तम उ षटुहि यः सविषुः सुधन्वापिछली कड़ी में हमने जिन वरुण देव को ऋग्वैदिक ऋषियों द्वारा असुर कहे जाते सुना था वे मौलिक देवों यानी अदिति के पुत्रों में से एक हैं. अदिति सती की बहन और दक्ष प्रजापति की पुत्री हैं. कश्यप ऋषि और अदिति से हुए ये देव आदित्य भी कहलाते रहे हैं जबकि इनमें से कई माननीय असुर कहे गए हैं. भारत में कोई संकल्प लेते समय अपना और अपने गोत्र का नाम लेने की परम्परा रही है. जिन्हें भी अपना गोत्र न मालूम हो उन्हें कश्यप गोत्रीय कहने की परम्परा है क्योंकि सभी देव, दानव, मानव, यहाँ तक कि अप्सराएं भी कुल मिलाकर कश्यप के ही परिवार का सदस्य हैं. कश्मीर प्रदेश का और कैस्पियन सागर का नाम उन्हीं के नाम पर बना है. भगवान् परशुराम ने भी कार्तवीर्य और अन्य अत्याचारी शासकों का वध करने के बाद सम्पूर्ण धरती कश्यप ऋषि को ही दान में लौटाई थी और मारे गए राजाओं के स्त्री बच्चों के पालन,पोषण, शिक्षण की ज़िम्मेदारी विभिन्न ऋषियों को दे दी गयी थी. क्या सम्पूर्ण धरती का कश्यप को दिया जाना और दैत्य, दानव और देवों का भी उन्हीं की संतति होना उनके द्वारा किसी सामाजिक, राजनैतिक परिवर्तन का सूचक है? मुझे ठीक से पता नहीं. मगर यह ज़रूर है कि प्राचीन ग्रंथों में असुर और सुर शब्दों का प्रयोग जाति या वंश के रूप में नहीं है.
यो विश्वस्य कषयित भेषस्य
यक्ष्वा महे सौमनसाय रुद्रं
नमोभिर देवमसुरं दुवस्य
असुर शब्द का एक अर्थ हमने पीछे देखा जिससे असुरों की आसवन की कला में निपुणता का अहसास मिलता है. वारुणी भी नाम से ही उनसे सम्बंधित दीखती है. कच की कथा में असुरों द्वारा नियमित शराबखोरी के स्पष्ट वृत्तांत हैं इसलिए यह कहना कि असुर मदिरापान नहीं करते थे असत्य होगा. हाँ उसी कथा से और अन्यत्र प्रहलाद आदि की कथाओं से यह स्पष्ट है कि दैत्य क्रूर बहुत थे. उन्हें बुद्धिबल से अधिक हिंसाबल में विश्वास था. एक और चीज़ जो स्पष्ट दिखती है कि उनके शासन में शासक के अलावा किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर की कल्पना इस हद तक असहनीय थी कि उस अपराध में राजा अपने राजकुमार की भी जान लेने के पीछे पड़ जाता है. आस्तिकों के प्रति घोर असहिष्णुता एक प्रमुख दैत्य गुण रहा है. वे स्थापत्य और पुर-निर्माण में कुशल थे. पर उनके राज्य में सिर्फ शासकों की ही मूर्तियाँ बनती और लगती थी. क्या आज के तानाशाह उनसे किसी मामले में भिन्न हैं? सोवियत संघ में लेनिन की मूर्तियों की बाढ़ हो या कम्युनिस्ट चीन में माओ की, या क्यूबा में फिदेल कास्त्रो की. लक्ष्मणपुर की आप जानो.
असुर शब्द के कुछ अन्य अर्थ:
१. तीव्र गति से कहीं भी पहुँचने वाले
२. अपने सिद्धांत से न हटने वाले
३. अपरिमित शक्ति के स्वामी
[असु का एक अर्थ अस्तित्व (जीवन) भी हो सकता है. मुझे संस्कृत नहीं आती - विद्वानों की राय अपेक्षित है - जिन विद्वानों ने संस्कृत अंग्रेज़ी में पढी हो वे क्षमा करें.]
डॉ. मिश्रा द्वारा उद्धृत रामायण की समुद्र मंथन वाली पंक्तियों में ज़रूर आदित्यों को सुर और दैत्यों को असुर के नाम से स्पष्ट चिन्हित किया गया है. तो क्या यह सही है कि उस मंथन के बाद (या वहीं से) एक नया वर्ग सुर पैदा हुआ? क्या यह मंथन दो बड़े राजनैतिक सिद्धांतों का मंथन करके एक नयी व्यवस्था निकालने का साधन था जिसमें हलाहल से लेकर अमृत तक सभी कुछ निकला? क्या अमृत देवताओं तक आने का कोई विशेष अर्थ है? यह सब आपके ऊपर छोड़ता हूँ मगर "अदिति के सुर" से इतना तय लगता है कि वरुण उस समय असुर उपाधि को छोड़कर सुर हो गए हैं. शायद वह एक नया तंत्र था जो असुरों (यहाँ से आगे असुर=दैत्य) के अब तक सामान्य-स्वीकृत तौर-तरीके से भिन्न था. वह नया तंत्र क्या था?
[क्रमशः आगे पढने के लिये यहाँ क्लिक करें]
ये बढ़िया तोचक श्रृंख्ला चल निकली..आनन्द आ रहा है. जारी रहिये.
ReplyDeleteलक्ष्मण पुर=लखन पुर=लखनऊ
ReplyDeleteसही है या गलत.........
बहुत ज्ञानवर्धक एवो उपयोगी पोस्ट!
ReplyDelete@भारतीय नागरिक - Indian Citizen
ReplyDeleteमूर्तियों की बात हो और अपने नखलऊ का जिकर भी न आये ऐसा कैसे हो सकता है!
@ Udan Tashtari said...
ReplyDeleteये बढ़िया तोचक श्रृंख्ला चल निकली..आनन्द आ रहा है. जारी रहिये.
शुक्रिया समीर जी. बात निकलती है तो दूर तलक निकल जाती है इसीलिये बात कम ही शुरू करते हैं जी.
@ कश्मीर प्रदेश का और कैस्पियन सागर का नाम उन्हीं के नाम पर बना है. - यह स्थापना लोकमान्य तिलक की तो नहीं?
ReplyDelete@ वारुणी भी नाम से ही उनसे सम्बंधित - वरुण > वारुणी
?
@ लक्ष्मनपुर की आप जानो. - मिस्र के फराहो जीते जी मकबरा बनवाते थे और यहाँ जीते जी मूर्तियाँ ।
@ क्या सम्पूर्ण धरती का कश्यप को दिया जाना और दैत्य, दानव और देवों का भी उन्हीं की संतति होना उनके द्वारा किसी सामाजिक, राजनैतिक परिवर्तन का सूचक है? मुझे ठीक से पता नहीं. मगर यह ज़रूर है कि प्राचीन ग्रंथों में असुर और सुर शब्दों का प्रयोग जाति या वंश के रूप में नहीं है. - अच्छा पकड़ा आप ने !
@ जिन विद्वानों ने संस्कृत अंग्रेज़ी में पढी हो वे क्षमा करें - :) ;)
अंतिम पैरा तो बहुत ही प्रभावित कर गया। मुझे समुद्र मंथन खगोलीय घटनाओं का रूपक भी लगता है।
न केवल जानकारियॉं अपितु विवेचन, विश्लेषण और प्रस्तुति भी रोचक और 'हिप्नोटाइज' कर देनेवाली।
ReplyDeleteजारी रखिए। आप हमें समृध्छ कर रहे हैं। हमारा भला तो कर ही रहे हैं।
न केवल जानकारियॉं अपितु विवेचन, विश्लेषण और प्रस्तुति भी रोचक और 'हिप्नोटाइज' कर देनेवाली।
ReplyDeleteआप हमें समृध्द कर रहे हैं। हमारा भला तो कर ही रहे हैं।
दिलचस्प है शृंखला।
ReplyDeleteइंतिजार है आगे का ..
ReplyDeleteबस बांच रहा हूँ ... इन विषयों पर जानना मेरे लिए नया है ..
ढून्ढूगा अब कश्यप गोत्र वालों को ... :)
गिरिजेश राव said...
ReplyDelete@ कश्मीर प्रदेश का और कैस्पियन सागर का नाम उन्हीं के नाम पर बना है. - यह स्थापना लोकमान्य तिलक की तो नहीं?
1. कैस्पियन सागर के बारे में ग्रीक विद्वान् स्त्राबो ने लिखा है.
2. पहले नीलम पुराण तथा तथा बाद में महापंडित कल्हण की राजतरंगिणी में कश्यप द्वारा सतीसर का पानी खाली कर के उसमें रहने वाले असुर का नाश करने और घाटी में कश्मीर बसाने की कथा है.
उपयोगी सीरीज ।
ReplyDeleteआदित्य असुर को भी कहते हैं और सूर्य को भी. क्या इन दोनों में कोई तारतम्य है ? उत्तरांचल में एक कहावत है- भूले भटके का भारद्वाज गोत्र. जिसका अर्थ मैं यह मान कर चल रहा था कि जिसे अपना गोत्र मालूम नहीं उसे भारद्वाज गोत्री माना जाएगा. लेकिन इस पोस्ट के अनुसार वह कश्यप गोत्री होगा.
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया, ज्ञानवर्धक और दिलचस्प पोस्ट रहा!
ReplyDeleteअद्वितीय रचना हमेशा की तरह बहुत दिनो बाद मैं पुन: ब्लोग से जुद पाया हूँ अनुपस्तिथि के लिये क्षमा
ReplyDeleterochak aur mahtavpooran charcha rahi ,
ReplyDeleteअद्भुद लेखमाला.....
ReplyDeleteआज एकसाथ सभी पढ़ी और मंत्रमुग्ध हो गयी....
कृपया इसे जारी रखें....
बहुत कुछ मिला है इनमे से और आगे भी बहुत मिलेगा जानती हूँ...
कश्मीर और कैस्पियन वाली जानकारी तो बिलकुल ही नयी और रोचक रही. कमाल की ज्ञानवर्धक श्रृंखला है.
ReplyDelete@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
ReplyDeleteढून्ढूगा अब कश्यप गोत्र वालों को ... :)
कश्यप गोत्र का होना और गोत्र के अज्ञान की वजह से कश्यप गोत्र का कहलाना दो अलग बातें हैं.
@hem pandey
उत्तरांचल में एक कहावत है- भूले भटके का भारद्वाज गोत्र. जिसका अर्थ मैं यह मान कर चल रहा था कि जिसे अपना गोत्र मालूम नहीं उसे भारद्वाज गोत्री माना जाएगा. लेकिन इस पोस्ट के अनुसार वह कश्यप गोत्री होगा.
हेम जी,
मैंने संकल्प लिए जाते समय की परम्परा और उसका कारण लिखा है. आपने जो कहावत कही है उसका अभिप्राय एकदम भिन्न है.
आपकी इस भूल भुलैयां की रोचक श्रंखला पर पूरी पैनी नजर है हमारी ...बहार कब तक निकालोगे ...वैसे मजा आ रहा है रोचक जानकारी में !
ReplyDeleteऔर त्यागी गोत्र कौन होगा ..वैसे हम जातिवाद की गणना जो कर रहे है, जाती से दूर नहीं जाने देते ये सरकारी कानूनी लोग
ReplyDeleteअसुर के इतने अर्थों से यह भी सिद्ध होता है कि वे गुणों से भरपूर थे।
ReplyDeleteज्ञान का भण्डार भरा पड़ा है आपके ब्लॉग में तो.....
ReplyDeleteआज सोचा था ... कि खूब उथलपुथल करूँगा, पर कुछ न टाले जाने वाले कार्य सर पर आ गए है, फिर कभी....