पिछली कड़ी में आपने पढा:
घर आते समय गाड़ी चालू करते ही सीडी बजने लगी। देबू ने फूलों का गुलदस्ता डैशबोर्ड पर रख लिया। उसकी भावनाओं को आसानी से कह पाना कठिन है। वह एक साथ खुश भी था और सामान्य भी। उसके दिमाग़ में बहुत सी बातें चल रही थीं। वह सोच नहीं रहा था बल्कि विचारों से जूझ रहा था। घर पहुँचने तक उसके जीवन के अनेक वर्ष किसी सोप ऑपरा की तरह उसकी आँखों के सामने से गुज़र गये। कार में चल रहा कबीर का गीत "माया महाठगिनी हम जानी ..." उन उलझे हुए विचारों के लिये सटीक पृष्ठभूमि प्रदान कर रहा था।
घर आ गया। गराज खुली, कार रुकी, गराज का दरवाज़ा बन्द हुआ। गायक व गीतकार वही थे, गीत बदल गया था।
जब लग मनहि विकारा, तब लग नहिं छूटे संसारा।
जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना।।
"पापा ... कहाँ हैं आप?" बन्द कार में चलते संगीत में विनय की आवाज़ बहुत मद्धम सी लगी। घर में किसी को होना नहीं चाहिये, शायद आवाज़ का भ्रम हुआ था।
"जो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीन्ही चदरिया, झीनी रे झीनी ..." संतों की वाणी में कितना सार है! देशकाल के पार। बिना देखे भी सब देख सकते हैं। जो हो चुका है, और जो होना है, सब कुछ देख चुके हैं, कह चुके हैं। हर कविता पढी जा चुकी है और हर कहानी लिखी जा चुकी है।
"कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू ..." संत बनने की ज़रूरत नहीं है, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। देबू तो खुद कवि है। क्या उसका मन वहाँ तक पहुँचता है जहाँ साधारण मानव का मन नहीं पहुँच सकता? क्या मन की गति सबसे तेज़ है? नहीं, सच्चाई यह है कि यक्षप्रश्न आज भी अनुत्तरित है। मन सबसे गतिमान नहीं हो सकता। मन का विस्थापन शून्य है, इसलिये उसकी गति भी शून्य ही है।
"आता और न जाता है मन, यहीं पड़ा इतराता है मन" वाह! देबू ने अपनी ताजातरीन काव्य पंक्ति को स्वगत ही उच्चारा और मन ही मन प्रसन्न हुआ।
"कहाँ खड़े रह गये? हम इतनी देर से इंतज़ार कर रहे हैं, अब आयेंगे, अब आयेंगे!" इस बार रीटा की आवाज़ थी।
"जो आयेगी सो रोयेगी, ऐसे पूर्णतावादी के पल्ले बन्ध के" माँ कहती थीं तो नन्हा देबू हँसता था, "आप तो इतनी खुश हैं बाबूजी के साथ!"
"किस्मत वाले हो जो रीटा जैसी पत्नी मिली है" जो देखता, अपने-अपने तरीके से यही कहता था। वह मुस्करा देता। लोग तो कुछ भी कह देते हैं, लेकिन देबू आज तक तय नहीं कर सका है कि वह पूर्णतावादी है या किस्मत वाला। हाँ वह यथास्थितिवादी अवश्य हो गया है, गीत भी अभी बदल गया है, "उज्जवल वरण दिये बगुलन को, कोयल कर दीन्ही कारी, संतों! करम की गति न्यारी ..."
पहले तो चला जाता था। तब सब ठीक हो जाता था। लेकिन इस बार ... प्रारब्ध से कब तक लड़ेगा इंसान? वैसे भी ज़िन्दगी इतनी बड़ी नहीं कि इन सब संघर्षों में गँवाने के लिये छोड़ दी जाये। इस बार तो आने को भी नहीं कहा था।
"आप चुपके से आ जाना। स्कूल में 12 बजे। किसी को पता नहीं लगेगा।"
आज पहली बार उसने जाते-आते दोनों समय गराज के स्वचालित द्वार की आवाज़ को महसूस करने का प्रयास किया था।
"रोज़ शाम को ... गराज खुलने की आवाज़ से ही दिल दहल जाता है, ... आज न जाने कौन सी बिजली गिरने वाली है। जब होश ही ठिकाने न हों तो कुछ भी हो सकता है। नॉर्मल नहीं है यह आदमी।"
आना-जाना लगा रहता था। सन्देश मिलते ही वह चला जाता था। लाने के बाद सुनने में आता था, "हज़ार बार नाक रगड़ कर गया है, तब भेजा है हमने।" इस बार का सन्देसा अलग था। इस बार नोटिस अदालत से आया था। वापस बुलाने का नहीं, हर्ज़ा-खर्चा देने का नोटिस, "हम इस आदमी के साथ नहीं रह सकते। जान का खतरा है। इसके पागलपन का इलाज होना चाहिये। मेरा बच्चा उसके साथ एक ही घर में सुरक्षित नहीं है।"
देबू कैसे सहता इतना बड़ा आरोप? एकदम झूठ है, वह तो मच्छर भी नहीं मारता। अदालत के आदेश पर वह मनोचिकित्सक के सामने बैठा है। दीवार पर बड़ा सा पोस्टर लगा है, "घरेलू हिंसा से बचें। इस शख्स को देखें। यह मक्खी भी नहीं मार सकता, मगर अपनी पत्नी को रोज़ पीटता है।" उसे लगता है पोस्टर उसके लिये खास ऑर्डर पर बनवाया गया है। उसे पोस्टर देखता देखकर मनोचिकित्सक अपनी डायरी में कुछ नोट करती है।
जब से दोनों गये हैं, देबू अक्सर घर आकर भी अन्दर नहीं आता। गराज में ही कार में सीट बिल्कुल पीछे कर के अधलेटा सा पड़ा रहता है। "बिन घरनी घर भूत का डेरा" जिस तरह दोनों की अनुपस्थिति में भी उनकी आवाज़ें सुनाई देती रहती हैं, उसे लगता है कि वह सचमुच पागल हो गया है। यह नहीं समझ पाता कि अब हुआ है या पहले से ही था। शायद रीटा की बात ही सही हो। शायद माँ की बात भी सही हो। या शायद स्त्रियों का सोचने का तरीका भिन्न होता हो। नहीं, वह खुद ही भिन्न होगा। लेकिन अगर ऐसा होता तो अपने स्कूल के वार्षिक समारोह के लिये विनय चुपके से फ़ोन करके उसे बुलाता नहीं। शायद बच्चा अपने पिता के मोह में कुछ देख नहीं पाता।
"पापा, आप ज़रूर आना, गंगावतरण की नाटिका में मैं भी हूँ। ... आपको देखने का कितना मन करता है मेरा, लेकिन माँ और नानाजी लेकर ही नहीं आते।"
किसी चलचित्र के मानिन्द तेज़ी से दौड़ते जीवन के बीते पल दृष्टिपटल पर थमने से लगे हैं। "मामा, नानी आदि आपके बारे में कुछ भी कहते रहते हैं तो भी माँ टोकती नहीं। मेरा मन करता है कि वहाँ से उसी वक्त भाग आऊँ।"
"पापा, आप आ गये?" विनय कार का दरवाज़ा बाहर से खोलता है। निष्चेष्ट पड़ा देबू उठकर बेटे का माथा चूमता है। विनय उसकी बाहों में होते हुए भी वहाँ नहीं है। आइरिस के फूल सामने हैं मगर उनमें गन्ध नहीं है। देबू विनय से कहता है, "मैं तुम्हारा अहित सोच भी नहीं सकता। तुम्हारी माँ को कोई भारी ग़लतफ़हमी हुई है।"
"आप यहाँ क्यों सो रहे हैं? अन्दर आ जाइये" रीटा तो कभी ऐसे मनुहार नहीं करती।
"बहुत थक गया हूँ ... अभी उठ नहीं सकता" शब्द शायद मन में ही रह गये।
बन्द गराज में कार के रंगहीन धुएँ के साथ भरती हुई कार्बन मोनोऑक्साइड पूर्णतया गन्धहीन है, बिल्कुल आइरिस के फूलों की तरह ही। बस, आइरिस के फूल जानलेवा नहीं होते। देबू सो रहा है, कार का इंजन अभी चालू है पर गीत बदल गया है।
जल में घट औ घट में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फूटा घट जल जलहि समाना, यह तथ कह्यौ ज्ञानी।।
[समाप्त]
Author's note: Unintentional Carbon Monoxide (CO) exposure accounts for an estimated 15,000 emergency department visits and 500 unintentional deaths in the United States each year.
सुन्दर सा गुलदस्ता बनाकर देबू अपनी कार में स्कूल की ओर चल पड़ा जहाँ चल रहे नाटक के एक कलाकार से उसकी एक चौकन्नी मुलाकात और जल्दी-जल्दी कुछ बातें हुईं।अब आगे की कहानी:
घर आते समय गाड़ी चालू करते ही सीडी बजने लगी। देबू ने फूलों का गुलदस्ता डैशबोर्ड पर रख लिया। उसकी भावनाओं को आसानी से कह पाना कठिन है। वह एक साथ खुश भी था और सामान्य भी। उसके दिमाग़ में बहुत सी बातें चल रही थीं। वह सोच नहीं रहा था बल्कि विचारों से जूझ रहा था। घर पहुँचने तक उसके जीवन के अनेक वर्ष किसी सोप ऑपरा की तरह उसकी आँखों के सामने से गुज़र गये। कार में चल रहा कबीर का गीत "माया महाठगिनी हम जानी ..." उन उलझे हुए विचारों के लिये सटीक पृष्ठभूमि प्रदान कर रहा था।
घर आ गया। गराज खुली, कार रुकी, गराज का दरवाज़ा बन्द हुआ। गायक व गीतकार वही थे, गीत बदल गया था।
जब लग मनहि विकारा, तब लग नहिं छूटे संसारा।
जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना।।
"पापा ... कहाँ हैं आप?" बन्द कार में चलते संगीत में विनय की आवाज़ बहुत मद्धम सी लगी। घर में किसी को होना नहीं चाहिये, शायद आवाज़ का भ्रम हुआ था।
"जो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीन्ही चदरिया, झीनी रे झीनी ..." संतों की वाणी में कितना सार है! देशकाल के पार। बिना देखे भी सब देख सकते हैं। जो हो चुका है, और जो होना है, सब कुछ देख चुके हैं, कह चुके हैं। हर कविता पढी जा चुकी है और हर कहानी लिखी जा चुकी है।
"कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू ..." संत बनने की ज़रूरत नहीं है, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। देबू तो खुद कवि है। क्या उसका मन वहाँ तक पहुँचता है जहाँ साधारण मानव का मन नहीं पहुँच सकता? क्या मन की गति सबसे तेज़ है? नहीं, सच्चाई यह है कि यक्षप्रश्न आज भी अनुत्तरित है। मन सबसे गतिमान नहीं हो सकता। मन का विस्थापन शून्य है, इसलिये उसकी गति भी शून्य ही है।
"आता और न जाता है मन, यहीं पड़ा इतराता है मन" वाह! देबू ने अपनी ताजातरीन काव्य पंक्ति को स्वगत ही उच्चारा और मन ही मन प्रसन्न हुआ।
"कहाँ खड़े रह गये? हम इतनी देर से इंतज़ार कर रहे हैं, अब आयेंगे, अब आयेंगे!" इस बार रीटा की आवाज़ थी।
"जो आयेगी सो रोयेगी, ऐसे पूर्णतावादी के पल्ले बन्ध के" माँ कहती थीं तो नन्हा देबू हँसता था, "आप तो इतनी खुश हैं बाबूजी के साथ!"
"किस्मत वाले हो जो रीटा जैसी पत्नी मिली है" जो देखता, अपने-अपने तरीके से यही कहता था। वह मुस्करा देता। लोग तो कुछ भी कह देते हैं, लेकिन देबू आज तक तय नहीं कर सका है कि वह पूर्णतावादी है या किस्मत वाला। हाँ वह यथास्थितिवादी अवश्य हो गया है, गीत भी अभी बदल गया है, "उज्जवल वरण दिये बगुलन को, कोयल कर दीन्ही कारी, संतों! करम की गति न्यारी ..."
पहले तो चला जाता था। तब सब ठीक हो जाता था। लेकिन इस बार ... प्रारब्ध से कब तक लड़ेगा इंसान? वैसे भी ज़िन्दगी इतनी बड़ी नहीं कि इन सब संघर्षों में गँवाने के लिये छोड़ दी जाये। इस बार तो आने को भी नहीं कहा था।
"आप चुपके से आ जाना। स्कूल में 12 बजे। किसी को पता नहीं लगेगा।"
आज पहली बार उसने जाते-आते दोनों समय गराज के स्वचालित द्वार की आवाज़ को महसूस करने का प्रयास किया था।
"रोज़ शाम को ... गराज खुलने की आवाज़ से ही दिल दहल जाता है, ... आज न जाने कौन सी बिजली गिरने वाली है। जब होश ही ठिकाने न हों तो कुछ भी हो सकता है। नॉर्मल नहीं है यह आदमी।"
आना-जाना लगा रहता था। सन्देश मिलते ही वह चला जाता था। लाने के बाद सुनने में आता था, "हज़ार बार नाक रगड़ कर गया है, तब भेजा है हमने।" इस बार का सन्देसा अलग था। इस बार नोटिस अदालत से आया था। वापस बुलाने का नहीं, हर्ज़ा-खर्चा देने का नोटिस, "हम इस आदमी के साथ नहीं रह सकते। जान का खतरा है। इसके पागलपन का इलाज होना चाहिये। मेरा बच्चा उसके साथ एक ही घर में सुरक्षित नहीं है।"
चित्र व कथा: अनुराग शर्मा |
जब से दोनों गये हैं, देबू अक्सर घर आकर भी अन्दर नहीं आता। गराज में ही कार में सीट बिल्कुल पीछे कर के अधलेटा सा पड़ा रहता है। "बिन घरनी घर भूत का डेरा" जिस तरह दोनों की अनुपस्थिति में भी उनकी आवाज़ें सुनाई देती रहती हैं, उसे लगता है कि वह सचमुच पागल हो गया है। यह नहीं समझ पाता कि अब हुआ है या पहले से ही था। शायद रीटा की बात ही सही हो। शायद माँ की बात भी सही हो। या शायद स्त्रियों का सोचने का तरीका भिन्न होता हो। नहीं, वह खुद ही भिन्न होगा। लेकिन अगर ऐसा होता तो अपने स्कूल के वार्षिक समारोह के लिये विनय चुपके से फ़ोन करके उसे बुलाता नहीं। शायद बच्चा अपने पिता के मोह में कुछ देख नहीं पाता।
"पापा, आप ज़रूर आना, गंगावतरण की नाटिका में मैं भी हूँ। ... आपको देखने का कितना मन करता है मेरा, लेकिन माँ और नानाजी लेकर ही नहीं आते।"
किसी चलचित्र के मानिन्द तेज़ी से दौड़ते जीवन के बीते पल दृष्टिपटल पर थमने से लगे हैं। "मामा, नानी आदि आपके बारे में कुछ भी कहते रहते हैं तो भी माँ टोकती नहीं। मेरा मन करता है कि वहाँ से उसी वक्त भाग आऊँ।"
"पापा, आप आ गये?" विनय कार का दरवाज़ा बाहर से खोलता है। निष्चेष्ट पड़ा देबू उठकर बेटे का माथा चूमता है। विनय उसकी बाहों में होते हुए भी वहाँ नहीं है। आइरिस के फूल सामने हैं मगर उनमें गन्ध नहीं है। देबू विनय से कहता है, "मैं तुम्हारा अहित सोच भी नहीं सकता। तुम्हारी माँ को कोई भारी ग़लतफ़हमी हुई है।"
"आप यहाँ क्यों सो रहे हैं? अन्दर आ जाइये" रीटा तो कभी ऐसे मनुहार नहीं करती।
"बहुत थक गया हूँ ... अभी उठ नहीं सकता" शब्द शायद मन में ही रह गये।
बन्द गराज में कार के रंगहीन धुएँ के साथ भरती हुई कार्बन मोनोऑक्साइड पूर्णतया गन्धहीन है, बिल्कुल आइरिस के फूलों की तरह ही। बस, आइरिस के फूल जानलेवा नहीं होते। देबू सो रहा है, कार का इंजन अभी चालू है पर गीत बदल गया है।
जल में घट औ घट में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फूटा घट जल जलहि समाना, यह तथ कह्यौ ज्ञानी।।
[समाप्त]
मैं दोहरा रहा हूँ अपनी बात कि मुझे मेरी कहानी मिल गयी लगती है... पारिवारिक संबंधों को रेखांकित करती, एक सत्यकथा... इसके पात्र देखे हुए से लगते हैं... आस पास के. दिल को छूती कहानी. और अगर मैं अपने ट्रेड-मार्क कमेंट के अंदाज़ में कहूँ तो "Fragile-handle with care!!" टाइप!
ReplyDeleteशुक्रवारीय चर्चामंच पर है यह उत्कृष्ट प्रस्तुति |
ReplyDeleteइन्सान के सांसारिक संबंधो और मन के अन्दर की पारिवारिक व्यथा संग एक दुखी और अद्वेलित मन में क्या-क्या पकता है , को बखूबी उजागर करती कहानी है !
ReplyDeleteसबसे जुड़ने और स्वयं बने रहने की दुविधा में झूलती कहानी
ReplyDeleteek gehre maun ke saath Debu ki man:stithi mehsoos ki
ReplyDeleteतीनों अंक आज एक साथ पढ़े ... प्रवाह मय भाषा के साथ आपसी सम्बन्ध के गुड रहस्यों से पार होती नाद की अविरल धार सी बहती है कहानी ... समाप्त होते हुवे भी जैसे सतत है ...
ReplyDeleteकिसी चलचित्र के मानिन्द तेज़ी से दौड़ते जीवन के बीते पल दृष्टिपटल पर थमने से लगे हैं। "मामा, नानी आदि आपके बारे में कुछ भी कहते रहते हैं तो भी माँ टोकती नहीं। मेरा मन करता है कि वहाँ से उसी वक्त भाग आऊँ।"
ReplyDeleteBEAUTIFUL STORY NARRATED BASED ON FAMILIER REALATION.
NO THANKS BECAUSE I AM WAITING AGAIN .
दिल को छूती कहानी| धन्यवाद।
ReplyDeleteपूरी कथा बहुत प्रवाहमयी रही!
ReplyDeleteबड़ी मार्मिक कहानी है .और आज के युग का सच होता जा रहा है यह.
ReplyDeleteदोनों पक्ष में सही-गलत जो भी हो..भुगतता बच्चा ही है.
आपकी कहानियाँ आस पास का सत्य ही हैं....
ReplyDeleteआस पास का सत्य ही है आप की इन कहानियों में..
ReplyDelete’ज्यों की त्यों’ भी कहाँ धर पाते हैं हम लोग, वो कर पाना भी संतों के वश की ही होती है...
ReplyDeleteसार्थक कहानी है !
ReplyDeleteअच्छी भी थोड़ी दुखद भी ....
अफ़सोस,कई बार हम अंदर की भावना के बजाय बाहरी-क्रियाकलाप पर किसी व्यक्ति के बारे में धारणा बना लेते हैं,ऐसा ही देबू के साथ हुआ !
ReplyDeleteउसके अंश ने उसे पहचाना,यही उसकी जीत रही !
कहानियां आखिर हमारे आस पास की जिंदगी से ही तो ली जाती हैं !
ReplyDeleteकहा जाता है कि माता पिता अपने बच्चों को जो सबसे कीमती उपहार दे सकते हैं , वह है एक दूसरे से प्यार !
पहले भाग में गंध का विस्तार से वर्णन पढ़ कर लग रहा था कि भूमिका लम्बी खिंच रही है लेकिन अंत पढ़कर उसके लिखने का महत्व समझ में आया। वर्तमान सामाजिक दशा का बखूबी चित्रण किया है आपने। धीरे-धीरे बढ़ रही कहानी में काव्य दर्शन और गंध के तिलस्म ने समस्या को बढ़िया ढंग से अभिव्यक्त किया है।
ReplyDeleteसंबंधों की टूटन का एहसास किस सीमा तक तोड़ देता है ,एक साथ अनेक रिश्तों की दरारें विचलित करने लगें तो ऐसा ही लगता होगा .
ReplyDeleteटीसती है कहानी, पर मुझे लगा कि प्रतीक्षा सार्थक रही।
ReplyDeleteमन के कोरों को भीगो दिया आपने। विह्वल कर दिया। अव्यक्त वेदना से भरा है मन इस क्षण। भावनाऍं मन में हैं जिसके पास जबान नहीं और जबान के पास भावनाऍं नहीं। 'अपने मन से जानीयो, मेरे मन की बात।'
ReplyDeleteतीनों किश्तें एक बार फिर पढनी 'ही' पडेंगी। एक साथ।