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Tuesday, December 27, 2011

उत्सव की रोशनी और दिल का अँधेरा

क्रिसमस के अगले दिन हिमांक से नीचे के तापक्रम पर उसे देखा भोजन की जुगाड़ करते हुए। संसार के सबसे समृद्ध देश में वंचितों को देखकर यही ख्याल आता है कि संसार में मानवीय समस्यायें केवल इसीलिये हैं क्योंकि हमने उन्हें हल करने के प्रयास पूरे दिल से किये ही नहीं। नहीं जानता हूँ कि क्या करने से इस समस्या का उन्मूलन हो सकेगा। बस इतना ही जानता हूँ कि जो होना चाहिए वह किया नहीं जा रहा है। भाव अस्पष्ट हैं और इस बार भी रचना शायद काव्य की दृष्टि से ठीक न हो।

तख्ती सब कहती है
समां शाम का कितना प्यारा
डरता उत्सव से अँधियारा

रिश्ते भरकाते तो डर क्या
हो भले शून्य से नीचे पारा

शाम ढली उल्लास भी बढ़ा
ठिठुर रहा पर वह बेचारा

सैंटा मिलता हरिक माल में
ओझल रहा यही दुखियारा

सबको तो उपहार मिले पर
ये क्यों न प्रभु को प्यारा

बर्फ ने काली रात धवल की
चन्दा छिपा छिपा हर तारा

रजत परत सब ढंके हुए थे
कांपते उघड़ा वक़्त गुज़ारा

अगला दिन भी रहा उनींदा
अलसाया था हर घर द्वारा

सूरज की छुट्टी कूड़े में
बीन रहा भोजन भंडारा

Sunday, November 2, 2008

सब कुछ ढह गया - 3

तीन खंडों की यह कहानी इस अंक में समाप्य है। पिछले खंड पढने के लिए नीचे के लिंक्स पर क्लिक करें
खंड १
खंड २

साथ बैठे नौजवान मजदूर ने एक बीड़ी सुलगाकर उसकी तरफ़ बढ़ाई तो वह न नहीं कर सका। बीडी से शायद उसके शरीर और आवाज़ का कम्पन कुछ कम हुआ। इस लड़के ने बताया कि वह बालीगंज के पास ही जा रहे हैं। काम करीब हफ्ते भर चलेगा। उसके चेहरे पर खुशी की एक लहर सी दौड़ गयी। बालीगंज उसकी झुग्गी के एकदम पास था। उसने शुक्र मनाया कि शाम को वह जल्दी घर पहुँच सकेगा और पत्नी का हाथ भी बँटा सकेगा। कल से अगर वह घर से सीधा काम पर चला जाय तो रोज़ का बस का किराया भी बच जायेगा और बेमतलब ठण्ड में जमेगा भी नहीं।

उसने महसूस किया कि अब धूप में कुछ गरमी आने लगी थी। कोहरा भी छंट गया था। ट्रक बालीगंज में दाखिल हो चुका था। रास्ते जाने-पहचाने लग रहे थे। ला-बेला चौक, गांधी चौराहा, सब कुछ तो उसका रोज़ का देखा हुआ था।

ट्रक उजाड़ महल के मैदान में जाकर रुक गया। ट्रक के पास ही एक पुलिस की गाडी भी खड़ी थी। न जाने क्यों आज रास्ते में भी पुलिस की गाडियां खूब दिख रही थीं। उजाड़ महल दरअसल कंक्रीट के एक ढाँचे का नाम था। चार-पाँच साल पहले किसी सेठ ने यहाँ अपनी कोठी बनवानी शुरू की थी। एक रात सात-आठ मजदूर एक अधबनी छत के गिरने से दबकर मर गए थे। तब से वह कोठी वैसी ही पडी थी। बाद में सेठ ने वह ज़मीन किसी को बेच दी थी। नए मालिक ने एकाध बार वहाँ काम शुरू कराना चाहा भी मगर हर बार कुछ न कुछ लफडा ही हुआ। एक बार पुलिस भी आयी और उसके बाद वहाँ कोई काम नहीं हुआ।

कालांतर में उसके आसपास कई झुग्गी झोपडियां उग आयी थीं। वह भी ऐसी ही एक झुग्गी में रहता था। झुग्गी की बात याद आते ही उसे याद आया कि कल तो तौकीर भाई भी आयेगा झुग्गी का किराया लेने। तौकीर भाई बहुत ही जालिम आदमी है। उससे पंगा लेकर कोई भी चैन से नहीं रह सकता। आम आदमी की तो बात ही क्या, इलाके में कोई नया थानेदार भी आता है तो पहले उसकी भट्टी पर ही आता है हाजरी बजाने।

ठेकेदार ट्रक से नीचे उतरकर एक पुलिसवाले से बात करने लगा। दोनों एक दूसरे को कुछ समझा रहे थे। थोड़ी देर बाद ठेकेदार ट्रक के पीछे आया और सभी मजदूरों को नीचे उतरकर एक तरफ़ खडा होने की हिदायत देकर फ़िर से उसी पुलिसवाले के पास चला गया। सोचने लगा कि वह दोपहर में ठेकेदार से पूछकर खाना खाने घर चला जायेगा, मुन्ना का हालचाल भी देख लेगा। घर के इतने पास काम करने का कुछ तो फायदा होना ही चाहिए।

"मेरे पीछे-पीछे आओ एक-एक कुदाल लेकर" ठेकेदार की बात से उसकी तंद्रा भंग हुई।

उसने भी एक कुदाल उठाई और बाकी मजदूरों के पीछे चलने लगा। यह क्या, ठेकेदार तो उसकी बस्ती की तरफ़ ही जा रहा था। उसने देखा कि पुलिस वाले कुछ ट्रकों में पुरानी साइकिलें, बर्तन, खटियाँ, और बहुत सा दूसरा सामान भर रहे थे। तमाम औरतें बच्चे जमा थे। बहुत शोर हो रहा था। एकाध छोटे झुंड पुलिस से उलझते हुए भी दिख रहे थे। वह जानना चाह रहा था कि यह सब क्या हो रहा है। उसके मन में अजीब सी बेचैनी होने लगी थी।

ठेकेदार के आगे-आगे पुलिस का दीवान चल रहा था। दीवान उसकी बस्ती में घुस गया। वहाँ पहले से ही कई सिपाही मौजूद थे। दीवान ने उसके पड़ोसी नत्थू के घर की तरफ़ इशारा करके ठेकेदार से कहा, "यहाँ!"

"फ़टाफ़ट लग जाओ काम पर..." ठेकेदार बोला।

उसे अभी तक सब कुछ एक रहस्य सा लग रहा था। उसने देखा कि नत्थू के घर का सारा सामान बाहर पडा था। लेकिन वहाँ पर कोई व्यक्ति नहीं था। नत्थू तो सवेरे ही फेरी लगाने निकल पड़ता है मगर उसकी घरवाली कहाँ है? नत्थू के घर से उड़कर जब उसकी नज़र आगे बढ़ी तो अपने घर पर जाकर टिकी। वहाँ कुछ भीड़ सी लगी हुई थी। उसने देखा कि उसके घर का सामान भी बाहर पडा था। उसकी पत्नी मुन्ना को गोद में लिए हुए बाहर गली में खड़ी थी। नत्थू की घरवाली और कुछ और महिलायें भी वहीं थीं।

तभी ठेकेदार के बाकी शब्द उसके कान में पड़े, "...ये पूरी लाइन आज शाम तक तोड़नी है, हफ्ते भर में यह पूरा कचरा साफ़ हो जाना चाहिए।"

अब बात उसकी समझ में आने लगी थी। हे भगवान्! यह सारी कवायद उस जैसे गरीबों की झुग्गियां उजाड़ने के लिए है ताकि सेठ अपने महल बना सकें। नहीं, वह अपनी बस्ती नहीं टूटने देगा। अगर यह बस्ती टूट गयी तो उसकी पत्नी कहाँ रहेगी, बीमार मुन्ना का क्या होगा? अपनी कुदाल फैंककर वह अपने घर की तरफ़ भागा।

"यह सब कैसे हुआ?" उसने पत्नी से पूछा। पत्नी बौराई सी उसे फटी आंखों से देखती रही। उस के मुँह से कोई बोल न फूटा। मुन्ना भी उसकी गोद में मूर्तिवत सा पडा रहा। शायद बहुत गहरी नींद में था।

नत्थू की घरवाली ने सुबकते हुए किसी तरह कहा, "तुम्हारे जाते ही खून की उल्टी हुई और एक घंटे में ही सब निबट गया। हमने तुरन्त ही रज्जो के बाबूजी को भेजा तुम्हारा पता लगाने। बाप के बिना हम औरतें तो अन्तिम संस्कार नहीं कर सकती हैं न।"

[समाप्त]

Saturday, November 1, 2008

सब कुछ ढह गया - 2

तीन खंडों की यह कहानी अगले अंक में समाप्य है। पिछ्ला अंक पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

कंडक्टर को पास आता देखकर उसने अंटी में से सारी रेजगारी निकाल ली। कई बार गिना। टिकट के पैसे बिल्कुल बराबर, यह भी अजब इत्तफाक था। उसके हाथ में जो सिक्के थे बस वही उसके घर का सम्पूर्ण धन था। पत्नी का अन्तिम गहना, उसकी पाजेब की जोड़ी बेचने के बाद जितने भी पैसे मिले थे उसमें से अब बस यही सिक्के बचे थे। कंडक्टर ने एक हाथ में टिकट थमाया और उसने दूसरे हाथ से सिक्के उसकी हथेली में रख दिए। कंडक्टर ने सिक्के देखे, विद्रूप से मुँह बनाया और सिक्के शीशा-टूटी खिड़की से बाहर फैंकते हुए बोला, "अब तो भिखारी भी टिकट खरीदने लगे हैं।"

अपनी संपत्ति की आख़िरी निशानी उन सिक्कों को इस बेकद्री से बस की खिड़की के बाहर कोहरे के सफ़ेद समुद्र में खोते हुए देखकर उसका सर भन्ना गया। दिल में आया कि इस कंडक्टर को भी उसी खिड़की से बाहर फेंककर अपने सिक्के वापस मंगवाए मगर मुँह से उतना ही निकला, "बाहर काहे फेंक दिए जी?"

"तुझे टिकट मिल गया न? अब चुपचाप बैठा रह, अपना स्टाप आने तक।" कंडक्टर गुर्राकर अगली सवारी को टिकट पकड़ाने चल दिया।

वह सोचने लगा कि कब तक वह अकारण ही जानवरों की तरह दुत्कारा जाता रहेगा। यह कंडक्टर तो कोई सेठ नहीं है और न ही पढा-लिखा बाबू है। यह तो शायद उसके जैसा ही है। अगर यह भी उसे इंसान नहीं समझ सकता तो फिर बड़े आदमियों से क्या उम्मीद की जा सकती है।

आखिरकार बस उसके ठिये तक पहुँच गयी। वह बस से उतरकर सेठ की गद्दी की तरफ़ चलने लगा। कोहरे की बूँदें उसके कुरते पर मोतियों की तरह चिपकने लगीं। पास में ही एक चाय के खोखे के आस पास कुछ लोग खड़े अखबार पढ़ रहे थे। उसे पता था कि अंटी खाली है। फिर भी उसका हाथ वहाँ चला गया। कुछ क्षणों के लिए उसके कदम भी ठिठके मगर सच्चाई से समझौता करना तो अब उसकी आदत सी ही हो गयी थी, सो गद्दी की तरफ़ चल पडा। मन ही मन मनाता जा रहा था कि कुछ न कुछ काम उसके लिए बच ही गया हो।

"लो आ गए अपने बाप की बरात में से!" सेठ का बेटा उसे देखकर साथ खड़े मुंशी से बोला। कल का लड़का, लेकिन कभी किसी मजदूर से सीधे मुँह बात नहीं करता है। फिर उसकी तरफ़ मुखातिब होकर बोला, "अबे ये आने का टाइम है क्या?"

"जी बाउजी, कोई काम है?" उसने सकुचाते हुए पूछा।

"किस्मत वाला है रे तू, हफ्ते भर का काम है तेरे लिए..." मुंशी ने आशा के विपरीत कहा, "ठेकेदार आता ही होगा बाहर, ट्रक में साथ में चला जइयो।"

ट्रक आने में ज़्यादा देर नहीं लगी। ठेकेदार ने अन्दर आकर सेठ के मुंशी के हाथ में कुछ रुपये पकडाए और मुंशी ने लगभग धकियाते हुए उसे आगे कर दिया।

"चल आजा फ़टाफ़ट" ठेकेदार ने ड्राइवर के बगल में बैठते हुए कहा।

वह ट्रक के पीछे जाकर ऊपर चढ़ गया। कुछ मजदूर वहाँ पहले से ही मौजूद थे। कुदाली वगैरह औजार भी एक कोने में पड़े थे। ट्रक खुला था और ठण्ड भी थी। सूरज चढ़ने लगा था मगर धूप भी उसकी तरह ही बेदम थी।

उसने साथ बैठे आदमी को जय राम जी की कही और पूछा, "कहाँ जा रहे हैं?"

"जाने बालीगंज की तरफ़ है जाने कहाँ!" साथी ने कुछ अटपटा सा जवाब दिया।

[क्रमशः]

Thursday, October 30, 2008

सब कुछ ढह गया - 1

रह-रहकर बाईं आँख फड़क रही थी। आँख को कई बार मला मगर कोई फायदा न हुआ। उसे याद आया कि माँ बाईं आँख फड़कने को कितना बुरा मानती थी। छोटा था तो वह भी इस बात पर यकीन करता था। अब जानता है कि अमीरों को किसी भी आँख के फड़कने से कोई नुक्सान नहीं होता और मुसीबत के मारों से तो भगवान् राम भी अप्रसन्न ही रहते हैं। उन पर फटने के लिए दुर्भाग्य का बादल भला किसी आँख के फड़कने का इंतज़ार क्यों करेगा। उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आज वह इतना उदास क्यों था। पहले भी कितनी बार ऐसा हुआ है जब बीमार बच्चे को घर छोड़कर काम पर निकला था। गरीब आदमी और कर भी क्या सकता है? मजदूरी नहीं करेगा तो क्या ख़ुद खायेगा और क्या घर में खिलायेगा? बाबूजी ठीक ही तो कहते थे कि गरीब का दिल तो बेबसी का ठिकाना होता है। बाबूजी कितने ज़हीन थे। अगर किसी खाते-पीते घर में पैदा होते तो शायद पढ़ लिख कर बहुत बड़े आदमी बनते। वह भी जींस टी-शर्ट पहनकर घूमता। स्कूल गया होता और शायद आज किसी आलीशान दफ्तर में बैठकर कोई अच्छी सी नौकरी कर रहा होता। ऊपर से यह सर्दी का मौसम। कडाके की ठंड है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। गाँव में तो आंगन में पुआल जलाकर थोड़ी देर बदन गर्म करने को मिल जाता था। शहर में अव्वल तो पुआल कहाँ से आये, और अगर कहीं से जुगाड़ हो भी गया तो चार फ़ुट की कोठरी में खुद बैठें कि पुआल जलाएं। आने वाली रात नए साल की पहली रात है। पैसेवालों की क्या बात है। हर तरफ जश्न मनाने की तैय्यारी होती दिख रही है। बस में भी ठिठुरता रहा। एक ही तो सदरी थी, कितनी सर्दियां चलती। नामालूम, बस ही धीरे चल रही थी या फिर रास्ता आज कुछ ज़्यादा लंबा हो गया था. बस वक़्त गुज़रता जा रहा था लेकिन उसके काम का ठिया तो आने का नाम ही न ले रहा था। अपनी सीट पर सिकुड़ा सा बैठा रहा। सारे रास्ते खैर मनाता रहा कि आज देर होने के बावजूद भी कोई न कोई काम मिल जाए। अगर खाली हाथ वापस आना पडा तो बहुत मुश्किल होगी। आज तो मुन्ने की दवा के लिए भी घर में एक कानी कौडी नहीं बची है। [क्रमशः]