(अनुराग शर्मा)
उनके धक्के से गिरा ऐसा नहीं है यारों
कच्ची दीवार को इक रोज़ तो गिरना ही था
दिल मुझपे लुटाया है तो कुछ खास नहीं
आज या कल में तो उनको भी समझना ही था
कितनी मुद्दत से जलाता रहा दिल को अपने
ऐसे गुलज़ार को दिलदार तो बनना ही था
लाख समझाया मगर इश्क़ से मैं बच न सका
मैं भी फ़ानी हूँ क़यामत पे तो मरना ही था
हाथ रंगे वो मेरी लाश के सर बैठे हैं
उनके हाथों मेरी क़िस्मत को संवरना ही था।
होनी थी वह हो के रही, अनहोनी का होना क्या? |
उनके धक्के से गिरा ऐसा नहीं है यारों
कच्ची दीवार को इक रोज़ तो गिरना ही था
दिल मुझपे लुटाया है तो कुछ खास नहीं
आज या कल में तो उनको भी समझना ही था
कितनी मुद्दत से जलाता रहा दिल को अपने
ऐसे गुलज़ार को दिलदार तो बनना ही था
लाख समझाया मगर इश्क़ से मैं बच न सका
मैं भी फ़ानी हूँ क़यामत पे तो मरना ही था
हाथ रंगे वो मेरी लाश के सर बैठे हैं
उनके हाथों मेरी क़िस्मत को संवरना ही था।
उनकी हर अदा कैसी भी हो,
ReplyDeleteउनकी हर बात में मुझे हंसना ही था !!
वाह महाराज,जियो !
लाख समझाया मगर इश्क़ से मैं बच न सका
ReplyDeleteमैं भी फ़ानी हूँ क़यामत पे तो मरना ही था
समझदार लोग ही शायद प्रेम से बचते है
यह तो नासमझों का रोग है !
हर पंक्ति सुंदर लगी !
बहुत खूब...
ReplyDeleteमैंने इसे पढ़कर बाथरूम सिंगर बनने की कोशिश भी की और हर पंक्ति के अंत में ’यारों’ का प्रयोग और प्रभावी लगा।
अति सुन्दर!
Deleteउनके धक्के से गिरा ऐसा नहीं है यारों
ReplyDeleteकच्ची दीवार हूँ इक रोज़ तो गिरना ही था-
मार्मिक व संवेदनशील सृजन बहुत सुन्दर , बधाईयाँ जी /
बुड्ढा होगा तेरा बाप का अमिताभ बच्चन का डायलोग याद आ गया " हार्ट अटैक से सिर्फ मर्द मरते हैं, क्योंकि उनके पास दिल होता है ! :) :)
ReplyDeleteहर पंक्ति दमदार,
ReplyDeleteकत्ल उलके हाथों लिखा हो, हमारे नसीब ऐसे कहाँ...
लाख समझाया मगर इश्क़ से मैं बच न सका
ReplyDeleteमैं भी फ़ानी हूँ क़यामत पे तो मरना ही था
it happens in love.
BEST LINES NARRATED BY YOU.THANKS
उनके धक्के से गिरा ऐसा नहीं है यारों
ReplyDeleteकच्ची दीवार हूँ इक रोज़ तो गिरना ही था
..जब गिर गये तब 'हूँ' कैसा! था न?
कच्ची दीवार को इक रोज तो गिरना ही था
देवेन्द्र जी ,
Delete'हूं' पे आपत्ति ना कीजिये ! कवि की भावनाओं के साथ तालमेल बैठाइये , ज़रा देखिये तो सही पहले कच्ची दीवार 'खड़ी' है सो 'हूं' और बाद में 'पड़ी' तो भी 'हूं' ही हुआ ना :)
लो जी कल्लो बात! तालमेल ही तो बिठा रहा हूँ। जो खड़ी ना हो वो दीवार कैसी?
Deleteगिर कर बिखर गई हर एक ईंट चीख-चीख कर कहती है..हम भी कभी दीवार थे।:)
Wonderful!
Deleteदीवार अभी गिरी है, ईंटों में बिखरी नहीं, वैसे भी कच्ची ईंटों की कच्ची दीवार थी, बिखरने पर ईंटें नहीं धूल के ज़र्रे ही दिखेंगे।
Deleteहर ज़र्रा चमकता है अनवारे इलाही से
हर सांस ये कहती है हम हैं तो खुदा भी है
वाह,बिना अली साब के आये कोई ईंट भी दिवार नहीं बनती !
Deleteदेवेन्द्र जी,
Deleteआपके सुझाव पर परिवर्तित पंक्ति इस प्रकार है -
उनके धक्के से गिरा ऐसा नहीं है यारों
कच्ची दीवार को इक रोज़ तो गिरना ही था
देवेन्द्र जी,
Deleteदीवार का 'गिरना' मतलब उसे 'दिवंगत' ही बताने पे ही क्यों तुले हुए हैं :)
मसलन गिरे से गिरा हुआ आदमी भी हमेशा दिवंगत कहां होता है :)
हर ज़र्रा चमकता है अनवारे इलाही से
Deleteहर सांस ये कहती है हम हैं तो खुदा भी है
..वाह! यह ज़ज्बा इस गज़ल के अगले शेर में आ पाता तो क्या बात हो जाती। वैसे ग़ज़ल बहुत बढ़िया लगी। मक्ता लाज़वाब लगा। मतले पर अटक गया था। गज़ल की यही समस्या है किसी मिसरे की हल्की सी चूक भी पूरी गज़ल का बेड़ागर्क कर देती है। यही कारण है कि मैं खुद बढ़िया ग़ज़ल नहीं लिख पाता।..आभार।
@हर ज़र्रा चमकता है ...
Deleteयह तो एक बड़े शायर के शब्द हैं, अपने बस की बात कहाँ! :(
आज इन्हें पढ़कर दिन सफल है गया.
ReplyDeleteदिल को छूती रचना।
ReplyDeleteअपनी टिप्पणी से पहले एक सवाल.. साथ में जो चित्र लगाया है जिसमें यही कविता किसी पत्रिका में छपी दिखाई गयी है, उसके विषय में कुछ बताएं तो कुछ कहूँ.. दोनों कवितायें एक ही हैं मगर शब्दों का हेर-फेर या फेर बदल है.. इसका क्या कारण है?
ReplyDeleteनोटिस करने का आभार। परिवर्तन की गुंजाइश अक्सर वहाँ होती है जहाँ यथास्थिति संतोषजनक नही होती। उद्देश्य तो सुधार है, मगर वह क्षमता पर निर्भर करता है। मैं तो मत्ला और मक़्ता जोड़कर इसे ग़ज़ल ही बनाने की सोच रहा था लेकिन फिर वही यायावर का मन और पाँव - टिकता कहाँ है जो एक रचना भी इत्मीनान से पूरी है। बता दिया - अब कहिये जो कहना है।
Deleteअज़ब ये विधा है गज़ल भी यारों!
ReplyDeleteमार्मिक व संवेदनशील सृजन|
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत खूब....
लाख समझाया मगर इश्क़ से मैं बच न सका
ReplyDeleteमैं भी फ़ानी हूँ क़यामत पे तो मरना ही था
क्या बात है,..सुन्दर रचना
सुन्दर रचना
ReplyDeleteबेहद उम्दा , कमाल की पक्तियां हैं.....
ReplyDeleteबहुत ख़ूब कहा स्मार्ट भाई ‘उनके धक्के से गिरा ऐसा नहीं है यारों’।
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आना हो पा रहा है क्या बतलाएँ ? ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत की कमी बहुत खलती है। समीर जी से कहता हूँ कि क्या वापसी नहीं हो सकती ? क्या कहें वे भी।
ख़ैर।
इस शेर ने दिल को छू लिया के ‘ हाथ रंगे वो मेरी लाश के सर बैठे हैं, उनके हाथों मेरी क़िस्मत को संवरना ही था।’ आपका आभार जो हमारे साथ पंडितजी को आपने भी याद किया।
अपन इसीलिए कभी पड़े नहीं इन चक्करों में।
ReplyDeleteवेलेंटाइन डे स्पेशल !
ReplyDeleteबहुत खूब ।
कच्ची दिवार हो या पक्का फल... गिरना तो है ही :)
ReplyDeleteउनके धक्के से गिरा ऐसा नहीं है यारों
ReplyDeleteकच्ची दीवार को इक रोज़ तो गिरना ही था
बहुत ही गहरे जज्बात के साथ लिखी गयी बेहतरीन पंक्तियाँ ..
कच्ची दिवार की मानिंद गिरे भी तो क्या ....
ReplyDelete" गिरती हुई दीवारों हम तुमको थाम लेंगे
बेबस हुए जो कभी तो तुम्हरा ही सहारा लेंगे "
@लाख समझाया मगर इश्क़ से मैं बच न सका
मैं भी फ़ानी हूँ क़यामत पे तो मरना ही था
इश्क वह आतिश है ग़ालिब जो लगाये ना लगे !
अच्छी लगी ग़ज़ल !
साहब इश्क से बचना बड़ा मुश्किल होता है...
ReplyDeleteलाख समझाया मगर इश्क़ से मैं बच न सका
ReplyDeleteमैं भी फ़ानी हूँ क़यामत पे तो मरना ही था ...
तो क्या ये इश्क क़यामत है ... शायद नहीं ये तो जीने की संजीवनी है ...
अन्तिम शेर बहुत ही सुन्दर है।
ReplyDeleteसलिल चचा के कमेन्ट को पढ़ने के बाद मैंने भी वो चित्र बड़ा कर के देखा :P
ReplyDeletevery nice :)
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 12 अगस्त 2017 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!