शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग ३
[दृश्य १ से ७ एवं उनकी व्याख्या के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ियाँ भाग १ एवं भाग २ पढ़ें]
"शस्य" के शाब्दिक अर्थ के बारे में पूछे गए प्रश्न का केवल एक ही उत्तर आया है जगत-ताऊ श्री पी सी रामपुरिया की तरफ़ से। अगर मैं कहूं कि इस एक शब्द के अन्दर भारतीय शाकाहार के सिद्धांत का आधा हिस्सा छिपा है तो आप क्या कहेंगे? (बाकी का आधा सिद्धांत मांस शब्द में छिपा है)
बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स में हम पढ़ चुके हैं कि पश्चिमी देशों में भी बुद्धिमान लोग अक्सर शाकाहारी हो जाते हैं। हम भारतीय तो बुद्धिमानी की इस परम्परा को हजारों पीढियों से निभा रहे हैं - कृपया अपने-अपने ज्ञान चक्षु खोलिए और शस्य का अर्थ ढूँढने की कोशिश कीजिये।
पिछले दो अंकों में हमने शाकाहार के विरोध में सामान्यतः दिए जाने वाले तर्कों और उनकी सतही प्रकृति को देखा। इसी बीच आप लोगों की ज्ञानवर्धक टिप्पणियां पढने को मिलीं। ब्लॉग लिखने में मुझे इसीलिये मज़ा आ रहा है क्योंकि इसमें ज़्यादा कुछ उधार नहीं रहता - इधर आपने लिखा और उधर किसी टिप्पणी ने आपकी भूल सुधार दी - धन्यवाद!
रामपुरिया जी ने याद दिलाया कि खानपान का सम्बन्ध देश-काल से है। मैं उनकी बात से अधिकांशतः सहमत हूँ। भारत में बहुत से लोग सिर्फ़ इसीलिये शाकाहारी हैं क्योंकि हमारे पूर्वजों ने शाकाहार को एक जीवन-दर्शन देने के महान कार्य पर हजारों वर्षों तक काम किया है। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि लेओनार्दो दा विन्ची जैसे लोग तेरहवीं शताब्दी के यूरोप में भी शाकाहारी थे। उनके बाद के यूरोपीय शाकाहारी लोगों में जॉर्ज बर्नार्ड शौ का नाम उल्लेखनीय है। अपने समय और माहौल से ऊपर उठकर भी अच्छे विचारों को अपनाना महापुरुषों की ऐसी खूबी है जो उन्हें आम लोगों से अलग करती है। लेकिन इससे हम भारतीयों के शाकाहार का मूल्य कम नहीं होता।
डॉक्टर अनुराग आर्य ने भारतेंदु जी को उद्धृत करते हुए बताया कि मांसाहारी लोग भी कहीं अधिक चरित्रवान हो सकते हैं। मुझे इसमें कोई शंका नहीं है। सच्चाई यह है कि मैं अनगिनत चरित्रवान मांसाहारियों को जानता हूँ और उनके खान-पान की वजह से उनमें मेरी श्रद्धा में कोई कमी नहीं आयी है। रामपुरिया जी द्वारा याद दिलाये गए श्री रामकृष्ण परमहंस के मत्स्य-भक्षण को इसी श्रेणी में गिना जा सकता है। मुझे पूरा विश्वास है कि इन चरित्रवान लोगों में से कोई भी शाकाहार-विरोधी कुतर्कों में अपना जीत नहीं ढूंढेगा। मैंने ऐसे कुछ लोगों को मांसाहार का पूर्ण परित्याग करते हुए भी देखा है। चरित्रवान व्यक्ति अगर चेन-स्मोकर भी होता है तो भी डंके की चोट पर कहता है कि धूम्रपान बुरी बात है और थोड़ी भी आत्मशक्ति बढ़ने पर उसे ख़ुद भी छोड़ देता है।
ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने इस बात पर संशय व्यक्त किया कि कुछ नए लोग - विशेषकर तर्क द्वारा - शाकाहारी बनेंगे। बिल्कुल सही बात है। हमारे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हमारी अपनी समझ से ही आता है - तर्क या तो विद्वानों के लिए होते हैं या फिर तानाशाहों के लिए - उनसे असलियत नहीं बदलती है। फिर भी अमेरिका जैसे देशों में शाकाहार की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। हाँ उसका रूप हमारे यहाँ से अलग है। तीन वर्षों में यहाँ भोजन में खुम्भी का प्रयोग दोगुना हो गया। मांसाहार के दुष्प्रभावों की जानकारी भी काफी तेज़ी से बढ़ रही है।
जितेन्द्र भगत जी की बात भी ठीक है। शाकाहार से करुणा उत्पन्न नहीं होती है। परन्तु इसका उलटा तो सत्य है। करुणा से शाकाहार का रास्ता आसान हो जाता है। हिन्दी में कहावत है, "घर का जोगी जोगडा, आन गाँव का सिद्ध" हम भारतीय लोग शाकाहार के महत्त्व को इसलिए नहीं समझ पाते हैं क्योंकि यह हमें सहज ही उपलब्ध है। ज़रा विन्ची और बर्नार्ड शो जैसे लोगों के देश-काल में जाकर देखिये और आप जान पायेंगे कि करुणा कैसे अनगिनत कठिनाइयों के बावजूद शाकाहार की तरफ़ प्रवृत्त करती है। दूसरी बात यह कि मांस को गंदा समझ कर न छूना बिल्कुल ही भिन्न दृष्टि है। उसका अहिंसा और दया से क्या लेना? मैं चार साल के ऐसे पशुप्रेमी भारतीय बालक को जानता हूँ जो अपने मांसाहारी माँ-बाप को चुनौती देकर कहता था कि वह बड़ा होकर सारी दुनिया के मांसाहारी लोगों और पशुओं को अपने घर बुलाकर दाल-रोटी खिलायेगा। इसी तरह आठ साल की एक अमेरिकन लडकी ने उस दिन मांस खाना छोड़ दिया जब उसने किसी त्यौहार पर अपने दादाजी की भोजन-चौकी पर एक सूअर का सर रखा हुआ देखा। बरेली में मेरा एक मुसलमान सहपाठी शाकाहारी था और केरल का एक मुसलमान सहकर्मी भी। मांसाहारी परिवारों में जन्मे इन दोनों का शाकाहार करुणा से प्रेरित था। ऋचा जी की बात लगभग यही कहती है।
कविता जी ने डॉक्टर हरिश्चंद्र की अन्ग्रेज़ी में लिखित दो पुस्तकों A Thought for Food और The Human Nature and Human Food को पढने की सलाह दी है। लगे हाथ मैं भी सृजनगाथा पर छपे एक लेख अहिंसा परमो धर्मः पढने की अनुशंसा कर देता हूँ। आपको अच्छा लगेगा इसकी गारंटी मेरी है।
चलते चलते दो सवाल: १. मांस शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है?
२. पौधों/वनस्पति/हरयाली के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द शस्य का शाब्दिक अर्थ क्या है?
[अगली कड़ी में शस्य और मांस के अर्थ एवं
[क्रमशः]
SAHI BAAT KAHI. shukriya
ReplyDeleteबाहर होने से आप की कल की पोस्ट पढ़ नहीं पाया था।
ReplyDeleteकुछ लोग यह मानते हैं कि मनुष्य मूलतः मांसाहारी था, कुछ लोग शाकाहारी। यह प्रश्न हमेशा अनुत्तरित ही रहेगा। लेकिन हम मान लें कि वह मूलतः मांसाहारी था। तो फिर वह शाकाहारी क्यों हो गया?
इस लिए कि इस के बिना उस का बेहतर जीवन संभव नहीं था। भोजन की और से निश्चिंतता केवल शाकाहार ही प्रदान करता है। संकट के लिए गोदामों में मांस को संग्रह नहीं किया जा सकता और न ही मांस प्रदान करने वाले जानवरों को। जानवरों को कर भी लें तो उन्हें बचाए रखने को भी शाकाहार चाहिए।
कुल मिला कर शाकाहार मनुष्य जाति के लिए दीर्घकाल तक जीवित बने रहने की अनिवार्य शर्त है। यह भी कि आप मांसाहार के बिना रह सकते हैं शाकाहार के बिना नहीं। जरा मांसाहारियों से यह निवेदन कर देखिए की वे शाकाहार बिलकुल त्याग दें। यह संभव नहीं। जब कि मांसाहार त्याग कर मनुष्य जीवन को अनेक सदियों तक चलाया जा सकता है। शाकाहार के बिना शायद एक वर्ष भी नहीं।
इस तरह अप्राकृतिक है तो मांसाहार, न कि शाकाहार।
Anuragji, aap bahut hi saleeke se shakahar ka prachar kar rahe hain. achha laga. is prakar charcha ke madhyam se logon ke dilon tak baat pahunchani chahiye. bahut khoob.
ReplyDelete"bhut accha lga pdh kr, i am increasing my knowledge thorugh your artical. lot to learn yet"
ReplyDeleteRegards
इस में कोई दो राय नहीं हो सकती कि शाकाहार हर तरह से मांसाहार से श्रेष्ठ है !! मांसाहर हर तरह से मानव शरीर को विकृत करता है.
ReplyDelete-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- हिन्दी चिट्ठाकारी अपने शैशवावस्था में है. आईये इसे आगे बढाने के लिये कुछ करें. आज कम से कम दस चिट्ठों पर टिप्पणी देकर उनको प्रोत्साहित करें!!
अच्छा समेटा है भिन्न विचारों को।
ReplyDeleteसंतुलित लेखन ...अच्छा समेटा है......अगली पोस्ट का इंतज़ार रहेगा......
ReplyDeleteबहुत सार्थक चर्चा चल रही है ! और इसमे आनंद के साथ २ ज्ञान वर्धन भी हो रहा है ! मुझे ऐसा लग रहा है की उतरोतर यह चर्चा रोचक और ज्ञान वर्धक होती जा रही है ! और
ReplyDeleteइसीलिए मैं आपके ब्लॉग पर सारा आफिस वगैरह का काम निपटा कर फुर्सत में आता हूँ ! ऐसे विषय मुझे आकर्षक लगते हैं ! वैसे देखा
जाए तो शाकाहार भारतीय संस्कृति का अंग रहा है और अगर हम बहस में ही जायेंगे तो बहुत कुछ उटपटांग लिखा भी मिलता है ! खैर .. आज हमें या कहे की मानव जाति को शाकाहार की हर
अर्थ में आवश्यकता है और आप इस तरह लोगो का ध्यान शाकाहार की तरफ़ आकर्षित करके मानवता के लिए भलाई का नेक काम ही कर रहे हैं ! ईश्वर आपको इसमे सफलता दे , यही प्रार्थना है !
आपने मांस का शाब्दिक अर्थ पूछा है - वाकई जिस सन्दर्भ में सभी लोग इसका मतलब जानते हैं उससे अन्यथा मुझे पता नही है ! हाँ
शस्य शब्द तो इतनी बार जबान पर और कानो में पडा है की सही या ग़लत जो भी हो , मैंने अपनी समझ अनुसार लिख दिया था !
धन्यवाद !
बहुत अच्छे . बधाई
ReplyDeleteयह कहना बिलकुल सही है कि मनुष्य ने देश, काल और परिस्थितियों के वशीभूत हो, मांसाहार अपनाया होगा । मनुष्य मूलत: शाकाहारी ही है । राजस्थान के एक लोक सन्त हुए हैं ' पीपाजी महाराज ।' वे कबीर की तरह ग्रहस्थ सन्त थे । उनके रचित भजन और दोहे प्रचुरता से उपलब्ध हैं । उनका एक दोहा मांसाहार का सशक्त प्रतिकार है -
ReplyDeleteजिव मारै, जीमण करे, खातां करे बखाण ।
पीपा परतख देख ले, थाली मांहि मसाण ।।
शाकाहार के कई फायदे हैं ये मैं भी मानता हूँ... पढ़ा भी है.
ReplyDeleteलेकिन मांसाहार से श्रेष्ठ है ! ये समझ में नहीं आया. श्रेष्ठता तो नज़र-नज़र की बात है, किसी के लिए भगवान् किसी के लिए पत्थर वाली बात है.
जो भी हो श्रृंखला जम रही है.
श्रृंखला से ज्ञानवर्धन हो रहा है। आभार।
ReplyDeleteमेने ओर मेरे बच्चो के काफ़ी साल मासं खाया, बच्चो ने तो शायद ३,४ ही खाया होगा, ओर मेरे छोटे बेटे को मांस बहुत अच्छा लगता था, ओर हमारे यहां, पहले तो भारतीया हरी सब्जिया मिलती नही, अगर मिलती हे तो बहुत ही मंहगी ओर बासी, ओर मास बहुत ही सस्ता ओर ताजा.
ReplyDeleteएक दिन हम सब टीवी पर एक प्रोगराम देख रहे थे कि जिन जानवरो का मांस हम खाते हे, उन्हे केसे रखा जाता हे , उन्हे केसे इधर से उधर ले
जाया जाता हे, वह प्रोगराम करीब एक घण्टा चला ओर उस दिन के बाद हम सब ने मांस काना बन्द कर दिया,ओर अब सब्जियां किसी भी भाव मे मिले खाते हे ओर पहले जब मांस खाते थे ओर जब उसे छोड कर सब्जियां खानी शुरु की तो कई बातो मे हमे अपने आप मे परिवर्तन लगा.
धन्यवाद
मैं यहाँ स्वामी विवेकानंद का एक कथन उधृत करना चाहता हूँ जो उन्होंने एक जाति विशेष को लक्ष्य करके कही थी -
ReplyDelete"उन लोगों ने रसोईं को मन्दिर मान लिया है और बर्तनों को देवी देवता !"
हाँ श्काहार /मांसाहार के अपने अपने फायदे नुक्सान हैं ,अति सर्व वर्जयेत !अभिषेक जी का धर्म संकट रामानुजन सरीखा ही लगता है जिसके चलते विश्व को एक महान विज्ञानी से वंचित होना पड़ गया ,काश उन्होंने चिकित्सकों की राय मान कर मांसाहार किया होता तो वे और समय तक मानवता के सेवा सानिध्य में रह पाते .
अभिषेक जी चिर्न्जीवी बनें ! और आप भी !!