[दृश्य १ से ७ एवं उनकी व्याख्या के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ियाँ भाग १, भाग २ एवं भाग 3 पढ़ें]
प्राचीन भारत में गौमांस भक्षण के समर्थन में एक प्रमुख तर्क "हठ योग प्रदीपिका" में से दिया जाता है। गुरु गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम द्वारा पंद्रहवीं शती में लिखा हुआ यह ग्रन्थ संस्कृति, इतिहास या भोजन के बारे में नहीं है इतना तो इसके नाम से ही पता लग जाता है। पहली बात तो यह कि पंद्रहवीं शताब्दी में लिखे ग्रन्थ से प्राचीन भारत की स्थिति, संस्कृति या विचारधारा को नहीं सिद्ध किया जा सकता है। तो भी आईये हम "हठ योग प्रदीपिका" पर नज़र डालकर देखें कि सत्य क्या है। निम्न श्लोक को उधृत कर के लोगों से कहा जाता है कि गौमांस सामान्य था - विशेषकर योगी व ब्राह्मणों में। योग-मुद्राओं से सम्बंधित अध्याय तीन के श्लोक 47 से:
गोमांसं भक्ष्हयेन्नित्यं पिबेदमर-वारुणीम
कुलीनं तमहं मन्ये छेतरे कुल-घातकाः
इस श्लोक का अर्थ करते हुए ऐसा कहा जाता है की कुलीन लोग गौमांस व सोमरस का नित्य सेवन करते हैं और न करने वाले तो कुल-घातक हैं। गौमांस-भक्षण की ऐसी अफवाहें फैलाने वाले कभी भी इस श्लोक के अगले श्लोक का ज़िक्र नहीं करते जिसमें इस तथाकथित गौमांस की प्रकृति का खुलासा किया गया है:
गो-शब्देनोदिता जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि
गो-मांस-भक्ष्हणं तत्तु महा-पातक-नाशनम (अध्याय 3 - श्लोक 48)
गो अर्थात जिह्वा को ऊपर ले जाकर और फिर पीछे की ओर मोड़कर तालू में लगाकर महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। यहाँ पर गो जिह्वा है और गोमांस एक मुद्रा हैऔर अमर जल जिह्वा का रस है। आश्चर्य होता है कि लोग भारतीय ग्रंथों में हर तरफ भरे हुए अहिंसा, दया और मानवता के सिद्धांतों को छोड़ ग्रंथों में मुश्किल से एकाध जगह आए प्रतीकात्मक वाक्यों के अर्थ का अनर्थ कर के उसका दुरूपयोग अपने कुतर्कों के लिए करते हैं.
चलिए बहुत समय दे दिया जिह्वा-चर्चा को, आइये अब एक नज़र डालते हैं पिछली बार के शाकाहार सम्बन्धी शब्दों के अर्थ पर। "शस्य" के शाब्दिक अर्थ के बारे में पूछे गए प्रश्न का अब तक केवल एक ही उत्तर आया है। जैसा कि मैंने पहले कहा था, इस एक शब्द के अन्दर भारतीय शाकाहार के सिद्धांत का आधा हिस्सा छिपा है। आजकल पौधों के लिए रूढ़ हुआ संस्कृत के शब्द शस्य का मूल है शस जिसका अर्थ है काटना या हत्या करना। हथियारों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द शस्त्र भी "शस" से ही निकला है। वनस्पति का काटने से क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह शस्य के अर्थ से स्पष्ट है। शस्य वह है जिसकी हत्या की जा सकती है अर्थात, वनस्पति मे से जिनको हम भोजन के लिए काट सकते हैं वे शस्य हैं। इस शब्द से वनस्पति मे जीवन का आभास भी मिलता है और प्राणी-हिंसा की मनादी भी। कहा जाता है कि शस्य शब्द ने ही जगदीश चंद्र बासु को वनस्पति में जीवन की उपस्थिति सिद्ध करने को प्रेरित किया था।
मांस शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं - मुझे ज़्यादा नहीं पता मगर मनु स्मृति के अनुसार एक अर्थ:
मांस: = मम + स: = मुझे + यह = यह मुझे वही करेगा जो मैं इसे कर रहा हूँ = मैंने इसे खाया तो यह मुझे खायेगा।
यह अर्थ कर्म-फल के सिद्धांत के भी बिल्कुल अनुकूल बैठता है। संत कबीर के शब्दों में इसी बात को निम्न दोहे में प्रकट किया गया है:
कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार।
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।।
तो भइया अब आप जो चाहे सो खाओ, हमें तो बख्शो इस जंजाल से। हाँ, अब यह मत कहना कि हमने आपको आगाह नहीं किया था।
चलते चलते एक सवाल: अस्त्र और शस्त्र में क्या अन्तर है?
Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य किसी पर आक्षेप किए बिना शाकाहार से सम्बंधित विषयों की संक्षिप्त समीक्षा करना है। मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में से कुछ ऐसे मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिसकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।
जब जैविक विकास के क्रम में मनुष्य यानी होमोसेपियन अस्तित्व में आया तब जंगली था। वहाँ से आज तक उस की सामाजिक विकास यात्रा बहुत लंबी है। हो सकता है भारत में गौमांस भक्षण प्रचलित रहा हो। उस एक श्लोक के अलावा भी इस के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। एक तो महाभारत के वनपर्व में है जहाँ चर्मण्यवती नदी के उद्गम का उल्लेख आता है। लेकिन क्या उस से उस के बाद का विकास धूमिल हो जाएगा? यह एक व्यर्थ का प्रश्न है कि कोई भी जाति पहले क्या खाती थी? मनुष्य ने भी आग के आविष्कार के पहले कच्चा मांस ही खाया होगा अन्य जानवरों की भांति। वे हमारे पूर्वज भी थे। क्या आज कोई भी मांसभक्षी कच्चा मांस खाना चाहेगा?
ReplyDeleteमांसाहार मनुष्य की उस अवस्था का भोजन हो सकता है जब वह विकसित नहीं था। लेकिन उस का भविष्य का भोजन शाकाहार ही है। वही मनुष्य जाति को जीवित रख सकेगा।
भारत में यदि कभी गौमांस खाया जाता था, तो भी हमें गर्व है कि हम ने इतनी प्रगति की कि हम उसे त्याग सके। हमने इतनी प्रगति की कि हम ने बहुत बड़ी संख्या में शुद्ध शाकाहारी पैदा किए। जिन की संख्या कभी घटती नहीं। हमेशा बढ़ती ही है।
bahut sundar yahi hai ................mansahar ko muh tod jawab
Deleteमुझे गर्व है शाकाहारी और हिन्दू होने पर
Deleteबहुत अच्छा विषय है...काफ़ी जानकारी मिली...पिछले दिनों एक किताब पढ़ी थी...उसमें बताया गया था कि भीष्म ने युधिष्ठर से कहा था कि पितरों की आत्मा की शान्ति के लिए ब्राहमणों को गोमांस खिलाना सर्वोत्तम है...
ReplyDeletesunder vyakhya!
ReplyDeleteफिरदौस भैया,
ReplyDeleteतारीफ़ के लिए शुक्रिया. आपके द्वारा पढी गयी "किसी किताब" ने ऐसे लेखों की ज़रूरत को सिद्ध कर दिया. धन्यवाद.
जितेन्द्र जी,
आपने सारी कड़ियाँ ध्यान से पढीं और अपने विचार भी रखे - आभार!
द्विवेदी जी,
ReplyDeleteमैं आपसे बिल्कुल सहमत हूँ और आपकी विद्वता और सहजता का कायल भी हूँ. मैं भी यह मानता हूँ कि मानवता ने बहुत छोटे समय में आदमखोरी से शाकाहार तक की यात्रा पूरी की है. जैसे आपने भविष्य के भोजन की बात की है, उसी सन्दर्भ में मेरा सोचना है कि एक महान विचार को बहुत समय तक रोका नहीं जा सकता है. जैसे कि बहुत से तानाशाह आज भी जनतंत्र को रोकने की असफल कोशिश कर रहे हैं या बहुत से धर्मांध स्वतंत्र विचार का हनन कर रहे है. मगर आख़िर वे होनी (सद्विचार की विजय - सत्यमेव जयते के अनुसार) को कब तक रोक सकेंगे? शाकाहार भी कुछ इसी तरह का विचार है जो मानव के विकास के साथ-साथ प्रखर होना ही है. मैंने जानकर अन्य बहुत से उद्धरणों का ज़िक्र नहीं किया क्योंकि मैं एक बेकार की बहस शुरू किए बिना आम प्रचलित धारणाओं की बात ही करना चाह रहा था.
बहुत धन्यवाद, आते रहिये और अपने विचारों से मेरा और अन्य पाठकों का मार्गदर्शन करते रहिये.
सादर,
अस्त्र याने जिसका परिचालन हाथ से ही होता है और जो हाथ मे ही रहता है जैसे तलवार और शस्त्र याने जिसे फ़ेक कर मारा जाये जैसे भाला इत्यादि॥
ReplyDeleteसाभार
दीपक
आपने एक उपयोगी चर्चा का लाभ पाठको को दिया ! एवं सभी के अमूल्य विचारो से लाभान्वित किया ! आदरणीय द्विवेदी जी के विचार बड़े उपयुक्त जान पड़े ! unako धन्यवाद !
ReplyDeleteऔर आपने एक कटु सत्य का खुलासा किया की लोग शाश्त्रो का हवाला देकर किस तरह अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते है ! और गौमांस खाना हो तो अगला श्लोक छोड़ दो ! और हमारे शाश्त्रो के साथ ऐसा ही किया गया है ! आपने बहुत सुंदर विवेचन किया !
आपका पुन: आभार ! आगे भी कोई ऎसी ही श्रंखला शुरू करिए जिससे आपके पांडित्य और अनुभव का सभी लाभ ले सके !
धन्यवाद !
यह तो पहले लगा कि हम शाकभोजी यह क्या पढ़ रहे हैं; पर बहुत दमदार मसाला निकला पोस्ट में।
ReplyDeleteकस के जमाये रहिये!
भाई आपके ज्ञान को नमन ...आपने कितनी मेहनत इस पोस्ट के लिए की होगी ये दिख ही रहा है ....खास तौर से संस्कृत के शलोको में ......
ReplyDeleteरोचक ज्ञान दे रहे हैं आप ...
ReplyDeleteशाकाहार पर लिखी आपकी सभी पोस्ट पढ़ी.आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ जो आपने इस विषय पर इतना सार्थक,इतना कुछ कहा.यूँ तो ऐसा नही है कि इन बातों को पढ़कर मांसाहारी शाकाहरी हो जायेंगे.पर हम आशा तो कर सकते हैं कि शायद यह किसी के मन को छू जाए तो आज न सही कल को शाकाहार को प्रेरित हो जायें.जो यह कहते हैं कि सभ्य समाज में भी पुरातन काल में भी मांस भक्षण का प्रचलन था,तो पहली बात तो यह कि यदि यह प्रचलन था भी तो यह नही भूलना चाहिए कि उस समय विशेष में तो नरबलि का भी प्रचलन था और धर्म के नाम पर पशु ही नही मनुष्यों कि भी बलि दी जाती थी पर समय के साथ मनुष्य समाज ने नरबलि को निषिद्ध कर दिया.कई क़ानून बने और इसे धार्मिक कृत्य नही,हत्या का दर्जा दिया गया.आज ये निरीह पशु पक्षी अपनी रक्षा को एकजुट नही हो सकते तो मनुष्य अपने शक्ति सामर्थ्य का दुरूपयोग कर उनकी हत्या करने को स्वतंत्र है.हाँ,पुरातन काल में मांसभक्षण का प्रचलन था परन्तु इसे तब भी तामसिक भोजन ही माना जाता था और अधिकांशतः क्षत्रियों में तथा सैनकों को युद्ध में नरसंहार को उत्प्रेरित करने हेतु इस प्रकार का तामसिक आहार खिलाया जाता था.मांस मदिरा ये सब विलास तथा अखाद्य तामसिक आहार कि श्रेणी में आते थे.
ReplyDeleteआज यदि हम स्वयं को सभ्य सुसंस्कृत मानते हैं तो क्या हमें अपने आहार विहार को सुव्यवस्थित कर खाद्य अखाद्य पर पुनर्विचार नही करना चाहिए ?
जीभ के स्वाद के लिए किसी कि हत्या करना कहाँ तक जायज है.?कहा जाता है कि पेड़ पौधों में भी तो जीवन होता है,शाकाहार भी करें तो भी तो उसकी भी तो हत्या करते हैं.बात सही है कि पेड़ पौधों में भी जीवन होता है.परन्तु "जड़" और "चेतन" इन दो शब्दों से तो लोग परिचित होंगे ही.पेड़ पौधे जड़ और मनुष्य के साथ सभी चलायमान जीव चेतन की श्रेणी में आते हैं.प्रकृति ने प्रत्येक जीव की संरचना ऐसे की है और समस्त प्रकृति और इसके जीवन चक्र को संतुलित रखने हेतु प्रत्येक जीव के खाद्य अखाद्य की व्यवस्था कर दी है.मनुष्य को छोड़ सभी जीव जंतु प्रकृति के इस नियम का पूर्णतः पालन करते हैं.जिसके लिए जो निर्धारित है वह जीव वही खाता है.मनुष्य के लिए भी जैसी उसकी शारीरिक संरचना है उसके लिए शाकाहार का ही प्रावधान है.न मनुष्य के दांत ऐसे हैं जो सीधे सीधे मांसाहार कर सके न ही उसकी आंतें ऐसी हैं जो सीधे से कच्चे मांस को पचा सके.तो फ़िर भिन्न भिन्न प्रकार से मसाले तेल लगाकर उसे पकाकर खाने योग्य बनाने में मनुष्य अपनी बुद्धि और योग्यता खर्च करता है और अखाद्य को खाद्य बनाता है..
मांसाहारी स्वयं एक प्रयोग कर देखें और निर्णय कर लें.सबसे पहले अपने सामने उस पशु विशेष को,जिन्हें वे खाते हैं,मरता हुआ देखें और चाहें तो स्वयः ही उनकी हत्या करें.फ़िर उसे साफ़ सुथरा कर रोजाना सात दिनों तक लगातार मांसाहार करें और चित्त की अवस्था देखें.फ़िर अगले सात दिनों तक जिस किसी देवी देवता को इष्ट मानते हों उसका ध्यान करते हुए पवित्र मन से यह सोचते हुए कि प्रभु तुम्हारे दिए हुए अन्न को तुमको समर्पित करना है यह सोचते हुए भोजन पकाएं भगवान् को अर्पित करें और फ़िर सात दिनों तक विशुद्ध शाकाहार करें.और स्वयं ही इन दोनों सप्ताहों में अपने मानसिक अवस्था का आकलन करें और देखें गुने कि किस काल खंड में मनोअवास्था अधिक शांत और प्रफ्फुल्लित रहा.
कहा गया है.......जैसा खाओ अन्न ,वैसा होवे मन.........एकदम सत्य कथन है स्वयं ही आजमाकर देख सकते हैं.शाकाहार केवल आहार नही,एक संस्कार भी है जो दया करुणा से मन को भर संवेदनशीलता को प्रखर करती है और एक संवेदनशील व्यक्ति समाज को जितना सुंदर सुव्यवस्थित बना सकता है उतना असंवेदनशील बना सकता है क्या? .
yadi aapki baaten log amal me laane lage to aisa hoga ki baap boodha ho jaayega to bete jibah kar lenge aur daawat udayenge.
ReplyDeleteyadi aapki baaten log amal me laane lage to aisa hoga ki baap boodha ho jaayega to bete jibah kar lenge aur daawat udayenge.
ReplyDeleteअच्छी व्याख्या चल रही है... अस्त्र फ़ेंक कर चलाये जाने वाले हथियार को कहते हैं और शस्त्र हाथ में रखकर चलाये जाते हैं.
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा है. बधाई
ReplyDelete@ दीपक जी,
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद, सवाल को मान देने के लिए. आपने अस्त्र और शास्त्र में जो अन्तर बताया है वह सही है मगर शब्दार्थ कुछ हिल गए हैं यह ब्रह्मास्त्र, परमाण्विक अस्त्र, आग्नेयास्त्र आदि से पता लगता है.
@अभिषेक जी,
अस्त्र-शास्त्र का आपका अन्तर बिल्कुल ठीक है. साथ ही इस श्रृंख्ला लिखने को उकसाने के लिए (कोई बुरा अर्थ नहीं है - हनुमान जी को भी समुद्र फलांगने के लिए उकसाना पड़ा था) ढेरों धन्यवाद.
Anonymous said...
ReplyDeleteyadi aapki baaten log amal me laane lage to aisa hoga ki baap boodha ho jaayega to bete jibah kar lenge aur daawat udayenge.
September 10, 2008 5:26 AM "
एनोनीमस जी , स्वस्त भोजन करेंगे तो आपकी तर्क क्षमता भी बढेगी और ऐसे बेतुके विचार आपके दिमाग में नहीं आयेंगे. एक महीने तक कर के देखिये - आपकी झुंझलाहट भी कम होगी और इंशा अल्लाह आपका कमेन्ट भी बेहतर हो जायेगा. इंग्लॅण्ड की जेलों में ऐसे प्रयोग हुए हैं जहाँ अच्छा खाना खाने से अपराधियों की मनोवृत्ति में गज़ब का सुधार आया.
परवरदिगार आप पे और आपके बुढापे पर रहम करे और आपके बेटों को आप पर दया करने की सद्बुद्धि दे!
सारे लेख पढ़े, अभिषेक जी के भी! द्विवेदीजी और रंजना जी की टिप्पणि(यां) बहुत सही थी। मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ और कुछेक मांसाहारियों को शाकाहारी बनाने की धृष्टता भी कर चुका हूँ।
ReplyDeleteपर एक बात देखी है जिन लोगों ने ठान ही लिया है कि उन्हें वही भोजन करना है, उन्हें आप कितने ही तर्क दे दो, वे उससे ज्यादा कुतर्क मांसाहार के समर्थन में दे देंगे...
अच्छा आलेख!!अच्छी जानकारी मिली, आभार.
ReplyDelete-------------
आपके आत्मिक स्नेह और सतत हौसला अफजाई से लिए बहुत आभार.
भईया हम करीब १५,१६ साल से शाका हारी हुये हे, हम क्या हमारे साथ साथ कई जर्मन भी शाका हारी हुये हे ओर जब हम मांसा हारी थे ओर फ़िर शाका हारी हुये इन् दोनो मे हम ने अपने आप मे बहुत परिबर्तन देखा.
ReplyDeleteआप का लेख बहुत ही अच्छा लगा धन्यवाद
अस्त्र फेंककर मारा जाता है| शस्त्र को फेंका नहीं जाता| मैंने किसी का कमेन्ट नहीं पढ़ा जवाब देने से पहले, इसलिए मेरे जवाब को बेमान्टी न समझा जाए :)
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