मर्त्या हवा अग्ने देवा आसु:
शुभ कार्य करके मनुष्य देव बनते हैं (शतपथ ब्राह्मण)
शतपथ ब्राह्मण के उपरोक्त कथन और अन्य भारतीय ग्रंथों में बिखरे उल्लेखों के अनुसार प्रत्येक मनुष्य में देव बनने की क्षमता है. मगर यह देव होता क्या है? अगली कड़ी में हम देखेंगे - देव लक्षण.
देवासुर गाथा के बारे में पढ़कर पूजा अनिल जी ने मैड्रिड स्पेन से हमें वरुण देव के पुष्कर (राजस्थान) के एक मंदिर के करीब 13 साल पुराने दो चित्र भेजे हैं. यहाँ उनकी अनुमति से दर्शनार्थ प्रदर्शित हैं. इसका मतलब यह है कि अभी भी वरुणदेव के मंदिर हमारे अनुमान से कहीं अधिक हैं.
वरुण देव का वाहन "मीन"
वरुण देव के अवतार झूलेलाल देवता अपने रथ पर
[क्रमशः आगे पढने के लिये यहाँ क्लिक करें]
वैदिक साहित्य में वरुण सब से महत्वपूर्ण देवता हैं। वे ऋत के देवता हैं, वे न्यायकर्ता हैं। बाद के साहित्य में वे केवल जल देवता हो कर रह गए। ऐसा क्यों कर हुआ? यह प्रश्न हमेशा सामने आता है। इस पर आप के विचार जानना चाहूँगा।
ReplyDeleteब्लॉग जगत को आपकी पोस्ट से शिक्षा लेनी चाहिए!
ReplyDeleteविचारणीय अभिव्यक्ति /
ReplyDelete@दिनेशराय द्विवेदीवैदिक साहित्य में वरुण सब से महत्वपूर्ण देवता हैं। वे ऋत के देवता हैं, वे न्यायकर्ता हैं। बाद के साहित्य में वे केवल जल देवता हो कर रह गए। ऐसा क्यों कर हुआ?
ReplyDeleteक्षत्रस्य राजा वरुणोधिराजः
वरुण देवों (और असुरों) के राजा थे. पहले इंद्र ने और बाद में महादेव, लक्ष्मी, दुर्गा और विष्णु ने (कौन से इन्द्र के अनुज?) उनको बिलकुल ही पीछे छोड़ दिया.
अगली कड़ी में देव-लक्षणों का वर्णन होने के बाद इस प्रश्न पर विचार करने का उत्तम समय होगा.
स्मार्ट इंडियन जी , रोचकता मौजूद है आपके इन वर्णनों में ! पता नहीं यह कितना सत्य है मगर तार्किक तौर पर हम इन बातों पर गौर करें की प्राचीन ग्रंथों में देवो-मानवो और दानवों में अनेक युद्धों का वर्णन है ! अगर देखा जाए तो जो स्वर्ग का वर्णन है वह अतिश्योक्ति मात्र है! जो कुछ हुआ वह सब इसी धरा पर हुआ और मनुष्यों के ही बीच हुआ ! मनुष्यों को उस काल में तीन श्रेणियों में बांटा गया था, ऐसा मेरा मानना है एक- देव , यानि श्रेष्ठ कर्म करने वाला ब्राहमण , ऋषि , मुनि ( आजकल के मक्कार पोंगा पंडित और स्वामी नहीं ) दूसरा-आम मनुष्य ( जिन्हें क्षत्रीय(योधा ) के तौर पर अधिक वर्णित किया गया है और तीसरे- राक्षस ( आजकल हम लोग इन्हें आतंकवादी कहते है ) ! अत: हमें यह नहीं भूलना चाहिए की प्राचीन ग्रंथों में भी जो कुछ लिखा गया है वह भी इस धरा के ही किसी श्रेष्ठ बुद्धिमान व्यक्ति/ महापुरुष ने ही लिखा है अत: दो भिन्न समयों में दो ग्रंथों के दावो में थोड़ा बहुत फर्क स्वाभाविक है !
ReplyDeleterochak jankari.. dhanywad..
ReplyDeleteअगली कड़ी का इन्तजार है..
ReplyDeleteबढ़िया ! अगली कड़ी पर आता हूँ.
ReplyDeleteबहुत सुंदर जी
ReplyDeleteअभी इतना व्यस्त हूं कि इस पर चाह कर भी कुछ सार्थक टिप्पणी नहीं कर पा रहा हूं.
ReplyDeleteयह विषय बडा ही रोचक है. फ़िर कभी लिखूंगा आपको, और अवगर कराऊंगा अपने विचरों से, इज़ाज़त रहेगी?
उत्कृष्ट साहित्य ।
ReplyDeleteपढ़ना बहुत अच्छा लग रहा है!
ReplyDeleteपढ़ना बहुत अच्छा लग रहा है!
ReplyDeleteगोदियाल जी ने जो कहा है अपनी टिपण्णी में यहाँ पर...मेरा भी यही विश्वास है....
ReplyDeleteबहुत ही रोचक और जानकारीपरक है आपकी यह श्रंखला....
बहुत बहुत आभार इसे प्रकाशित करने के लिए....
चिंतन शील पोस्ट.
ReplyDeleteनिस्सन्देह रोचक।
ReplyDeleteआनंद आ रहा है :)
ReplyDeleteये रोचक विषय आपके ब्लॉग पर न आने की वजह से छूट गया है ... धीरे धीरे पुरानी कड़ियों से परिचित होऊँगा ...
ReplyDelete