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Sunday, January 12, 2020

मुझे याद है

मुझे याद हैं
लोहड़ी की रातें
जब आग के चारों ओर
सुंदर मुंदरिये हो
के साथ गूंजते थे
खिलखिलाते मधुर स्वर

मुझे याद हैं
नन्ही लड़कियाँ
जो बनतालाब की शामों को
रोशन कर देती थीं
अपनी चुन्नी में लपेटे
जगमगाते जुगनुओं से।

मुझे याद हैं
वे दिन जब
यौवन और बुढ़ापा
नहीं लगा सके थे
सेंध
मेरे शैशव में

मुझे याद हैं
अनमोल उस
बचपन की यादें
जब दौड़ता था मैं
ताकि छू सकूँ नन्ही उंगलियों से
क्षितिज पर डूबते सूरज को

मुझे याद हैं
सुहाने विगत की बातें
सब याद है मुझे

🙏 मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँ!


Sunday, July 1, 2018

ब्लागिंग दिवस पर - बच्चे मन के सच्चे

The kids I have met were logical. They gained wisdom as they grew up. - Anurag Sharma

बच्चे सदा तार्किक होते हैं, बड़े होकर वे सही या ग़लत, पूरे या अधूरे निष्कर्ष निकालने लगते हैं।  - अनुराग शर्मा


एक मामले में मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ। वह यह कि बचपन से अब तक विभिन्न भूमिकाओं में मैं सदा बच्चों से घिरा रहा हूँ। जहाँ मेरा बचपन बीता, उत्तर-प्रदेश के मध्यम आकार के नगर के उस मध्य-वर्गीय आस-पड़ोस में तो हर प्रकार के बच्चे थे ही, अपना विस्तृत परिवार भी ऐसा था कि मेरे नौकरी आरम्भ करने के काफ़ी बाद तक भी मेरे आसपास बच्चे रहा करते थे। बाद में भी ऐसे बहाने सामने आते रहे जब कभी बाल-नाटिका आदि पर काम करते हुए या हिंदी पढ़ाने के लिये बच्चों से सम्पर्क बना रहा। मुझे बच्चे अच्छे लगते हैं लेकिन हमारा प्रेम पारस्परिक रहा, क्योंकि बच्चे भी अपनी इच्छा से मेरे कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेते रहे हैं। अपनी समस्याओं का हल निकालने की भागीदारी के लिये वे मुझे बड़ों की महत्वपूर्ण बैठकों में से खींच-खींचकर भी बाहर ले जाते रहे हैं।

बच्चे स्वभाव से ही उल्लासमय और उत्साही होते हैं। जिन भाग्यशाली बच्चों को अच्छा परिवेश और संस्कार मिले, उन्हें मैंने आत्मानुशासित और विनम्र भी पाया है। जहाँ अनुभवी और शिक्षित बड़ों के कुतर्क कई बार निराश करते हैं वहीं बच्चों को  मैंने *सदा-सर्वदा* स्मार्ट पाया है। उनकी नैसर्गिक हाज़िरजवाबी, अनूठा दृष्टिकोण, और कुशाग्र तार्किकता मुझे अचम्भित करती रही है। यही तार्किकता कई बार होठों पर बरबस ही हँसी ले आती है। कहीं और, बच्चों की चर्चा चलने पर यूँ ही कुछ उदाहरण याद आ गये तो सोचा लिख डालूँ, ताकि बाद में पढ़कर मुस्कुरा सकूँ।

कोई बात समझाने पर नई-नई अंग्रेज़ी सीख रहा एक बच्चा 'आई डोंट' (I don't) कहता था। कुछ ही समय में यह पता लग गया कि उसके 'आई डोंट' (I don't) का अभिप्राय वास्तव में आई नो (I know) होता था। थोड़ी सी पूछताछ के बाद बाल-मन की तार्किकता स्पष्ट हो गई जब बच्चे ने निम्न समीकरणों द्वारा अपनी बात समझाई -

1. आई डोंट नो = मैं नहीं जानता हूँ
2. नो = नहीं
3. आई डोंट नो = मैं नहीं जानता हूँ

खाते पीते घर की एक तीन-चार वर्षीय बच्ची से किसी ने पूछा कि बड़े होकर वह क्या बनेगी। बच्ची का अनपेक्षित उत्तर था, "बोझ बनूंगी।"

बदायूँ के हरप्रसाद मंदिर के बाहर प्रसाद की कतार में खड़ा एक बच्चा अपनी माँ को ज्ञान दे रहा था, "यह हरप्रसाद का मंदिर इसलिये हैं क्योंकि वे हर किसी को प्रसाद देते हैं।"

अन्यत्र एक पुरोहित जी के भोले बच्चे ने अपने तर्क से दो पल में संसार की सबसे बड़ी समस्या का समाधान करते हुए बताया कि लक्ष्मी ही सत्य हैं। लक्ष्मीनारायण ही सत्यनारायण हैं। दोनों में से नारायण हटाने के बाद निष्कर्ष लक्ष्मी = सत्य हो जाता है। तुरत समझ में आ गया कि सत्यमेव जयते के आदर्श वाक्य वाले देश में हर मुद्दे पर धनपति ही क्यों विजयी होते हैं।

दो वर्षीय अपराजिता ने अपना नाम अप्पा-जिता बताते हुए जब अपने माता पिता का नाम मम्मा-जिता और पप्पा-जिता बताया तो उन्होंने उल्लेख किया कि जिस प्रकार अप्पा का वास्तिक नाम अप्पाजिता होता है उसी प्रकार उनके मम्मा-पप्पा के नाम भी मम्मा-जिता और पप्पा-जिता होने चाहिये, नामकरण का यही तरीका है।

लगभग उसी वय की एक बच्ची ने बताया कि बच्चों के पाँव नहीं होते हैं। वे बाद में उग आते हैं। अपनी बात बताने के लिये उन्होंने डीवीडी चलाकर एक फ़िल्म का वह दृश्य दिखाया जिसमें अस्पताल में चिकित्सक कपड़ों में लिपटा नवजात शिशु पिता को सौंप रहे थे। जब मैंने कहा कि उस बच्चे के पाँव हैं लेकिन कपड़े में ढँके होने के कारण नहीं दिख रहे तो जवाब था कि पाँव होते तो बच्चे शुरू से ही चलते-फिरते नज़र आते। बड़े होने पर जब उनके पाँव उग जाते हैं, तब वे चलना आरम्भ करते हैं।

एक बच्चे को मेहमाँनवाज़ी के वक्त किसी अन्य द्वारा स्नैक्स लेना पसंद नहीं था। उनका प्रिय वाक्य था, "मैं आपे-आप खा लूंगा।" अर्थात, वयस्क हर मामले में टांग अड़ाते हैं, कम से कम, खाने-पीने के काम में मुझे आत्मनिर्भर समझा जाये।

सड़क चलते समय गिर जाने पर किसी रोते हुए घायल बच्चे का फ़ुटपाथ को थपथपाकर, "सॉरी साइडवॉक" कहना भला किसका दिल नहीं जीत लेगा। यह बात अलग है कि स्कूल के पहले दिन, घर वापस आने पर उस बच्चे का पहला वाक्य था, आई कैन डू व्हाट आई वांट टु डू (मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ)।

मेरे विचार से बालमन की सम्भावनाओं से अपरिचित होना दुखद है। बच्चों से सम्पर्क का अवसर मिलने पर भी इन गुणों का अनुभव न कर पाना अति-दुखद है। और इन सबसे आगे, किसी भी स्थिति में बाल-मन की असीम सम्भावनाओं पर अविश्वास करना दुर्भाग्यपूर्ण है। आइये, इस ब्लॉगिंग दिवस पर किसी बच्चे से दोस्ती की जाये।

Saturday, July 19, 2008

बाबाजी का भूत

करीम की आत्मा का ज़िक्र किया तो मुझे आत्मा का एक किस्सा याद आ गया। सोचा, आपके साथ बाँट लूँ।

स्कूल के दिनों में हमारे एक मित्र को आत्मा-परमात्मा आदि विषयों में काफी रुचि थी. इस बन्दे का नाम था... चलो छोड़ो भी, नाम में क्या रखा है? हम उसे बाबाजी कह कर बुलाते थे. यहाँ भी हम उसे बाबाजी ही पुकार सकते हैं. समूह के बाकी लोग भी कोई पूर्ण-नास्तिक नहीं थे. बाबाजी अक्सर कोई रोचक दास्तान लेकर आते थे. किस तरह उनके पड़ोसी ने पीपल के पेड़ से चुडैल को उतरते देखा. किस तरह भूतों के पाँव पीछे को मुड़े होते हैं. पिशाच पीछे पड़ जाए तो मुड़कर क्यों नहीं देखना चाहिए आदि किस्से हम सब बाबाजी से ही सुनते थे।

हम सब में बाबाजी सबसे समृद्ध थे. लखपति बनना हो या क्लास की सबसे सुंदर लडकी का दिल जीतना हो - बाबाजी के पास हर चीज़ का तंत्र था. मैं स्कूल में सबका चहेता था तो उनके तंत्र की वजह से. पुष्कर फर्स्ट आता था तो उनके तंत्र की वजह से. जौहरी साहब सस्पेंड हुए तो उनके तंत्र की वजह से. पांडे जी का हाथ टूटा तो उनके तंत्र की वजह से. कहने का अभिप्राय है कि हमारे स्कूल में उनके तंत्र की सहायता के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था. और तो और, उनके पड़ोसी की गृह कलह भी उनके तंत्र की वजह से ही थी. अफ़सोस कि उनके पास बिना पढ़े पास होने का तंत्र नहीं था, बस।

उनके पास अपना निजी कमरा था जिसे हम बैठक कहते थे. और उससे भी ज़्यादा, उनके पास अपना टेप रिकार्डर था. अक्सर शाम को हम लोग उनके घर पर इकट्ठे होते थे. हम सब उनकी बैठक में बैठकर इधर उधर की तिकड़में किया करते थे. उनकी बैठक में बैठकर ही हमने अपने प्रिंसिपल का नाम ताऊजी रखा था जो हमारे स्कूल छोड़ने के बरसों बाद तक चलता रहा. उनके टेप रिकार्डर पर ही गज़लों से हमारा पहला परिचय हुआ. गुलाम अली और जगजीत सिंह तो मिले ही - अनूप जलोटा और पीनाज़ मसानी भी हम तक उनके टेप रिकार्डर द्वारा ही पहुँचे।

उस शाम को हम सब उनकी बैठक में इकट्ठे हुए तो वह हमें कुछ विशेष सुनाने वाले थे. हम सब उत्सुकता से देख रहे थे जब उन्होंने अपने काले थैले में से एक कैसेट निकाली. डरावने संगीत के साथ जब वह कैसेट चलनी शुरू हुई तो बाबाजी ने बताया कि वह एक भूत का इंटरव्यू था. काफी डरावना था. भूत ने हमें दूसरी दुनिया के बारे में बहुत सी जानकारी दी. उसने बताया कि शरीर के बिना रहना आसान नहीं होता है. चूंकि वह तीन सौ साल पहले मरा था इसलिए उसकी भाषा आज की बोलचाल की भाषा से थोड़ी अलग हटकर थी।

साक्षात्कारकर्ताओं के पूछने पर जब उसने अपनी मृत्यु का हाल बताना शुरू किया तो उसने उर्दू के आम शब्द इंतक़ाल का प्रयोग किया. इससे पहले मैंने इस शब्द को अनेकों बार सुना था मगर कभी कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी थी. मगर इस भूत ने जब इस शब्द को तीन सौ साल पुराने अंदाज़ में अंत-काल कहा तो इंतक़ाल का भारतीय उद्गम एकदम स्पष्ट हो उठा. भूत के इंटरव्यू से रोमांच तो हम सभी को हुआ लेकिन मुझे और भी ज़्यादा खुशी हुई जब मैंने एक पुराने शब्द को एक बिल्कुल नए परिप्रेक्ष्य में देखा. अगले दिन जब मैंने अपने उर्दू गुरु जावेद मामू को इस नयी जानकारी के बारे में बताया तो वे भी उस भूत से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.