हिन्दी की एक कहावत है "हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या?" छोटा था तो मुझे यह कहावत सुनकर बड़ा अजीब सा लगता था कि आजकल हम हिन्दी वाले जिस तरह अंग्रेजी के पीछे न्योछावर हुए जाते हैं उसी तरह सौ-डेढ़ सौ बरस पहले तक फारसी को पूजते थे। आख़िर अपनी भाषा के आगे विदेशी भाषा को इतना महत्व क्यों? मेरे सवाल का जवाब दिया मेरे बाबा (पितामह) ने।
बाबा एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे। अपने जीवांकाल में उन्होंने बहुत से काम किए थे। वे अध्यापक थे, सैनिक थे, ज्योतिषी भी थे। द्वितीय विश्व युद्ध में लड़े थे। हिन्दी-अङ्ग्रेज़ी भी जानते थे और संस्कृत-फारसी भी। बाबा ने जो बताया वह मेरे जैसे छोटे (तब) बच्चे को भी आसानी से समझ में आ गया और आज तक याद भी रहा। उनके अनुसार, संस्कृत की बहुत सी बेटियाँ हुईं जिनमें से फारसी एक है। उन्होंने कुछ आसान से सूत्र भी बताये जिनसे पता लगता है कि फारसी के बिल्कुल अजनबी से लगने वाले शब्द भी दरअसल हमारे आम हिन्दी शब्दों का प्रतिरूप ही हैं। चूंकि भाषा या शब्दों में यह परिवर्तन पूर्वनियोजित नहीं था इसलिए इसके नियम भी बिल्कुल कड़े न होकर लचीले हैं। मगर थोड़े विवेक से काम लेने पर हमारा काम आसान हो जायेगा। आईये, कुछ सरल सिद्धांत देखें:
१) संस्कृत का स -> फारसी का ह
२) संस्कृत का ह -> फारसी का ज़/ज/द
३) संस्कृत का व -> फारसी का ब
४) संस्कृत का श -> फारसी का स
इसके अलावा शब्दों में ह की ध्वनि इधर से उधर हो जाती है। आईये देखें कुछ शब्द इन सिद्धांतों की रौशनी में:
सप्ताह -> हफ्ता - स का ह और अन्तिम ह त के पहले आ गया (प+ह=फ)
इसी प्रकार:
बाहु -> बाज़ू
जिव्हा -> जीभ
हस्त -> दस्त
शक्ति -> सख्ती
ये तो थे कुछ आसान शब्द। अब एक ऐसा शब्द लेते हैं जिसकी समानता आसानी से नहीं दिखती। यह है १००० यानी सहस्र (=स+ह+स+र)। ह को ज़ और दोनों स को ह कर दें तो बन जाता है हज्हर या हज़ार.
आज की फारसी तो बहुत बदल गयी है, यदि अवेस्ता की ईरानी भाषा को लें तो उपरोक्त कुछ सूत्रों के इस्तेमाल भर से अधिकाँश शब्दों को आराम से समझा जा सकता है। चलिए देखते हैं आप एक दिन में ऐसे कितने शब्द ढूंढ कर ला सकते हैं।
बाबा एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे। अपने जीवांकाल में उन्होंने बहुत से काम किए थे। वे अध्यापक थे, सैनिक थे, ज्योतिषी भी थे। द्वितीय विश्व युद्ध में लड़े थे। हिन्दी-अङ्ग्रेज़ी भी जानते थे और संस्कृत-फारसी भी। बाबा ने जो बताया वह मेरे जैसे छोटे (तब) बच्चे को भी आसानी से समझ में आ गया और आज तक याद भी रहा। उनके अनुसार, संस्कृत की बहुत सी बेटियाँ हुईं जिनमें से फारसी एक है। उन्होंने कुछ आसान से सूत्र भी बताये जिनसे पता लगता है कि फारसी के बिल्कुल अजनबी से लगने वाले शब्द भी दरअसल हमारे आम हिन्दी शब्दों का प्रतिरूप ही हैं। चूंकि भाषा या शब्दों में यह परिवर्तन पूर्वनियोजित नहीं था इसलिए इसके नियम भी बिल्कुल कड़े न होकर लचीले हैं। मगर थोड़े विवेक से काम लेने पर हमारा काम आसान हो जायेगा। आईये, कुछ सरल सिद्धांत देखें:
१) संस्कृत का स -> फारसी का ह
२) संस्कृत का ह -> फारसी का ज़/ज/द
३) संस्कृत का व -> फारसी का ब
४) संस्कृत का श -> फारसी का स
इसके अलावा शब्दों में ह की ध्वनि इधर से उधर हो जाती है। आईये देखें कुछ शब्द इन सिद्धांतों की रौशनी में:
सप्ताह -> हफ्ता - स का ह और अन्तिम ह त के पहले आ गया (प+ह=फ)
इसी प्रकार:
बाहु -> बाज़ू
जिव्हा -> जीभ
हस्त -> दस्त
शक्ति -> सख्ती
ये तो थे कुछ आसान शब्द। अब एक ऐसा शब्द लेते हैं जिसकी समानता आसानी से नहीं दिखती। यह है १००० यानी सहस्र (=स+ह+स+र)। ह को ज़ और दोनों स को ह कर दें तो बन जाता है हज्हर या हज़ार.
आज की फारसी तो बहुत बदल गयी है, यदि अवेस्ता की ईरानी भाषा को लें तो उपरोक्त कुछ सूत्रों के इस्तेमाल भर से अधिकाँश शब्दों को आराम से समझा जा सकता है। चलिए देखते हैं आप एक दिन में ऐसे कितने शब्द ढूंढ कर ला सकते हैं।
बहुत अच्छी जानकारी..... हार्दिक आभार......
ReplyDeleteबेटी कहना प्रामाणिक नहीं है.. बहने कहना उचित है..
ReplyDeleteरोचक और बढ़िया जानकारी के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteबहुत अच्छे! क्या शोध किया है! बेटी कहो या बहन क्या फ़र्क पड़ता है, अपनी भाषा का महत्व बना रहे यही सभी के लिए उचित है!
ReplyDeleteधन्यवाद एक अच्छी जान कारी के लिये
ReplyDeletebahut acchhii jaankari...pata na thaa...aabhaar
ReplyDeleteरोचक और बढ़िया जानकारी.
ReplyDeleteइस जानकारीपरक लेख के लिए आभार।
ReplyDeleteअभय तिवारी जी के सुझाव से हम भी सहमत हैं। इतिहासकारों की मान्यता के अनुसार आर्य पहले मध्य एशिया में रहते थे और वहीं से कुछ लोग भारत की ओर चले आये, कुछ योरोप चले गये, कुछ वहीं पर रह गये। यही कारण है कि संस्कृत, फारसी, लैटिन, ग्रीक आदि भाषाओं में अनेक शब्द एक जैसे मिलेंगे। उदाहरण के तौर पर संस्कृत के 'पितृ' शब्द के समरूप उक्त सभी भाषाओं में मौजूद हैं। चूंकि उक्त सारी भाषाओं का विकास समानांतर रूप से हुआ, इसलिए उन्हें बहनें कहना ही उचित जान पड़ता है।
बुद्धिमानों में यही गड़बड़ है - बहन/बेटी जैसे शब्दों के माध्यम से मीन मेख निकालते रहते हैं। क्या फर्क पड़ता है कि फारसी संस्कृत के समकक्ष हो या बाद की। संस्कृत के प्रति सम्मान मन में बहुत है और उसके शब्द ग्रीट-लेटिन में भी मिलेंगे।
ReplyDeleteफारसी को बरबरी पर ठेलने की क्या जरूरत थी। उसका अनादर तो आपके लेख में था नहीं! और प्रमाणिकता का क्या; सेकुलर कहलाने को लोग यह भी कहते हैं कि हमारे पुरखे गाय खाते थे!
लेख अच्छा है।
jankaari dene ke liye shukeriya...
ReplyDeleteachha likha hai
अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteकुछ लोगों के मत मतान्तर से हकीकत तो
ReplyDeleteआप नही ही बदल सकते ! साधारण सी बात
है जब बेटी बड़ी हो जाती है तो बहन जैसी
ही दिखने भी लग जाती है और उसके हाव
भाव व्यवहार भी मां के प्रति वैसे ही हो जाते
हैं पर क्या इससे इनकार जिया जा सकता
है की ये बेटी नही है ? भाई आप और हम
चाहे जितना जोर लगाले ये सिद्ध करने में
की ये बेटी नही है ! पर मेरे हिस्साब से तो
बेटी तो बेटी ही रहेगी !
इस जानकारीपरक लेख के लिए आभार।
ReplyDeletebahut dino baad aaoke blog ko padha... aap hamesha hame jaankariyon se bhar dete hain...
ReplyDeleteab logo ko dekhiye.. jaankari chhod kar is vivad me pad gaye ki kaun bada... sanskrit ya farasi....
khair hum to apni jankari badhaye. :)
जी हाँ ,फ़ारस को ईरान कहा जाता था ,जो आर्यन का बदला हुआ रूप है .यहाँ के शाह को भी आर्यमिहिर ,जिसकी ध्वनियाँ परिवर्तित हो गई ,की पदवी प्राप्त थी.
ReplyDeleteसंस्कृत की बहुत सी बेटियां हैं इधर पूर्व में सुमात्रा,जावा (यवद्वीप),बोर्नियो ,कंबोडिया आदि.और उधर पश्चिम ,में दूर दूर तक अपनी पहचान दे रही हैं.
बहुत रोचक और सुंदर
ReplyDeleteचार साल बाद ही सही आज लिंक मिला तो पढ़ तो लिया ना...
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख। धन्यवाद।