The kids I have met were logical. They gained wisdom as they grew up. - Anurag Sharma
बच्चे सदा तार्किक होते हैं, बड़े होकर वे सही या ग़लत, पूरे या अधूरे निष्कर्ष निकालने लगते हैं। - अनुराग शर्मा
एक मामले में मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ। वह यह कि बचपन से अब तक विभिन्न भूमिकाओं में मैं सदा बच्चों से घिरा रहा हूँ। जहाँ मेरा बचपन बीता, उत्तर-प्रदेश के मध्यम आकार के नगर के उस मध्य-वर्गीय आस-पड़ोस में तो हर प्रकार के बच्चे थे ही, अपना विस्तृत परिवार भी ऐसा था कि मेरे नौकरी आरम्भ करने के काफ़ी बाद तक भी मेरे आसपास बच्चे रहा करते थे। बाद में भी ऐसे बहाने सामने आते रहे जब कभी बाल-नाटिका आदि पर काम करते हुए या हिंदी पढ़ाने के लिये बच्चों से सम्पर्क बना रहा। मुझे बच्चे अच्छे लगते हैं लेकिन हमारा प्रेम पारस्परिक रहा, क्योंकि बच्चे भी अपनी इच्छा से मेरे कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेते रहे हैं। अपनी समस्याओं का हल निकालने की भागीदारी के लिये वे मुझे बड़ों की महत्वपूर्ण बैठकों में से खींच-खींचकर भी बाहर ले जाते रहे हैं।
बच्चे स्वभाव से ही उल्लासमय और उत्साही होते हैं। जिन भाग्यशाली बच्चों को अच्छा परिवेश और संस्कार मिले, उन्हें मैंने आत्मानुशासित और विनम्र भी पाया है। जहाँ अनुभवी और शिक्षित बड़ों के कुतर्क कई बार निराश करते हैं वहीं बच्चों को मैंने *सदा-सर्वदा* स्मार्ट पाया है। उनकी नैसर्गिक हाज़िरजवाबी, अनूठा दृष्टिकोण, और कुशाग्र तार्किकता मुझे अचम्भित करती रही है। यही तार्किकता कई बार होठों पर बरबस ही हँसी ले आती है। कहीं और, बच्चों की चर्चा चलने पर यूँ ही कुछ उदाहरण याद आ गये तो सोचा लिख डालूँ, ताकि बाद में पढ़कर मुस्कुरा सकूँ।
कोई बात समझाने पर नई-नई अंग्रेज़ी सीख रहा एक बच्चा 'आई डोंट' (I don't) कहता था। कुछ ही समय में यह पता लग गया कि उसके 'आई डोंट' (I don't) का अभिप्राय वास्तव में आई नो (I know) होता था। थोड़ी सी पूछताछ के बाद बाल-मन की तार्किकता स्पष्ट हो गई जब बच्चे ने निम्न समीकरणों द्वारा अपनी बात समझाई -
1. आई डोंट नो = मैं नहीं जानता हूँ
2. नो = नहीं
3. आई डोंटनो = मैं नहीं जानता हूँ
खाते पीते घर की एक तीन-चार वर्षीय बच्ची से किसी ने पूछा कि बड़े होकर वह क्या बनेगी। बच्ची का अनपेक्षित उत्तर था, "बोझ बनूंगी।"
बदायूँ के हरप्रसाद मंदिर के बाहर प्रसाद की कतार में खड़ा एक बच्चा अपनी माँ को ज्ञान दे रहा था, "यह हरप्रसाद का मंदिर इसलिये हैं क्योंकि वे हर किसी को प्रसाद देते हैं।"
अन्यत्र एक पुरोहित जी के भोले बच्चे ने अपने तर्क से दो पल में संसार की सबसे बड़ी समस्या का समाधान करते हुए बताया कि लक्ष्मी ही सत्य हैं। लक्ष्मीनारायण ही सत्यनारायण हैं। दोनों में से नारायण हटाने के बाद निष्कर्ष लक्ष्मी = सत्य हो जाता है। तुरत समझ में आ गया कि सत्यमेव जयते के आदर्श वाक्य वाले देश में हर मुद्दे पर धनपति ही क्यों विजयी होते हैं।
दो वर्षीय अपराजिता ने अपना नाम अप्पा-जिता बताते हुए जब अपने माता पिता का नाम मम्मा-जिता और पप्पा-जिता बताया तो उन्होंने उल्लेख किया कि जिस प्रकार अप्पा का वास्तिक नाम अप्पाजिता होता है उसी प्रकार उनके मम्मा-पप्पा के नाम भी मम्मा-जिता और पप्पा-जिता होने चाहिये, नामकरण का यही तरीका है।
लगभग उसी वय की एक बच्ची ने बताया कि बच्चों के पाँव नहीं होते हैं। वे बाद में उग आते हैं। अपनी बात बताने के लिये उन्होंने डीवीडी चलाकर एक फ़िल्म का वह दृश्य दिखाया जिसमें अस्पताल में चिकित्सक कपड़ों में लिपटा नवजात शिशु पिता को सौंप रहे थे। जब मैंने कहा कि उस बच्चे के पाँव हैं लेकिन कपड़े में ढँके होने के कारण नहीं दिख रहे तो जवाब था कि पाँव होते तो बच्चे शुरू से ही चलते-फिरते नज़र आते। बड़े होने पर जब उनके पाँव उग जाते हैं, तब वे चलना आरम्भ करते हैं।
एक बच्चे को मेहमाँनवाज़ी के वक्त किसी अन्य द्वारा स्नैक्स लेना पसंद नहीं था। उनका प्रिय वाक्य था, "मैं आपे-आप खा लूंगा।" अर्थात, वयस्क हर मामले में टांग अड़ाते हैं, कम से कम, खाने-पीने के काम में मुझे आत्मनिर्भर समझा जाये।
सड़क चलते समय गिर जाने पर किसी रोते हुए घायल बच्चे का फ़ुटपाथ को थपथपाकर, "सॉरी साइडवॉक" कहना भला किसका दिल नहीं जीत लेगा। यह बात अलग है कि स्कूल के पहले दिन, घर वापस आने पर उस बच्चे का पहला वाक्य था, आई कैन डू व्हाट आई वांट टु डू (मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ)।
मेरे विचार से बालमन की सम्भावनाओं से अपरिचित होना दुखद है। बच्चों से सम्पर्क का अवसर मिलने पर भी इन गुणों का अनुभव न कर पाना अति-दुखद है। और इन सबसे आगे, किसी भी स्थिति में बाल-मन की असीम सम्भावनाओं पर अविश्वास करना दुर्भाग्यपूर्ण है। आइये, इस ब्लॉगिंग दिवस पर किसी बच्चे से दोस्ती की जाये।
बच्चे सदा तार्किक होते हैं, बड़े होकर वे सही या ग़लत, पूरे या अधूरे निष्कर्ष निकालने लगते हैं। - अनुराग शर्मा
एक मामले में मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ। वह यह कि बचपन से अब तक विभिन्न भूमिकाओं में मैं सदा बच्चों से घिरा रहा हूँ। जहाँ मेरा बचपन बीता, उत्तर-प्रदेश के मध्यम आकार के नगर के उस मध्य-वर्गीय आस-पड़ोस में तो हर प्रकार के बच्चे थे ही, अपना विस्तृत परिवार भी ऐसा था कि मेरे नौकरी आरम्भ करने के काफ़ी बाद तक भी मेरे आसपास बच्चे रहा करते थे। बाद में भी ऐसे बहाने सामने आते रहे जब कभी बाल-नाटिका आदि पर काम करते हुए या हिंदी पढ़ाने के लिये बच्चों से सम्पर्क बना रहा। मुझे बच्चे अच्छे लगते हैं लेकिन हमारा प्रेम पारस्परिक रहा, क्योंकि बच्चे भी अपनी इच्छा से मेरे कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेते रहे हैं। अपनी समस्याओं का हल निकालने की भागीदारी के लिये वे मुझे बड़ों की महत्वपूर्ण बैठकों में से खींच-खींचकर भी बाहर ले जाते रहे हैं।
बच्चे स्वभाव से ही उल्लासमय और उत्साही होते हैं। जिन भाग्यशाली बच्चों को अच्छा परिवेश और संस्कार मिले, उन्हें मैंने आत्मानुशासित और विनम्र भी पाया है। जहाँ अनुभवी और शिक्षित बड़ों के कुतर्क कई बार निराश करते हैं वहीं बच्चों को मैंने *सदा-सर्वदा* स्मार्ट पाया है। उनकी नैसर्गिक हाज़िरजवाबी, अनूठा दृष्टिकोण, और कुशाग्र तार्किकता मुझे अचम्भित करती रही है। यही तार्किकता कई बार होठों पर बरबस ही हँसी ले आती है। कहीं और, बच्चों की चर्चा चलने पर यूँ ही कुछ उदाहरण याद आ गये तो सोचा लिख डालूँ, ताकि बाद में पढ़कर मुस्कुरा सकूँ।
कोई बात समझाने पर नई-नई अंग्रेज़ी सीख रहा एक बच्चा 'आई डोंट' (I don't) कहता था। कुछ ही समय में यह पता लग गया कि उसके 'आई डोंट' (I don't) का अभिप्राय वास्तव में आई नो (I know) होता था। थोड़ी सी पूछताछ के बाद बाल-मन की तार्किकता स्पष्ट हो गई जब बच्चे ने निम्न समीकरणों द्वारा अपनी बात समझाई -
1. आई डोंट नो = मैं नहीं जानता हूँ
2. नो = नहीं
3. आई डोंट
खाते पीते घर की एक तीन-चार वर्षीय बच्ची से किसी ने पूछा कि बड़े होकर वह क्या बनेगी। बच्ची का अनपेक्षित उत्तर था, "बोझ बनूंगी।"
बदायूँ के हरप्रसाद मंदिर के बाहर प्रसाद की कतार में खड़ा एक बच्चा अपनी माँ को ज्ञान दे रहा था, "यह हरप्रसाद का मंदिर इसलिये हैं क्योंकि वे हर किसी को प्रसाद देते हैं।"
अन्यत्र एक पुरोहित जी के भोले बच्चे ने अपने तर्क से दो पल में संसार की सबसे बड़ी समस्या का समाधान करते हुए बताया कि लक्ष्मी ही सत्य हैं। लक्ष्मीनारायण ही सत्यनारायण हैं। दोनों में से नारायण हटाने के बाद निष्कर्ष लक्ष्मी = सत्य हो जाता है। तुरत समझ में आ गया कि सत्यमेव जयते के आदर्श वाक्य वाले देश में हर मुद्दे पर धनपति ही क्यों विजयी होते हैं।
दो वर्षीय अपराजिता ने अपना नाम अप्पा-जिता बताते हुए जब अपने माता पिता का नाम मम्मा-जिता और पप्पा-जिता बताया तो उन्होंने उल्लेख किया कि जिस प्रकार अप्पा का वास्तिक नाम अप्पाजिता होता है उसी प्रकार उनके मम्मा-पप्पा के नाम भी मम्मा-जिता और पप्पा-जिता होने चाहिये, नामकरण का यही तरीका है।
लगभग उसी वय की एक बच्ची ने बताया कि बच्चों के पाँव नहीं होते हैं। वे बाद में उग आते हैं। अपनी बात बताने के लिये उन्होंने डीवीडी चलाकर एक फ़िल्म का वह दृश्य दिखाया जिसमें अस्पताल में चिकित्सक कपड़ों में लिपटा नवजात शिशु पिता को सौंप रहे थे। जब मैंने कहा कि उस बच्चे के पाँव हैं लेकिन कपड़े में ढँके होने के कारण नहीं दिख रहे तो जवाब था कि पाँव होते तो बच्चे शुरू से ही चलते-फिरते नज़र आते। बड़े होने पर जब उनके पाँव उग जाते हैं, तब वे चलना आरम्भ करते हैं।
एक बच्चे को मेहमाँनवाज़ी के वक्त किसी अन्य द्वारा स्नैक्स लेना पसंद नहीं था। उनका प्रिय वाक्य था, "मैं आपे-आप खा लूंगा।" अर्थात, वयस्क हर मामले में टांग अड़ाते हैं, कम से कम, खाने-पीने के काम में मुझे आत्मनिर्भर समझा जाये।
सड़क चलते समय गिर जाने पर किसी रोते हुए घायल बच्चे का फ़ुटपाथ को थपथपाकर, "सॉरी साइडवॉक" कहना भला किसका दिल नहीं जीत लेगा। यह बात अलग है कि स्कूल के पहले दिन, घर वापस आने पर उस बच्चे का पहला वाक्य था, आई कैन डू व्हाट आई वांट टु डू (मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ)।
मेरे विचार से बालमन की सम्भावनाओं से अपरिचित होना दुखद है। बच्चों से सम्पर्क का अवसर मिलने पर भी इन गुणों का अनुभव न कर पाना अति-दुखद है। और इन सबसे आगे, किसी भी स्थिति में बाल-मन की असीम सम्भावनाओं पर अविश्वास करना दुर्भाग्यपूर्ण है। आइये, इस ब्लॉगिंग दिवस पर किसी बच्चे से दोस्ती की जाये।