढीली होती हैं। लगता है आपने हर कहानी में 100% सच्चाई डालने का प्रण किया हुआ है। अगली कडी का इंतजार है।
ReplyDeleteये लिंक दे कर ठीक किया आपने.... शुरू की कुछ कहानियां पुनः पढ़ने का मन है..
ReplyDeleteइर्शाद...
ReplyDeleteइतना अच्छा और सुवाच्य लिखते हैं आप की आपकी कहानी/लेख को पढ़ कर सुनाने का जी करता है.
कोई छोटी कहानी है?
Achchhi kahani!
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