हमारे एक परिचित कलकत्ता में रहते हैं। एक दिन वे रेल में सफर कर रहे थे। भारतीय रेल का द्वितीय श्रेणी का अनारक्षित डब्बा। ज़ाहिर है, भीड़ बहुत थी। साथ में बैठे हुए एक महाशय चौडे होकर अखबार पढ़ रहे थे। जब पन्ना पलटते तो कागज़ के कोने दोनों और बैठे लोगों की आँख के करीब तक पहुँच जाते। कुछ देर तक तो लोगों ने बर्दाश्त किया। आखिरकार एक भाई से रहा न गया। अपने थैले में से एक पत्रिका निकालकर बड़ी विनम्रता से बोले, "भाई साहब आप अखबार पढने के बजाय इस पत्रिका को पढ़ लें तो अच्छा हो, अखबार जब आँख के बिल्कुल पास आ जाता है तो असुविधा होती है।"
उन महाशय ने पहले तो आँखें तरेर कर देखा फिर वापस अपने अखबार में मुँह छिपाकर बड़ी बेरुखी से बोले, "लागले बोलबेन" (या ऐसा ही कुछ और)
सामने की सीट पर बैठे हुए पहलवान से दिखने वाले एक साहब काफी देर से महाशय के पड़ोसियों की परेशानी को देख रहे थे। वे अपनी सीट से उठे और अपनी हथेली पूरी खोलकर महाशय की आँखों और अखबार के बीच इस तरह घुमाने लगे कि वे कुछ भी पढ़ न सकें। जब महाशय ने सर उठाकर उन्हें गुस्से से घूरा तो वे तपाक से बोले, "लागले बोलबेन"
सारे सहयात्री हँस पड़े। महाशय ने अपना अखबार बंद करते हुए पड़ोसी से पत्रिका माँगी और आगे का सफर हंसी-खुशी कट गया।
उन महाशय ने पहले तो आँखें तरेर कर देखा फिर वापस अपने अखबार में मुँह छिपाकर बड़ी बेरुखी से बोले, "लागले बोलबेन" (या ऐसा ही कुछ और)
सामने की सीट पर बैठे हुए पहलवान से दिखने वाले एक साहब काफी देर से महाशय के पड़ोसियों की परेशानी को देख रहे थे। वे अपनी सीट से उठे और अपनी हथेली पूरी खोलकर महाशय की आँखों और अखबार के बीच इस तरह घुमाने लगे कि वे कुछ भी पढ़ न सकें। जब महाशय ने सर उठाकर उन्हें गुस्से से घूरा तो वे तपाक से बोले, "लागले बोलबेन"
सारे सहयात्री हँस पड़े। महाशय ने अपना अखबार बंद करते हुए पड़ोसी से पत्रिका माँगी और आगे का सफर हंसी-खुशी कट गया।
Khoob Bhalo!
ReplyDeleteKhoob Bhalo!!!
ReplyDeleteजैसे को तैसा?
ReplyDeleteबहुत अच्छा संस्मरण है ! पहलवान जी भी
ReplyDeleteकभी कभी बहुत काम आते हैं !
बहुत बढिया ! लागले बोलबेन .. !
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगे ..लागले बोलबेन... ! इस संस्मरण के लिए तिवारी साहब का नमन आपको ! शायद इसे ही कहते हैं की कोई एक थप्पड़ मारे तो उसका गाल टमाटर
ReplyDeleteकर दो :)
मैं इतनी देर से आपके घर में बैठा बैठा सोच रहा हूँ की आप इतने जाने पहचाने से क्यूँ लग रहे हैं ? वो तो
ReplyDeleteअब याद आया मुझको ! अरे भाई आपके रिश्तेदार की मदद करने वाला पहलवान मैं ही तो था , जब मैं जिंदा था, उस समय ! :) और इस तरह दूसरो
की आफत सर ले कर ही तो मैं आज भूत बना घूम
रहा हूँ ! :)
sudhar ke liye udar nahi yahi ek rasta thik hai
ReplyDeleteभालो ! पहले भी एक बार कहीं सुना था.
ReplyDelete" a small incedent but with great message, tit for tat, interesting to read"
ReplyDeleteRegards
Anuragji, bhalo aachhe. Yah bhi ek pravratti hai, ismen sachai chhupi hai. Kamjor par sabka jor.Sava ser mile to dimag aaye sahi thor.Badhia drishtant bataya aapne.
ReplyDeleteसही है।आज कल जैसे को तैसा हो कर ही समझाया जा सकता है।
ReplyDeleteबहुत खूब। जैसे को तैसा।
ReplyDeleteअनुराग जी , बहुत अच्छा किस्सा सुनाया आपने ...आजकल लोग दूसरों के बारे में नही सोचते ...जब तक ख़ुद पर ना बीते ...कोई बात समझ में नही आती ...इसी लिए जैसे को तैसा का सिद्धांत हमेशा काम आता है !!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteबहुत अच्छा!
ReplyDeleteशायद इसे ही कहते हैं जैसे को तैसा!!!!
भूत प्रेत भी ब्लॉग आईडी रखते, ब्लॉग पढ़ते और टिप्पणी करते हैं। :-)
ReplyDeleteएइटा ठीक होलो.
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एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.
ऐसे पहलवानों की बहुत कमी है देश में तभी टांग अडाने वाले मजे कर रहे हैं...किसी ने ठीक ही कहा है...सीधी उंगली से घी नहीं निकलता.
ReplyDeleteनीरज
वैसे इस शीर्षक का अर्थ क्या है। ज्यादा बोलोगे क्या- या बहुत बोल रहे हो या बोलने लगे हो- इनमें से क्या?
ReplyDeleteऐसा लेख पढ़कर आत्मा को तृप्ती-सी क्यों महसूस होती है?
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ReplyDeleteहम तो भाई, इसका खंडन करूँगा,
या तो वह पहलवान ही न होगा.. या फिर,
यह बुद्धि उसको किसी ने फ़ारवर्ड की होगी ।
सही है। लोगों को शरीफ बनाने के लिए कभी-कभी लंठई जरूरी हो जाती है :)
ReplyDeleteभई वाह.....
ReplyDeleteबढ़िया किस्सा....
मजेदार...
मजा आ गया , ला गले बोलबेन का मतलब तो बता देते,
ReplyDeleteधन्यवाद
आपकी टिप्पणियों से पता लगा कि "लागले बोलबेन" का अर्थ बताना ज़रूरी था. भूल सुधार के निमित्त
ReplyDelete"लागले बोलबेन" का अर्थ है - (आपको) लगे तब बोलना.
जब लगे तब बोलना -
ReplyDeleteवाह ! भालो कथा :)
स स्नेह,
- लावण्या