हमारे एक सहकर्मी थे। निहायत ही भले और सुसंस्कृत। कभी किसी ने ऊंची आवाज़ में बोलते नहीं सुना। प्रबंधक थे, कार्यालय की सारी खरीद-फरोख्त उनके द्वारा ही होती थी। कभी भी बेईमानी नहीं की। न ही किसी विक्रेता से भेदभाव किया। सबसे बराबर का कमीशन ही लेते थे। कम-ज़्यादा का सवाल ही नहीं। जब होली के मौके पर सबके लिए उपयुक्त शीर्षक चुने गए तो उनका शीर्षक भी उनकी महानता के अनुरूप ही था:
इस ब्रांच में मेरी मर्जी के बगैर कोई पत्ता नहीं हिलेगा,
कुछ खरीदने से पहले यह बताओ कि मन्नै के मिलेगा।
अफ़सोस की बात यह है कि "मन्नै के मिलेगा" की यह सोच सार्वभौमिक सी होती जा रही है। हर बात में हम "मुझे क्या मिलेगा" से ही चलायमान होते हैं। आरक्षण इसका ज्वलंत उदाहरण है। मेरी जाति को मिलता है तो अच्छा है, मुझे नहीं मिलता तो अन्याय है।
मेरी पत्नी खाना अच्छा बना लेती हैं। जब भी कोई नया (भारतीय) व्यक्ति हमारे घर पहली बार खाता है, उसका पहला सवाल यही होता है, "आप अपना रेस्तराँ क्यों नहीं खोल लेते?"
"क्यों भाई?"
"पैसा बहुत मिलेगा!"
घर खरीदने निकले तो एजेंट बताता कि हमें वह घर खरीदने चाहिए जिनमें लकडी जलाने वाले असली फायरप्लेस हों। सुरक्षा की दृष्टि से मैं आग से खेलने के विचार से बहुत प्रभावित नहीं था। यह जानकर एजेंट ने बताया, "बेचने में आसानी होती है। "
बेचना महत्वपूर्ण नहीं है, ऐसा मैं नहीं कहता, मगर आम मध्यम वर्ग के लिए घर खरीदने का पहला उद्देश्य उसमें रहना है - न कि बेचना। मगर हमारी सोच यही है। कार खरीदें या स्कूटर, उसकी विशेषताओं या उपयोगिता से पहले रीसेल वैल्यू का विचार आता है।
इस ब्रांच में मेरी मर्जी के बगैर कोई पत्ता नहीं हिलेगा,
कुछ खरीदने से पहले यह बताओ कि मन्नै के मिलेगा।
अफ़सोस की बात यह है कि "मन्नै के मिलेगा" की यह सोच सार्वभौमिक सी होती जा रही है। हर बात में हम "मुझे क्या मिलेगा" से ही चलायमान होते हैं। आरक्षण इसका ज्वलंत उदाहरण है। मेरी जाति को मिलता है तो अच्छा है, मुझे नहीं मिलता तो अन्याय है।
मेरी पत्नी खाना अच्छा बना लेती हैं। जब भी कोई नया (भारतीय) व्यक्ति हमारे घर पहली बार खाता है, उसका पहला सवाल यही होता है, "आप अपना रेस्तराँ क्यों नहीं खोल लेते?"
"क्यों भाई?"
"पैसा बहुत मिलेगा!"
घर खरीदने निकले तो एजेंट बताता कि हमें वह घर खरीदने चाहिए जिनमें लकडी जलाने वाले असली फायरप्लेस हों। सुरक्षा की दृष्टि से मैं आग से खेलने के विचार से बहुत प्रभावित नहीं था। यह जानकर एजेंट ने बताया, "बेचने में आसानी होती है। "
बेचना महत्वपूर्ण नहीं है, ऐसा मैं नहीं कहता, मगर आम मध्यम वर्ग के लिए घर खरीदने का पहला उद्देश्य उसमें रहना है - न कि बेचना। मगर हमारी सोच यही है। कार खरीदें या स्कूटर, उसकी विशेषताओं या उपयोगिता से पहले रीसेल वैल्यू का विचार आता है।
हाँ जी आप का कहना सही है। जो रीसेल के लिए खरीदता है वह घर को नहीं बेचता और जो रहने को खरीदता है उसे आगे पीछे बेचना ही पड़ जाता है।
ReplyDeleteमन्नै के मिलेगा" वाली सोच जिस दिन ख़त्म हो जायेगी उस दिन हम कलयुग से बाहर आ जायेगे
ReplyDeleteयही तो चक्कर है इस दुनिया का ..सबको सिर्फ़ पाना है ..
ReplyDeleteमुझे टेम्प्टेशन हो रहा है रॉबर्ट केयोसाकी को पुन: पढ़ूँ! मध्य वर्ग की कई आदतें पैसे को लेकर (गलत तो न कहा जाये) धन वृद्धि के लिये उपयुक्त नहीं हैं।
ReplyDeleteye soch itni aasani se khatm nahi hone wali...durbhaagya hi hai.
ReplyDeletemanne kya milega,yah soch sab jagah ghar kar gayee hai. apne labh ki sochna bura nahi hai magar galat dhang se kamai karane par aajkal jor hai. aapne yah bhi sahi kaha ki hum resale value ke chakkar men apna vartman kharab kar dalte hain. durbhagya hi hai.
ReplyDelete"मुझे क्या मिलेगा" बहुत अच्छा लिखा है आपने ! हमारे यहाँ हरयाणे और राजस्थान में एक कहावत है की " मैं और मेरा नाथा दुसरे का फोड़ माथा" ये है इसका जबाव और जो पैसा वाली सोच है उसको तो हम प्रणाम ही करते हैं ! भाई ये हकीकत है ! और मेजोरिटी इनकी है ! अगर हम इनसे उलट चले तो मुर्ख
ReplyDeleteकहलाये जाते हैं ! पर आपने लिखा बढिया और बेहतरीन,
तबियत खुश भई हमारी ! धन्यवाद ! वैसे मित्र आज आपके इस सवाल का जवाब मग्गाबाबा की पोस्ट में है ! शायद सलाह करके लिखी गई होगी !
बहुत शानदार लिखा है सर ! बधाई !
ReplyDeleteवाह दोस्त वाह ! क्या बेहतरीन लिखा है !
ReplyDeleteसही है ! हमारी सोच और मन्नै के मिलेगा ?
भई बहुत बेहतरीन है ! परनाम आपको !
आपके सहकर्मी की मानसिकता घटिया है और आप घटिया लोगो का कुछ नही कर सकते ! जो अपने चरित्र से गिर गया वो कोई इन्सान थोड़ी ही है ! मित्र हम बीते हुए कल हैं पर इन जिन्दे लोगो के जितने गए गुजरे भी नही है ! आपको हमारी तरफ़ से बहुत शुभकामनाएं !
ReplyDeleteसोच सोच में फर्क है और इसी सोच ने हम सबको अपना गुलाम बना रखा है।
ReplyDeletemanne kya milega pata nahi,par tanne milegi badhaiyan badhiya likhne ki
ReplyDeleteकिसी आडे वक्त काम आयेगा ऐसा सोचकर ही Ladies के लिये स्वर्णाभूषण बनवाये जाते हैँ
ReplyDeleteये भी वही मानसिकता है ..और आज का समूचा समाज, "स्व" केन्द्रित है
- लावण्या
बिलकुल सही लिखा हे आप ने, मन्नॆ कॆ मिलेगा बस फ़िर भी हम वही के वही रह गये हे यह मन्नॆ के मिलेगा के कारण हर इंसान एक दुसरे से छीन रहा हे, आज मे कही से मार कर ले आया, कल किसी ओर को देना पडा, फ़िर आगे...
ReplyDeleteअगर यही इमानदारी से कमाये तो मानता हू शायद कम हो लेकिन सभी खुश ओर सुखी जरुर होगे....
लेकिन जहां ९० % लोग मन्ने करते हो वहां केसी उमीद...
धन्यवाद
main kya kahun ,siway iske ki "main aisi nahi aur chaungi ki mere bachchhe bhi aise na ho"
ReplyDeleteकार खरीदें या स्कूटर, उसकी विशेषताओं या उपयोगिता से पहले रीसेल वैल्यू का विचार आता है।..sahi kahaa aapney..humney jahaan ghar khareeda vahan rehna nahi...per soch kar YAHI liyaa..
ReplyDeleteसही मुद्दा उठाया है आपने। हम सबको अपने गिरेबॉं में भी झॉंकने की जरुरत है।
ReplyDeleteaapko padhkar achha laga....aur ek baat....aapne mujhe padhkar apna valuable comment diya ..for that....very very thnx.....
ReplyDeleteand about this creation.....i must say u have a lot of words for ur unending imagination....
means sabne padha and comment diya..ki haan ye bahut pehle se hai ...abhi jayega nahi...
but kya kisi ne ise words dene ki koshish...ki
Hats off to u ..sir.....
श्रीमान आपको भूतमहल में भूतनाथ जी की तरफ़ से निमंत्रण भेजा जा रहा है !
ReplyDeleteचाहे तो कबूल करें ! अगर डर लगे तो क्षमा करे ! वैसे जिन्दे लोगो से हम भूत
ज्यादा भरोशेमंद और शरीफ हैं ! आपसे मुलाक़ात का इंतजार रहेगा !
एक नयी सोच के लिये आप निश्चीत ही प्रशंशा के काबिल है !!!
ReplyDeleteबात तो सही है.
ReplyDeleteआज ख़ुद को भी पाता हूँ यहाँ
ReplyDeleteलाज़बाव
सवाल बिलकुल सही है मन्ने के मिलेगा, भई ये कहने वाले से किसी ने पूछ लिया तो उसको भी तो जवाब देने का इंतजाम करना होगा। आजकल इन्ही शब्दों से लोंगो का काम हो रहा है। सरलता से तो अपनी जमा पूंजी भी नही मिलती वहां भी यही शब्द आंख गङाये रहते हैं। अच्छी पोस्ट है। बधाई।
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