Disclaimer[नोट] : मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में हुई कुछ ऐसी मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिनकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है मित्रगण अन्यथा न लेंगे।
भाई अभिषेक ओझा आजकल अमेरिका में हैं। इसके पहले भी काफी देश-विदेश घूमे हैं। एक पूरी की पूरी पोस्ट भोजन,शाकाहार, अंतरात्मा और सापेक्षतावाद पर लिखी है। सुना है आगे और भी लिखनेवाले हैं। हम कहा के हमहूँ कुछ लिखबे करें। उन्होंने आज्ञा दे दी है। जिन शंकालु भाइयों को भरोसा न हो वे हमारी पिछली पोस्ट "टीस - एक कविता" में कमेन्ट देख कर अपनी तसल्ली कर लें। ओझा जी, वह कमेन्ट हटाना मत भाई, जब तक सारे पाठक "पढ़ चुके हैं" का साक्ष्य न दे दें।
दृश्य १:
दफ्तर में छोटा सा समूह था। एक जापानी, एक बांग्लादेशी, एक इराकी एक अमेरिकन और एक भारतीय मैं। महीने में एक दिन खाना दफ्तर की तरफ़ से ही होता था। उसी खाने पर अक्सर किसी ठेकेदार, आपूर्तिकार आदि के साथ बैठक का भी समायोजन हो जाता था। इस बार एक भारतीय बन्धु आए। खाना पहले से आ चुका था। आते ही पहले वे हम सब से मिले। मुलाक़ात पुरानी थी सो औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद सीधे खाने की तरफ़ लपके। शाकाहारी खाने की तरफ़ हिकारत से देखते हुए बोले, "यहाँ कोई शाकाहारी भी है क्या?"
दृश्य २:
एक स्थानीय होटल में पारिवारिक भोज का समय। हमारे बहुत अधिक दूर के एक काफी नज़दीकी रिश्तेदार हमारी ही मेज़ पर बैठकर मुर्गे की टांग तोड़ रहे हैं। काफी गुस्से में हैं कि उनके सामने ही एक ऐसा बेवकूफ बैठा है जो मछली-अंडा तक नहीं खाता। बड़बड़ा रहे हैं, "किस हिन्दू ग्रन्थ में लिखा है कि मांस नहीं खाना चाहिए?" उनकी पतिव्रता पत्नी भी भारतीय परम्परा को निभाते हुए अपने पति-परमेश्वर का मान रखते हुए शुरू हो गयी हैं, "आदमी को खा जाते हैं, सब तरह के अत्याचार करते रहते हैं लोग, मगर मांस नहीं खाते हैं - यह कौन सा नाटक है?"
दृश्य ३:
साप्ताहिक प्रवचन सुनकर बाहर आने के बाद पता लगता है शाह जी के पिता जी का जन्मदिन है। खाना पीना तो है ही मगर उसके पहले केक का वितरण भी होता है। हम मना करते हैं तो उपला जी आकर पूछते हैं, "केक भी नहीं खाते?
"खाते हैं मगर अंडे वाला नहीं!" अब उपला जी तो समझ ही पायेंगे हमारे दिल का हाल।
"क्यों, अंडा क्यों नहीं खाते?" उपला जी केक का दूसरा टुकडा मुँह में भरकर भोलेपन से पूछते हैं।
"हमारी मर्जी!" हम सोचते हैं कि एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे आदमी को अगर यह सवाल पूछना पड़ रहा है तो फ़िर जवाब उसकी समझ में क्या ख़ाक आयेगा।
"नहीं मतलब स्वास्थ्य की दृष्टि से कोई नुक्स है क्या अंडे में? फायदेमंद ही है," वे बड़ी मासूमियत से हमें बहस में घसीटने की कोशिश करते हैं।
"हर आदमी हर बात फायदे नुक्सान के लिए ही करे ऐसा नहीं होता है," हमें पता है कि आज तक जिसने भी हमें बहस में घसीटा है वह कई दिन रोया है - एकाध लोग तो ताउम्र भी रोये। हम ठहरे अव्वल दर्जे के दयालु। किसी का भी दिल दुखे यह हमें कबूल नहीं। इसलिए हम उनकी बहस में पड़े बिना फ़टाफ़ट शाह जी के शाहनामे से बाहर आ जाते हें।
दृश्य ४:
भारतीय लोगों के कई झुंड खाना खाने के बाद देशसेवा की अपनी ड्यूटी पूरी करने के लिए लम्बी-लम्बी फेंक रहे हें। कोई डंडे के ज़ोर पे सारी समस्यायें हल करने वाला है तो कोई एक विशेष धर्म वालों का सफाया कर के। श्री लोचन जी विनोबा भावे से अप्रसन्न हैं क्योंकि वे सिर्फ़ दूध पीते थे.
"दूध में भी तो बैक्टीरिया होते हें," मानो उनका झींगा एकदम बैक्टीरिया-मुक्त हो।
"सब्जी, अनाज, फल, पेड़, पौधे सभी में जान होती है। कुछ भी खाओ, वह हत्या ही है," लोचन जी की बात चल रही है। हम नमस्ते कर के विदा ले लेते हें।
दृश्य ५:
श्रीवास्तव जी का गृह प्रवेश। सत्यनारायण व्रत कथा के बाद का भोज। सभी खा रहे हें। केवल भारतीय ही आमंत्रित हें। कुछ मांसाहारी हें, कुछ शाकाहारी हें और कुछ मौकापरस्त भी हें। एक शाकाहारी मित्र कहते हें कि उन्हें शाकाहार की बात समझ नहीं आती है। मित्र बहुत बुद्धिमान हें और अनुभवी भी। मुझे लगता है कि इनसे इस विषय पर बात की जा सकती है। मैं बात को उनकी समझ में न आने का कारण पूछता हूँ तो वे बताते हें, "शाकाहार अप्राकृतिक है।"
मेरी रूचि जगती है तो वे आगे बताते हें, "प्रकृति में देखिये, हर तरफ़ हिंसा है, हर प्राणी दूसरे प्राणी को मारकर खा रहा है।"
[क्रमशः]
भाई, इंन्सान जानवरों से अलग क्यों है?
ReplyDeleteउसे भी जानवर जैसा होना चाहिए।
लेकिन कोई जानवरों के जैसा नहीं होना चाहता है तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होना चाहिए?
यदि खेती का आविष्कार न होता तो और शाकाहार प्रमुख न होता तो क्या इंन्सान आज जीवित भी होता?
एक बात और इंन्सान मांसाहार को जानवरों की तरह क्यों नहीं करता?
पका कर क्यों खाता है?
सवाल बहुत हो गए हैं, टिप्पणी लम्बी हो रही है।
सन्डे हो या मंडे .हमें नही भाते अंडे :) अभिषेक का लिखा भी बढ़िया था इस विषय पर और आपका लिखा भी अच्छा लगा ...सब इस पर सोच अपनी अपनी रखते हैं ..सवाल कई हैं और जवाब देने के तरीके भी कई है ..
ReplyDeleteमाफ़ करिए ! मैं सिर्फ़ शाकाहारी हूँ ! यूँ हमारी प्रजाति में भी मांसाहारी भूत
ReplyDeleteहोते हैं ! अब ये तो अपनी अपनी मर्जी है ! जानकारी अच्छी है ! धन्यवाद !
बात आगे बढ़ी... बहुत खुशी हुई... लिखते रहिये, आगे भी लिखिए.
ReplyDeleteभाई हम तो बहुत बड़े समर्थक बन गए हैं... बस ख़ुद नहीं खा पायेंगे !
मुझे समझ नहीं आता कोई खुन कैसे पी सकता है?
ReplyDeleteबड़े सलीके से आपने मांसाहारों का पक्ष रखा है। पढ़कर काफी मजा आया, काफी दिनों से अंडा नहीं खाया, जा रहा हूँ आमलेट बनाने। कृप्या शाकाहारी लोगों से अनुरोध है, मांस से घृणा करना, मांसाहारियों से नहीं। धन्यवाद।
ReplyDeleteप्रिय मित्र पित्सबर्गिया ! आपका कमेन्ट रूपी इमेल मग्गा बाबा को मिली ! आपको भेजी गई इमेल क्यो नही मिल रही हैं " तो आपको भेजी गई अब तक की इमेल का हिसाब चेक करते करते यहाँ आपकी ताजा पोस्ट तक आ पहुंचा ! अब कल जैसे आपकी कहानी सुनने में देखते देखते एक घंटा निकल गया और पता भी नही चला !
ReplyDeleteइसी तरह आपकी आज की पोस्ट पर नजर पड़ गई ! फ़िर पढ़ना शुरू किया तो एक साँस में ही पढ़ गया ! अंत में आपने ही याद दिला दिया की पोस्ट लम्बी हो रही है ! अत: आप ने पाठको पर रहम करके शेष अगले भाग का टाइटल चस्पा
कर दिया ! :) अब पोस्ट लम्बी है तो भाई ताऊ तो किम्मै उधार जमा करता कोनी !
अपनी तो टिपणी भी लम्बी ही चलेगी ! आप की पोस्ट हमने झेली है , आपको हमारी टिपणी झेलनी ही पड़ेगी ! जैसी करनी वैसी भरनी !:)
अब काम की बात !
खान पान का सीधा सम्बन्ध देश काल से है ! आप शाकाहारी हैं या मांसाहारी इससे आपके चरित्र का कुछ लेना देना नही है ! सवाल है की -
"यदि खेती का आविष्कार न होता तो और शाकाहार प्रमुख न होता तो क्या इंन्सान आज जीवित भी होता?"
उनका यह कहना उचित है ! पर देखिये आपने नोटिस किया होगा की समुद्र तटीय इलाको में रहने वाले सभी जाती के लोग मछली खाते
रहे हैं ! तो अगर खेती ना होती तो कुछ भी आविष्कार कर लिया गया होता ! अगर खेती ही जरुरी होती तो या, जी हाँ , या मांसाहार इतना
जघन्य ही होता तो राम क्रिशन परम हंस मछली भात से अपने आप को दूर कर चुके होते ! और मछली भात उनका प्रिय भोजन था ! अब इसका मतलब ये नही है की परमहंस ज्ञान को प्राप्त नही थे ! या उनकी भक्ति में कोई कसर रह गई थी ! या वो मछली खाना छोड़ने का सर्टिफिकेट मिले बिना ज्ञान को प्राप्त नही होते ! मैंने अभी तक जो जाना हैं उस हिसाब से परमहंस से सर्वोपरी कोई दूसरा ग्यानी मैं नही देख पाया ! धर्म के क्षेत्र में उनको वैज्ञानिक कहा गया है ! इस क्षेत्र में जितने प्रयोग उन्होंने किए है , दूसरा कोई शायद ही कर पाया हो ! (शायद चर्चा उलटी जा रही है :)
तो मेरे हिसाब से शाकाहार मांसाहार तो उपलब्धता पर निर्भर है !
अब ये अलग बात है की मनुष्य हर बात का मतलब अपने हिसाब से निकाल लेता है ! और यहीं ईश्वर भी धोखा खा गया ! भगवान बुद्ध से उनके अनुयाइयों ने जब यह पूछा था की - क्या मांसाहार करना चाहिए ?
बुद्ध ने कहा - नही !
शिष्यों ने पूछा - अगर पशु मर गया हो तब ?
बुद्ध ने कहा - जब मर ही गया तब कुछ भी करो !
अब शिष्यों ने मतलब निकाल लिया की मरे हुए पशु का मांस खाया जा सकता है ! और इस बात पर तो भगवान बुद्ध सहमत हैं ! अत: शिष्यों ने मांसाहार पर बुद्ध की मोहर लगवा ली ! जबकि बुद्ध ने यह नही सोचा होगा की उनकी बात जो एक साधारण रूप में कही गई है , उसका इस तरह अनर्थ होगा !
नतीजा आज पुरे एशिया में, जहाँ जहाँ बोद्ध धर्म प्रचलित है ! वहा होटलों पर बोर्ड टंगे नजर आते हैं की " यहाँ मरे हुए पशु का मांस बेचा जाता है ! " ये शायद सबसे ग़लत हुवा है ! और वो भी बुद्ध का सहारा लेकर !
चलिए , अब आ जाते हैं की मांस पका कर क्यों खाया जाता है ? क्योंकि मांस पका पकाया है ! मांस बनने की प्रक्रिया काफी लम्बी होती है ! अत: जो मांसाहारी जीव हैं उनकी आंते काफी
छोटी इसी लिए परमात्मा ने बनाई हैं की मांस को फ़टाफ़ट शरीर से बाहर किया जाए ताकि कोई उपद्रव नही खडा हो !
और इसीलिए मनुष्यों के लिए ज्ञानियों ने धर्म की आड़ लेके मना किया है ! क्यूंकि मनुष्य की आंते काफी लम्बी होती हैं ! और कोई
भी अति पका आहार वहाँ ज्यादा समय टिक कर खराबी ही करेगा !
मेरी अपनी समझ में ये एक निजी मामला है ! मैं या आप किसी पर कुछ थोप नही सकते ! और मैं व्यक्तिगत रूप से मांसाहार से ४१७
मील दूर हूँ ! और इसके पीछे शायद मेरे पारिवारिक संस्कार ही रहे होंगे ! और यहाँ भी वही देश काल की थ्योरी लागू होगी ! मैं हरयाना
से हूँ और वहा शाकाहार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था तो मेरे पुरखों के सामने षाकाहार के अलावा कोई चारा ही नही रहा होगा !
अब शायद आप भी पक गए होंगे टिपणी पढ़ते २ ! तो अब लिखना बंद करूँ ? अगर कोई इच्छा बाक़ी हो तो मेल कर देना जी ! अभी और
मसाला है मेरे पास ! एक पोस्ट जितनी टिपणी ! आप भी कहाँ सुबह सुबह ताऊ से उलझ लिए !:) इसीलिए कहते हैं " ताऊ की दोस्ती
जी का जंजाल " !
" post is not lengthy at all,but interetsing to read, ofcourse we should be vegitarian only,, nice artical to resd about"
ReplyDeleteRegards
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबड़ी हिंसा-चर्चा है इस पोस्ट में!
ReplyDeleteहिंसा है, इसलिए दूसरे को मार कर खाना चाहिए?...
ReplyDeleteविचार शायद पुराना है इसीलिए एक-दूसरे को मारकर खाने की रवायत बढ़ती गई. वैसे अपनी-अपनी पसंद है जी. जो मांशाहार करते हैं, उनसे हमें कोई शिकवा नहीं. हम उनके साथ बैठकर भी शाकाहार ही करते हैं.
Aapke saare drashya padhane ke baad likhne ko kuchh bacha hi nahi. sab kuchh aapne kah diya hai.vaise main to poorn shakahari hun, jinhe log ghas foos khane wala batate hain.
ReplyDeletehum bhi shakahari hai
ReplyDeleteभारतेंदु हरिश्चंदर ने आज से कई साल पहले एक लेख लिखा था की यदि कोई जहाज का कप्तान स्त्रैन है शराबी है ,पर जहाज के डूबते समय वो जहाज छोड़कर नही भागता तो उसका चरित्र कई लोगो से ऊँचा है.....मै भी इसी बात से इत्तेफाक रखता हूँ........पर अभिषेक ने खाने को शायद किसी चरित्र से ना जोड़कर अपने ख्याल दिए थे शाकाहारी ओर माँसाहारी के तर्क में ..अपने अपने ख्याल है....यहाँ आपने दूसरा पहलू रखा है......
ReplyDeleteकुछ संबल मिला...हम तो परहेजी हैं नहीं. सब खा लेते हैं शरमाते हुए. :) बहुत आभार इस पोस्ट का.
ReplyDeleteएक सार्वजनिक निवेदन के लिए आपका मंच बिना पूछे इस्तेमाल कर रहा हूँ:
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निवेदन
आप लिखते हैं, अपने ब्लॉग पर छापते हैं. आप चाहते हैं लोग आपको पढ़ें और आपको बतायें कि उनकी प्रतिक्रिया क्या है.
ऐसा ही सब चाहते हैं.
कृप्या दूसरों को पढ़ने और टिप्पणी कर अपनी प्रतिक्रिया देने में संकोच न करें.
हिन्दी चिट्ठाकारी को सुदृण बनाने एवं उसके प्रसार-प्रचार के लिए यह कदम अति महत्वपूर्ण है, इसमें अपना भरसक योगदान करें.
-समीर लाल
-उड़न तश्तरी
अच्छी चर्चा चल रही है। अगली कड़ी का इंतजार है..
ReplyDeletekul milakar mansahar ke paksh me mujhe yah tark achche nahin lage, har kisi ki apni maanyatayen hoti hain, yadi aap shakahar nahi apna sakte to aapke tarkon se log mansahar nahin apnane lagenge.
ReplyDeleteअनुराग जी
ReplyDeleteदुनिया में आजकल समझदार लोगों की भरमार हो गई है इसीकारण उनके पास हर बात का उत्तर होता है। तर्क- कुतर्क में अन्तर करना बहुत कठिन हो गया है। अब क्या कहें जिसे जो उचित लगे वह वही करे। जब इन्सान-इन्सान को खाने पर तुला है तो बाकी की क्या बात करें। सस्नेह
बहुत बेहतरीन चर्चा हो रही है ! देखते हैं आगे कहाँ तक जाती है बात ! तिवारी साहब का सलाम इस हिंसक चर्चा के लिए ! धन्यवाद !
ReplyDeleteपर एक बात बताऊँ , मजा बहुत आ रहा है ! चुपके चुपके !
बहुत बेहतरीन चर्चा हो रही है ! देखते हैं आगे कहाँ तक जाती है बात ! तिवारी साहब का सलाम इस हिंसक चर्चा के लिए ! धन्यवाद !
ReplyDeleteपर एक बात बताऊँ , मजा बहुत आ रहा है ! चुपके चुपके !
सारी बहस ही बेमानी लगती है। अपने स्वाद, और स्वास्थ्य को जो अच्छा लगे वही ठीक है। अपनी रुचि
ReplyDeleteऔरों पर थोपने का प्रयास कुछ जमता नही।
अपना-अपना नज़रिया, अपनी -अपनी बात.
ReplyDeleteकोई रात को दिन कहे, कोई दिन को रात..
"हमें पता है कि आज तक जिसने भी हमें बहस में घसीटा है वह कई दिन रोया है - एकाध लोग तो ताउम्र भी रोये। हम ठहरे अव्वल दर्जे के दयालु। किसी का भी दिल दुखे यह हमें कबूल नहीं। इसलिए हम उनकी बहस में पड़े बिना फ़टाफ़ट शाह जी के शाहनामे से बाहर आ जाते हें।"
ReplyDeleteहा हा हा।