हिन्दी ब्लॉगजगत में कोई न कोई बहस न चल रही हो ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं। उसी महान परम्परा का पालन करते हुए आजकल जगह-जगह पर पशु-हत्या सार्थक करने सम्बन्धी अभियान छिडा हुआ दिखता है। मांसाहार कोई आधुनिक आचरण नहीं है। एक ज़माना था कि आदमी आदमी को खाता था, फिर उसने समझा कि आदमखोरी से उसकी अपनी जान का खतरा बढ जाता है सो आदमखोर कबीलों ने भी अपने स्वयम के कबीले वालों को खाना बन्द कर दिया। जब आदमखोरी को समाप्त करने के प्रयास शुरू हुए होंगे तब ज़रूर बहुत से कापुरुषों ने इसे कबीले की परम्परा बताते हुए जारी रखने की मांग की होगी मगर "असतो मा सद्गमय..." के शाश्वत सिद्धांत पर चलती हुई मानव सभ्यता धीरे धीरे अपने में सुधार लाती रही है सो आदमखोरी को समाज से बहिष्कृत होना ही था। कुछ लोगों ने पालतू कुत्ते को परिवार का सदस्य मानकर उसे खाना छोडा और किसी ने दूध-घी प्रदान करने वाले गोवंश को मातृ समान मानकर आदर देना आरम्भ किया।
हातिमताई ने मेहमान के भोजन के लिये अपना घोडा ही मारकर पका दिया जबकि अमेरिका में काउबॉय्ज़ के लिये घोडा मारना परिवार के सदस्य को मारने जैसा ही है। चीन में सांप खाना आम है परंतु अधिकांश जापानी सांप खाने को जंगलीपन मानते हैं। गरज यह कि सबने अपनी-अपनी सुविधानुसार व्याख्यायें की हैं। कोई कहता है कि सब शाकाहारी हो जायेंगे तो अनाज कहाँ बचेगा जबकि अध्ययन बताते हैं कि एक किलो मांस के उत्पादन के लिये लगभग 20 किलो अनाज की आवश्यकता होती है तो अगर लोग मांसाहार छोड दें तो अनाज की बहुतायत हो जायेगी। कोई कहता है कि उसके पुरखे तो पशु-हत्या करते ही थे। उसके पुरखे शायद सर्दी-गर्मी में नंगे भी घूमते थे, क्या आज वह व्यक्ति सपरिवार नंगा घूमता है? कोई कहता है कि जीव-भक्षण प्राकृतिक है परंतु एक यूरोपीय विद्वान के अनुसार जीव-भक्षण तभी प्राकृतिक हो सकता है जब चाकू आदि यंत्रों और अग्नि आदि पाक-क्रियाओं के बिना उसे हैवानी तरीके से ही खाया जाये। मतलब यह कि ऐसे बहुत से तर्क-कुतर्क तो चलते रहते हैं।
कुछ लोगों के लिये भोजन जीवन की एक आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं रखता है परंतु कुछ लोगों के लिये यह भी अति-सम्वेदनशील विषय है। हाँ इतना ज़रूर है कि सभ्य समाज में हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं। मैने अपने छोटे से जीवनकाल में सिख-बौद्ध-हिन्दू-जैन समुदाय के बाहर भी कितने ही शाकाहारी ईसाई, पारसी और मुसलमान देखे हैं जो जानते बूझते किसी प्राणी को दुख नहीं देना चाहते हैं, स्वाद के लिये हत्या का तो सवाल ही नहीं उठता। नीचे कुछ पुराने लेखों के लिंक हैं जिनमें शाकाहार से सम्बन्धित कुछ प्राचीन भारतीय सन्दर्भ और आधुनिक पश्चिमी अध्ययनों का समन्वय है यदि जिज्ञासुओं को कुछ लाभ हो तो मुझे प्रसन्नता होगी।
* बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स
* ब्रिटिश जेल का प्रयोग
* बाजी शाकाहारी, बेल्जियम ने मारी
* अहिसा परमो धर्मः
* शाकाहार प्राकृतिक नहीं
* शाकाहार - कुछ तर्क कुतर्क
* शस्य या मांस
* शाकाहार और हत्या
* शाकाहार - देव लक्षण
* आप कितने बुद्धिमान हैं? (निरामिष)
* विदेश में शाकाहार की प्रगति (निरामिष)
* मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ? (निरामिष)
* चैम्पियन शतायु धावक फ़ौजा सिंह (निरामिष)
* भारतीय संस्कृति में मांस भक्षण? (निरामिष)
* विटामिन डी - सूर्य नमस्कार से पोषण (निरामिष)
* रक्त निर्माण के लिये आवश्यक है विटामिन बी12 (निरामिष)
* कॉलेस्टरॉल किस चिड़िया का नाम है? (निरामिष)
हातिमताई ने मेहमान के भोजन के लिये अपना घोडा ही मारकर पका दिया जबकि अमेरिका में काउबॉय्ज़ के लिये घोडा मारना परिवार के सदस्य को मारने जैसा ही है। चीन में सांप खाना आम है परंतु अधिकांश जापानी सांप खाने को जंगलीपन मानते हैं। गरज यह कि सबने अपनी-अपनी सुविधानुसार व्याख्यायें की हैं। कोई कहता है कि सब शाकाहारी हो जायेंगे तो अनाज कहाँ बचेगा जबकि अध्ययन बताते हैं कि एक किलो मांस के उत्पादन के लिये लगभग 20 किलो अनाज की आवश्यकता होती है तो अगर लोग मांसाहार छोड दें तो अनाज की बहुतायत हो जायेगी। कोई कहता है कि उसके पुरखे तो पशु-हत्या करते ही थे। उसके पुरखे शायद सर्दी-गर्मी में नंगे भी घूमते थे, क्या आज वह व्यक्ति सपरिवार नंगा घूमता है? कोई कहता है कि जीव-भक्षण प्राकृतिक है परंतु एक यूरोपीय विद्वान के अनुसार जीव-भक्षण तभी प्राकृतिक हो सकता है जब चाकू आदि यंत्रों और अग्नि आदि पाक-क्रियाओं के बिना उसे हैवानी तरीके से ही खाया जाये। मतलब यह कि ऐसे बहुत से तर्क-कुतर्क तो चलते रहते हैं।
कुछ लोगों के लिये भोजन जीवन की एक आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं रखता है परंतु कुछ लोगों के लिये यह भी अति-सम्वेदनशील विषय है। हाँ इतना ज़रूर है कि सभ्य समाज में हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं। मैने अपने छोटे से जीवनकाल में सिख-बौद्ध-हिन्दू-जैन समुदाय के बाहर भी कितने ही शाकाहारी ईसाई, पारसी और मुसलमान देखे हैं जो जानते बूझते किसी प्राणी को दुख नहीं देना चाहते हैं, स्वाद के लिये हत्या का तो सवाल ही नहीं उठता। नीचे कुछ पुराने लेखों के लिंक हैं जिनमें शाकाहार से सम्बन्धित कुछ प्राचीन भारतीय सन्दर्भ और आधुनिक पश्चिमी अध्ययनों का समन्वय है यदि जिज्ञासुओं को कुछ लाभ हो तो मुझे प्रसन्नता होगी।
* बुद्धिमता के साइड अफेक्ट्स
* ब्रिटिश जेल का प्रयोग
* बाजी शाकाहारी, बेल्जियम ने मारी
* अहिसा परमो धर्मः
* शाकाहार प्राकृतिक नहीं
* शाकाहार - कुछ तर्क कुतर्क
* शस्य या मांस
* शाकाहार और हत्या
* शाकाहार - देव लक्षण
* आप कितने बुद्धिमान हैं? (निरामिष)
* विदेश में शाकाहार की प्रगति (निरामिष)
* मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ? (निरामिष)
* चैम्पियन शतायु धावक फ़ौजा सिंह (निरामिष)
* भारतीय संस्कृति में मांस भक्षण? (निरामिष)
* विटामिन डी - सूर्य नमस्कार से पोषण (निरामिष)
* रक्त निर्माण के लिये आवश्यक है विटामिन बी12 (निरामिष)
* कॉलेस्टरॉल किस चिड़िया का नाम है? (निरामिष)
भोजन शरीर साधने के अतिरिक्त कुछ नहीं तो किसी की हत्या क्यों?
ReplyDeleteमनुष्य जिस समय कृषि कार्य नहीं कर पाता था, उस समय तो उसे जिन्दा रहना ही था. और विषम परिस्थितियों में भी मांस खाकर जीवन यापन करना अलग बात है. लेकिन धर्म के नाम पर और केवल स्वाद हेतु जानवरों की हत्यायें गले नहीं उतरतीं. धर्म के नाम पर सामूहिक हत्याओं के विरुद्ध लिखने पर कैसे कैसे कुतर्क दिये जाते हैं..
ReplyDeleteपूर्व के आपके लेख भी अच्छी जानकारी से परिपूर्ण हैं..
कोई कहता है कि उसके पुरखे तो पशु-हत्या करते ही थे। उसके पुरखे शायद सर्दी-गर्मी में नंगे भी घूमते थे, क्या आज वह व्यक्ति सपरिवार नंगा घूमता है?......... kutark krney walon ko ek sahi jawab ho sakta hai ....
ReplyDeleteabhaar..
पी एस भाकुनिजी और प्रवीणजी की बातों से शब्दशः सहमत हूँ.....
ReplyDeleteआपने तो बडी मदद कर दी। मेरे कस्बे पर जैन समाज का प्रभाव है और उन्हें ऐसे आलेखों की आवश्यकता पडती रहती है। आपके दिए सन्दर्भ तो उनके लिए कुबेर-कोष का काम करेंगे।
ReplyDeleteसारे लेख पढ़ लिए हैं, अच्छे भी लगे हैं :)
ReplyDeleteअनुराग जी,
हिन्दू धर्मग्रंथो में मांसाहार का शायद वर्णन है किन्तु उसे कहीं भी महिमामंडित नहीं किया गया है| नरेन्द्र कोहली जी की लिखी गयी रामकथा 'अभ्युदय' का उल्लेख करना चाहूँगा, जिसमे उन्होंने पूरी रामकथा को आधुनिक और तर्कपूर्ण दृष्टि से देखने की कोशिश की है| विवेकानंद की जीवनी 'तोड़ो कारा तोड़ो' व 'न भूतो न भविष्यति' में भी कोहली जी ने भोजन से सम्बंधित कई बातों पर विवेकानंद का दृष्टिकोण स्पष्ट किया है| शाकाहार को सबसे उत्तम माना गया है, किन्तु हिन्दू धर्म पूरी तरह से शाकाहारी नहीं था| बौद्ध और जैन धर्म के प्रादुर्भाव होने पर ही हिन्दू धर्म में भी मांसाहार को घृणित माना जाने लगा|
वैसे समस्या यहाँ शाकाहार या मांसाहार की नहीं है| समस्या है, मांसाहार को गौरवान्वित करने की, समस्या है उसे उत्सव बनाने की, जो बंद होना चाहिए|
... shaakaahaar va maansaahaar ... gambheer mudde hain ... yah sambhav jaan nahee padtaa ki sab ek dishaa men daud lagaa len !!!
ReplyDeleteसबको एक लाठी से हांकने का प्रयास ही व्यर्थ है.. शाकाहरी है तो उसकी इच्छा.. और मासाहारी है तो उसकी.. और ये बहुत cultural है..
ReplyDeleteसवाल यह है कि जीने के लिए खाते हैं या खाने के लिए जीते है ...
ReplyDeleteबढ़िया आलेख !
आत्मा प्रसन्न हो गयी आपकी यह पोस्ट पढ़कर...
ReplyDeleteजितने संतुलित ढंग से आपने तथ्य को रखा है... और कुछ जोड़ने कहने की गुंजाइश नहीं..
आहार को व्यक्तिगत रूचि मानकर मैं इस बहस में कभी नहीं पड़ा और आज भी नहीं पडूंगा पर लिंक सारे पढ़ने वाला हूं !
ReplyDeleteआभार !
@उदय जी, रंजन जी,
ReplyDeleteसत्य वचन। विविधता, मानव समाज का अभिन्न अंग है। कोई लाख सर पटके, मनुष्य एक सांचे में नहीं ढाले जा सकते हैं।
@वैसे समस्या यहाँ शाकाहार या मांसाहार की नहीं है| समस्या है, मांसाहार को गौरवान्वित करने की, समस्या है उसे उत्सव बनाने की, जो बंद होना चाहिए|
ReplyDeleteसहमत हूँ।
@ अली जी,
ReplyDeleteआपकी भावनाओं का स्वागत है।
शास्त्रों में मांसाहार की मनाई की गई है यही बात यह सिद्ध करने के लिये प्रयाप्त है कि मांसाहार व्यवहार में था तभी तो उसे रोकने के लिये शास्त्रो और उपदेशो में प्रयोग हुआ।
ReplyDeleteबात यह भी नहिं कि पहले हिंदु धर्म में मांसाहार था और फ़िर बौध और जैन धर्मो के प्रभाव बंद हुआ।
मांसाहार का वैदिक धर्म से कोई सम्बंध न था। हां उसको मानने वाले न्युनाधिक करते होंगे व वर्णन भी प्राप्त होते होंगे पर वह उपदेश धर्म का नहिं था।
अनुराग जी,
ReplyDeleteआपने अति विषम तर्क वितर्क को विश्लेषित किया यह सराहनीय है। आभार!!
मैंने भी एक बार ये बात कही थी की अपने हिसाब से परिभाषाएं तय करनी होती है.और मैं चाहूं भी तो खुद मांसाहारी नहीं हो सकता. कई बार दूध और अन्य दूध उत्पाद छोड़ने का विचार जरूर आ जाता है. अपने यहाँ भी कई लोग अंडे को शाकाहार ही मानते हैं. और जहाँ तक पौराणिक सन्दर्भ देने की बात है तो करने वाले तो बुद्ध धर्म में भी जस्टिफाई कर लेते हैं. लेकिन मुझे किसी के मांसाहारी होने से कोई दिक्कत नहीं है. हाँ, हिंसा का महिमामंडन भी मैं जस्टिफाई नहीं कर पाऊंगा.
ReplyDeleteअभी कुछ दिनों पहले वो चूहे मारने वाली दवा की सलाह के बाद आपकी टिपण्णी देखी तो बहुत बुरा लगा. याद आया.. हमारे पडोसी अगर चूहे पकड़ने का जुगाड़ करते तो, फंसे चूहे मुझसे देखे नहीं जाते. खैर बचपनसे जब सांप को भी छोड़ देना देखा तो असर तो पड़ता ही है.
कुछ सूत्र चुरा लूँ:
ReplyDelete(1)"असतो मा सद्गमय..." के शाश्वत सिद्धांत पर चलती हुई मानव सभ्यता धीरे धीरे अपने में सुधार लाती रही है।
(2)सभ्य समाज में हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं।
(3) कुछ लोगों के लिये भोजन जीवन की एक आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं रखता है। 'नहीं' को हटा कर भी सही है।
(4) अधिक बुद्धिमान व्यक्तियों के नास्तिक होने की संभावना आम लोगों से अधिक होती है।
(5) देश के नौनिहालों को गोभी, गाज़र और ताज़ी सब्जियाँ खिलाने से अपराधों की संख्या में भारी कमी लाई जा सकती है। ;)
(6) विश्व में ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन का एक बड़ा भाग मांस के कारखानों से आता है।
(7) हर आदमी हर बात फायदे नुकसान के लिए ही करे ऐसा नहीं होता है। अगला कदम - स्वांत: सुखाय।
(8)शाकाहार अप्राकृतिक है। ;)
(9)गाय को एक बारगी मारकर उसका मांस खाने और रोज़ उसकी सेवा करके दूध पीने के इन दो कृत्यों में ज़मीन आसमान का अन्तर है।
निष्कर्ष:
(1) अमेरिका में मांसाहारियों का प्रतिशत अधिक है, इसलिए वहाँ आम लोग कम हिंसक है। ;)
(2) आज तक जिसने भी आप को बहस में घसीटा है वह कई दिन रोया है - एकाध लोग तो ताउम्र भी रोये हैं। अपन को बहस में नहीं पड़ना जी ;)
यह पहला अवसर है जब किसी लेख में दिए गए सारे लिंक पढ़ गया और भयानक रूप से impress हो गया।
ReplyDeleteआप को साधुवाद जो मुझ जैसे आलसी से भी इतनी मेनहत करवा लिए। एक ठो किताब है Maya in Physics (न न Tao of Physics नहीं)। पढ़िएगा।
कल गौरव जी के ब्लॉग पर कई बढ़िया लिंक मिले थे. उन पर मनन चल रहा है. आज आपने भी कुछ नए लिंक दिए. काफी होमवर्क मिल गया है. धीरे धीरे ही पढ़ पाउँगा. एक मांसाहारी ज्यादा देर तक लगातार परिश्रम नहीं कर पता है ना....
ReplyDeleteविषय अपनी रुचि का है, कुछ लिंक्स देख लिये हैं और कुछ देखने बाकी है।
ReplyDeleteमेरी नजर में यह एक नितांत व्यक्तिगत विषय है। कोई किसी पर थोपे कि यह खाओ या न खाओ, ज्यादती ही है। हाँ सभ्य और शालीन तरीके से अपनी विचारधारा का प्रसारण करने में कोई दिक्कत नहीं, महिमामंडन अनावश्यक है।
अच्छी पोस्ट ...
ReplyDeleteकई नयी जानकारियां प्राप्त हुई !
वैसे समस्या यहाँ शाकाहार या मांसाहार की नहीं है| समस्या है, मांसाहार को गौरवान्वित करने की, समस्या है उसे उत्सव बनाने की, जो बंद होना चाहिए|आपकी इस बात से सहमत हूँ। अनाज बचने वाला तर्क तो व्यर्थ है आपने सही कहा कि अगर माँस का सेवन न करें तो अनाज की बचत होगी। बहुत अच्छा विश्लेशण किया। लिन्क देखती हूँ। आभार।
ReplyDeleteमांसाहार या शाकाहार ये तो आदमी की अपनी सोच पर डिपेन्ड
ReplyDeleteकरता है, पर उसका उत्सव मनाना ठीक नही
एसा होना भी नहीं चाहिये कि ब्लाग पर कोई वहस न चले । आदमी आदमी को खा तो आज भी रहा है ढंग बदल गया है ।कवीले की परम्परा चालू रखने बहुत से ’कापुरुषों ने ’ वैसे साहित्य में कापुरुष का प्रयोग एक विशेष श्रेणी के पुरुष वाबत किया जाता है।यह बात बिल्कुल सत्य है कि लोग अपनी अपनी सुविधानुसार व्याख्यायें कर लेते है।जीव भक्षण को प्राकृतिक कहने वालों ने ही देवी देवताओं को भी भोग लगाना प्रारम्भ कर दिया ।समुदाय कोई भी हो मन में दया का भाव होगा तो वह कभी भी जीवहिन्सा नहीं करेगा
ReplyDeleteमैं भी मांसाहार को कतई पसंद नहीं करता। सबसे घिन वाला भोजन मानता हूं मैं मासांहार को। पता नहीं कैसे लोग किसी जीव को मार कर उसे पकाकर खा जाते हैं और आनंद लेते हैं। आपने तर्क सहित मासांहार का विरोध किया है।
ReplyDeleteजब हमारे पास अनाज नहीं था और मांस खाना ही एक विकल्प था उस समय और आज के समय में बहुत अंतर है ! आज लोग स्वाद,शौक,और शक्ति के लिए निर्दोष जीवों की हत्या कर रहे हैं, यह कहाँ की मानवता है! वास्तव में आज आदमी जो भी कर रहा है चाहे जीव-हत्या हो या पेड़-हत्या,उसे इन सबका जवाब आने वाली पीढ़ियों को देना पड़ेगा!
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक लेख.!
बधाई !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
जब हमारे पास अनाज नहीं था और मांस खाना ही एक विकल्प था उस समय और आज के समय में बहुत अंतर है ! आज लोग स्वाद,शौक,और शक्ति के लिए निर्दोष जीवों की हत्या कर रहे हैं, यह कहाँ की मानवता है! वास्तव में आज आदमी जो भी कर रहा है चाहे जीव-हत्या हो या पेड़-हत्या,उसे इन सबका जवाब आने वाली पीढ़ियों को देना पड़ेगा!
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक लेख.!
बधाई !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
अनुराग भाई , ऐसे आलेखों की पुस्तक कब छपवा रहे हैं आप ? बहुत काम आयेगी और अंग्रेज़ी अनुवाद भी अति आवश्यक है .अगर गुजराती में चाहें तो मैं अनिवाद करने का बीड़ा उठाय लेती हूँ ..
ReplyDeleteसोच कर बताईयेगा ...
मेरी शुभकामनाएं सदा आपके साथ हैं
सस्नेह,- लावण्या
बहुत अच्छी तरह से अपनी बात कही। अच्छा लगा इसे पढ़कर!
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