शरद ऋतु की अपनी ही सुन्दरता है। इस दुनिया की सारी रंगीनी श्वेत-श्याम हो जाती है। हिम की चान्दनी दिन रात बिखरी रहती है। लेकिन जब बर्फ़ पिघलती है तब तो जैसे जीवन भरक उठता है। ठूंठ से खड़े पेड़ नवपल्लवों द्वारा अपनी जीवंतता का अहसास दिलाते हैं। और साथ ही खिल उठते हैं, किस्म-किस्म के फूल। रातोंरात चहुँ ओर बिखरकर प्रकृति के रंग एक कलाकृति सी बना लेते हैं। और दृष्टिगत सौन्दर्य के साथ-साथ उसमें होती हैं विभिन्न प्रकार की गन्ध। गन्ध के सभी नैसर्गिक रूप; फिर भी कभी वह एकदम जंगली लगती हैं और कभी परिष्कृत। मानव मन के साथ भी तो शायद ऐसा ही होता है। सुन्दर कपड़े, शानदार हेयरकट और विभिन्न प्रकार के शृंगार के नीचे कितना आदिम और क्रूर मन छिपा है, एक नज़र देखने पर पता ही नहीं लगता।
रेस्त्राँ में ठीक सामने बैठी रूपसी ने कितने दिल तोड़े हों, किसे पता। नित्य प्रातः नहा धोकर मन्दिर जाने वाला अपने दफ़्तर में कितनी रिश्वत लेता हो और कितने ग़बन कर चुका हो, किसे मालूम है। मौका मिलते ही दहेज़ मांगने, बहुएं जलाने, लूट, बलात्कार, और ऑनर किलिंग करने वाले लोग क्या आसमान से टपकते हैं? क्या पाँच वक़्त की नमाज़ पढने वाले ग़ाज़ी बाबा ने दंगे के समय धर्मान्ध होकर किसी की जान ली होगी और फिर शव को रातों-रात नदी में बहा दिया होगा? मुझे नहीं पता। मैं तो इतना जानता हूँ कि इंसान, हैवान, शैतान, देवासुर सभी वेश बदलकर हमारे बीच घूमते रहते हैं। हम और आप देख ही नहीं पाते। देख भी लें तो पहचानेंगे कैसे? कभी उस दृष्टि से देखने की ज़रूरत ही नहीं समझते हम।
खैर, हम बात कर रहे थे बहार की, फूलों की, और सुगन्ध की। संत तुलसीदास ने कहा है "सकल पदारथ हैं जग माहीं कर्महीन नर पावत नाहीं। जीवन में सुगन्ध की केवल उपस्थिति काफी नहीं है। उसे अनुभव करने का भाग्य भी होना चाहिये। फूलों की नगरी में रहते हुए लोगों को फूलों के परागकणों या सुगन्धि से परहेज़ हो सकता है। मगर देबू को तो इन दोनों ही से गम्भीर एलर्जी थी। घर खरीदने के बाद पहला काम उसने यही किया कि लॉन के सारे पौधे उखडवा डाले। पत्नी रीटा और बेटे विनय, दोनों ही फूलों और वनस्पतियों के शौकीन हैं, लेकिन अपने प्रियजन की तकलीफ़ किसे देखी जाती है। सो तय हुआ कि ऐसे पौधे लगाये जायें जो रंगीन हों, सुन्दर भी हों, परंतु हों गन्धहीन। सूरजमुखी, गुड़हल, डेहलिया, ऐज़लीया, ट्यूलिप जैसे कितने ही पौधे। इन पौधों में भी लम्बी डंडियों वाले खूबसूरत आइरिस देबू की पहली पसन्द बने।
देबू आज सुबह काफ़ी जल्दी उठ गया था। दिन ही ऐसा खुशी का था। आज की प्रतीक्षा तो उसे कब से थी। रात में कई बार आँख खुल जा रही थी। समय देखता और फिर सोने की कोशिश करता मगर आँखों में नींद ही कहाँ थी। नहा धोकर अविलम्ब तैयार हुआ और बाहर आकर अपनी रंग-बिरंगी बगिया पर एक भरपूर नज़र डाली। कुछ देर तक मन ही मन कुछ हिसाब सा लगाया और फिर आइरिस के एक दर्ज़न सबसे सुन्दर फूल अपनी लम्बी डंडियों के साथ बड़ी सफ़ाई से काट लिये। भीतर आकर बड़े मनोयोग से उनको जोड़कर एक सुन्दर सा गुलदस्ता बनाया। कार में साथ की सीट पर रखकर गुनगुनाते हुए उसने अपनी गाड़ी बाहर निकाली। गराज का स्वचालित दरवाज़ा बन्द हुआ और कार फ़र्राटे से स्कूल की ओर भागने लगी। कार के स्वर-तंत्र से संत कबीर के धीर-गम्भीर शब्द बहने लगे, "दास कबीर जतन ते ओढी, ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया।"
[क्रमशः]
रेस्त्राँ में ठीक सामने बैठी रूपसी ने कितने दिल तोड़े हों, किसे पता। नित्य प्रातः नहा धोकर मन्दिर जाने वाला अपने दफ़्तर में कितनी रिश्वत लेता हो और कितने ग़बन कर चुका हो, किसे मालूम है। मौका मिलते ही दहेज़ मांगने, बहुएं जलाने, लूट, बलात्कार, और ऑनर किलिंग करने वाले लोग क्या आसमान से टपकते हैं? क्या पाँच वक़्त की नमाज़ पढने वाले ग़ाज़ी बाबा ने दंगे के समय धर्मान्ध होकर किसी की जान ली होगी और फिर शव को रातों-रात नदी में बहा दिया होगा? मुझे नहीं पता। मैं तो इतना जानता हूँ कि इंसान, हैवान, शैतान, देवासुर सभी वेश बदलकर हमारे बीच घूमते रहते हैं। हम और आप देख ही नहीं पाते। देख भी लें तो पहचानेंगे कैसे? कभी उस दृष्टि से देखने की ज़रूरत ही नहीं समझते हम।
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहाँ उम्मीद हो उसकी वहाँ नहीं मिलता।
~ नक़्श लायलपुरी
कथा व चित्र: अनुराग शर्मा |
देबू आज सुबह काफ़ी जल्दी उठ गया था। दिन ही ऐसा खुशी का था। आज की प्रतीक्षा तो उसे कब से थी। रात में कई बार आँख खुल जा रही थी। समय देखता और फिर सोने की कोशिश करता मगर आँखों में नींद ही कहाँ थी। नहा धोकर अविलम्ब तैयार हुआ और बाहर आकर अपनी रंग-बिरंगी बगिया पर एक भरपूर नज़र डाली। कुछ देर तक मन ही मन कुछ हिसाब सा लगाया और फिर आइरिस के एक दर्ज़न सबसे सुन्दर फूल अपनी लम्बी डंडियों के साथ बड़ी सफ़ाई से काट लिये। भीतर आकर बड़े मनोयोग से उनको जोड़कर एक सुन्दर सा गुलदस्ता बनाया। कार में साथ की सीट पर रखकर गुनगुनाते हुए उसने अपनी गाड़ी बाहर निकाली। गराज का स्वचालित दरवाज़ा बन्द हुआ और कार फ़र्राटे से स्कूल की ओर भागने लगी। कार के स्वर-तंत्र से संत कबीर के धीर-गम्भीर शब्द बहने लगे, "दास कबीर जतन ते ओढी, ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया।"
[क्रमशः]
क्या आपकी उत्कृष्ट-प्रस्तुति
ReplyDeleteशुक्रवारीय चर्चामंच
में लिपटी पड़ी है ??
charchamanch.blogspot.com
अच्छा लिखा है आपने ... आगे की कहानी की प्रतिक्षा में ....धन्यवाद .
ReplyDeleteक्रमश:.... आह!!!! कहानी के अगले भाग की प्रतीक्षा में
ReplyDeleteजहाँ नजर दौडाओ वहाँ आज ऐसे ही उजली पोशाको में छुपे नाम बड़े और दर्शन छोटे वाले भद्र लोग ही नजर आते है ! अगली कड़ी का इन्तजार, वैसे कहानी की कड़ी आपने बहुत छोटी रखी है , वर्तमान कड़ी में २-३ पैराग्राफ और जोड़े जा सकते थे !
ReplyDeleteaage ki kahani ka intzar rahega...:)
ReplyDeleteकहानी की भूमिका तो जोरदार बन पड़ी है . आगे का इंतजार रहेगा .
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने, आगे की कहानी की प्रतिक्षा में
ReplyDeleteइस बार कहानी देखकर नीचे देखा.. क्रमशः लिखा था. सोचा, पढ़ ही लूँ. शुरुआत बहुत ही खूबसूरत है. मौसम और फूलों के सजीव चित्रण के बाद जैसे ही कहानी आई, बाँध लिया!! एक सस्पेंस के नोट पर समाप्त! आगे की कहानी की तो गंध भी मिलनी मुश्किल हो रही है!!
ReplyDeleteकहानी उत्सुकता जगाने में सफल हुई है.. आभार!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteसरस, रोचक और एक सांस में पठनीय रचना के लिए बधाई।
ReplyDeleteआगे पढेंगे ..
ReplyDeletekalamdaan.blogspot.com
आगे की कहानी की प्रतीक्षा...
ReplyDeletebeautiful story narrated through the nature.
ReplyDeleteGANDHHIN FUL OF FRAGERENCE.
LOVELY STORY
दर्शन की, रोमांच की, शिल्प की सुगंध आने लगी है। लेंग्थ के मामले में थोड़ा लिबरल होना चाहिये वैसे आपको:)
ReplyDeleteफिर क्रमशः
ReplyDeleteआखिर कौन है वह गुलदस्ते का हक़दार?
ReplyDeleteरहेगा बस उस अगली कडी का इन्तज़ार!!
आगे की कहानी की प्रतीक्षा...
ReplyDeleteगंधहीन फूलों का गुलदस्ता किसे देने जा रहे है महाशय ?
ReplyDeleteप्रतीक्षा है ....
'कहन' के मामले में तो आप जबर्दस्त हैं ही, यह तो कई बार कह चुका हूँ। किन्तु, कथा की पूर्व पीठिका के रूप में, इस पोस्ट का दूसरा अनुच्छेद (पैराग्राफ) अपने आप में एक सारगर्भित पोस्ट बनता है।
ReplyDeleteगंधहीन की रसभरी कहानी..रोचकता निश्चय है..
ReplyDeleteजीवन में सुगन्ध की केवल उपस्थिति काफी नहीं है। उसे अनुभव करने का भाग्य भी होना चाहिये।
ReplyDeleteसच में , अगली कड़ी की प्रतीक्षा
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज charchamanch.blogspot.com par है |
ReplyDeleteअभार, रविकर जी!
Delete"गंधहीन" शीर्षक लिए कहानी भी जब इतनी सुगन्धित हो सकती है , तब क्या आश्चर्य है कि आपके कहे विरोधाभास ( रूपसी : दिल तोड़े हों, मन्दिर जाने वाला :रिश्वत और ग़बन , .... ) इस दुनिया में देखने मिलते हैं ?
ReplyDelete:)
गंध बिखेरती कहानी कल्पना में खींच रही है .
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति को 'चर्चा मंच' में लिपटा
ReplyDeleteदेख उसकी सुगंध से यहाँ खींचा चला आया.
'गंधहीन' रचना की सुगंध से मन प्रसन्न हो गया है.
अगली कड़ी का इन्तजार है.
आभार
agali kadi ka intajar hai...
ReplyDeleteजीवन में सुगन्ध की केवल उपस्थिति काफी नहीं है। उसे अनुभव करने का भाग्य भी होना चाहिये।
ReplyDeleteअगली कड़ी का इन्तजार है...
jai baba banaras....
उत्कृष्ट प्रस्तुति....
ReplyDeleteरोचक एवं प्रवाहमयी- आगे इन्तजार है.
ReplyDeleteउत्सुकता जगाती हुई, प्रवाहमयी.........
ReplyDeleteagli kisht ka intezaar rahega
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