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Saturday, February 27, 2016

भूत, पिशाच और राक्षस - देवासुर संग्राम 8



इस शृंखला की पिछली कड़ियों में हमने देव और असुर के सम्बंध को समझने का प्रयास किया, देवताओं के शास्त्रीय लक्षणों की चर्चा की, और सुर और असुर के अंतर की पडताल की है। देव, देवता, और सुर जैसे शब्दों के अर्थ अब स्पष्ट हैं लेकिन लोग अक्सर असुर, दैत्य, दानव, राक्षस और पिशाच आदि शब्दों को समानार्थी मानते हुए जिस प्रकार उनका प्रयोग शैतानी ताकतों के लिये ही करते हैं, वह सही नहीं है। इन सभी शब्दों में सूक्ष्म लेकिन महत्त्वपूर्ण अंतर हैं। असुर शब्द तो सम्माननीय ही है और जैसा कि हमने पिछली कड़ियों में देखा, असुर तो सुरों के पूर्वज ही हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सुर असुर की ही एक विकसित शाखा हैं। आइये आगे बढने से पहले आज तीन सम्बंधित शब्दों भूत, पिशाच और राक्षस पर दृष्टिपात करते हैं।

भूत 
सर्वभूत, या पंचभूत जैसे शब्दों में मूलतत्व की भावना छिपी है। संसार में जो कुछ भी दृष्टव्य है वह इन्हीं भूतों से बना है. भौतिक शब्द, भूत से ही सम्बंधित है। शरीर का भौतिक स्वरूप है लेकिन उसमें जीवन का संचरण हमें वास्तविक स्वरूप देता है। प्राणांत के बाद केवल देह यानि भौतिक तत्व अर्थात पंचभूत (या मूलभूत) ही बचते हैं. तो भूत का सामान्य अर्थ मृतक से ही लिया जाना चाहिये। जो अब जीवित नहीं है, वह भूतमात्र रहा है। शायद इसी कारण से केवल प्राणी ही नहीं, काल के प्रयोग में भी भूत अतीत को भी दर्शाता है। वर्तमान से अलग, विगत ही भूत है, जो था परंतु अब नहीं है

पिशाच
अंग्रेज़ी में अतीत के लिये एक शब्द है, पास्ट (past). संस्कृत का पश्च भी उसी का समानार्थी है। भारत को विश्वगुरु कहा जाता है तो उसके पीछे यह भावना है कि भारत ने हज़ारों वर्ष पहले समाज को ऐसे क्रांतिकारी कार्य सफलतापूर्वक कर दिखाये जिन्हें अपनाने के लिये शेष विश्व आज भी संघर्ष कर रहा है। समाज के एक बडे वर्ग को अहिंसक बनाना. कृषिकर्म, शाकाहार की प्रवृत्ति, अग्नि द्वारा अंतिम संस्कार, शर्करा की खोज, लहू में लौह के होने की जानकारी सहित उन्नत धातुकर्म, अंकपद्धति, गणित, तर्क, ज्योतिष, हीरे जैसे रत्न को शेष विश्व से परिचित कराना आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो भारतीय संस्कृति को विश्व की अन्य संस्कृतियों से अलग धरातल पर रखते हैं। स्पष्ट है कि यह समाज अपने समकालीनों से कहीं उन्नत थी। अहिंसक जीवनशैली का प्रकाश आने के बाद भी हमारे आस-पडोस के जो पिछडे समुदाय उस नए क्रांतिकारी दौर को न अपना सके, पिशाच (पश्च past पिछला, पिछड़ा) कहलाए। वैसे ही ‪देवनागरी‬ जैसी उन्नत ‪लिपि‬ के आगमन के समय जो लिपियाँ पश्च (past) हो गईं, ‪पैशाची‬ कहलाईं। कई पैशाची प्रचलन से बाहर हो गईं, कई आज भी मूल/परवर्धित रूप में जीवित हैं। पिशाच या पैशाची कोई भाषा, जाति, नस्ल या क्षेत्र नहीं, पिछडेपन का तत्सम है।

राक्षस
ऋषि पुलस्त्य के दो पौत्र क्रमशः यक्षों व राक्षसों के शासक बने। यक्ष समुदाय भी क्रूर माना गया है परंतु वे अतीव धनवान थे। पूजा-पाठ के अलावा जादू-टोने में विश्वास रखते थे। मनोविलास और पहेलियां पूछना उनका शौक था। सही उत्तर देने पर प्रसन्न होते थे और गलत उत्तर पर क्रूर दण्ड भी देते थे। रक्ष संस्कृति यक्ष संस्कृति से कई मायनों में भिन्न थी। जहाँ यक्ष अक्सर एकाकी भ्रमण के किस्सों में मिलते हैं वहीं रक्ष समूहों में आते हैं। यक्ष मानव समाज में मिलने में कठिनाई नहीं पाते वहीं रक्षगण युद्धप्रिय हैं। यक्षों के आदर्शवाक्य वयम् यक्षामः की तर्ज़ पर राक्षसों का आदर्श वाक्य वयम् रक्षामः था, जोकि उनके बारे में काफ़ी कुछ कह जाता है। वयं रक्षामः से तात्पर्य यही है कि वे अपनी रक्षा स्वयं अपने बलबूते पर करने का दावा कर रहे हैं। वे किसी दैवी सहारे की आवश्यकता नहीं समझते, और वे भौतिक बल को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। राक्षसी विचारधारा के कई समूह रहे होंगे लेकिन ब्राह्मण पिता और दैत्य माता की संतति राक्षसराज रावण द्वारा अपने लंकाधिपति भाई कुबेर से हथियाये लंका में शासित वर्ग सबसे प्रसिद्ध राक्षस समूह बना।

[क्रमशः]

Monday, February 20, 2012

पिट्सबर्ग के खूबसूरत ऑर्किड्स - इस्पात नगरी से [55]


फूलों की सुन्दरता किसी पत्थर हृदय को भी द्रवित करने के लिये काफ़ी होती है। फूलों की असंख्य प्रजातियों में भी अपनी विविधता के कारण अनेक वर्ग-प्रवर्ग हैं। ऐसा ही एक प्रवर्ग है ऑर्किड (ओर्किड, Orchidaceae, Orchid)।




फूलो के पौधों का सबसे बड़ा परिवार ऑर्किड समुदाय ही है। ऑर्किड कई वर्षों तक जीवित रहते हैं और भूमि के साथ-साथ पेड़ों पर भी उगते हैं। कई ऑर्किड कुकुरमुत्तों की तरह मृतजीवी भी होते हैं और वृक्षों की टूटी टहनियों आदि पर पनपते हैं। ऐसे और्किडों में पर्णहरिम (क्लोरोफ़िल) नही होता।



वृक्षों पर पनपने वाले ऑर्किड अपनी जड़ों की बाहरी तह के जलशोषक तंतुओं द्वारा नमी ग्रहण करते हैं। शुष्क मरुस्थलों के सिवाय आर्किड सारी दुनिया में पाये जाते हैं - विशेषकर समोष्ण वनों में। और्किडों की लगभग 450 प्रजातियाँ (जॉनर) और 15,000 जातियाँ (स्पीशीज़) हैं तथा ये सब एक ही कुल (फ़ैमिली) के अंतर्गत हैं।



और्किडों के फूल चिरजीवी होने के लिए प्रसिद्ध हैं। यदि परागण न हो तो ये महीने डेढ़ महीने अथवा इससे भी अधिक दिनों तक पौधे पर सुरक्षित रहते हैं। परागण के पश्चात् फूल मुर्झा जाते हैं और इनसे अत्यंत नन्हे बीज बनते हैं। अधिकांश और्किडों की जड़ों में कवक (फ़ंगस) पाये जाये है जोकि इनके बीजों के अंकुरण में सहायता करते हैं।




छोटे भाई अमित शर्मा ने कुछ महत्वपूर्ण भारतीय ऑर्किडों के विषय में एक पोस्ट "ऋषभक का परिचय" के नाम से सामूहिक ब्लॉग निरामिष पर लिखी है, मेरा सुझाव - अवश्य पढिये!

साथ ही पिछले दिनों प्रसिद्ध साहित्यकार पंकज सुबीर जी की कहानी एक रात को स्वर देने का अवसर मिला जिसके ऑडियो को रेडियो प्लेबैक इंडिया के साथी सजीव सारथी ने साउंड एफ़ैक्ट्स द्वारा निखार दिया है। आप चाहें तो हमारे इस प्रयास का आनन्द भी अवश्य उठाइये।

महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर आप सभी को पिट्सबर्ग से हार्दिक शुभकामनायें!

[ओर्किडों के सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Orchids captured by Anurag Sharma at Phipps Conservatory]

सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला

Monday, November 22, 2010

अहिंसक शाकाहारी पोषण - कल और आज

हिन्दी ब्लॉगजगत में कोई न कोई बहस न चल रही हो ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं। उसी महान परम्परा का पालन करते हुए आजकल जगह-जगह पर पशु-हत्या सार्थक करने सम्बन्धी अभियान छिडा हुआ दिखता है। मांसाहार कोई आधुनिक आचरण नहीं है। एक ज़माना था कि आदमी आदमी को खाता था, फिर उसने समझा कि आदमखोरी से उसकी अपनी जान का खतरा बढ जाता है सो आदमखोर कबीलों ने भी अपने स्वयम के कबीले वालों को खाना बन्द कर दिया। जब आदमखोरी को समाप्त करने के प्रयास शुरू हुए होंगे तब ज़रूर बहुत से कापुरुषों ने इसे कबीले की परम्परा बताते हुए जारी रखने की मांग की होगी मगर "असतो मा सद्गमय..." के शाश्वत सिद्धांत पर चलती हुई मानव सभ्यता धीरे धीरे अपने में सुधार लाती रही है सो आदमखोरी को समाज से बहिष्कृत होना ही था। कुछ लोगों ने पालतू कुत्ते को परिवार का सदस्य मानकर उसे खाना छोडा और किसी ने दूध-घी प्रदान करने वाले गोवंश को मातृ समान मानकर आदर देना आरम्भ किया।

हातिमताई ने मेहमान के भोजन के लिये अपना घोडा ही मारकर पका दिया जबकि अमेरिका में काउबॉय्ज़ के लिये घोडा मारना परिवार के सदस्य को मारने जैसा ही है। चीन में सांप खाना आम है परंतु अधिकांश जापानी सांप खाने को जंगलीपन मानते हैं। गरज यह कि सबने अपनी-अपनी सुविधानुसार व्याख्यायें की हैं। कोई कहता है कि सब शाकाहारी हो जायेंगे तो अनाज कहाँ बचेगा जबकि अध्ययन बताते हैं कि एक किलो मांस के उत्पादन के लिये लगभग 20 किलो अनाज की आवश्यकता होती है तो अगर लोग मांसाहार छोड दें तो अनाज की बहुतायत हो जायेगी। कोई कहता है कि उसके पुरखे तो पशु-हत्या करते ही थे। उसके पुरखे शायद सर्दी-गर्मी में नंगे भी घूमते थे, क्या आज वह व्यक्ति सपरिवार नंगा घूमता है? कोई कहता है कि जीव-भक्षण प्राकृतिक है परंतु एक यूरोपीय विद्वान के अनुसार जीव-भक्षण तभी प्राकृतिक हो सकता है जब चाकू आदि यंत्रों और अग्नि आदि पाक-क्रियाओं के बिना उसे हैवानी तरीके से ही खाया जाये। मतलब यह कि ऐसे बहुत से तर्क-कुतर्क तो चलते रहते हैं।

कुछ लोगों के लिये भोजन जीवन की एक आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं रखता है परंतु कुछ लोगों के लिये यह भी अति-सम्वेदनशील विषय है। हाँ इतना ज़रूर है कि सभ्य समाज में हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं। मैने अपने छोटे से जीवनकाल में सिख-बौद्ध-हिन्दू-जैन समुदाय के बाहर भी कितने ही शाकाहारी ईसाई, पारसी और मुसलमान देखे हैं जो जानते बूझते किसी प्राणी को दुख नहीं देना चाहते हैं, स्वाद के लिये हत्या का तो सवाल ही नहीं उठता। नीचे कुछ पुराने लेखों के लिंक हैं जिनमें शाकाहार से सम्बन्धित कुछ प्राचीन भारतीय सन्दर्भ और आधुनिक पश्चिमी अध्ययनों का समन्वय है यदि जिज्ञासुओं को कुछ लाभ हो तो मुझे प्रसन्नता होगी।

* बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स

* ब्रिटिश जेल का प्रयोग

* बाजी शाकाहारी, बेल्जियम ने मारी

* अहिसा परमो धर्मः

* शाकाहार प्राकृतिक नहीं

* शाकाहार - कुछ तर्क कुतर्क

* शस्य या मांस

* शाकाहार और हत्या

* शाकाहार - देव लक्षण

* आप कितने बुद्धिमान हैं? (निरामिष)

* विदेश में शाकाहार की प्रगति (निरामिष)

* मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ? (निरामिष)

* चैम्पियन शतायु धावक फ़ौजा सिंह (निरामिष)

* भारतीय संस्कृति में मांस भक्षण? (निरामिष)

* विटामिन डी - सूर्य नमस्कार से पोषण (निरामिष) 

* रक्त निर्माण के लिये आवश्यक है विटामिन बी12 (निरामिष)

* कॉलेस्टरॉल किस चिड़िया का नाम है? (निरामिष)

Sunday, June 13, 2010

देव लक्षण - देवासुर संग्राम ७


उत देव अवहितम देव उन्नयथा पुनः
उतागश्चक्रुषम देव देव जीवयथा पुनः

हे देवों, गिरे हुओं को फिर उठाओ!
(ऋग्वेद १०|१३७|१)

देव (और दिव्य) शब्द का मूल "द" में दया, दान, और (इन्द्रिय) दमन छिपे हैं। कुछ लोग देव के मूल मे दिव या द्यु (द्युति और विद्युत वाला) मानते है जिसका अर्थ है तेज, प्रकाश, चमक। ग्रीक भाषा का थेओस, उर्दू का देओ, अंग्रेज़ी के डिवाइन (और शायद डेविल भी) इसी से निकले हुए प्रतीत होते हैं। भारतीय संस्कृति में देव एक अलग नैतिक और प्रशासनिक समूह होते हुए भी एक समूह से ज़्यादा प्रवृत्तियों का प्रतीक है। तभी तो "मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः, आचार्यदेवो भवः सम्भव हुआ है। यह तीनों देव हमारे जीवनदाता और पथ-प्रदर्शक होते हैं। यही नहीं, मानवों के बीच में एक पूरे वर्ण को ही देवतुल्य मान लिया जाना इस बात को दृढ करता है कि देव शब्द वृत्तिमूलक है, जातिमूलक नहीं।

देव का एक और अर्थ है देनेवाला। असुर, दानव, मानव आदि सभी अपनी कामना पूर्ति के लिये देवों से ही वर मांगते रहे हैं। ब्राह्मण यदि ज्ञानदाता न होता तो कभी देव नहीं कहलाता। सर्वेषामेव दानानाम् ब्रह्मदानम् विशिष्यते! ग्रंथों की कहानियाँ ऐसे गरीब ब्राहमणों के उल्लेख से भरी पडी हैं जिनमें पराक्रम से अपने लिये धन सम्पदा कमाने की भरपूर बुद्धि और शक्ति थी परंतु उन्होने कुछ और ही मार्ग चुना।

द्यु के एक अन्य अर्थ के अनुसार देव उल्लसितमन और उत्सवप्रिय हैं। स्वर्गलोक में सदा कला, संगीत, उत्सव चलता रह्ता है। वहां शोक और उदासी के लिये कोई स्थान नहीं है। देव पराक्रमी वीर हैं। जैसे असुर जीना और चलना जानते हैं वैसे ही जिलाना और चलाना देव प्रकृति है।

असुर शब्द का अर्थ बुरा नही है यह हम पिछ्ली कड़ियों में देख चुके हैं। परंतु पारसी ग्रंथो में देव के प्रयोग के बारे में क्या? पारसी ग्रंथ इल्म-ए-क्ष्नूम (आशिष का विज्ञान) डेविल और देओ वाले विपरीत अर्थों को एक अलग प्रकाश में देखता है। इसके अनुसार अवेस्ता के बुरे देव द्यु से भिन्न "दब" मूल से बने हैं जिसका अर्थ है छल। अर्थात देव और देओ (giant) अलग-अलग शब्द है।

आइये अब ज़रा देखें कि निरीश्वरवादी धाराओं के देव कैसे दिखते हैं:
अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधाः सुरा:
सुपर्वाणः सुमनसस्त्रिदिवेशा दिवौकसः।
आदितेया दिविषदो लेखा अदितिनन्दनाः
आदित्या ऋभवोस्वप्ना अमर्त्या अमृतान्धसः।
बहिर्मुखाः ऋतुभुजो गीर्वाणा दानवारयः
वृन्दारका दैवतानिम पुंसि वा देवतास्त्रियाम।

[अमरकोश स्वर्गाधिकान्ड - 7-79]

संसार के पहले थिज़ॉरस ग्रंथ अमरकोश के अनुसार देव स्वस्थ, तेजस्वी, निर्भीक, ज्ञानी, वीर और चिर-युवा हैं। वे मृतभोजी न होकर अमृत्व की ओर अग्रसर हैं। वे सुन्दर लेखक है और तेजस्वी वाणी से मिथ्या सिद्धांतों का खन्डन करने वाले हैं। इसके साथ ही वे आमोदप्रिय, सृजनशील और क्रियाशील हैं।

कुल मिलाकर, देव वे हैं जो निस्वार्थ भाव से सर्वस्व देने के लिये तैय्यार हैं परंतु ऐसा वे अपने स्वभाव से प्रसन्न्मन होकर करते हैं न कि बाद में शिकवा करने, कीमत वसूलने या शोषण का रोना रोने के लिये। वे सृजन और निर्माणकारी हैं। जीवन का आदर करने वाले और शाकाहारी (अमृतान्धसः) हैं तथा तेजस्वी वाणी के साथ-साथ उपयोगी लेखनकार्य में समर्थ हैं। इस सबके साथ वे स्वस्थ, चिरयुवा और निर्भीक भी हैं। वे आदितेया: हैं अर्थात बन्धनोँ से मुक्त हैँ। अगली कड़ी में हम देखेंगे असुरों के समानार्थी समझे जाने वाले भूत, पिशाच और राक्षस का अर्थ।

[क्रमशः अगली कडी के लिये यहाँ क्लिक करें]

Monday, May 18, 2009

बाजी शाकाहारी, बेल्जियम ने मारी

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कुछ समय पहले मैंने शाकाहार पर एक शृंखला लिखी थी जिसमें अन्य बातों के साथ पर्यावरण पर शाकाहार के अच्छे प्रभाव का ज़िक्र भी नैसर्गिक रूप से आ गया था। हम भारतीय तो नसीब वाले हैं कि हमारे देश में अहिंसा, प्राणीप्रेम और शाकाहार की हजारों वर्ष पुरानी परम्परा रही है। अहिंसक विचारधारा की जन्मभूमि में आज भले ही कुछ लोग शाकाहार को पुरातनपंथी मानने लगे हों, शाकाहार का डंका विश्व भर में बज रहा है। व्यक्तिगत रूप से तो शाकाहार विश्व भर में ही प्रचलन में आ रहा है परन्तु बेल्जियम के गेंट नगर ने इसे आधिकारिक बनाकर इतिहास ही रच डाला है।

पर्यावरण की रक्षा के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए मांसाहार के दुष्प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से बेल्जियम के गेंट के नगर प्रशासन ने हर सप्ताह एक दिन (गुरूवार को) 'शाकाहार दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। इस दिन नगर के अधिकारी और चुने गए जन-प्रतिनिधि शाकाहारी भोजन करेंगे और स्कूली बच्चे भी अपने तरीके से शाकाहार दिवस को मनाएँगे।

नगर प्रशासन को विश्वास है कि इस प्रयोग से धरा को क्षति पहुँचाने वाली ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी तो होगी ही, लगे हाथ मोटापा और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं से छुट्टी भी मिल जायेगी। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि विश्व में ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन का एक बड़ा भाग मांस के कारखानों से आता है। हम तो इतना ही कहेंगे - बधाई गेंट, बधाई बेल्जियम! आपने पहल की है, अन्य देश-नगर भी धीरे-धीरे सीख ही लेंगे।

आज का सवाल: लगभग पांच शताब्दी पहले एक मुस्लिम सम्राट ने शाकाहार की खूबियों को देखते हुए यह निश्चित किया कि राजमहल में शुक्रवार का दिन अहिंसक भोजन का दिन हुआ करेगा। इस सम्राट का धर्मान्ध प्रपौत्र पीने के लिए गंगाजल के प्रयोग के लिए भी मशहूर है। क्या आप इन दोनों में से किसी का भी नाम बता सकते हैं?

Wednesday, September 10, 2008

ब्रिटिश जेल का प्रयोग

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य पोषक आहार के मानव मन और प्रवृत्ति पर प्रभाव की संक्षिप्त समीक्षा करना है। लेख में वर्णित अध्ययन अपराध घटाने के उद्देश्य से इंग्लॅण्ड की जेलों में किए गए थे। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।

सन २००२ में इंग्लॅण्ड में सज़ा भुगत रहे २३० अपराधियों पर एक अनोखा प्रयोग किया गया। प्रशासन ने उनके भोजन को पौष्टिक बनाने के प्रयास किए। ऐलेस्बरी युवा अपराधी संस्थान (Aylesbury young offenders' institution, Buckinghamshire ) में कैद १८ से २१ वर्ष की आयु के इन अपराधियों को भोजन में नियमित रूप से आवश्यक विटामिन व खनिज की गोलियाँ दी जाने लगीं। भोजन और अपराध का वैज्ञानिक सम्बन्ध ढूँढने के उद्देश्य से किए गए अपनी तरह के पहले इस प्रयोग में अपराधियों में से कुछ को झूठी गोलियाँ भी दी गयीं। प्रयोगों से पता लगा कि पौष्टिक भोजन पाने वाले कैदियों की अपराधी मनोवृत्ति में सुधार आया और जेल के अन्दर हिंसक घटनाओं में काफी कमी आयी। अध्ययन के प्रमुख कर्ता-धर्ता श्री बर्नार्ड गेश्च (Bernard Gesch) का कहना है कि देश के नौनिहालों को गोभी, गाज़र और ताज़ी सब्जियाँ खिलाने से अपराधों की संख्या में भारी कमी लाई जा सकती है। इस अध्ययन में अपराधों में ३७% कमी अंकित की गयी थी।

हौलैंड व अमेरिका की जेलों में हुए समान प्रकृति के अध्ययनों से भी मिलते-जुलते नतीजे ही सामने आए। फल-सब्जी-विटामिन की गोली आदि दिए जाने पर अपराधियों की मनोवृत्ति सहज होने लगी और उनकी खुराक में हॉट-डॉग व मुर्गा वापस लाने पर हिंसा ने दुबारा छलाँग लगाई। अधिक मीठे व मैदा का प्रयोग भी हानिप्रद ही था। खनिज और अम्लीय-वसा की आपूर्ति ने कैदियों की सोच को काफी सुधारा।

सन २००५ में आठ से १७ साल तक के अमेरिकन बच्चों के मनोविज्ञान के बारे में किए गए अध्ययनों से भी लगभग यही बात सामने आयी। वहाँ भी खनिज व अम्लीय-वसा की कमी और मीठे व मैदा की अधिकता को हानिप्रद पाया गया। इस अध्ययन में एक चौंकाने वाली बात सामने आयी और वह थी कि बहुत से बच्चों के व्यवहार में विकार का कारण यह था कि उन्हें उच्च श्रेणी का प्रोटीन नहीं मिल पाता था। इन बच्चों के परिवार जन इस भ्रम में थे कि उनके द्वारा खाए जाने वाले मांस से उन्हें पर्याप्त प्रोटीन मिल रहा है। जबकि सच्चाई यह थी कि यह बच्चे सोया, चावल, स्पिरुलिना आदि शाकाहारी स्रोतों में पाये जाने वाले उच्च श्रेणी के प्रोटीन से वंचित थे। उच्च श्रेणी के शाकाहारी प्रोटीन की कमी के अलावा जस्ते की कमी भी अपराध की ओर प्रवृत्त होने का एक कारण समझी गयी।

सन्दर्भ: http://www.naturalnews.com/006194.html
सन्दर्भ: http://www.telegraph.co.uk/news/1398340/Cabbages-make-prisoners-go-straight.html

Tuesday, September 9, 2008

शाकाहार और हत्या

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग ४
[दृश्य १ से ७ एवं उनकी व्याख्या के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ियाँ भाग , भाग २ एवं भाग 3 पढ़ें]

प्राचीन भारत में गौमांस भक्षण के समर्थन में एक प्रमुख तर्क "हठ योग प्रदीपिका" में से दिया जाता है। गुरु गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम द्वारा पंद्रहवीं शती में लिखा हुआ यह ग्रन्थ संस्कृति, इतिहास या भोजन के बारे में नहीं है इतना तो इसके नाम से ही पता लग जाता है। पहली बात तो यह कि पंद्रहवीं शताब्दी में लिखे ग्रन्थ से प्राचीन भारत की स्थिति, संस्कृति या विचारधारा को नहीं सिद्ध किया जा सकता है। तो भी आईये हम "हठ योग प्रदीपिका" पर नज़र डालकर देखें कि सत्य क्या है। निम्न श्लोक को उधृत कर के लोगों से कहा जाता है कि गौमांस सामान्य था - विशेषकर योगी व ब्राह्मणों में। योग-मुद्राओं से सम्बंधित अध्याय तीन के श्लोक 47 से:

गोमांसं भक्ष्हयेन्नित्यं पिबेदमर-वारुणीम
कुलीनं तमहं मन्ये छेतरे कुल-घातकाः

इस श्लोक का अर्थ करते हुए ऐसा कहा जाता है की कुलीन लोग गौमांस व सोमरस का नित्य सेवन करते हैं और न करने वाले तो कुल-घातक हैं। गौमांस-भक्षण की ऐसी अफवाहें फैलाने वाले कभी भी इस श्लोक के अगले श्लोक का ज़िक्र नहीं करते जिसमें इस तथाकथित गौमांस की प्रकृति का खुलासा किया गया है:

गो-शब्देनोदिता जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि
गो-मांस-भक्ष्हणं तत्तु महा-पातक-नाशनम (अध्याय 3 - श्लोक 48)

गो अर्थात जिह्वा को ऊपर ले जाकर और फिर पीछे की ओर मोड़कर तालू में लगाकर महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। यहाँ पर गो जिह्वा है और गोमांस एक मुद्रा हैऔर अमर जल जिह्वा का रस है। आश्चर्य होता है कि लोग भारतीय ग्रंथों में हर तरफ भरे हुए अहिंसा, दया और मानवता के सिद्धांतों को छोड़ ग्रंथों में मुश्किल से एकाध जगह आए प्रतीकात्मक वाक्यों के अर्थ का अनर्थ कर के उसका दुरूपयोग अपने कुतर्कों के लिए करते हैं.

लिए बहुत समय दे दिया जिह्वा-चर्चा को, आइये अब एक नज़र डालते हैं पिछली बार के शाकाहार सम्बन्धी शब्दों के अर्थ पर। "शस्य" के शाब्दिक अर्थ के बारे में पूछे गए प्रश्न का अब तक केवल एक ही उत्तर आया है। जैसा कि मैंने पहले कहा था, इस एक शब्द के अन्दर भारतीय शाकाहार के सिद्धांत का आधा हिस्सा छिपा है। आजकल पौधों के लिए रूढ़ हुआ संस्कृत के शब्द शस्य का मूल है शस जिसका अर्थ है काटना या हत्या करना। हथियारों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द शस्त्र भी "शस" से ही निकला है। वनस्पति का काटने से क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह शस्य के अर्थ से स्पष्ट है। शस्य वह है जिसकी हत्या की जा सकती है अर्थात, वनस्पति मे से जिनको हम भोजन के लिए काट सकते हैं वे शस्य हैं। इस शब्द से वनस्पति मे जीवन का आभास भी मिलता है और प्राणी-हिंसा की मनादी भी। कहा जाता है कि शस्य शब्द ने ही जगदीश चंद्र बासु को वनस्पति में जीवन की उपस्थिति सिद्ध करने को प्रेरित किया था।

मांस शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं - मुझे ज़्यादा नहीं पता मगर मनु स्मृति के अनुसार एक अर्थ:
मांस: = मम + स: = मुझे + यह = यह मुझे वही करेगा जो मैं इसे कर रहा हूँ = मैंने इसे खाया तो यह मुझे खायेगा।

यह अर्थ कर्म-फल के सिद्धांत के भी बिल्कुल अनुकूल बैठता है। संत कबीर के शब्दों में इसी बात को निम्न दोहे में प्रकट किया गया है:

कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार।
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटि तुम्हार।।

तो भइया अब आप जो चाहे सो खाओ, हमें तो बख्शो इस जंजाल से। हाँ, अब यह मत कहना कि हमने आपको आगाह नहीं किया था।

चलते चलते एक सवाल: अस्त्र और शस्त्र में क्या अन्तर है?

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य किसी पर आक्षेप किए बिना शाकाहार से सम्बंधित विषयों की संक्षिप्त समीक्षा करना है। मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में से कुछ ऐसे मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिसकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।

Sunday, September 7, 2008

शाकाहार का अर्थ - शस्य या मांस

Disclaimer[नोट] : इस लेख का उद्देश्य किसी पर आक्षेप किए बिना शाकाहार से सम्बंधित विषयों की संक्षिप्त समीक्षा करना है। मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। आशा है आप अन्यथा न लेंगे।

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग ३
[दृश्य १ से ७ एवं उनकी व्याख्या के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ियाँ भाग एवं भाग २ पढ़ें]

"शस्य" के शाब्दिक अर्थ के बारे में पूछे गए प्रश्न का केवल एक ही उत्तर आया है जगत-ताऊ श्री पी सी रामपुरिया की तरफ़ से। अगर मैं कहूं कि इस एक शब्द के अन्दर भारतीय शाकाहार के सिद्धांत का आधा हिस्सा छिपा है तो आप क्या कहेंगे? (बाकी का आधा सिद्धांत मांस शब्द में छिपा है)

बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स में हम पढ़ चुके हैं कि पश्चिमी देशों में भी बुद्धिमान लोग अक्सर शाकाहारी हो जाते हैं। हम भारतीय तो बुद्धिमानी की इस परम्परा को हजारों पीढियों से निभा रहे हैं - कृपया अपने-अपने ज्ञान चक्षु खोलिए और शस्य का अर्थ ढूँढने की कोशिश कीजिये।

पिछले दो अंकों में हमने शाकाहार के विरोध में सामान्यतः दिए जाने वाले तर्कों और उनकी सतही प्रकृति को देखा। इसी बीच आप लोगों की ज्ञानवर्धक टिप्पणियां पढने को मिलीं। ब्लॉग लिखने में मुझे इसीलिये मज़ा आ रहा है क्योंकि इसमें ज़्यादा कुछ उधार नहीं रहता - इधर आपने लिखा और उधर किसी टिप्पणी ने आपकी भूल सुधार दी - धन्यवाद!

रामपुरिया जी ने याद दिलाया कि खानपान का सम्बन्ध देश-काल से है। मैं उनकी बात से अधिकांशतः सहमत हूँ। भारत में बहुत से लोग सिर्फ़ इसीलिये शाकाहारी हैं क्योंकि हमारे पूर्वजों ने शाकाहार को एक जीवन-दर्शन देने के महान कार्य पर हजारों वर्षों तक काम किया है। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि लेओनार्दो दा विन्ची जैसे लोग तेरहवीं शताब्दी के यूरोप में भी शाकाहारी थे। उनके बाद के यूरोपीय शाकाहारी लोगों में जॉर्ज बर्नार्ड शौ का नाम उल्लेखनीय है। अपने समय और माहौल से ऊपर उठकर भी अच्छे विचारों को अपनाना महापुरुषों की ऐसी खूबी है जो उन्हें आम लोगों से अलग करती है। लेकिन इससे हम भारतीयों के शाकाहार का मूल्य कम नहीं होता।

डॉक्टर अनुराग आर्य ने भारतेंदु जी को उद्धृत करते हुए बताया कि मांसाहारी लोग भी कहीं अधिक चरित्रवान हो सकते हैं। मुझे इसमें कोई शंका नहीं है। सच्चाई यह है कि मैं अनगिनत चरित्रवान मांसाहारियों को जानता हूँ और उनके खान-पान की वजह से उनमें मेरी श्रद्धा में कोई कमी नहीं आयी है। रामपुरिया जी द्वारा याद दिलाये गए श्री रामकृष्ण परमहंस के मत्स्य-भक्षण को इसी श्रेणी में गिना जा सकता है। मुझे पूरा विश्वास है कि इन चरित्रवान लोगों में से कोई भी शाकाहार-विरोधी कुतर्कों में अपना जीत नहीं ढूंढेगा। मैंने ऐसे कुछ लोगों को मांसाहार का पूर्ण परित्याग करते हुए भी देखा है। चरित्रवान व्यक्ति अगर चेन-स्मोकर भी होता है तो भी डंके की चोट पर कहता है कि धूम्रपान बुरी बात है और थोड़ी भी आत्मशक्ति बढ़ने पर उसे ख़ुद भी छोड़ देता है।

ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने इस बात पर संशय व्यक्त किया कि कुछ नए लोग - विशेषकर तर्क द्वारा - शाकाहारी बनेंगे। बिल्कुल सही बात है। हमारे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हमारी अपनी समझ से ही आता है - तर्क या तो विद्वानों के लिए होते हैं या फिर तानाशाहों के लिए - उनसे असलियत नहीं बदलती है। फिर भी अमेरिका जैसे देशों में शाकाहार की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। हाँ उसका रूप हमारे यहाँ से अलग है। तीन वर्षों में यहाँ भोजन में खुम्भी का प्रयोग दोगुना हो गया। मांसाहार के दुष्प्रभावों की जानकारी भी काफी तेज़ी से बढ़ रही है।

जितेन्द्र भगत जी की बात भी ठीक है। शाकाहार से करुणा उत्पन्न नहीं होती है। परन्तु इसका उलटा तो सत्य है। करुणा से शाकाहार का रास्ता आसान हो जाता है। हिन्दी में कहावत है, "घर का जोगी जोगडा, आन गाँव का सिद्ध" हम भारतीय लोग शाकाहार के महत्त्व को इसलिए नहीं समझ पाते हैं क्योंकि यह हमें सहज ही उपलब्ध है। ज़रा विन्ची और बर्नार्ड शो जैसे लोगों के देश-काल में जाकर देखिये और आप जान पायेंगे कि करुणा कैसे अनगिनत कठिनाइयों के बावजूद शाकाहार की तरफ़ प्रवृत्त करती है। दूसरी बात यह कि मांस को गंदा समझ कर न छूना बिल्कुल ही भिन्न दृष्टि है। उसका अहिंसा और दया से क्या लेना? मैं चार साल के ऐसे पशुप्रेमी भारतीय बालक को जानता हूँ जो अपने मांसाहारी माँ-बाप को चुनौती देकर कहता था कि वह बड़ा होकर सारी दुनिया के मांसाहारी लोगों और पशुओं को अपने घर बुलाकर दाल-रोटी खिलायेगा। इसी तरह आठ साल की एक अमेरिकन लडकी ने उस दिन मांस खाना छोड़ दिया जब उसने किसी त्यौहार पर अपने दादाजी की भोजन-चौकी पर एक सूअर का सर रखा हुआ देखा। बरेली में मेरा एक मुसलमान सहपाठी शाकाहारी था और केरल का एक मुसलमान सहकर्मी भी। मांसाहारी परिवारों में जन्मे इन दोनों का शाकाहार करुणा से प्रेरित था। ऋचा जी की बात लगभग यही कहती है।

कविता जी ने डॉक्टर हरिश्चंद्र की अन्ग्रेज़ी में लिखित दो पुस्तकों A Thought for Food और The Human Nature and Human Food को पढने की सलाह दी है। लगे हाथ मैं भी सृजनगाथा पर छपे एक लेख अहिंसा परमो धर्मः पढने की अनुशंसा कर देता हूँ। आपको अच्छा लगेगा इसकी गारंटी मेरी है।

चलते चलते दो सवाल: १. मांस शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है?
२. पौधों/वनस्पति/हरयाली के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द शस्य का शाब्दिक अर्थ क्या है?

[अगली कड़ी में शस्य और मांस के अर्थ एवं गौमांस की शास्त्रीय स्वीकृति के आक्षेप की चर्चा...]

[क्रमशः]



Saturday, September 6, 2008

शाकाहार - कुछ तर्क कुतर्क

Disclaimer[नोट]: मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में हुई कुछ ऐसी मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिनकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है मित्रगण अन्यथा न लेंगे।

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता - भाग २
[दृश्य १ से ५ तक के लिए कृपया इस लेख की पिछली कड़ी शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता! पढ़ें।]

दृश्य ६:
भारत में इस्लाम के एक आधुनिक आलिम, फाजिल और तालिब शिरीमान डॉक्टर ज़ाकिर नायक मांसाहार के विषय में अपने संचालन, सम्पादन, निर्देशन में अपने बुलाए गिने-चुने अतिथियों के साथ शाकाहार के मुद्दे पर कोरान-शरीफ की रोशनी में एक बहस कराते हैं। बहस के निष्कर्ष निकालते हुए वह कहते हैं कि भगवान् ने जहाँ भी खाने के लिए जो कुछ पैदा किया है वही खाना है। अपनी बात के समर्थन में वह एन्टआर्कटिका का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि वहाँ पर भगवान् ने अनाज नहीं उगाया है इसलिए वहाँ पर मांस खाना ही इकलौता विकल्प है।

दृश्य ७:
मैं ट्रेन में जा रहा हूँ। एक विद्वान् अपनी बातों से सभी यात्रियों को मुग्ध कर रहे हैं। बातों में ही बात गोमांस पर पहुँच जाती है। विद्वान् सज्जन यह कहकर सबको चकित कर देते हैं कि गोमांस ब्राह्मणों का भोजन था और इसलिए ब्राहमणों का एक नाम गोखन भी है। वे बताते हैं कि उनके विद्वान् पिता ने इस बारे में एक किताब भी लिखी थी। अपनी बात के पक्ष में वे कोई भी उद्धरण नहीं दे पाते हैं सिवाय अपने पिता की किताब के।

मेरी बात:
अभी तक वर्णित दृश्यों में मैंने शाकाहार के बारे में अक्सर होने वाली बहस के बारे में कुछ आंखों देखी बात आप तक पहुँचाने की कोशिश की है। आईये देखें इन सब तर्कों-कुतर्कों में कितनी सच्चाई है। लोग पेड़ पौधों में जीवन होने की बात को अक्सर शाकाहार के विरोध में तर्क के रूप में प्रयोग करते हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि भोजन के लिए प्रयोग होने वाले पशु की हत्या निश्चित है जबकि पौधों के साथ ऐसा होना ज़रूरी नहीं है।

मैं अपने टमाटर के पौधे से पिछले दिनों में बीस टमाटर ले चुका हूँ और इसके लिए मैंने उस पौधे की ह्त्या नहीं की है। पौधों से फल और सब्जी लेने की तुलना यदि पशु उपयोग से करने की ज़हमत की जाए तो भी इसे गाय का दूध पीने जैसा समझा जा सकता है। हार्ड कोर मांसाहारियों को भी इतना तो मानना ही पडेगा की गाय को एक बारगी मारकर उसका मांस खाने और रोज़ उसकी सेवा करके दूध पीने के इन दो कृत्यों में ज़मीन आसमान का अन्तर है।

अधिकाँश अनाज के पौधे गेंहूँ आदि अनाज देने से पहले ही मर चुके होते हैं। हाँ साग और कंद-मूल की बात अलग है। और अगर आपको इन कंद मूल की जान लेने का अफ़सोस है तो फ़िर प्याज, लहसुन, शलजम, आलू आदि मत खाइए और हमारे प्राचीन भारतीयों की तरह सात्विक शाकाहार करिए। मगर नहीं - आपके फलाहार को भी मांसाहार जैसा हिंसक बताने वाले प्याज खाना नहीं छोडेंगे क्योंकि उनका तर्क प्राणिमात्र के प्रति करुणा से उत्पन्न नहीं हुआ है। यह तो सिर्फ़ बहस करने के लिए की गयी कागजी खानापूरी है।

मुझे याद आया कि एक बार मेरे एक मित्र मेरे घर पर बोनसाई देखकर काफी व्यथित होकर बोले, "क्या यह पौधों पर अत्याचार नहीं है?" अब मैं क्या कहता? थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने पेट ख़राब होने का किस्सा बताया और उसका दोष उन बीसिओं झींगों को दे डाला जिन्हें वे सुबह डकार चुके थे - कहाँ गया वह अत्याचार-विरोधी झंडा?

एक और बन्धु दूध में पाये जाने वाले बैक्टीरिया की जान की चिंता में डूबे हुए थे। शायद उनकी मांसाहारी खुराक पूर्णतः बैक्टीरिया-मुक्त ही होती है। दरअसल विनोबा भावे का सिर्फ़ दूध की खुराक लेना मांसाहार से तो लाख गुने हिंसा-रहित है ही, मेरी नज़र में यह किसी भी तरह के साग, कंद-मूल आदि से भी बेहतर है। यहाँ तक कि यह मेरे अपने पौधे से तोडे गए टमाटरों से भी बेहतर है क्योंकि यदि टमाटर के पौधे को किसी भी तरह की पीडा की संभावना को मान भी लिया जाए तो भी दूध में तो वह भी नहीं है। इसलिए अगली बार यदि कोई बहसी आपको पौधों पर अत्याचार का दोषी ठहराए तो आप उसे सिर्फ़ दूध पीने की सलाह दे सकते हैं। बेशक वह संतुलित पोषण न मिलने का बहाना करेगा तो उसे याद दिला दें कि विनोबा दूध के दो गिलास प्रतिदिन लेकर ३०० मील की पदयात्रा कर सकते थे, यह संतुलित और पौष्टिक आहार वाला कितने मील चलने को तैयार है?

आईये सुनते हैं शिरिमान डॉक्टर नायक जी की बहस को - अरे भैया, अगर दिमाग की भैंस को थोडा ढील देंगे तो थोड़ा आगे जाने पर जान पायेंगे कि अगर प्रभु ने अन्टार्कटिका में घास पैदा नहीं की तो वहाँ इंसान भी पैदा नहीं किया था। आपके ख़ुद के तर्क से ही पता लग जाता है कि प्रभु की मंशा क्या थी। और फिर आप मांस खाने के लिये क्या रोज़ एंटार्कटिका जाते हैं? अगर आपको जुबां का चटखारा किसी की जान से ज़्यादा प्यारा है तो उसके लिये ऐसा बेतुका कुतर्क सही नहीं हो जाता।  उसके लिये मज़हब का बहाना देना भी सही नहीं है। पशु-बलि की प्रथा पर कवि ह्रदय का कौतूहल देखिये:
अजब रस्म देखी दिन ईदे-कुर्बां
ज़बह करे जो लूटे सवाब उल्टा
मज़हब के नाम पर हिंसाचार को सही ठहराने वालों को एक बार इस्लामिक कंसर्न की वेबसाइट ज़रूर देखनी चाहिए। इसी प्रकार की एक दूसरी वेबसाइट है जीसस-वेजहमारे दूर के नज़दीकी रिश्तेदार हमसे कई बार पूछ चुके हैं कि "किस हिंदू ग्रन्थ में मांसाहार की मनाही है?" हमने उनसे यह नहीं पूछा कि किस ग्रन्थ में इसकी इजाजत है लेकिन फ़िर भी अपने कुछ अवलोकन तो आपके सामने रखना ही चाहूंगा।

योग के आठ अंग हैं। पहले अंग यम् में पाँच तत्त्व हैं जिनमें से पहला ही "अहिंसा" है। मतलब यह कि योग की आठ मंजिलों में से पहली मंजिल की पहली सीढ़ी ही अहिंसा है। जीभ के स्वाद के लिए ह्त्या करने वाले क्या अहिंसा जैसे उत्कृष्ट विषय को समझ सकते हैं? श्रीमदभगवदगीता जैसे युद्धभूमि में गाये गए ग्रन्थ में भी श्रीकृष्ण भोजन के लिए हर जगह अन्न शब्द का प्रयोग करते हैं।

अंडे के बिना मिठाई की कल्पना न कर सकने वाले केक-भक्षियों के ध्यान में यह लाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति में मिठाई का नाम ही मिष्ठान्न = मीठा अन्न है। पंचामृत, फलाहार, आदि सारे विचार अहिंसक, सात्विक भोजन की और इशारा करते हैं। हिंदू मंदिरों की बात छोड़ भी दें तो गुरुद्वारों में मिलने वाला भोजन भी परम्परा के अनुसार शाकाहारी ही होता है। संस्कृत ग्रन्थ हर प्राणी मैं जीवन और हर जीवन में प्रभु का अंश देखने की बात करते हैं। ग्रंथों में औषधि के उद्देश्य से उखाड़े जाने वाले पौधे तक से पहले क्षमा प्रार्थना और फ़िर झटके से उखाड़ने का अनुरोध है। वे लोग पशु-हत्या को जायज़ कैसे ठहरा सकते हैं?

अब रही बात प्रकृति में पायी जाने वाली हिंसा की। इस विषय पर कृपया द्विवेदी जी की टिप्पणी पर भी गौर फरमाएं। मेरे बचपन में मैंने घर में पले कुत्ते भी देखे थे और तोते भी। दोनों ही शुद्ध शाकाहारी थे। प्रकृति में अनेकों पशु-पक्षी प्राकृतिक रूप से ही शाकाहारी हैं। जो नहीं भी हैं वे भी हैं तो पशु ही। उनका हर काम पाशविक ही होता है। वे मांस खाते ज़रूर हैं मगर उसके लिए कोई भी अप्राकृतिक कार्य नहीं करते हैं। वे मांस के लिए पशु-व्यापार नहीं करते, न ही मांस को कारखानों में काटकर पैक या निर्यात करते हैं। वे उसे लोहे के चाकू से नहीं काटते और न ही रसोई में पकाते हैं। वे उसमें मसाले भी नहीं मिलाते और बचने पर फ्रिज में भी नहीं रखते हैं। अगर हम मनुष्य इतने सारे अप्राकृतिक काम कर सकते हैं तो शाकाहार क्यों नहीं? शाकाहार को अगर आप अप्राकृतिक भी कहें तो भी मैं उसे मानवीय तो कहूंगा ही।

अगर आप अपने शाकाहार के स्तर से असंतुष्ट हैं और उसे पौधे पर अत्याचार करने वाला मानते हैं तो उसे बेहतर बनाने के हजारों तरीके हैं आपके पास। मसलन, मरे हुए पौधों का अनाज एक पसंद हो सकती है। और आगे जाना चाहते हैं तो दूध पियें और सिर्फ़ पेड़ से टपके हुए फल खाएं और उसमें भी गुठली को वापस धरा में लौटा दें। नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं - शाकाहारी रहकर आपने जितनी जानें बख्शी हैं वह भी कोई छोटी बात नहीं है। दया और करुणा का एक दृष्टिकोण होता है जिसमें जीव-हत्या करने या उसे सहयोग करने का कोई स्थान नहीं है।

अगर मच्छर मारने से आपकी आत्मा को कष्ट होता है तो मच्छरदानी लगाएं। जूते में चमड़ा नहीं चाहिए तो खडाऊं के अलावा आजकल बहुत सारे मानव-निर्मित पदार्थों से बने जूते पहनने का विकल्प है आपके पास। चमड़े की पेटी का क्या उपयोग है? कपड़े के ससपेंडर लगाईये।

आप सभी के उत्साह और टिप्पणियों के लिए धन्यवाद। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि यहाँ दया और करुणा के समर्थकों की संख्या में कोई कमी नहीं है।

चलते चलते एक सवाल: पौधों/वनस्पति/हरयाली के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द शस्य का शाब्दिक अर्थ क्या है?
[क्रमशः]

Friday, September 5, 2008

शाकाहार तो प्राकृतिक नहीं हो सकता!

Disclaimer[नोट] : मैं स्वयं शुद्ध शाकाहारी हूँ और प्राणी-प्रेम और अहिंसा का प्रबल पक्षधर हूँ। दरअसल शाकाहार पर अपने विचार रखने से पहले मैं अपने जीवन में हुई कुछ ऐसी मुठभेडों से आपको अवगत कराना चाहता था जिनकी वजह से मुझे इस लेख की ज़रूरत महसूस हुई। आशा है मित्रगण अन्यथा न लेंगे।

भाई अभिषेक ओझा आजकल अमेरिका में हैं। इसके पहले भी काफी देश-विदेश घूमे हैं। एक पूरी की पूरी पोस्ट भोजन,शाकाहार, अंतरात्मा और सापेक्षतावाद पर लिखी है। सुना है आगे और भी लिखनेवाले हैं। हम कहा के हमहूँ कुछ लिखबे करें। उन्होंने आज्ञा दे दी है। जिन शंकालु भाइयों को भरोसा न हो वे हमारी पिछली पोस्ट "टीस - एक कविता" में कमेन्ट देख कर अपनी तसल्ली कर लें। ओझा जी, वह कमेन्ट हटाना मत भाई, जब तक सारे पाठक "पढ़ चुके हैं" का साक्ष्य न दे दें।

दृश्य १:
दफ्तर में छोटा सा समूह था। एक जापानी, एक बांग्लादेशी, एक इराकी एक अमेरिकन और एक भारतीय मैं। महीने में एक दिन खाना दफ्तर की तरफ़ से ही होता था। उसी खाने पर अक्सर किसी ठेकेदार, आपूर्तिकार आदि के साथ बैठक का भी समायोजन हो जाता था। इस बार एक भारतीय बन्धु आए। खाना पहले से आ चुका था। आते ही पहले वे हम सब से मिले। मुलाक़ात पुरानी थी सो औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद सीधे खाने की तरफ़ लपके। शाकाहारी खाने की तरफ़ हिकारत से देखते हुए बोले, "यहाँ कोई शाकाहारी भी है क्या?"

दृश्य २:
एक स्थानीय होटल में पारिवारिक भोज का समय। हमारे बहुत अधिक दूर के एक काफी नज़दीकी रिश्तेदार हमारी ही मेज़ पर बैठकर मुर्गे की टांग तोड़ रहे हैं। काफी गुस्से में हैं कि उनके सामने ही एक ऐसा बेवकूफ बैठा है जो मछली-अंडा तक नहीं खाता। बड़बड़ा रहे हैं, "किस हिन्दू ग्रन्थ में लिखा है कि मांस नहीं खाना चाहिए?" उनकी पतिव्रता पत्नी भी भारतीय परम्परा को निभाते हुए अपने पति-परमेश्वर का मान रखते हुए शुरू हो गयी हैं, "आदमी को खा जाते हैं, सब तरह के अत्याचार करते रहते हैं लोग, मगर मांस नहीं खाते हैं - यह कौन सा नाटक है?"

दृश्य ३:
साप्ताहिक प्रवचन सुनकर बाहर आने के बाद पता लगता है शाह जी के पिता जी का जन्मदिन है। खाना पीना तो है ही मगर उसके पहले केक का वितरण भी होता है। हम मना करते हैं तो उपला जी आकर पूछते हैं, "केक भी नहीं खाते?

"खाते हैं मगर अंडे वाला नहीं!" अब उपला जी तो समझ ही पायेंगे हमारे दिल का हाल।

"क्यों, अंडा क्यों नहीं खाते?" उपला जी केक का दूसरा टुकडा मुँह में भरकर भोलेपन से पूछते हैं।

"हमारी मर्जी!" हम सोचते हैं कि एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे आदमी को अगर यह सवाल पूछना पड़ रहा है तो फ़िर जवाब उसकी समझ में क्या ख़ाक आयेगा।

"नहीं मतलब स्वास्थ्य की दृष्टि से कोई नुक्स है क्या अंडे में? फायदेमंद ही है," वे बड़ी मासूमियत से हमें बहस में घसीटने की कोशिश करते हैं।

"हर आदमी हर बात फायदे नुक्सान के लिए ही करे ऐसा नहीं होता है," हमें पता है कि आज तक जिसने भी हमें बहस में घसीटा है वह कई दिन रोया है - एकाध लोग तो ताउम्र भी रोये। हम ठहरे अव्वल दर्जे के दयालु। किसी का भी दिल दुखे यह हमें कबूल नहीं। इसलिए हम उनकी बहस में पड़े बिना फ़टाफ़ट शाह जी के शाहनामे से बाहर आ जाते हें।

दृश्य ४:
भारतीय लोगों के कई झुंड खाना खाने के बाद देशसेवा की अपनी ड्यूटी पूरी करने के लिए लम्बी-लम्बी फेंक रहे हें। कोई डंडे के ज़ोर पे सारी समस्यायें हल करने वाला है तो कोई एक विशेष धर्म वालों का सफाया कर के। श्री लोचन जी विनोबा भावे से अप्रसन्न हैं क्योंकि वे सिर्फ़ दूध पीते थे.

"दूध में भी तो बैक्टीरिया होते हें," मानो उनका झींगा एकदम बैक्टीरिया-मुक्त हो।

"सब्जी, अनाज, फल, पेड़, पौधे सभी में जान होती है। कुछ भी खाओ, वह हत्या ही है," लोचन जी की बात चल रही है। हम नमस्ते कर के विदा ले लेते हें।

दृश्य ५:
श्रीवास्तव जी का गृह प्रवेश। सत्यनारायण व्रत कथा के बाद का भोज। सभी खा रहे हें। केवल भारतीय ही आमंत्रित हें। कुछ मांसाहारी हें, कुछ शाकाहारी हें और कुछ मौकापरस्त भी हें। एक शाकाहारी मित्र कहते हें कि उन्हें शाकाहार की बात समझ नहीं आती है। मित्र बहुत बुद्धिमान हें और अनुभवी भी। मुझे लगता है कि इनसे इस विषय पर बात की जा सकती है। मैं बात को उनकी समझ में न आने का कारण पूछता हूँ तो वे बताते हें, "शाकाहार अप्राकृतिक है।"

मेरी रूचि जगती है तो वे आगे बताते हें, "प्रकृति में देखिये, हर तरफ़ हिंसा है, हर प्राणी दूसरे प्राणी को मारकर खा रहा है।"

[क्रमशः]

Saturday, August 2, 2008

बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स

अगर आपके मित्र आपको ताना देते हैं कि जब सारी दुनिया उत्तर की तरफ़ दौड़ रही हो तो आप दक्षिण दिशा में गमन कर रहे होते हैं तो दुखी न हों। मतलब डटे रहें, हटें नहीं। दरअसल आपका यह दुर्गुण आपके अधिक बुद्धिमान होने का साइड अफेक्ट हो सकता है।

बुद्धिमता के ऊपर दुनिया भर में अलग अलग तरह के प्रयोग होते रहे हैं। जब प्रयोग होते हैं तो उनसे तरह तरह के निष्कर्ष भी निकलते हैं। हम उन्हें पसंद करें या न करें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे ही एक प्रयोग ने दर्शाया कि अधिक बुद्धिमान लोग सामान्य लोगों से १५ वर्ष तक अधिक जीते हैं। इटली के कालाब्रिया विश्वविद्यालय में पाँच सौ लोगों पर हुए इस अनुसंधान के अनुसार ऐसा बुद्धिमानी के लिए जिम्मेदार एक जीन 'एसएसएडीएच (SSADH) के कारण होता है। जिन लोगों में यह जीन अधिक सक्रिय नहीं होता, उनके 85 साल की उम्र के बाद जीने की संभावना कम होती है। जिन लोगों में यह जीन सक्रिय होता है, उनके 100 वर्ष की आयु तक जीने की संभावना रहती है। कुछ समझ आया कि हमारे पूर्वज शतायु क्यों होते थे?

शोधकर्ता रिचर्ड लिन द्वारा ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन ने यह निष्कर्ष निकाला कि अधिक बुद्धिमान व्यक्तियों के नास्तिक होने की संभावना आम लोगों से अधिक होती है। लिन का मानना है कि बुद्धिमानी नास्तिकता की ओर ले जाती है। विभिन्न धर्मों और बाबाओं के आधुनिक स्वरुप और आडम्बर को देखकर तो मुझे अक्सर ही यह विचार आता है कि यदि किसी बाबा या पीर के ये भक्त आस्तिक हैं तो आडम्बर से दूर रहने वाले सच्चे भक्त तो शायद आज नास्तिक ही कहलायेंगे।

गोली मारिये इस आस्तिक-नास्तिक की बहस को - अभी एक और रोचक अध्ययन भी हुआ है। तीस वर्षों तक ८००० से अधिक लोगों पर चले एक ब्रिटिश अध्ययन से अधिक बुद्धिमानों के एक और लक्षण का पता चला है। इस अध्ययन से पता लगा कि १० वर्ष की आयु में जिन ब्रिटिश बच्चों का आई क्यू (IQ) सबसे अधिक था वे ३० वर्ष की आयु तक पहुँचने तक शाकाहारी हो गए थे। यह अध्ययन डॉक्टर कैथरीन गेल द्वारा किया गया था और १०-वर्षीय बच्चों का सबसे पहला दल सन १९७० का था जो २००० में तीस वर्षीय थे।

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सम्बन्धित कडियाँ
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* ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में विस्तृत रिपोर्ट
* SSAHD Deficiency
* आप कितने बुद्धिमान हैं? (निरामिष)