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अनुरागी मन - अब तक की कथा:
वासिफ वीरसिंह को अपनी हवेली में अप्सरा के सहारे छोड़कर ज़रूरी काम से बाहर गया। उसकी दिव्य सुन्दरी बहन झरना का असली नाम ज़रीना जानने पर वीर को ऐसा लगा जैसे उनका दिमाग काम नहीं कर रहा हो। बैठे बैठे उन्हें चक्कर सा आया ...
खण्ड 1; खण्ड 2; खण्ड 3; खण्ड 4; खण्ड 5; खण्ड 6
...और अब आगे की कहानी:
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“जी हाँ, मैं ठीक हूँ। बस तेज़ सरदर्द हो रहा है” वीरसिंह ने कठिनाई से कहा। अम्मा कुछ कहतीं इससे पहले ही झरना घबरायी हुई अन्दर आयी।
“क्या हुआ? किसे है सरदर्द?” वीर को चिंतित दृष्टि से देखते हुए पूछा और उनके उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना बाहर जाते जाते बोली, “एक मिनट, ... मैं अभी दवा लाती हूँ।”
वाकई एक मिनट में वह एक ग्लास पानी, सेरिडॉन की पुड़िया और अमृतांजन की शीशी लिये सामने खड़ी थी, एक्दम दुखी सी परंतु फिर भी उतनी ही सुन्दर।
वीरसिंह ने जैसे ही गोली खाकर पानी का ग्लास वापस रखा, झरना उनके साथ बैठ गयी। इतना तो याद है उन्हें कि झरना ने उनका सिर अपनी गोद में रखकर उनके माथे पर अमृतांजन मलना शुरू किया था। दर्द से बोझिल माथे पर झरना की उंगलियों का स्पर्श ऐसा था मानो नर्क की आग में जलते हुए वीर को किसी अप्सरा ने अमृत से नहला दिया हो। झरना का चेहरा उनके मुख के ठीक ऊपर था। वह धीमे स्वरों में गुनगुनाती जा रही थी जिसे केवल वही सुन सकते थे:
तेरे उजालों को गालों में रक्खूँ
हर पल तुझी को खयालों में रक्खूँ
तोहे पानी सा भर लूँ गगरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में
अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए वे कब अपनी चेतना खो बैठे, उन्हें याद नहीं। जब उन्हें होश आया तो वे सोफे पर लेटे हुए थे। सामने उदास मुद्रा में वासिफ बैठा था। उनकी आंखें खुलती देख कर वह खुशी से उछला, “ठीक तो है न भाई? हम तो समझे आज मय्यत उठ गयी तेरी।”
ऐसा ही है यह लड़का। मौका कोई भी हो, शरारत से बाज़ नहीं आता है।
“हाँ मैं ठीक हूँ, अम्मा को बता दो तो मैं घर चलूँ” वीर ने उठने का उपक्रम करते हुए कहा।
“अम्मी अभी मेहमाँनवाज़ी में लगी हैं। ज़रीना के ससुराल वाले आये हुए हैं। सभी उधर बैठक में हैं, मैं बाद में कह दूंगा” वासिफ ने सहजता से कहा।
“ज़रीना के ... ससुराल वाले?” वीरसिंह मानो आकाश से नीचे गिरे, “मगर .... वह तो अभी छोटी है ... क्या उसकी शादी इतनी जल्दी हो गयी?”
“अभी हुई नहीं है मगर तय तो कबकी हो चुकी है। हम लोगों में पहले से ही बात पक्की कर लेने का चलन है।”
“तुम्हारी बहन को पता है ये बात?” वीरसिंह अब सदमे जैसी स्थिति में थे
“हाँ, छिपाने जैसी कोई बात ही नहीं है। वह तो बहुत खुश है इस रिश्ते से” वसिफ ने उल्लास से कहा।
वीरसिंह को एक झटका और लगा। सोफे पर लगभग गिरते हुए उन्होने वासिफ से स्पष्टीकरण सा मांगा, “कितनी बहनें हैं तुम्हारी?”
“बस एक, ज़रीना। अम्मी-अब्बू के सभी भाई बहनों के लडके ही हैं। इसीलिये अकेली ज़रीना सभी की लाडली है। तू जानता नहीं है क्या? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहा है। तुझे आराम की ज़रूरत है शायद। थोड़ा रुक जा या अपने घर चल। वैसे यह घर भी तेरा ही है जैसा ठीक समझे।
“घर ही चलता हूँ” वीर ने जैसे तैसे कहा। उन्हें लग रहा था कि परी सब काम छोड़कर उन्हें जाने की उलाहना देने आयेगी। रुकने और आराम करने की मनुहार करेगी। मगर जब वे वासिफ के साथ हवेली से बाहर आये तो मुस्कराकर विदा करने भी कोई आया गया नहीं।
[क्रमशः]
जीवन के भावानात्मक मोड़ों पर मुड़ती जाती कथा।
ReplyDeleteलगता है कहानी तथ्य कथ्य प्रधान होने वाली है। उत्सुकता बढ़ गई है। वैसे इसमें बहुत सम्भावनाएँ हैं।
ReplyDeleteये गोद में सिर... वाला मामला बड़ा जालिम होता है।
ग्राफिक्स पसन्द आया। आगे नहीं पूछूँगा ;)
"उन्हें लग रहा था कि परी सब काम छोड़कर उन्हें जाने की उलाहना देने आयेगी। रुकने और आराम करने की मनुहार करेगी। "
ReplyDeleteमगर उसने रोका न उसने मनाया--
जोर के झटके धीरे से लगने शुरू हो गये हैं जी इस स्टोरी के। वीरसिंह, यही अंजाम होना था तेरा।
आशा है अगली कड़ी जल्दी ही पढ़ने को मिलेगी।
ओह दुखद घटनाक्रम ! ज़ज्बाती इंसानों को ऐसी चोटें गहरे घाव दे जाती हैं ! पर इसमें कुसूरवार ज़रीना भी तो नहीं !
ReplyDelete@वीरसिंह, यही अंजाम होना था तेरा।
ReplyDeleteअंजाम अभी आगे है जानी!
ओह...बेचारे वीर सिंह...
ReplyDelete@ "अंजाम अभी आगे है जानी!"
ReplyDeleteयही दिन देखने बाकी थे जी, जो ब्लॉगिंग में आये हैं। हमीं मिले हैं सबको मजे लेने के लिये। कभी कोई जानम कह जाता है, अब आप भी जानी बता गये। हम शुरू हो गये तो आदर्श आचार संहिता लागू हो जायेगी, बताये दे रहे हैं:)
लगता है, अब पात्र आपके नियन्त्रण से बाहर होकर, अपनी मर्जी से खुल कर खेलने लगे हैं।
ReplyDeleteवीरसिंह गया भाड में, अब तो देखना है कि आपका क्या होता है।
ईश्वर आपकी रक्षा करे।
@ लगता है, अब पात्र आपके नियन्त्रण से बाहर होकर, अपनी मर्जी से खुल कर खेलने लगे हैं।
ReplyDeleteफिकर नॉट बैरागी जी! बन्दे क़्वार्टर सेंचुरी से बन्धे बैठे हैं। वे तो शुक्रगुज़ार हैं कि उम्रकैद से मुक्ति मिल रही है, धीरे-धीरे!
मैं भी सदमे में ही जी...वीर सिंह पर दया आ रही है..क्या करूँ कुछ समझ मे नहीं आ रहा..
ReplyDeleteहाय!
देवेन्द्र जी,
ReplyDeleteहोनी तो होके रहे, अनहोनी न होय
जाको राखे साँइया ...
कहानी के अगले भाग की प्रतीक्षा है ..!
ReplyDelete@अली जी,
ReplyDeleteआपको ऐसा क्यों लगता है कि ज़रीना कसूरवार नहीं है?
... bahut badhiyaa ....!!!
ReplyDeleteझरना ने भी तो मना किया है कि वो वासिफ की छोटी/ बड़ी बहन नहीं है| जरीना वासिफ की इकलौती बहन है, जरीना का रिश्ता भी तय समझो| तो झरना और जरीना अलग अलग हैं, बस हमारा हीरो थोडा ओवर-कौन्सियस है, इतनी सारी असफल लव स्टोरी पढ़ के|
ReplyDeleteनीरज,
ReplyDeleteध्यान देने और दिलाने का शुक्रिया। हमारी, तुम्हारी खूब बनेगी, लगता है। बाकी कहानियाँ पढीं क्या? यहाँ पर पूरी सूची है:
http://pittpat.blogspot.com/2008/06/hindi-stories-by-anurag-sharma.html
जब भी समय मिले एक नज़र मारना।
बड़ी धीरे धीरे सरक रही है कहानी. और फोटो के वीर सिंह तो जाने पहचाने से लग रहे हैं :)
ReplyDeleteअरे मैं थोड़ा लेट आया हूँ.. बाकी कड़ियाँ भी पढ़ लेता हूँ ...
ReplyDeleteशुक्रिया ...अब वीर सिंह को दुल्हा बना घोडी चढ़ कर सेहरे में मुंह छिपाते हुए देखने का दिन न जाने कब आयेगा ? :)
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