भारतीय परम्परा के अनुसार पृथ्वी पर चौरासी लाख योनियाँ हैं। मतलब यह कि इस भरी दुनिया में किस्म किस्म के प्राणी हैं। हर प्राणी की अपनी प्रकृति है जिसके अधीन रहकर वह काम करता है। मनुष्य ही संभवतः एक ऐसा प्राणी है जो अपनी प्राकृतिक पाशविक प्रवृत्तियों से मुक्त होकर अपने विवेकानुसार काम कर सकता है। मगर अन्य प्राणी इतने खुशनसीब कहाँ? पिछले दिनों मैंने अपने दो अलग अलग मित्रों से दो अलग अलग नदियों की कहानियाँ सुनीं। इन कहानियों में अन्तर भी है और साम्य भी। दोनों कहानियों के केन्द्र में है एक बिच्छू परिवार। सोचा आपसे बाँट लूँ।
कथा १:एक साधु जब गंगा स्नान को गया तो उसने देखा कि एक बिच्छू जल में बहा जा रहा है। साधु ने उसे बचाना चाहा। साधु उसे पानी से निकालता तो बिच्छू उसे डंक मार देता और छूटकर पानी में गिर जाता। साधु ने कई बार प्रयास किया मगर बिच्छू बार-बार छूटता जाता था। साधु ने सोचा कि जब यह बिच्छू जब अपने तारणहार के प्रति भी अपनी डंक मारने की पाशविक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पा रहा है तो मैं इस प्राणी के प्रति अपनी दया और करुणा की मानवीय प्रवृत्ति को कैसे छोड़ दूँ। बहुत से दंश खाकर भी अंततः साधु ने उस बिच्छू को मरने से बचा लिया।
बिच्छू ने वापस अपने बिल में जाकर अपने परिवार को उस साधु की मूर्खता के बारे में बताया तो सारा बिच्छू सदन इस साधु को डसने को उत्साहित हो गया। जब साधु अपने नित्य स्नान के लिए गंगा में आता तो एक-एक करके सारा बिच्छू परिवार नदी में बहता हुआ आता। जब साधु उन्हें बचाने का प्रयास करता तो वे उसे डंक मारकर अति आनंदित होते। तीन साल तेरह महीने तक यह क्रम निरंतर चलता रहा।
एक दिन साधु को ऐसा लगा कि उसकी सात पीढियां भी ऐसा करती रहें तो भी वह सारे बिच्छू नहीं बचा सकता है इसलिए उसने उन बहते कीडों को ईश्वर की दया पर छोड़ दिया। बिच्छू परिवार के अधिकाँश सदस्य बह गए मगर उन्हें मरते दम तक उन्हें यह समझ न आया कि एक साधु कैसे इतना हृदयहीन हो सकता है।
तब से बिच्छूओं के स्कूल में पढाया जाता है कि इंसान भले ही निस्वार्थ होकर संन्यास ले लें वह कभी भी विश्वास-योग्य नहीं हो सकते हैं।
कथा २:
एक बार जब नदी में बाढ़ आयी तो समूचा बिच्छू महल उसमें डूब गया। बिच्छू डूबने लगे तो उन्होंने इधर उधर नज़र दौडाई। उन्होंने देखा कि तमाम मेंढक मज़े से पानी में घूम रहे हैं। एक बुद्धिमान बिच्छू को विचार आया कि वे मेंढकों की पीठ पर बैठकर बहाव के किनारे तक जा सकते हैं। फिर क्या था बिच्छू-परिवार ने मेंढक-परिवार के पास उनकी मेंढ़कियत का हवाला देते एक संदेशा भिजवाया। मेंढ़कियत का तकाजा था इसलिए न तो नहीं कर सके मगर एक युवा मेंढक ने बिच्छूओं की दंश-प्रकृति पर शंका व्यक्त की। बिच्छूओं ने अपनी प्रकृति की सीमाओं को माना मगर वचन देते हुए कहा कि अपनी जीवन-रक्षा के लिए वे अपने डंक बाँध कर रखेंगे।
नियत समय पर हर बिच्छू एक मेंढक की पीठ पर बैठ गया और मेंढक बेडा चल पडा किनारे की ओर। कुछ ही देर में बिच्छूओं के पेट में सर-दर्द होना शुरू हो गया। काफी देर तक तो बेचारे बिच्छू कसमसाते रहे मगर आखिर मेंढकों का अत्याचार कब तक सहते। धीरे-धीरे अपने डंक के बंधनों को खोला। किनारा बहुत दूर न था, जब लगभग हर मेंढक को अपनी पीठ पर तीखा, ज़हरीला, दंश अनुभव हुआ। बुद्धिमान मेंढकों ने स्थिति को समझ लिया। डूबने से पहले मेंढकों के सरदार ने बिच्छूओं के सरगना से पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया। अगर मेंढक सरे-राह मर गए तो बिच्छू भी जीवित किनारे तक नहीं पहुँच सकेंगे। सरगना ने कंधे उचकाते हुए कहा, "हम डसना कैसे छोड़ते, यह तो हमारी प्रकृति है।"
सारे मेंढक डूब कर मर गए और इसके साथ ही अधिकाँश बिच्छू भी। कुछ बिच्छू, जैसे तैसे किनारे तक पहुँचे। तब से बिच्छूओं के स्कूल में पढाया जाता है कि मेंढकों पर कभी भी विश्वास नहीं किया जा सकता है।
कथा १:एक साधु जब गंगा स्नान को गया तो उसने देखा कि एक बिच्छू जल में बहा जा रहा है। साधु ने उसे बचाना चाहा। साधु उसे पानी से निकालता तो बिच्छू उसे डंक मार देता और छूटकर पानी में गिर जाता। साधु ने कई बार प्रयास किया मगर बिच्छू बार-बार छूटता जाता था। साधु ने सोचा कि जब यह बिच्छू जब अपने तारणहार के प्रति भी अपनी डंक मारने की पाशविक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पा रहा है तो मैं इस प्राणी के प्रति अपनी दया और करुणा की मानवीय प्रवृत्ति को कैसे छोड़ दूँ। बहुत से दंश खाकर भी अंततः साधु ने उस बिच्छू को मरने से बचा लिया।
बिच्छू ने वापस अपने बिल में जाकर अपने परिवार को उस साधु की मूर्खता के बारे में बताया तो सारा बिच्छू सदन इस साधु को डसने को उत्साहित हो गया। जब साधु अपने नित्य स्नान के लिए गंगा में आता तो एक-एक करके सारा बिच्छू परिवार नदी में बहता हुआ आता। जब साधु उन्हें बचाने का प्रयास करता तो वे उसे डंक मारकर अति आनंदित होते। तीन साल तेरह महीने तक यह क्रम निरंतर चलता रहा।
एक दिन साधु को ऐसा लगा कि उसकी सात पीढियां भी ऐसा करती रहें तो भी वह सारे बिच्छू नहीं बचा सकता है इसलिए उसने उन बहते कीडों को ईश्वर की दया पर छोड़ दिया। बिच्छू परिवार के अधिकाँश सदस्य बह गए मगर उन्हें मरते दम तक उन्हें यह समझ न आया कि एक साधु कैसे इतना हृदयहीन हो सकता है।
तब से बिच्छूओं के स्कूल में पढाया जाता है कि इंसान भले ही निस्वार्थ होकर संन्यास ले लें वह कभी भी विश्वास-योग्य नहीं हो सकते हैं।
कथा २:
एक बार जब नदी में बाढ़ आयी तो समूचा बिच्छू महल उसमें डूब गया। बिच्छू डूबने लगे तो उन्होंने इधर उधर नज़र दौडाई। उन्होंने देखा कि तमाम मेंढक मज़े से पानी में घूम रहे हैं। एक बुद्धिमान बिच्छू को विचार आया कि वे मेंढकों की पीठ पर बैठकर बहाव के किनारे तक जा सकते हैं। फिर क्या था बिच्छू-परिवार ने मेंढक-परिवार के पास उनकी मेंढ़कियत का हवाला देते एक संदेशा भिजवाया। मेंढ़कियत का तकाजा था इसलिए न तो नहीं कर सके मगर एक युवा मेंढक ने बिच्छूओं की दंश-प्रकृति पर शंका व्यक्त की। बिच्छूओं ने अपनी प्रकृति की सीमाओं को माना मगर वचन देते हुए कहा कि अपनी जीवन-रक्षा के लिए वे अपने डंक बाँध कर रखेंगे।
नियत समय पर हर बिच्छू एक मेंढक की पीठ पर बैठ गया और मेंढक बेडा चल पडा किनारे की ओर। कुछ ही देर में बिच्छूओं के पेट में सर-दर्द होना शुरू हो गया। काफी देर तक तो बेचारे बिच्छू कसमसाते रहे मगर आखिर मेंढकों का अत्याचार कब तक सहते। धीरे-धीरे अपने डंक के बंधनों को खोला। किनारा बहुत दूर न था, जब लगभग हर मेंढक को अपनी पीठ पर तीखा, ज़हरीला, दंश अनुभव हुआ। बुद्धिमान मेंढकों ने स्थिति को समझ लिया। डूबने से पहले मेंढकों के सरदार ने बिच्छूओं के सरगना से पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया। अगर मेंढक सरे-राह मर गए तो बिच्छू भी जीवित किनारे तक नहीं पहुँच सकेंगे। सरगना ने कंधे उचकाते हुए कहा, "हम डसना कैसे छोड़ते, यह तो हमारी प्रकृति है।"
सारे मेंढक डूब कर मर गए और इसके साथ ही अधिकाँश बिच्छू भी। कुछ बिच्छू, जैसे तैसे किनारे तक पहुँचे। तब से बिच्छूओं के स्कूल में पढाया जाता है कि मेंढकों पर कभी भी विश्वास नहीं किया जा सकता है।
बहुत ही सुन्दर ओर शिक्षा भरी लघु कहानिया लिखी हे आप ने, अब बिच्छु को सकुल ओर कालेज मे तो यही पढाया जाता हे, की साधु ओर मेंडक पर कभी वि॑शवास मत करना, लेकिन अपने कृट कभी मत छोडना.
ReplyDeleteधन्यवाद इन गहरे भेद भरी कहानियो के लिये
अर्थात पहले खुद पर विश्वास करना सीखें।
ReplyDelete.
ReplyDeleteसही है..
बहुत सुंदर और शिक्षाप्रद कथा है ! इसीलिए बड़े बुजुर्ग कह गए हैं की साँप ( दुष्ट) और साधू दोनों के साथ मत रहो ! ये दोनों ही लोकाचार में दुःख देते हैं ! क्योंकि दोनों की अपने अपने क्षेत्र में महारत है ! एक दुष्टता की हद तक कमीनाई करता है एवं दूसरा किसी भी अति तक शराफत करता है ! और अति हमेशा बुरी होती है !
ReplyDeleteइन सबसे शिक्षा गृहण के बाद ही शायद बुद्ध भगवान यह कह गए हैं की मध्यम मार्ग अति सुंदर है !
पर भाई आपकी पञ्च लाइने "बिच्छूओं के पेट में सर-दर्द होना शुरू हो गया।" कमाल की हैं ! मित्र, आप पहले मिलते तो मैं आपको अपनी फ़िल्म में संवाद लेखक रख कर गौरव महसूस
करता ! पर अब काफी समय से वो धंधा बंद कर चुका हूँ ! फ़िर कभी शुरू किया तो आपको कष्ट दूंगा ! लिखोगे ना ?
बहुत सुंदर और अच्छी बात कही आपने इन कथा के माध्यम से ..
ReplyDeletemare hue sare bichhu is janam me neta aur afsar ho gaye apni-apni dank marne ki kabiliyat ke anusaar.shaandar post badhai
ReplyDeleteAnuragji aap vakai smart indian hain. pahliwali bodh katha to purani hai magar hai prabhvshali. aapne dusari nayee katha batakar upkaar kiya hai. kaafi achhi hai aur achhi seekh deti hai.Kahi kisi ko sunane ke kaam ayegi.
ReplyDeleteदोनों लघु कथाएं अच्छी रही. साधू वाली तो मैंने भी पढ़ी थी जिसका उद्देश्य था अपनी दयालु प्रवृति मत छोडिये. अच्छी कथाएँ देने का आभार
ReplyDeleteपहली कथा पढ़ी हुई थी ,दूसरी नही......दोनों का संदेश एक ही है......
ReplyDeleteअनुराग जी आज आपकी प्रशंसा को शब्द नही मिल रहे ..(इसे कोरी खानापूर्ति न समझें दिल से कह रही हूँ)
ReplyDeleteबहुत सुंदर और ज्ञानदायक
ReplyDeleteप्रसंग है ! तिवारी साहब का
सलाम आपको !
आज की तारीख में इन प्रसंगों की बड़े बुढे और
ReplyDeleteबच्चों , सबको जरुरत है ! आपका लेखन प्रभाव शाली है !
धन्यवाद !
वाह बहुत बढ़िया । इस तरह की कथाएँ हमेशा ही प्रेरणा का स्रोत होती हैं। सस्नेह
ReplyDelete" found interesting article and story's with moral values on your blog. Read this one and enjoyed reading both the storys. but in reality i am very much afraid from these creatures called Bichuu. great to know about your blog"
ReplyDeleteRegards
वाह, कहानियां तो पढ़ायीं ही, बिच्छुओं के स्कूल के पाठ्यक्रम से भी अवगत करा दिया :)
ReplyDeleteवाह, अच्छी बोध कथायें हैं - बिच्छू के लिये साम्यवादी/संघी/मुसलमान/यहूदी/सिन्धी/मारवाड़ी/बंगाली/पुरबिया/... किसी को भी फिट किया जा सकता है। और फिट करने वाला साधू या मेढ़क! :)
ReplyDeleteबहुत अच्छी और शिक्षा-प्रद पोस्ट है !!!!!!!
ReplyDeleteदोनों कहानियों में गजब का सामंजस्य बैठाया है
ReplyDeleteआपने ! सही में यहाँ कहानी के रस का मजा
आया है ! अति से भी अति सुन्दरतम !
शिक्षा प्रद तो ये हैं हीं अद्भुत पठनीयता और काहानीपन भी हैं इनमें !
ReplyDeleteभई ये तो कई जगहों पर फिट हो जाती है. पहली कहानी आधी पढा दी गई थी और दूसरी कभी पढ़ी ही नहीं. बहुत अच्छी कहानियाँ हैं.
ReplyDeleteविश्वास न बिच्छुओं पर करें, न मेंढकों पर, न इंसानों पर ... विश्वास सिर्फ सत्य की शक्ति पर अक्रें ....
ReplyDeleteगजब बिच्छू संस्कृति!! किसी ने ध्यान ही नहीं दिया और यह कथाएं पढते चले गए, यह नहीं देखा कि इन कथाओं का अध्ययन विपक्ष भी कर रहा है और अपने अपने मोरल में संशोधन परिवर्धन कर रहा है। :)
ReplyDeleteबहुत सार्थक बोध कथायें !
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