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Saturday, May 19, 2018

देवासुर संग्राम 10



व्यक्तिगत विकास और स्वतंत्रता - देव और असुर व्यवस्था का मूल अंतर


पिछली कड़ियों में हम देख चुके हैं कि देव दाता हैं, उल्लासप्रिय हैं, यज्ञकर्ता (मिलकर जनहितकार्य करने वाले) हैं। वे शाकाहारी और दयालु होने के साथ-साथ कल्पनाशील, प्रभावी वक्ता हैं। हम पहले ही यह भी देख चुके हैं कि असुर गतिमान, द्रव्यवान, और शक्तिशाली हैं। वे महान साम्राज्यों के स्वामी हैं। हमने यह भी देखा कि वरुण और रुद्र जैसे आरम्भिक देव असुर हैं। सुर-काल में असुर पहले से उपस्थित हैं, जबकि पूर्वकाल के सुर भी असुर हैं। इतने भर से यह बात तो स्पष्ट है कि सुरों का प्रादुर्भाव असुरों के बाद हुआ है। असुर सभ्यता विकसित हो चुकी है। नगर बस चुके हैं। सभ्यता आ चुकी है, लेकिन कठोर और क्रूर है। असुर व्यवस्था में एक सशक्त राज्य, शासन-प्रणाली, और वंशानुगत राजा उपस्थित हैं। और आसुरी व्यवस्था में वह असुरराज ही उनका ईश्वर है। वह असुर महान सबका समर्पण चाहता है। उसके कथन के विरुद्ध जाने वाले को जीने का अधिकार नहीं है।  यहाँ तक कि राज्य का भावी शासक, वर्तमान राजा हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भी नारायण में विश्वास व्यक्त करने के कारण मृत्युदण्ड का पात्र है। असुर साम्राज्य शक्तिशाली और क्रूर होते हुए भी भयभीत है। व्यवस्था द्वारा प्रमाणिक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य दैवी शक्ति में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों से उनकी आस्था खतरे में पड़ जाती है। वे ऐसे व्यक्तियों को ईशनिंदक मानकर उन्हें नष्ट करने को प्रतिबद्ध हैं, भले ही ऐसा कोई व्यक्ति उनकी अपनी संतति हो या उनका भविष्य का शासक ही हो। आस्था के मामले में असुर व्यवस्था नियंत्रणवादी और एकरूप है। किसी को उससे विचलित होने का अधिकार नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये वहाँ कोई स्थान नहीं है। धार्मिक असहिष्णुता आसुरी व्यवस्था के मूल लक्षणों में से एक है।

आस्था की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अतिरिक्त सुर-व्यवस्था में असुरों की तुलना में एक और बड़ा अन्तर आया है। जहाँ असुर व्यवस्था एकाधिकारवादी है, एक राजा और हद से हद उसके एकाध भाई-बंधु सेनापति के अलावा अन्य सभी एक-समान स्तर में रहकर शासन के सेवकमात्र रहने को अभिशप्त हैं, वहीं सुर व्यवस्था संघीय है। हर विभाग के लिये एक सक्षम देवता उपस्थित है। जल, वायु, बुद्धि, कला, धन, स्वास्थ्य, रक्षा, आदि, सभी के अपने-अपने विभाग हैं और अपने-अपने देवता। सभी के बीच समन्वय और सहयोग का दायित्व इंद्र का है। महत्वपूर्ण  होते हुये भी वे सबसे ख्यात नहीं हैं, न ही अन्य देवताओं के नियंत्रक ही।

इंद्र  देवताओं के संघ के अध्यक्ष हैं।  इंद्र का सिंहासन पाने के इच्छुकों के लिये निर्धारित तप की अर्हता है, जिसके पूर्ण होने पर कोई भी व्यक्ति स्वयं नया इंद्र बनने का प्रस्ताव रख सकता है। पौराणिक भाषा में कहें तो, इंद्र का सिंहासन 'डोलता' भी है। असुरराज के विपरीत इंद्र एक वंशानुगतशानुगत उत्तराधिकार नहीं बल्कि तप से अर्जित एक पद है जिस पर बैठने वाले एक दूसरे के रक्तसम्बंधी नहीं होते।

एकाधिकारवादी, असहिष्णु, और क्रूर विचारधाराएँ संसार में आज भी उपस्थित हैं जिनके मूल में आसुरी नियंत्रणवाद है। यह नियंत्रणवाद अपने विचारकों-पीरों-पैगम्बरों-किताबों के कूप-मण्डूकत्व के बाहर के वैविध्य को नष्ट कर देने को आतुर है, उसके लिये किसी भी सीम तक जा सकता है। लेकिन साथ दैवी उदारवाद, वैविध्य, सहिष्णुता और सहयोग, संस्कृति  की जिस उन्नत विचारधारा का वर्णन भारतीय धर्मग्रंथों में सुर-तंत्र के रूप में है, भारतीय मनीषियों, हमारे देवों के सर्वे भवंतु सुखिनः, और तमसो मा ज्योतिर्गमय की वही अवधारणा आज समस्त विश्व को विश्व बंधुत्व और लोकतंत्र की ओर निर्देशित कर रही है।

सुरराज वरुण के हाथ में पाश है, जबकि देवों के हाथ अभयमुद्रा में हैं - भय बनाम क्षमा - नश्वर मानव किसे चुनेंगे? सुरासुर का भेद समुद्र मंथन के समय स्पष्ट है। वह युद्ध के बाद मिल-बैठकर सहयोग से मार्ग निकालने का मार्ग है जिसमें बहुत सा हालाहल निकलने के बाद चौदह रत्न और फिर अमृत मिला है जो सुरों के पास है। सुर व्यवस्था अमृत व्यवस्था है। कितना भी संघर्ष हो, इसी में स्थायित्व है, यही टिकेगी।

[क्रमशः]

Saturday, January 6, 2018

देवासुर संग्राम 9 - नियंत्रणवाद से समन्वय की ओर

सर्वेषाम् देवानाम् आत्मा यद् यज्ञः  (शतपथ ब्राह्मण)
सब देवों की आत्मा यज्ञ (मिलकर कार्य करना) में बसती है


पिछली कड़ियों में हमने सुर, असुर, देव, दैत्य, दानव, भूत, पिशाच, राक्षस आदि शब्दों पर दृष्टिपात किया है।
हम यह भी देख चुके हैं कि देव दाता हैं, उल्लासप्रिय हैं, यज्ञकर्ता (मिलकर जनहितकार्य करने वाले) हैं। वे शाकाहारी, शक्तिशाली, सहनशील, और दयालु होने के साथ-साथ कल्पनाशील, प्रभावी वक्ता हैं। देव उत्साह से भरे हैं, उनके चरण धरती नहीं छूते। हम पहले ही यह भी देख चुके हैं कि सुर, असुर दोनों शक्तिशाली हैं, परंतु असुरत्व में अधिकार है, जबकि देवत्व में दान है। असुर गतिमान, द्रव्यवान, और शक्तिशाली हैं। वे महान साम्राज्यों के स्वामी हैं। यह भी स्पष्ट है कि वरुण और रुद्र जैसे आरम्भिक देव असुर हैं। उनके अतिरिक्त मित्र, अग्नि, अर्यमन, पूषा, पर्जन्य आदि देव भी असुर हैं। अर्थ यह कि पूर्वकाल के देव भी असुर ही हैं। सुर-काल में असुर पहले से उपस्थित हैं। इतने भर से यह बात तो स्पष्ट है कि सुरों का प्रादुर्भाव असुरों के बाद हुआ है। पहले के देव असुर इसलिये हैं कि उस समय तक वे सुर व्यवस्था को फलीभूत नहीं कर सके हैं। सुर सभ्यता की पूर्ववर्ती असुर सभ्यता विकसित हो चुकी है। नगर बस चुके हैं। सभ्यता आ चुकी है, लेकिन उसे सुसंस्कृत होना शेष है। वह अभी भी कठोर और क्रूर है। असुर व्यवस्था में आधिपत्य है, एक सशक्त राज्य, शासन-प्रणाली, और वंशानुगत राजा उपस्थित हैं। आसुरी व्यवस्था में वह असुरराज ही उनका ईश्वर है। वह असुर महान सबका समर्पण चाहता है। उसके कथन के विरुद्ध जाने वाले को जीने का अधिकार नहीं है।  यहाँ तक कि राज्य का भावी शासक, वर्तमान राजा हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भी नारायण में विश्वास व्यक्त करने के कारण मृत्युदण्ड का पात्र है। असुर साम्राज्य शक्तिशाली और क्रूर होते हुए भी भयभीत है। व्यवस्था द्वारा प्रमाणिक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य दैवी शक्ति में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों से उनकी आस्था खतरे में पड़ जाती है। वे ऐसे व्यक्तियों को ईशनिंदक मानकर उन्हें नष्ट करने को प्रतिबद्ध हैं, भले ही ऐसा कोई व्यक्ति उनकी अपनी संतति हो या उनका भविष्य का शासक ही हो। आस्था के मामले में असुर व्यवस्था नियंत्रणवादी और एकरूप है। किसी को उससे विचलित होने का अधिकार नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये वहाँ कोई स्थान नहीं है। अपनी विचारधारा से इतर मान्यताओं को बलपूर्वक नष्ट करना वे अपना अधिकार समझते हैं। धार्मिक असहिष्णुता आसुरी व्यवस्था के मूल लक्षणों में से एक है।


आस्था की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अतिरिक्त सुर-व्यवस्था में असुरों की तुलना में एक और बड़ा अन्तर आया है। जहाँ असुर व्यवस्था एकाधिकारवादी है, एक राजा और हद से हद उसके एकाध भाई-बंधु सेनापति के अलावा अन्य सभी एक-समान स्तर में रहकर शासन के सेवकमात्र रहने को अभिशप्त हैं, वहीं सुर व्यवस्था संघीय है। हर विभाग के लिये एक सक्षम देवता उपस्थित है। जल, वायु, बुद्धि, कला, धन, स्वास्थ्य, रक्षा, आदि, सभी के अपने-अपने विभाग हैं और अपने-अपने देवता। सभी के बीच समन्वय, सहयोग, और सम्वाद का दायित्व इंद्र का है। महत्वपूर्ण  होते हुये भी वे सबसे ख्यात नहीं हैं, न ही अन्य देवताओं के नियंत्रक ही।

इतना ही नहीं  देवताओं के संघ के अध्यक्ष का पद हस्तांतरण योग्य है। इंद्र के पद को कोई भी चुनौती दे सकता है,  और अपनी पात्रता का प्रस्ताव रख सकता है।  इंद्र का सिंहासन पाने के इच्छुकों के लिये निर्धारित तप की अर्हता है, जिसके होने पर पौराणिक भाषा में, इंद्र का सिंहासन 'डोलता' भी है। असुरराज के विपरीत इंद्र एक वंशानुगत उत्तराधिकार नहीं बल्कि तप से अर्जित एक पद है जिस पर बैठने वाले एक दूसरे के रक्तसम्बंधी नहीं होते।

एकाधिकारवादी, असहिष्णु, और क्रूर विचारधाराएँ संसार में आज भी उपस्थित हैं जिनके मूल में आसुरी नियंत्रणवाद है। लेकिन इसके साथ ही दैवी उदारवाद, वैविध्य, सहिष्णुता और सहयोग, संस्कृति  की जिस उन्नत विचारधारा का वर्णन भारतीय धर्मग्रंथों में सुर-तंत्र के रूप में है, भारतीय मनीषियों, हमारे देवों के सर्वे भवंतु सुखिनः, और तमसो मा ज्योतिर्गमय की वही अवधारणा आज समस्त विश्व को विश्व बंधुत्व और लोकतंत्र की ओर निर्देशित कर रही है।

असुरराज के हाथ में पाश है, जबकि देवों के हाथ अभयमुद्रा में हैं - भय बनाम क्षमा - नश्वर मानव किसे चुनेंगे? सुरासुर का भेद समुद्र मंथन के समय स्पष्ट है। समुद्र मंथन के समय असुर-राज शक्तिशाली था। जबकि सुर एक नयी व्यवस्था स्थापित कर रहे थे। लम्बे समय से स्थापित राजसी असुर शक्ति इस नई प्रबंधन व्यवस्था को जन्मते ही मिटाने को आतुर थी। समुद्र-मंथन युद्ध के बाद मिल-बैठकर चिंतन, मनन, और सहयोग से भविष्य चुनने का मार्ग है जिसमें बहुत सा हालाहल निकलने के बाद चौदह रत्न और फिर अमृत मिला है जो सुरों के पास है। सुर व्यवस्था अमृत व्यवस्था है। कितना भी संघर्ष हो, इसी में स्थायित्व है, यही टिकेगी। विचारवान मनुष्य को किसी विचारधारा का रोबोट नहीं बनाया जा सकता। पाश बनाम अभय! तानाशाही कितनी भी शक्तिशाली हो जाये, मानवता कभी भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार नहीं छोड़ेगी।

[क्रमशः]

Thursday, May 13, 2010

वरुण देव मंदिर - देवासुर संग्राम ६


मर्त्या हवा अग्ने देवा आसु:
शुभ कार्य करके मनुष्य देव बनते हैं (शतपथ ब्राह्मण)


शतपथ ब्राह्मण के उपरोक्त कथन और अन्य भारतीय ग्रंथों में बिखरे उल्लेखों के अनुसार प्रत्येक मनुष्य में देव बनने की क्षमता है. मगर यह देव होता क्या है? अगली कड़ी में हम देखेंगे - देव लक्षण.

देवासुर गाथा के बारे में पढ़कर पूजा अनिल जी ने मैड्रिड स्पेन से हमें वरुण देव के पुष्कर (राजस्थान) के एक मंदिर के करीब 13 साल पुराने दो चित्र भेजे हैं. यहाँ उनकी अनुमति से दर्शनार्थ प्रदर्शित हैं. इसका मतलब यह है कि अभी भी वरुणदेव के मंदिर हमारे अनुमान से कहीं अधिक हैं.


वरुण देव का वाहन "मीन"


वरुण देव के अवतार झूलेलाल देवता अपने रथ पर

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Tuesday, May 11, 2010

असुर और सुर भेद - देवासुर संग्राम ५


ॐ भूर्भुवः स्वः वरुण! इहागच्छ, इह तिष्ठ वरुणाय नमः, वरुणमावाहयामि, स्थापयामि।

पिछली गर्मियों (जून २००९) में छत्तीसगढ़ के कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू सूखे से बचाव के लिए ऐतिहासिक बुद्धेश्वर महादेव मंदिर में वरुण यज्ञ कराने के कारण चर्चा में आये थे. राजनगर नंगल के श्रद्धा के केंद्र वरुण देव मंदिर के बारे में शायद निर्मला कपिला जी अधिक जानकारी दे सकें. असुर-आदित्य वरुणदेव दस दिक्पालों में से एक हैं जिनके कन्धों पर पश्चिम दिशा का भार है. उनका अस्त्र पाश है. पापियों को वे इसी पाश से बांधते हैं. सिंध और कच्छ की तटीय क्षेत्रों में वरुणदेव की पूजा अधिक होती थी. भारत में वरुण देव के शायद बहुत मंदिर नहीं बचे हैं. यह कहते हुए मुझे ध्यान है कि भारत के बारे में कोई भी बात कहते समय मुझे भारत की अद्वितीय विविधता के बारे में अपने अज्ञान का ध्यान रखना चाहिए. शायद इसी लेख पर किसी टिप्पणी में भारत के एक ऐसे क्षेत्र का पता लगे जहां वरुणदेव के मंदिरों की भरमार हो. पाकिस्तानियत नाम के ब्लॉग में सिंध प्रदेश के मनोरा द्वीप में स्थित ऐसे एक मंदिर का सचित्र वर्णन है. इस मंदिर और उसकी दुर्दशा के बारे में अधिक जानकारी फैज़ा इल्यास की इस रिपोर्ट में है
त्वम॑ग्ने रु॒द्रो असु॑रो म॒हो दि॒वस्त्वं शर्धो॒ मारु॑तं पृ॒क्ष ई॑शिषे।
त्वं वातै॑ररु॒णैर्या॑सि शंग॒यस्त्वं पू॒षा वि॑ध॒तः पा॑सि॒ नु त्मना॑॥
पीछे एक कड़ी में हमने असुर का संधि विच्छेद असु+र के रूप में देखा था.
हड़प्पा साहित्य और वैदिक साहित्य के भगवान सिंह "सुर" का अर्थ कृषिकर्मा मानते है. उन्हीं के अनुसार उत्पादन के साधनों पर अधिकार रखने वाले देव थे और अनुत्पादक लोग असुर। तो क्या उत्पादन के समर्थक सुर हुए और अनुत्पादक बंध और हड़ताल के समर्थक असुर? आइये देखें, व्याख्याकारों के अनुसार असुर की कुछ परिभाषायें निम्न है:
  • असुं राति लाति ददाति इति असुरः
  • असुषु रमन्ते इति असुरः 
  • असु क्षेपणे, असून प्राणान राति ददाति इति असुरः
  • सायण के अनुसार: असुर = बलवान, प्राणवान
  • निघंटु के अनुसार: असुर = जीवन से भरपूर, प्राणवान
खैर अपना-अपना ख्याल है - हमें क्या? मगर इस बीच हम देव शब्द की परिभाषा तो देख ही लें - अगली कड़ी में.

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Friday, May 7, 2010

देव, दैत्य, दानव - देवासुर संग्राम ४

तम उ षटुहि यः सविषुः सुधन्वा
यो विश्वस्य कषयित भेषस्य
यक्ष्वा महे सौमनसाय रुद्रं
नमोभिर देवमसुरं दुवस्य
पिछली कड़ी में हमने जिन वरुण देव को ऋग्वैदिक ऋषियों द्वारा असुर कहे जाते सुना था वे मौलिक देवों यानी अदिति के पुत्रों में से एक हैं. अदिति सती की बहन और दक्ष प्रजापति की पुत्री हैं. कश्यप ऋषि और अदिति से हुए ये देव आदित्य भी कहलाते रहे हैं जबकि इनमें से कई माननीय असुर कहे गए हैं. भारत में कोई संकल्प लेते समय अपना और अपने गोत्र का नाम लेने की परम्परा रही है. जिन्हें भी अपना गोत्र न मालूम हो उन्हें कश्यप गोत्रीय कहने की परम्परा है क्योंकि सभी देव, दानव, मानव, यहाँ तक कि अप्सराएं भी कुल मिलाकर कश्यप के ही परिवार का सदस्य हैं. कश्मीर प्रदेश का और कैस्पियन सागर का नाम उन्हीं के नाम पर बना है. भगवान् परशुराम ने भी कार्तवीर्य और अन्य अत्याचारी शासकों का वध करने के बाद सम्पूर्ण धरती कश्यप ऋषि को ही दान में लौटाई थी और मारे गए राजाओं के स्त्री बच्चों के पालन,पोषण, शिक्षण की ज़िम्मेदारी विभिन्न ऋषियों को दे दी गयी थी. क्या सम्पूर्ण धरती का कश्यप को दिया जाना और दैत्य, दानव और देवों का भी उन्हीं की संतति होना उनके द्वारा किसी सामाजिक, राजनैतिक परिवर्तन का सूचक है? मुझे ठीक से पता नहीं. मगर यह ज़रूर है कि प्राचीन ग्रंथों में असुर और सुर शब्दों का प्रयोग जाति या वंश के रूप में नहीं है.

असुर शब्द का एक अर्थ हमने पीछे देखा जिससे असुरों की आसवन की कला में निपुणता का अहसास मिलता है. वारुणी भी नाम से ही उनसे सम्बंधित दीखती है. कच की कथा में असुरों द्वारा नियमित शराबखोरी के स्पष्ट वृत्तांत हैं इसलिए यह कहना कि असुर मदिरापान नहीं करते थे असत्य होगा. हाँ उसी कथा से और अन्यत्र प्रहलाद आदि की कथाओं से यह स्पष्ट है कि दैत्य क्रूर बहुत थे. उन्हें बुद्धिबल से अधिक हिंसाबल में विश्वास था. एक और चीज़ जो स्पष्ट दिखती है कि उनके शासन में शासक के अलावा किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर की कल्पना इस हद तक असहनीय थी कि उस अपराध में राजा अपने राजकुमार की भी जान लेने के पीछे पड़ जाता है. आस्तिकों के प्रति घोर असहिष्णुता एक प्रमुख दैत्य गुण रहा है. वे स्थापत्य और पुर-निर्माण में कुशल थे. पर उनके राज्य में सिर्फ शासकों की ही मूर्तियाँ बनती और लगती थी. क्या आज के तानाशाह उनसे किसी मामले में भिन्न हैं? सोवियत संघ में लेनिन की मूर्तियों की बाढ़ हो या कम्युनिस्ट चीन में माओ की, या क्यूबा में फिदेल कास्त्रो की. लक्ष्मणपुर की आप जानो.

असुर शब्द के कुछ अन्य अर्थ:
१. तीव्र गति से कहीं भी पहुँचने वाले
२. अपने सिद्धांत से न हटने वाले
३. अपरिमित शक्ति के स्वामी
[असु का एक अर्थ अस्तित्व (जीवन) भी हो सकता है. मुझे संस्कृत नहीं आती - विद्वानों की राय अपेक्षित है - जिन विद्वानों ने संस्कृत अंग्रेज़ी में पढी हो वे क्षमा करें.]

डॉ. मिश्रा द्वारा उद्धृत रामायण की समुद्र मंथन वाली पंक्तियों में ज़रूर आदित्यों को सुर और दैत्यों को असुर के नाम से स्पष्ट चिन्हित किया गया है. तो क्या यह सही है कि उस मंथन के बाद (या वहीं से) एक नया वर्ग सुर पैदा हुआ? क्या यह मंथन दो बड़े राजनैतिक सिद्धांतों का मंथन करके एक नयी व्यवस्था निकालने का साधन था जिसमें हलाहल से लेकर अमृत तक सभी कुछ निकला? क्या अमृत देवताओं तक आने का कोई विशेष अर्थ है? यह सब आपके ऊपर छोड़ता हूँ मगर "अदिति के सुर" से इतना तय लगता है कि वरुण उस समय असुर उपाधि को छोड़कर सुर हो गए हैं. शायद वह एक नया तंत्र था जो असुरों (यहाँ से आगे असुर=दैत्य) के अब तक सामान्य-स्वीकृत तौर-तरीके से भिन्न था. वह नया तंत्र क्या था?



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Thursday, May 6, 2010

वारुणी - देवासुर संग्राम 3



असुराः तेन दैतेयाः सुराः तेन अदितेः सुताः।
हृष्टाः प्रमुदिताः च आसन् वारुणी ग्रहणात् सुराः॥ 


दैत्य वे असुर, अदिति के पुत्र सुर;  प्रसन्न, स्वस्थ सुरों ने वारुणी को ग्रहण किया.

वाल्मीकि रामायण में ज़िक्र है समुद्र मंथन से उत्पन्न हुई वारुणी का जिसे अदिति की संतति सुरों ने स्वीकार किया. मदमाते नयनों वाली वारुणी वरुण से (या उनके द्वारा) उत्पन्न हुई हैं और असुर (वहां पर) उन्हें नहीं लेते हैं इसके कई कारण हो सकते हैं. एक स्पष्ट कारण यह है कि वे विजेता होते हुए भी हारे हुए देवों से मिलकर समुद्र मंथन अभियान में शामिल होने के लिए सिर्फ इसलिए राजी हुए थे ताकि अमृत पा सकें न कि वारूणी. मगर एक बात और है. उस बात को बेहतर समझने के लिए पहले ऋग्वेद तक चलते हैं. वारूणी के सृजक वरुण हैं, इसलिए हम उनकी स्तुति का एक मंत्र देखें:

अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहेहिविभःकशाया
कषयन्नस्मभ्यमसुर परचेता राजन्नेनांसिशिश्रथः कर्तानि जा

यहाँ समुद्र के स्वामी वरुणदेव को असुर कहकर पुकारा गया है. यह अकेली जगह नहीं है जहां उन्हें असुर कहा गया है बल्कि ऋग्वेद में उन्हें अनेकों स्थानों पर आदर से असुर कहकर पुकारा गया है. वरुणदेव जल के स्वामी हैं. आज भी सप्त-सैन्धव के मूलनिवासी सिन्धीजन द्वारा पूजे जाते झूलेलाल उनके अवतार माने जाते हैं. झूलेलाल की सवारी मछली है और समुद्र के स्वामित्व को बताने वाला उनका एक नाम दरयाशाह भी है.

अब जब असुर वरुणदेव के नितांत अपने समुद्र का मंथन हो रहा हो तब वहां उनका एक प्रमुख स्थान होना वाजिब है और उनके अपने राष्ट्र के रत्न वारुणी में उनकी या उनके लोगों की क्या विशेष रूचि हो सकती है लिहाजा वह रत्न विपक्ष के पास गया.

भले ही आजकल हम असुर शब्द का प्रयोग किसी को गाली देने के लिए करते हों विद्वानों के अनुसार वरुण, मित्र आदि भारतीय मुनियों द्वारा पूजित बहुत से असुरों में से एक हैं और असुर शब्द में अनादर का भाव नहीं है. भारतीय ग्रंथों में मयासुर को इंद्र के वास्तुशिल्पी से भी महान बताया गया है. दूसरे अनेकों असुरों को महादेव द्वारा वरदान दिए जाने की कथाएं जहां तहां मिलती हैं. असुरराज प्रहलाद की वंशरक्षा के लिए भगवान् विष्णु स्वयं प्रतिबद्ध थे. केरल का विशु महोत्सव असुरराज बाली के पाताल लोक से वापस आने के सम्मान में ही मनाया जाता है. मैसूर राज्य का नाम ही महिषासुर के नाम पर है. भगवान् परशुराम के पूर्वज ऋषि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य जैसे महारथी असुरों के गुरु यूं ही तो नहीं बन गए थे. यहाँ यह ध्यान आ गया कि शुक्राचार्य की माँ उषा (उष्णा) असुर राजकुमार प्रह्लाद की बहन थीं.

फिर भी आसुरी तंत्र और देवी तंत्र में कई बड़े अंतर हैं. आज के लिए सिर्फ दो कथाएं:

१. एक देवासुर संग्राम में बहुत सी जानें जाने के बाद भी जब कोई निर्णय नहीं हो सका तो विष्णु जी ने प्रस्ताव रखा कि युद्ध को अनंत काल तक चलाने के बजाय दोनों पक्षों से कुछ लोगों का एक छोटा सा दल लेकर उनमें प्रतियोगिता करा ली जाए. जो जीते विजय उसी की. दोनों तैयार. प्रतियोगिता थी लड्डुओं के थाल में से जल्दी-जल्दी खाकर पहले ख़त्म करने की. देवता तो ऐसी बेतुकी असंतुलित प्रतियोगिता के बारे में सुनकर ही चौंक गए. दोनों दलों को लड्डू के साथ एक-एक कमरे में बंद कर दिया गया, नियम था कि खाते समय कोहनी नहीं मोडनी है. महा पराक्रमी असुर सोचते ही रह गए जबकि देवता क्षण भर में लड्डू के थाल ख़त्म करके बाहर आ गए और विजयी हुए. कोहनी मोड़े बिना दूसरों को देना उनका नैसर्गिक गुण जो ठहरा. देव शब्द का एक अर्थ दाता ही होता है.

२. देवासुर दोनों ब्रह्मा के पास ज्ञान लेने गए और ब्रह्मा ने सिर्फ एक अक्षर कहा "द." दोनों ही प्रसन्नमन वापस आ गए. देवों ने जान लिया था कि उन्हें दमन (इन्द्रिय दमन = इंद्र की ज़रुरत इसीलिये थी) करना है जबकि असुरों ने अपने अन्दर दया की कमी को पहचाना.

ट्रान्सलिट्रेशन में संस्कृत टाइप करने में बहुत मुश्किल हो रही है, इसलिए न चाहते हुए भी यहाँ विश्राम लेता हूँ. जाने से पहले आज का सवाल - ऋग्वेद में एक देव को एक ही साथ असुर और देव दोनों ही श्रेणियों में रखा गया है - देखते हैं कि इस देव का नाम कौन बताता है.

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असुर शब्द का अर्थ - देवासुर संग्राम २



असुराः तेन दैतेयाः सुराः तेन अदितेः सुताः।
हृष्टाः प्रमुदिताः च आसन् वारुणी ग्रहणात् सुराः॥

ऐसा पढने में आया कि समुद्र मंथन में पहली बार उत्पन्न हुई सुरा को स्वीकार करने के कारण देवता सुर कहलाये. आइये इस कथन पर एक बार पुनर्विचार करें. सुरा के जन्म (समुद्र मंथन) के समय सुर (देवता) पहले से स्थापित थे. इसलिए यह मानना कि सद्यजन्मा सुरा - जिसका पहले नाम ही नहीं था - उसे स्वीकार करने की वजह से देवताओं और असुरों की दोनों जातियों का ही नया नामकरण हो गया, कुछ जमता नहीं. वैसे भी उस समुद्र मंथन में एक नहीं चौदह रत्न निकले थे जिनमें से अधिकाँश सुरा से अधिक दुर्लभ और बहुमूल्य बल्कि अद्वितीय थे. उनके नाम पर कोई नामकरण क्यों नहीं हुआ?

इससे भी बड़ी बात यह है कि पहले संग्राम और बाद में समुद्र मंथन देवासुर के बीच ही हुआ था. मतलब कम से कम असुर शब्द पहले से मौजूद था. फिर सुर शब्द के असुर से व्युत्पन्न होने की संभावना है न कि सुरा से. यहाँ मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि सुर सुरापान करते थे या नहीं. मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि उनका नाम समुद्र मंथन से पहले से ही सुर था. कम से कम असुर शब्द तो पहले ही से प्रचलन में था. सुर और असुर दोनों ही शब्द ऋग्वेद में बहुत शुरू में ही प्रयुक्त हुए हैं और प्राचीन हैं.

एक नज़र देखने पर ऐसा लग सकता है जैसे सुर से असुर की व्यत्पत्ति हुई हो जबकि तथ्य इसके उलट है. असुर शब्द प्राचीन है. बाद में अ-असुरों को सुर शब्द से नवाज़ा गया था. सुर वे हैं जो असुर नहीं हैं या अब असुर नहीं रहे. आम तौर पर यह शब्द देवताओं के लिए प्रयुक्त होता है और असुर दानवों के लिए परन्तु जहां आदित्य, दानव, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर आदि शब्द जातिसूचक (tribe/race/region) हैं वहीं सुर, असुर, देव और ऋषि शब्द उपाधियों जैसे हैं. इसीलिये कुछ असुर भी देवता हैं और कुछ मानव भी. ठीक उसी तरह जैसे ऋषि ब्राह्मण भी हैं राजा भी हैं और नारद जैसे देवता भी.

ऊपर के श्लोक का अर्थ केवल इतना ही है कि वारुणि को सुरों ने ग्रहण किया।

असुर शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है असु+र. यहाँ असु का अर्थ है द्रव शक्ति या शक्ति का रस. आसव, आसवन आदि सभी इसी के सम्बंधित शब्द हैं. "र" का अर्थ है स्वामी. अर्थात असुर वे हैं जो या तो शक्तिरस के स्वामी हैं या फिर द्रव, तरल या जल की शक्ति के स्वामी हैं.

पारसी आर्यों में परमेश्वर का नाम अहुर माजदा (असुर ?) है जिसके तीनों प्रमुख सहायक असुर ही हैं. इन तीनों असुरों में मित्र का नाम इसलिए उल्लेखनीय है कि उनकी पूजा भारत और ईरान से बाहर भी विभिन्न क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से होती रही है इसके अनेकों प्रमाण उत्खनन से मिले हैं. मित्र का ज़िक्र वेदों में भी है. तो क्या कुछ वैदिक ऋषि एक असुर के पूजक थे या फिर पारसियों ने भाषा की किसी गलती या भेद से असुर को सुर कहना शुरू किया, या फिर यह दोनों दल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इनमें से कुछ सुरासुर दोनों ही हैं? या फिर सुर, सुरा और संयुक्त समुद्र-मंथन अभियान का मतलब उससे विपरीत है हमें आधुनिक प्रगतिशील विद्वान वर्ग द्वारा समझाया जाता रहा है?

आइये अगली कड़ी में मित्र से इतर एक अन्य प्राचीन असुर से मिलकर देखें कि असुर आखिर किस शक्ति के स्वामि हैं और इस बारे में संस्कृत ग्रन्थ क्या कहते हैं. अन्य देवताओं इंद्र आदि के विपरीत उनकी पूजा आज भी होती है, वे अभी भी एक भारतीय समुदाय के अधिष्ठाता देवता हैं और असुर की पिछली परिभाषा (असु+र) पर आज भी खरे उतारते हैं. मेरे लिए वह एक वैदिक आश्चर्य है और शायद इस कन्फ्यूज़न को सुलझाने का एक सूत्र भी. क्या आप बता सकते हैं कि मैं किस असुर की बात कर रहा हूँ?

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Wednesday, May 5, 2010

सीरिया की शराब - देवासुर संग्राम 1


इस साल की शुरूआत होते-होते डॉ. अरविन्द मिश्रा ने जब सुर असुर का झमेला शुरू किया तब हमें खबर नहीं थी कि हम भी इसके लपेटे में आ जायेंगे. लेकिन हम भी क्या करें, दूर देश के झमेलों में टंगड़ी उड़ाने की आदत अभी गयी नहीं है पूरी तरह से. उस पर तुर्रा ये कि डॉ. साहब ने एक पोस्ट और लिखी थी जिसका हिसाब करना बहुत ज़रूरी था. इस आलेख का शीर्षक था - असुर हैं वे जो सुरापान नहीं करते!

जब अपने ही खाने में कोई रूचि न हो तो दूसरे लोग क्या खा पी रहे हैं इसमें हमें क्या रूचि हो सकती है फिर भी सुरापान की बात से लगा कि इस विषय पर रोशनी तो पड़नी ही चाहिए वरना कई भाई लोग अँधेरे का दुरुपयोग कर लेंगे. सो भैया वार्ता शुरू करते हैं दूर देश से जिसका नाम है सुरस्थान. इस राष्ट्र को विभिन्न कालों में लोगों ने अपने-अपने जुबानी आलस के हिसाब से अलग-अलग नामों से पुकारा है. इतिहासकारों के हिसाब से सुरस्थान के उत्तर में उनका पड़ोसी राष्ट्र था असुरस्थान. कभी यह द्विग्म सुरिस्तान-असुरिस्तान कहलाया तो कभी सीरिया-असीरिया. असीरिया के निवासी असीरियन, असुर या अशुर हुए और सुरिस्तान के निवासी विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुए. जिनमें एक नाम सूरी भी था जिसका मिस्री भाषा में एक रूप हूरी भी हुआ. संस्कृत/असंस्कृत का स और ह का आपस में बदल जाना तो आपको याद ही होगा. तो हमारा अंदाज़ ऐसा है कि अरबी परम्पराओं की हूर का सम्बन्ध इंद्रलोक की अप्सराओं से है ज़रूर.

यह दोनों ही क्षेत्र प्राचीनतम मानव सभ्यताओं की जन्मस्थली कहे जाने वाले मेसोपोटामिया के निकट ही हैं. वही मेसोपोटामिया जहां कभी सुमेरियन सभ्यता खाई खेली. बल्कि फारसी भाषा के सुरिस्तान-असुरिस्तान तो ठीक वहीं हैं. क्या देवासुर संयुक्त समुद्र मंथन अभियान में सुमेरु पर्वत का प्रयुक्त होना कुछ अर्थ रखता है? अभी तो पता नहीं मगर आगे देखेंगे हम लोग. वैसे यवन लोग सुमेरु और असीरिया लगभग एक ही स्थान को कहते थे. सत्य जो भी हो परन्तु इन सभी स्थानों की भौगोलिक स्थितियों में काफी ओवरलैप तो है ही. हिब्रू भाषा में असुरिस्तान को अस्सुर और पहलवी में अथुर कहा गया है. बाद में अरबी में सीरिया को अल-शाम और असीरिया को अल-जज़ीरा कहा गया.

इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर ऐतिहासिक खनन और खोजें हुई हैं जिनकी जानकारी इंटरनेट पर सर्वत्र उपलब्ध है. उदाहरण के लिए ढाई हज़ार साल पहले के असीरियन राजा असुर बनिपाल के बारे में जानकारी यहाँ विकिपीडिया पर है.

हम संस्कृत को देवभाषा कहते हैं. क्या होता अगर इसे सुरवाणी कहते? क्या सुरवाणी शब्द का तद्भव सुरयानी हो सकता है? अगर हो सकता है तो ध्यान रखिये कि असीरिया की भाषा को अरबी में सुरयानी कहते हैं. एक संभावना यह भी है कि निरंतर चलते देवासुर संग्राम के कारण इनकी सीमाएं गड्डमड्ड होती रही हों. यह तो था भारत से बाहर एक भौगोलिक दर्शन. अगले अंक में देखेंगे एक वैदिक आश्चर्य! तब तक के लिए आपकी ज्ञानपूर्ण टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा.

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