Thursday, October 30, 2008
सब कुछ ढह गया - 1
रह-रहकर बाईं आँख फड़क रही थी। आँख को कई बार मला मगर कोई फायदा न हुआ। उसे याद आया कि माँ बाईं आँख फड़कने को कितना बुरा मानती थी। छोटा था तो वह भी इस बात पर यकीन करता था। अब जानता है कि अमीरों को किसी भी आँख के फड़कने से कोई नुक्सान नहीं होता और मुसीबत के मारों से तो भगवान् राम भी अप्रसन्न ही रहते हैं। उन पर फटने के लिए दुर्भाग्य का बादल भला किसी आँख के फड़कने का इंतज़ार क्यों करेगा।
उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आज वह इतना उदास क्यों था। पहले भी कितनी बार ऐसा हुआ है जब बीमार बच्चे को घर छोड़कर काम पर निकला था। गरीब आदमी और कर भी क्या सकता है? मजदूरी नहीं करेगा तो क्या ख़ुद खायेगा और क्या घर में खिलायेगा? बाबूजी ठीक ही तो कहते थे कि गरीब का दिल तो बेबसी का ठिकाना होता है। बाबूजी कितने ज़हीन थे। अगर किसी खाते-पीते घर में पैदा होते तो शायद पढ़ लिख कर बहुत बड़े आदमी बनते। वह भी जींस टी-शर्ट पहनकर घूमता। स्कूल गया होता और शायद आज किसी आलीशान दफ्तर में बैठकर कोई अच्छी सी नौकरी कर रहा होता।
ऊपर से यह सर्दी का मौसम। कडाके की ठंड है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। गाँव में तो आंगन में पुआल जलाकर थोड़ी देर बदन गर्म करने को मिल जाता था। शहर में अव्वल तो पुआल कहाँ से आये, और अगर कहीं से जुगाड़ हो भी गया तो चार फ़ुट की कोठरी में खुद बैठें कि पुआल जलाएं। आने वाली रात नए साल की पहली रात है। पैसेवालों की क्या बात है। हर तरफ जश्न मनाने की तैय्यारी होती दिख रही है।
बस में भी ठिठुरता रहा। एक ही तो सदरी थी, कितनी सर्दियां चलती। नामालूम, बस ही धीरे चल रही थी या फिर रास्ता आज कुछ ज़्यादा लंबा हो गया था. बस वक़्त गुज़रता जा रहा था लेकिन उसके काम का ठिया तो आने का नाम ही न ले रहा था। अपनी सीट पर सिकुड़ा सा बैठा रहा। सारे रास्ते खैर मनाता रहा कि आज देर होने के बावजूद भी कोई न कोई काम मिल जाए। अगर खाली हाथ वापस आना पडा तो बहुत मुश्किल होगी। आज तो मुन्ने की दवा के लिए भी घर में एक कानी कौडी नहीं बची है।
[क्रमशः]
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"गरीब आदमी और कर भी क्या सकता है? मजदूरी नहीं करेगा तो क्या ख़ुद खायेगा और क्या घर में खिलायेगा? "
ReplyDeleteबहुत मार्मिक कहानी है ! गरीब की बेबसी शायद आज भी मुंशी प्रेमचंद जी के समय जैसी ही है ! कुछ भी नही बदला !
अगले भाग का इंतजार है ...... ! शुभकामनाएं !
हिन्दुस्तान के बहुसंख्यकों(मज़दूरों,गरीबों)की असली कहानी। नमन आपकी कलम को,अगली कडी का इंतज़ार रहेगा ।
ReplyDeleteआज तो मुन्ने की दवा के लिए भी घर में एक कानी कौडी नहीं बची है।
ReplyDelete" ya its very emotional and touching..... waiting to read further.."
Regards
आपपर प्रेमचंद का गहरा असर मालूम पड़ता है, जैसा कि उनकी कहानियॉं का सुंदर पाठ भी आपसे सुना है, ठीक ऐसे ही आज आप कुछ-कुछ उनकी शैली से प्रभावित-सी कहानियॉ प्रस्तुत कर रहें हैं, कहना न होगा कि इसमें वही आनंद मिल रहा है। जारी रहें, इंतजार रहेगा।
ReplyDelete'गरीब का दिल तो बेबसी का ठिकाना होता है' - विश्व सत्य को उजागर करता वाक्य ।
ReplyDeleteAnuragji,Garib ki halat men koi parivartan nahin aaya hai. uske to vahi haal hain jinka marmik varnan aapne kiya hai.
ReplyDeleteबहुत संवेदना कुरेद रही है यह पोस्ट!
ReplyDeleteकेवल यह बात है कि हम कुछ प्रभावी तौर पर कर नहीं सकते।
बहुतो की आप बीती है भाई....दीपावली के मेले में अपने ३ साल के रोते बच्चे को छोड़ कितनी औरतो को गुबारे ..खिलोने बेचते देखा है...कहाँ कहाँ से मुंह मोडेगे यार
ReplyDeleteशुरुआत में ही बड़ा मार्मिक चित्रण हो गया, आगे का इंतज़ार रहेगा.
ReplyDeleteमार्मिक .....आगे की कहानी का इन्तजार है
ReplyDeleteलाज़बाब सुंदर शब्द सयोंजन
ReplyDeleteअगले हिस्सा का इंतज़ार रहेगा
ReplyDeleteमार्मिक !
ReplyDeleteसच में गरीबी सबसे बड़ा अभिशाप है। यह तो ईश्वर का शुक्र है कि सूर्य की रोशनी, हवा और नदियों व झरनों का पानी आदि प्रकृति प्रदत्त चीजें उन्हें मिल जाती हैं। अन्यथा पैसे वालों का बस चले तो वे तो इन्हें भी खरीद कर अपनी तिजोरियों में बंद कर लें। आगे लिखिए। प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteभाई, जल्दी आगे की किश्त भेजो..
ReplyDeleteकहीं मेरी टिप्पणी हाथ से फ़िसल न जाये
अच्छी शुरुआत है अगली किश्त का इंतजार है
ReplyDeleteएक आम आदमी का हर रास्ता बहुत लंबा होता है..चाहे वो कहीं का भी क्यों ना हो... इतिहास तो बड़ों का होता है...आम आदमी को तो बस उसमें मरने वाले की भूमिका निभानी होती है...कहीं एक सिपाही के रूप में तो कहीं बलात्कृत होती स्त्री के रूप में...
ReplyDeleteया देश की सीमा की रक्षा प्रहरी के रूप में.....एक आम आदमी का हर जगह और हमेशा मौत ही इंतज़ार कर रही होती है ......
राजीव थेपरा
बात पुरानी है ब्लागस्पाट.कॉम
रांची (झारखण्ड)
भारत
बहुत ही अच्छी कहानी
ReplyDeleteधन्यवाद
कहानी संवेदना जगाने में पूरी तरह से सफल रही है। अगली कडी का इंतजार रहेगा।
ReplyDelete"गरीब आदमी और कर भी क्या सकता है? मजदूरी नहीं करेगा तो क्या ख़ुद खायेगा और क्या घर में खिलायेगा? "
ReplyDeleteअब जल्दी से अगला भाग पोस्ट कर दीजिये, अच्छी कहानी के बीच में व्यवधान अच्छा नहीं लगता.
अनु .ज जी ,
ReplyDeleteमैं अपनी ही तन्हाईयों में भटकती जीवित आत्मा हूँ ,जिसने यह एकान्तिक दुनिया जिंदगी की मजबूरियों से हार- हार कर [ सुरसा सी विकराल निराशाओं से मैं हरा हूँ ]
अपनी यह एकान्तिक दुनिया
बहुत बाध्य हो बसाई है ,
हाँ अपने अहम् को तुष्ट करने हेतु
लोगो में यह भ्रम फैलता हूँ
मुझे तो भीष्म सी जिंदगी बहुत भायी है ||
कबीरा कहिये फकीरा कहिये या अन्योनास्ति अर्थात जिसका कोई अन्य अस्तित्व न हो चाहे जो कहिये क्या अंतर पड़ता है ,अकिंचन अकिंचन ही रहता है |
शायद अभी इतना परिचय पर्याप्त हो ?
और मेरी विरोधाभासी विचार धारा का स्वाद केवल आप ही नहीं कई अन्य भी चख चुके हैं ,अगर एक लाइन में प्रशंसा होगी तो अगली में विरोध और आलोचना का स्वर या इसका उलटा भी हो सकता है |क्या करूँ आदत पक चुकी है |
रही आप की रचना क्षमता का तो मैं बहुत पहले से कायल हूँ शब्दों के एक सफल एवं सम्पूर्ण ऐन्द्रजालिक तो हैं हीं; इसमें कोई दूसरी राय नहीं है |और बुद्धिमत्ता का प्रमाण मेरे किसी ब्लॉग पर टिप्पणी न कर ई- मेल द्वारा संपर्क करना है |
इस रचना पर अपना मत रचना पूर्ण होने पर ही प्रकट करना ही उचित होगा
हाँ अगर दिए गये संबोधन पर आपत्ति हो तो कहियेगा