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Saturday, July 19, 2008

बाबाजी का भूत

करीम की आत्मा का ज़िक्र किया तो मुझे आत्मा का एक किस्सा याद आ गया। सोचा, आपके साथ बाँट लूँ।

स्कूल के दिनों में हमारे एक मित्र को आत्मा-परमात्मा आदि विषयों में काफी रुचि थी. इस बन्दे का नाम था... चलो छोड़ो भी, नाम में क्या रखा है? हम उसे बाबाजी कह कर बुलाते थे. यहाँ भी हम उसे बाबाजी ही पुकार सकते हैं. समूह के बाकी लोग भी कोई पूर्ण-नास्तिक नहीं थे. बाबाजी अक्सर कोई रोचक दास्तान लेकर आते थे. किस तरह उनके पड़ोसी ने पीपल के पेड़ से चुडैल को उतरते देखा. किस तरह भूतों के पाँव पीछे को मुड़े होते हैं. पिशाच पीछे पड़ जाए तो मुड़कर क्यों नहीं देखना चाहिए आदि किस्से हम सब बाबाजी से ही सुनते थे।

हम सब में बाबाजी सबसे समृद्ध थे. लखपति बनना हो या क्लास की सबसे सुंदर लडकी का दिल जीतना हो - बाबाजी के पास हर चीज़ का तंत्र था. मैं स्कूल में सबका चहेता था तो उनके तंत्र की वजह से. पुष्कर फर्स्ट आता था तो उनके तंत्र की वजह से. जौहरी साहब सस्पेंड हुए तो उनके तंत्र की वजह से. पांडे जी का हाथ टूटा तो उनके तंत्र की वजह से. कहने का अभिप्राय है कि हमारे स्कूल में उनके तंत्र की सहायता के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था. और तो और, उनके पड़ोसी की गृह कलह भी उनके तंत्र की वजह से ही थी. अफ़सोस कि उनके पास बिना पढ़े पास होने का तंत्र नहीं था, बस।

उनके पास अपना निजी कमरा था जिसे हम बैठक कहते थे. और उससे भी ज़्यादा, उनके पास अपना टेप रिकार्डर था. अक्सर शाम को हम लोग उनके घर पर इकट्ठे होते थे. हम सब उनकी बैठक में बैठकर इधर उधर की तिकड़में किया करते थे. उनकी बैठक में बैठकर ही हमने अपने प्रिंसिपल का नाम ताऊजी रखा था जो हमारे स्कूल छोड़ने के बरसों बाद तक चलता रहा. उनके टेप रिकार्डर पर ही गज़लों से हमारा पहला परिचय हुआ. गुलाम अली और जगजीत सिंह तो मिले ही - अनूप जलोटा और पीनाज़ मसानी भी हम तक उनके टेप रिकार्डर द्वारा ही पहुँचे।

उस शाम को हम सब उनकी बैठक में इकट्ठे हुए तो वह हमें कुछ विशेष सुनाने वाले थे. हम सब उत्सुकता से देख रहे थे जब उन्होंने अपने काले थैले में से एक कैसेट निकाली. डरावने संगीत के साथ जब वह कैसेट चलनी शुरू हुई तो बाबाजी ने बताया कि वह एक भूत का इंटरव्यू था. काफी डरावना था. भूत ने हमें दूसरी दुनिया के बारे में बहुत सी जानकारी दी. उसने बताया कि शरीर के बिना रहना आसान नहीं होता है. चूंकि वह तीन सौ साल पहले मरा था इसलिए उसकी भाषा आज की बोलचाल की भाषा से थोड़ी अलग हटकर थी।

साक्षात्कारकर्ताओं के पूछने पर जब उसने अपनी मृत्यु का हाल बताना शुरू किया तो उसने उर्दू के आम शब्द इंतक़ाल का प्रयोग किया. इससे पहले मैंने इस शब्द को अनेकों बार सुना था मगर कभी कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी थी. मगर इस भूत ने जब इस शब्द को तीन सौ साल पुराने अंदाज़ में अंत-काल कहा तो इंतक़ाल का भारतीय उद्गम एकदम स्पष्ट हो उठा. भूत के इंटरव्यू से रोमांच तो हम सभी को हुआ लेकिन मुझे और भी ज़्यादा खुशी हुई जब मैंने एक पुराने शब्द को एक बिल्कुल नए परिप्रेक्ष्य में देखा. अगले दिन जब मैंने अपने उर्दू गुरु जावेद मामू को इस नयी जानकारी के बारे में बताया तो वे भी उस भूत से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.