पिछले सप्ताह पार्क में कुछ ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जो या तो सर्दी या किसी सदमे के कारण पत्थर के हो गये थे। सोचा आपकी भी मुलाकात करा दूँ।
और अब दो पंक्तियाँ अपनी भी -
चलना अभी बहुत है गिर कर मैं सो न जाऊँ
चोटें लगी हैं इतनी पत्थर सा हो न जाऊँ ॥
पति और पत्नी |
कुछ देर आराम हो जाये? |
जब हम होंगे साठ साल के ... |
और हम खड़े-खड़े ... |
दिल के टुकड़े टुकड़े कर के ... |
और अब दो पंक्तियाँ अपनी भी -
चलना अभी बहुत है गिर कर मैं सो न जाऊँ
चोटें लगी हैं इतनी पत्थर सा हो न जाऊँ ॥
* सम्बन्धित कड़ियाँ ** इस्पात नगरी से - श्रृंखला
बहुत बढ़िया..
ReplyDeleteपत्थर के सनम...
आपके कमेन्ट फॉर्म का मेसेज भी बढ़िया है..सोचती हूँ चुरा लूँ...
:-)
बस इजाज़त दे दीजिए.
शुभकामनाएँ
:) ज़र्रानवाज़ी का शुक्रिया। नॉन-ट्रांसफ़रेबल अनुमति है! :)
Deleteचलना अभी बहुत है गिर कर मैं सो न जाऊँ
ReplyDeleteचोटें लगी हैं इतनी पत्थर सा हो न जाऊँ
बेहतरीन प्रस्तुति ! चलते जाना ही जिन्दगी है !
जितनी खूबसूरती से इसे सिलसिलेवार सजाया है आपने और जितनी संजीदगी से कैप्शंस दिए हैं आपने.. ऐसा लगता है कि इस्पात नगरी के ये पत्थर के बुत भी बोलने लगे हैं!!
ReplyDeleteअरे बाप रे! इतनी सर्दी पड़ती है कि जम कर पत्थर बन जाते हैं लोग! जवाहिरलाल को बुला लेना चाहिये जो रोज अलाव जला कर उन्हे जीवंत कर दे!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति| धन्यवाद|
ReplyDeleteबहुत खूब । हम तो सोचते थे हम ही पत्थरों के शहर में बसते हैं । :)
ReplyDeleteबहुत खुब बोलते से बुत!!
ReplyDeleteपत्थर के खुदा, पत्थर के सनम, पत्थर के ही इंसा......
ReplyDeleteकमल के फोटो और उम्दा आपकी दो पंक्तियाँ
ReplyDeleteशब्द और चित्र दोनों बहुत उम्दा ......
ReplyDeleteपत्थर में चिन कर भी धड़क रहे हैं ये दिल
ReplyDeleteचलते फिरते पत्थर भी देखे बहुत है हमने !
अच्छी तस्वीरें !
पत्थर चोटें बनाती हैं,
ReplyDeleteचोटें पत्थर बना देती हैं..
यह अच्छा होता कि चोट खाने से पहले पत्थर के हो जाते !
ReplyDeleteइन पत्थरों को देखकर लगता है की
ReplyDeleteहम भी पत्थर हो गए है चलते फिरते ...
ये पत्थर तो बोल रहे हैं !
ReplyDeletebahut badhiyaa
ReplyDeleteदिल को छू गयी ये पोस्ट.
ReplyDeleteगज़ब के पत्थर और आखिरी २ पंक्तियाँ...लाजबाब.
ReplyDeleteआपका शीर्षक जेंडर बॉयस क्यूँ है जी? :)
ReplyDeleteआज 11 महीने बाद शीर्षक ठीक कर दिया गया है और यह भी समझ आ गया कि अंत से आरंभ करने पर नाम खराब हो सकता है। अंतिम चित्र और एक कविता लिखने का प्लान था जो कि पोस्ट पूरी होने तक कविता कम चित्र-लेख अधिक बन गया। हालांकि यह टिप्पणी लिखते समय भी हुआ वही - अंतिम वाकई सबसे पहले लिख गया और अंत मे अंत की ओर भेजा गया इस बड़ी शिक्षा के लिए धन्यवाद!
Deleteसंदर्भ के लिए:
Deleteपुराना शीर्षक: ... और वह पत्थर हो गया
नया शीर्षक: ... और वे पत्थर हो गए
अब झेलिये नये इल्ज़ाम -
Delete१. शीर्षक में बदलाव एकवचन से बहुवचन वाला बदलाव है सिर्फ़ जेंडर बायस दूर करने वाला नहीं।
२. पहला इल्ज़ाम कमजोर लगे तो ये दूसरे वाला एकदम सोलिड स्टेट - ग्यारह महीने पहले आपने ऐसा शीर्षक दिया था। :)
हरि ॐ तत्सत!
Deleteसंजय जी के कमेन्ट का शीर्षक होना चाहिए 'बाल से उतारो खाल' :)
Deleteसर्दी और सदमे से पत्थर बन गए.
ReplyDeleteमुझे लगता है साठ और पचपन वाले तो खुशी
में ही पत्थर हुए हैं.
सुन्दर मनमोहक प्रस्तुति.
आभार.
और हम खडे खडे
ReplyDeleteपत्त्यर हो गये
लोग पूजने लगे
ईश्वत हो गये :)
रोज़गार सृजन का ऐसा ही प्रयास तोक्यो में भी कई जगह दिखा ।
ReplyDeleteचलना अभी बहुत है गिर कर मैं सो न जाऊँ
ReplyDeleteचोटें लगी हैं इतनी पत्थर सा हो न जाऊँ
बहुत ही सुन्दर |
मूर्तियाँ भी बोलती हैं ...
ReplyDeleteये तो आपने असम की जादूगरनियों की याद दिला दी जो पूर्वांचल के कामगारों को पत्थर का बना देती हैं -अगर वे उनसे पीछा छुडाते हैं तो -ऐसी मान्यता रही है :) पश्चिम में भी ऐसा ही कुछ है क्या ? सावधान रहिएगा !
ReplyDeleteजी, कम से कम इस पर्वतीय क्षेत्र की भूमि तो असम ही है (हाँ अहोम साम्राज्य वाला असम देखे हुए कई दशक हो गए।)
Deleteवाकई ...बेहद उम्दा हैं।
ReplyDeleteआभार! आपका प्रयास है तो खूबसूरत ही होगा!
ReplyDeleteअरे....मुझे लगा कि लोग घूमकर घर तो पहुंच गए पर अपना दिल और अक्स यहीं छोड़ गए हैं ..शायद इसलिए कि वो व्यस्त होने की वजह से समय न निकाल पाएं तो उनका ये घूमने वाला अक्श ही घुम कर उनकी कमी पूरी कर दे.हीहीहीहीही
ReplyDeleteये तो एड्स वाला स्लोगन है भाई ! हमारे डिपार्टमेंट से चुराया है न !
ReplyDelete...और हम खड़े-खड़े गुबार देखते रहे ...
ReplyDeleteकौशलेन्द्र जी, अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचय्यार्परिग्रहा यमाः
ReplyDeleteअहिंसा, सत्य, अस्तेय ...
..बेहद उम्दा
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लगा इस पोस्ट को पढ़ और देख कर....बेहद उम्दा
ReplyDeletenice statue it looks like real people. :)
ReplyDeleteजिंदगी तो चलने का नाम ही है ... ये पत्थर हुवे लोग भी कभी जरूर चलते होंगे ...
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर चित्र ..
ReplyDeleteबोलते पत्थर। खास कर 'जब हम होंगे साठ बरस के' वाला।
ReplyDeletewaah...amazing..:) :)
ReplyDeleteaur antim ki pankityan to behtreen hain
"चलना अभी बहुत है गिर कर मैं सो न जाऊँ
चोटें लगी हैं इतनी पत्थर सा हो न जाऊँ "