Showing posts with label देवता. Show all posts
Showing posts with label देवता. Show all posts

Saturday, February 27, 2016

भूत, पिशाच और राक्षस - देवासुर संग्राम 8



इस शृंखला की पिछली कड़ियों में हमने देव और असुर के सम्बंध को समझने का प्रयास किया, देवताओं के शास्त्रीय लक्षणों की चर्चा की, और सुर और असुर के अंतर की पडताल की है। देव, देवता, और सुर जैसे शब्दों के अर्थ अब स्पष्ट हैं लेकिन लोग अक्सर असुर, दैत्य, दानव, राक्षस और पिशाच आदि शब्दों को समानार्थी मानते हुए जिस प्रकार उनका प्रयोग शैतानी ताकतों के लिये ही करते हैं, वह सही नहीं है। इन सभी शब्दों में सूक्ष्म लेकिन महत्त्वपूर्ण अंतर हैं। असुर शब्द तो सम्माननीय ही है और जैसा कि हमने पिछली कड़ियों में देखा, असुर तो सुरों के पूर्वज ही हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सुर असुर की ही एक विकसित शाखा हैं। आइये आगे बढने से पहले आज तीन सम्बंधित शब्दों भूत, पिशाच और राक्षस पर दृष्टिपात करते हैं।

भूत 
सर्वभूत, या पंचभूत जैसे शब्दों में मूलतत्व की भावना छिपी है। संसार में जो कुछ भी दृष्टव्य है वह इन्हीं भूतों से बना है. भौतिक शब्द, भूत से ही सम्बंधित है। शरीर का भौतिक स्वरूप है लेकिन उसमें जीवन का संचरण हमें वास्तविक स्वरूप देता है। प्राणांत के बाद केवल देह यानि भौतिक तत्व अर्थात पंचभूत (या मूलभूत) ही बचते हैं. तो भूत का सामान्य अर्थ मृतक से ही लिया जाना चाहिये। जो अब जीवित नहीं है, वह भूतमात्र रहा है। शायद इसी कारण से केवल प्राणी ही नहीं, काल के प्रयोग में भी भूत अतीत को भी दर्शाता है। वर्तमान से अलग, विगत ही भूत है, जो था परंतु अब नहीं है

पिशाच
अंग्रेज़ी में अतीत के लिये एक शब्द है, पास्ट (past). संस्कृत का पश्च भी उसी का समानार्थी है। भारत को विश्वगुरु कहा जाता है तो उसके पीछे यह भावना है कि भारत ने हज़ारों वर्ष पहले समाज को ऐसे क्रांतिकारी कार्य सफलतापूर्वक कर दिखाये जिन्हें अपनाने के लिये शेष विश्व आज भी संघर्ष कर रहा है। समाज के एक बडे वर्ग को अहिंसक बनाना. कृषिकर्म, शाकाहार की प्रवृत्ति, अग्नि द्वारा अंतिम संस्कार, शर्करा की खोज, लहू में लौह के होने की जानकारी सहित उन्नत धातुकर्म, अंकपद्धति, गणित, तर्क, ज्योतिष, हीरे जैसे रत्न को शेष विश्व से परिचित कराना आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो भारतीय संस्कृति को विश्व की अन्य संस्कृतियों से अलग धरातल पर रखते हैं। स्पष्ट है कि यह समाज अपने समकालीनों से कहीं उन्नत थी। अहिंसक जीवनशैली का प्रकाश आने के बाद भी हमारे आस-पडोस के जो पिछडे समुदाय उस नए क्रांतिकारी दौर को न अपना सके, पिशाच (पश्च past पिछला, पिछड़ा) कहलाए। वैसे ही ‪देवनागरी‬ जैसी उन्नत ‪लिपि‬ के आगमन के समय जो लिपियाँ पश्च (past) हो गईं, ‪पैशाची‬ कहलाईं। कई पैशाची प्रचलन से बाहर हो गईं, कई आज भी मूल/परवर्धित रूप में जीवित हैं। पिशाच या पैशाची कोई भाषा, जाति, नस्ल या क्षेत्र नहीं, पिछडेपन का तत्सम है।

राक्षस
ऋषि पुलस्त्य के दो पौत्र क्रमशः यक्षों व राक्षसों के शासक बने। यक्ष समुदाय भी क्रूर माना गया है परंतु वे अतीव धनवान थे। पूजा-पाठ के अलावा जादू-टोने में विश्वास रखते थे। मनोविलास और पहेलियां पूछना उनका शौक था। सही उत्तर देने पर प्रसन्न होते थे और गलत उत्तर पर क्रूर दण्ड भी देते थे। रक्ष संस्कृति यक्ष संस्कृति से कई मायनों में भिन्न थी। जहाँ यक्ष अक्सर एकाकी भ्रमण के किस्सों में मिलते हैं वहीं रक्ष समूहों में आते हैं। यक्ष मानव समाज में मिलने में कठिनाई नहीं पाते वहीं रक्षगण युद्धप्रिय हैं। यक्षों के आदर्शवाक्य वयम् यक्षामः की तर्ज़ पर राक्षसों का आदर्श वाक्य वयम् रक्षामः था, जोकि उनके बारे में काफ़ी कुछ कह जाता है। वयं रक्षामः से तात्पर्य यही है कि वे अपनी रक्षा स्वयं अपने बलबूते पर करने का दावा कर रहे हैं। वे किसी दैवी सहारे की आवश्यकता नहीं समझते, और वे भौतिक बल को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। राक्षसी विचारधारा के कई समूह रहे होंगे लेकिन ब्राह्मण पिता और दैत्य माता की संतति राक्षसराज रावण द्वारा अपने लंकाधिपति भाई कुबेर से हथियाये लंका में शासित वर्ग सबसे प्रसिद्ध राक्षस समूह बना।

[क्रमशः]

Friday, May 7, 2010

देव, दैत्य, दानव - देवासुर संग्राम ४

तम उ षटुहि यः सविषुः सुधन्वा
यो विश्वस्य कषयित भेषस्य
यक्ष्वा महे सौमनसाय रुद्रं
नमोभिर देवमसुरं दुवस्य
पिछली कड़ी में हमने जिन वरुण देव को ऋग्वैदिक ऋषियों द्वारा असुर कहे जाते सुना था वे मौलिक देवों यानी अदिति के पुत्रों में से एक हैं. अदिति सती की बहन और दक्ष प्रजापति की पुत्री हैं. कश्यप ऋषि और अदिति से हुए ये देव आदित्य भी कहलाते रहे हैं जबकि इनमें से कई माननीय असुर कहे गए हैं. भारत में कोई संकल्प लेते समय अपना और अपने गोत्र का नाम लेने की परम्परा रही है. जिन्हें भी अपना गोत्र न मालूम हो उन्हें कश्यप गोत्रीय कहने की परम्परा है क्योंकि सभी देव, दानव, मानव, यहाँ तक कि अप्सराएं भी कुल मिलाकर कश्यप के ही परिवार का सदस्य हैं. कश्मीर प्रदेश का और कैस्पियन सागर का नाम उन्हीं के नाम पर बना है. भगवान् परशुराम ने भी कार्तवीर्य और अन्य अत्याचारी शासकों का वध करने के बाद सम्पूर्ण धरती कश्यप ऋषि को ही दान में लौटाई थी और मारे गए राजाओं के स्त्री बच्चों के पालन,पोषण, शिक्षण की ज़िम्मेदारी विभिन्न ऋषियों को दे दी गयी थी. क्या सम्पूर्ण धरती का कश्यप को दिया जाना और दैत्य, दानव और देवों का भी उन्हीं की संतति होना उनके द्वारा किसी सामाजिक, राजनैतिक परिवर्तन का सूचक है? मुझे ठीक से पता नहीं. मगर यह ज़रूर है कि प्राचीन ग्रंथों में असुर और सुर शब्दों का प्रयोग जाति या वंश के रूप में नहीं है.

असुर शब्द का एक अर्थ हमने पीछे देखा जिससे असुरों की आसवन की कला में निपुणता का अहसास मिलता है. वारुणी भी नाम से ही उनसे सम्बंधित दीखती है. कच की कथा में असुरों द्वारा नियमित शराबखोरी के स्पष्ट वृत्तांत हैं इसलिए यह कहना कि असुर मदिरापान नहीं करते थे असत्य होगा. हाँ उसी कथा से और अन्यत्र प्रहलाद आदि की कथाओं से यह स्पष्ट है कि दैत्य क्रूर बहुत थे. उन्हें बुद्धिबल से अधिक हिंसाबल में विश्वास था. एक और चीज़ जो स्पष्ट दिखती है कि उनके शासन में शासक के अलावा किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर की कल्पना इस हद तक असहनीय थी कि उस अपराध में राजा अपने राजकुमार की भी जान लेने के पीछे पड़ जाता है. आस्तिकों के प्रति घोर असहिष्णुता एक प्रमुख दैत्य गुण रहा है. वे स्थापत्य और पुर-निर्माण में कुशल थे. पर उनके राज्य में सिर्फ शासकों की ही मूर्तियाँ बनती और लगती थी. क्या आज के तानाशाह उनसे किसी मामले में भिन्न हैं? सोवियत संघ में लेनिन की मूर्तियों की बाढ़ हो या कम्युनिस्ट चीन में माओ की, या क्यूबा में फिदेल कास्त्रो की. लक्ष्मणपुर की आप जानो.

असुर शब्द के कुछ अन्य अर्थ:
१. तीव्र गति से कहीं भी पहुँचने वाले
२. अपने सिद्धांत से न हटने वाले
३. अपरिमित शक्ति के स्वामी
[असु का एक अर्थ अस्तित्व (जीवन) भी हो सकता है. मुझे संस्कृत नहीं आती - विद्वानों की राय अपेक्षित है - जिन विद्वानों ने संस्कृत अंग्रेज़ी में पढी हो वे क्षमा करें.]

डॉ. मिश्रा द्वारा उद्धृत रामायण की समुद्र मंथन वाली पंक्तियों में ज़रूर आदित्यों को सुर और दैत्यों को असुर के नाम से स्पष्ट चिन्हित किया गया है. तो क्या यह सही है कि उस मंथन के बाद (या वहीं से) एक नया वर्ग सुर पैदा हुआ? क्या यह मंथन दो बड़े राजनैतिक सिद्धांतों का मंथन करके एक नयी व्यवस्था निकालने का साधन था जिसमें हलाहल से लेकर अमृत तक सभी कुछ निकला? क्या अमृत देवताओं तक आने का कोई विशेष अर्थ है? यह सब आपके ऊपर छोड़ता हूँ मगर "अदिति के सुर" से इतना तय लगता है कि वरुण उस समय असुर उपाधि को छोड़कर सुर हो गए हैं. शायद वह एक नया तंत्र था जो असुरों (यहाँ से आगे असुर=दैत्य) के अब तक सामान्य-स्वीकृत तौर-तरीके से भिन्न था. वह नया तंत्र क्या था?



[क्रमशः आगे पढने के लिये यहाँ क्लिक करें]