कुछ वर्ष पहले तक जिस अपार्टमेन्ट में रहता था उसके बाहर ही हमारे पाकिस्तानी मित्र सादिक़ भाई का जनरल स्टोर है। आते जाते उनसे दुआ सलाम होती रहती थी। सादिक़ भाई मुझे बहुत इज्ज़त देते हैं - कुछ तो उम्र में मुझसे छोटे होने की वजह से और कुछ मेरे भारतीय होने की वजह से। पहले तो वे हमेशा ही बोलते थे कि हिन्दुस्तानी बहुत ही स्मार्ट होते हैं। फिर जब मैंने याद दिलाया कि हमारा उनका खून भी एक है और विरासत भी तब से वह कहने लगे कि पाकिस्तानी अपनी असली विरासत से कट से गए हैं इसलिये पिछड़ गए।
धीरे-धीरे हम लोगों की जान-पहचान बढ़ी, घर आना-जाना शुरू हुआ। पहली बार जब उन्हें खाने पर घर बुलाया तो खाने में केवल शाकाहार देखकर उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ फ़िर बाद में बात उनकी समझ में आ गयी। इसलिए जब उन्होंने हमें बुलाया तो विशेष प्रयत्न कर के साग-भाजी और दाल-चावल ही बनाया।
एक दिन दफ्तर के लिए घर से निकलते समय जब वे दुकान के बाहर खड़े दिखाई दिए तो उनके साथ एक साहब और भी थे। सादिक़ भाई ने परिचय कराया तो पता लगा कि वे डॉक्टर अनीस हैं। डॉक्टर साहब तो बहुत ही दिलचस्प आदमी निकले। वे मुहम्मद रफी, मन्ना डे, एवं लता मंगेशकर आदि सभी बड़े-बड़े भारतीय कलाकारों के मुरीद थे और उनके पास रोचक किस्सों का अम्बार था। वे अमेरिका में नए आए थे। उन्हें मेरे दफ्तर की तरफ़ ही जाना था और सादिक़ भाई ने उन्हें सकुशल पहुँचाने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी।
खैर, साहब हम चल पड़े। कुछ ही मिनट में डॉक्टर साहब हमारे किसी अन्तरंग मित्र जैसे हो गए। उन्होंने हमें डिनर के लिए भी न्योत दिया। वे बताने लगे कि उनकी बेगम को खाना बनाने का बहुत शौक है और वे हमारे लिए, कीमा, मुर्ग-मुसल्लम, गोश्त-साग आदि बनाकर रखेंगी। मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें बताया कि मैं वह सब नहीं खा सकता। तो छूटते ही बोले, "क्यों, आपमें क्या किसी बाम्भन की रूह आ गयी है जो मांस खाना छोड़ दिया?"
उनकी बात सुनकर मैं हँसे बिना नहीं रह सका। उन्होंने बताया कि उनके पाकिस्तान में जब कोई बच्चा मांस खाने से बचता है तो उसे मजाक में बाम्भन की रूह का सताया हुआ कहते हैं। जब मैंने उन्हें बताया कि मुझमें तो बाम्भन की रूह (ब्राह्मण की आत्मा) हमेशा ही रहती है तो वे कुछ चौंके। जब उन्हें पता लगा कि न सिर्फ़ इस धरती पर ब्राह्मण सचमुच में होते हैं बल्कि वे एक ब्राह्मण से साक्षात् बात कर रहे हैं तो पहले तो वे कुछ झेंपे पर बाद में उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा।
धीरे-धीरे हम लोगों की जान-पहचान बढ़ी, घर आना-जाना शुरू हुआ। पहली बार जब उन्हें खाने पर घर बुलाया तो खाने में केवल शाकाहार देखकर उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ फ़िर बाद में बात उनकी समझ में आ गयी। इसलिए जब उन्होंने हमें बुलाया तो विशेष प्रयत्न कर के साग-भाजी और दाल-चावल ही बनाया।
एक दिन दफ्तर के लिए घर से निकलते समय जब वे दुकान के बाहर खड़े दिखाई दिए तो उनके साथ एक साहब और भी थे। सादिक़ भाई ने परिचय कराया तो पता लगा कि वे डॉक्टर अनीस हैं। डॉक्टर साहब तो बहुत ही दिलचस्प आदमी निकले। वे मुहम्मद रफी, मन्ना डे, एवं लता मंगेशकर आदि सभी बड़े-बड़े भारतीय कलाकारों के मुरीद थे और उनके पास रोचक किस्सों का अम्बार था। वे अमेरिका में नए आए थे। उन्हें मेरे दफ्तर की तरफ़ ही जाना था और सादिक़ भाई ने उन्हें सकुशल पहुँचाने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी।
खैर, साहब हम चल पड़े। कुछ ही मिनट में डॉक्टर साहब हमारे किसी अन्तरंग मित्र जैसे हो गए। उन्होंने हमें डिनर के लिए भी न्योत दिया। वे बताने लगे कि उनकी बेगम को खाना बनाने का बहुत शौक है और वे हमारे लिए, कीमा, मुर्ग-मुसल्लम, गोश्त-साग आदि बनाकर रखेंगी। मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें बताया कि मैं वह सब नहीं खा सकता। तो छूटते ही बोले, "क्यों, आपमें क्या किसी बाम्भन की रूह आ गयी है जो मांस खाना छोड़ दिया?"
उनकी बात सुनकर मैं हँसे बिना नहीं रह सका। उन्होंने बताया कि उनके पाकिस्तान में जब कोई बच्चा मांस खाने से बचता है तो उसे मजाक में बाम्भन की रूह का सताया हुआ कहते हैं। जब मैंने उन्हें बताया कि मुझमें तो बाम्भन की रूह (ब्राह्मण की आत्मा) हमेशा ही रहती है तो वे कुछ चौंके। जब उन्हें पता लगा कि न सिर्फ़ इस धरती पर ब्राह्मण सचमुच में होते हैं बल्कि वे एक ब्राह्मण से साक्षात् बात कर रहे हैं तो पहले तो वे कुछ झेंपे पर बाद में उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा।
बंधु इंडियन सदा, से होते हैं स्मार्ट
ReplyDeleteविप्रों को आते सभी,दुनिया भर के आर्ट
दुनिया भर के आर्ट,तुम्हारी जय हो भाई
मत खाओ तुम मुर्ग,पियो मत फल की जाई
दोस्त, आपसे परिचित होना अच्छा लग रहा है। उम्मीद है संवाद होता रहेगा। विदेश में रहकर भी भारतीयता से आपका गहरा नाता बना हुआ है। आप जैसे लोगों पर हमें गर्व रहता है।
ReplyDeleteवाह अनुराग भाई कमाल कर दिया आपने ,"बाह्मन की रूह" भी होती है आज पहली बार सुना.बहुत ही लाजवाब पोस्ट है .
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है।ऐसी सोच वालें बहुत से लोग मिल जाएगें।क्यूँकि बहुत से लोग ऐसे हैं जो दूसरों के बारे में बिल्कुल जानकारी नही रखते।विदेश में रहते हुए अपने धर्म का पालन कर रहे हैं।जान कर अच्छा लगा।
ReplyDeleteप्रिय मित्र पित्स्बर्गिया ,
ReplyDeleteआप इतना सुंदर लेखन करते हैं की मुझे बड़ी
जलन होती है ! आप घटना को जैसे जीवंत
बना देते हैं ! आप जैसे माँ सरस्वती का
आशीर्वाद साथ लाए हैं ! इतनी कृपा हम पर
होती तो हम ताऊ थोड़ी रहते !
मित्र अब भी आप वहा ब्राह्मण धर्म (शाकाहार)
का पालन कर रहे हैं ! यह जान कर बहुत खुशी
हो रही है !
ताऊ नै थमनै मित्र बणाके कोई गलती ना करी सै !
बहुत बहुत शुभकामनाएं !
सही
ReplyDeleteलिखा है
badhiya lekh...aaj ki duniya me aatma such me kewal brahmano ke pass hi bachi hai!!!!
ReplyDeleteभई वाह । यह तो हम देखे ही नहीं थे जी..
ReplyDeletewww.srijangatha.com
अच्छा लगा
ReplyDeleteबहुत उम्दा लेखन कर रहे हैं. नियमित लिखिये. शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteसाहब आपने जैसे ब्राह्मण की रूह की बात की है !
ReplyDeleteऔर इसके पहले की पोस्ट में बाबाजी का भूत में
इसका जिक्र किया है ! मैं आपसे बताना चाहूँगा
की मेरे पास भी एक ब्रह्म-राक्षस की जानकारी है !
और ये वाकई मौजूद है ! किसी सज्जन को इसमे
रूचि हो तो मैं इससे भेंट करवा सकता हूँ !
बाभन के रूह की बात अच्छी सुनाई आप ने !
ReplyDeleteआप का लेख सच मे बहुत ही सुन्दर लगा, कही कही लगा आप हमारी कहानी ही बता रहे हे,हम ब्राह्मण तो नही लेकिन शाका हारी जरुर हु,ओर जर्मन लोग हमे घास खाने वाला कहते हे, लेकिन जब वो हमारा खाना खाते हे तो हेरान हो जाते हे, मेरे भी एक दो दोस्त पकिस्तान से हे,लेकिन हमे कभी महसुस नही हुया वो वेगाने हे,
ReplyDeleteधन्यवाद.
'इख़्तिलाफ़ात भी मिट जाएंगे रफ़्ता-रफ़्ता;
ReplyDeleteजिस तरह होगा,निभा लेंगे तुम आओ तो सही।'
पुरखों की भूलों के सुधार की शुरुआत ऐसे ही तो होगी। बहुत ख़ूब।
भौगोलिक सांस्कृतिक फ़र्क ढूढना तो उचित नहीं है पर विश्व मानचित्र पर उकेरी गई राजनैतिक रेखाओं ने दुनिया की हालत खराब कर दी है !
ReplyDeleteअब अपने अपने कम्बल और अपना अपना पागलपन !
जंगली से सुसंस्कृत बनी शाकाहारी भोजन शैली आज कहीं जगह अतीत की विस्मृत शैली मानी जा रही है। बहुत कुछ कहता संस्मरण है। मात्र कुछ वर्षों में ही वहां से संस्कृति गायब है।
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद या कहिये सालो बाद आपकी यह पोस्ट पढ़ी ।इस पर एक बहुत पुराणी बात यद् आ गई ।मेरी कालेज में एक सिक्ख सहेली थी हम लोगो का कालेज के अंतिम वर्ष में फेयरवेलपार्टी का आयोजन था ।हमें तो साल भर साड़ी ही पहननी ही होती थी किन्तु उस दिन सभी लडकियों को साड़ी पहनना तय किया था।, मै उसके घर गई तैयार होकर वह सलवा र कमीज मे तैयार बैठी थी मैंने उससे पुछा ?अरे तुमने साड़ी और हमारे घर नहीं पहनी ?तब उनके पिताजी ने उत्तर दिया -इसे क्या बामनी (ब्राह्मणी )बनना है ।चलो चलो जाओ कालेज शालेज ।और हमारे घर में सलवार कमीज पहनने प् प्रतिबन्ध यह कहकर की ये तो मुसलमानी ड्रेस है ।
ReplyDeleteBAHUT SUNDER.........
ReplyDeleteकितनी अजीब बात है न....
ReplyDeleteअब तो हिंदुस्तान में भी ब्राह्मण की रूह ढूँढ़नी पड़ती है.