(अनुराग शर्मा)
वो खुद है खुदा की जादूगरी
फिर चलता जादू टोना क्या
जो होनी थी वह हो के रही
अब अनहोनी का होना क्या
जब किस्मत थी भरपूर मिला
अब प्यार नहीं तो रोना क्या
गर प्रेम का नाता टूट गया
नफरत के तीर चुभोना क्या
जज़्बात की ही जब क़द्र नहीं
तो मुफ्त में आँख भिगोना क्या
[क्रमशः]
हर चीज यहाँ एक भाव बिके.
ReplyDeleteपीतल क्या और सोना क्या+
जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
ReplyDeleteमुफ्त में आँख भिगोना क्या
यही सच है
बड़ा पुराना गीत याद दिला दिया आपकी इस कविता ने ! बड़े प्यारे बोल हैं ! शुभकामनायें
ReplyDeletehttp://satish-saxena.blogspot.com/2008/06/blog-post.html
जहाँ क़द्र नहीं जज्बातों की ,
ReplyDeleteमुफ्त में आँख भिगोना क्या ...
और क्या ...
पर आँखें कब अपना कहा मानती हैं ...
गर प्रेम का नाता टूट गया
नफरत के तीर चुभोना क्या ...
ये अपने वश में हैं , यही कर लेते हैं!
श्रेष्ठ रचनाएं समष्टि से सहज ही तादात्म्य कर लेती हैं .....मेरे भी मन की बात ..
ReplyDeleteबस वही अनहोनी का अनहोना क्या ?
संशोधन करके देखें कैसा लगता है :)
मो सम कौन की तुक भी लय ताल में ही है :)
सैल्यूट भाई मो सम !
सच है व्यावहारिकता तो यही कहती है कि जब कद्र नही जज्बातों की तो मुफ्त में आँख भिगोना क्या? लेकिन फिर भी टीस तो उठ ही जाती है। बहुत अच्छी कविता, बधाई।
ReplyDeleteसच है, भावशून्य के सामने क्यों बहना।
ReplyDeleteआपकी सारी बातों से सहमत और संजय जी की बात से भी।
ReplyDeleteसार्थक रचना
जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
ReplyDeleteमुफ्त में आँख भिगोना क्या....
sampurn rachna hi lajwab...
shayad yahi such hai .abhaar
जी सही बात है भैंस के आगे क्या बीन बजाना
ReplyDeleteबहुत अच्छी अभिव्यक्ति
जी सही बात है भैंस के आगे क्या बीन बजाना
ReplyDeleteबहुत अच्छी अभिव्यक्ति
jo sachhe dil se kavya rache...
ReplyDeleteuspar jhoothe tipiyana kya.....
pranam.
करना तो यही चाहिए किन्तु भावनाए ये करने नहीं देती अक्सर दिल दिमाग पर हावी हो जाता है | अच्छी रचना |
ReplyDelete"जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
ReplyDeleteमुफ्त में आँख भिगोना क्या"
यह सिर्फ व्यवहारिकता ही नहीं, थोड़ी समझदारी भी है... कभी कभी दिमाग की भी सुननी चाहिए..
वैसे आपकी शुभकामनाओं के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..
जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
ReplyDeleteमुफ्त में आँख भिगोना क्या
वाह बहुत खूब कहा। बधाई इस कविता के लिये।
जब उर में उतर गई कविता!
ReplyDeleteकागज पे संजोना क्या?
श्रम सहज स्वीकार करें तो
कठिनाईयों में रोना क्या?
विलक्षण रूप से प्रभावित किया आपकी इस वाणी नें!! आभार
.
ReplyDeleteहर चीज यहाँ एक भाव बिके.
पीतल क्या और सोना क्या?
@ वाह-वाह! सञ्जय जी प्रथम.
जो सच्चे दिल से काव्य रचे...
उसपर झूठे टिपियाना क्या ...
@ वाह-वाह!! सञ्जय जी द्वितीय.
और अब आखिर में
जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
मुफ्त में आँख भिगोना क्या
@ वाह-वाह!!! अनुजाग जी.
.
.
ReplyDeleteऔर मेरी तरफ से ...
जहाँ मिले नहीं छाया तक भी
तरु लंबा क्या और बौना क्या?
जो निर्णय खुद ना ले पाए
'मनमोहन' क्या और मोना क्या?
बस मिल जाये कुछ खाने को
अब पत्तल क्या और दोना क्या?
अनुराग भूख ने भगवाया
अब पिट्सबर्ग का कोना क्या?
.
जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
ReplyDeleteमुफ्त में आँख भिगोना क्या
behad khoobsurti ke saath bhawon ko shabdon me piroya hai.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .अच्छा लगा....जैसे देवता ..वैसी पूजा ..ऐसा ही होना चाहिए
ReplyDeleteशुभकामनायें
जहाँ कद्र नहीं ज़ज्बातों की...
ReplyDeleteएक दम सच्ची और अच्छी बात...
नीरज
जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
ReplyDeleteमुफ्त में आँख भिगोना क्या
बहुत ही सटीक जज्बात अभिव्यक्त किये आपने. शुभकामनाएं.
रामराम
क्या बात कही........अनमोल !!!
ReplyDeleteसदा ध्यान में रखने योग्य...
बहुत ही सुन्दर रचना...
गिरगिटिया रंग की पंक्ति-
ReplyDeleteछोड़ चले जब हम महफिल को
फिर क्या पाना औ खोना क्या.
जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
ReplyDeleteमुफ्त में आँख भिगोना क्या
बहुत सुंदर ...हर पंक्ति में जीवन सन्देश छुपा है....
बहुत खूब... बहुत खूब..
ReplyDeleteजहाँ क़द्र नहीं जज्बातों की ,
ReplyDeleteमुफ्त में आँख भिगोना क्या ...
वाह जी कमाल हे, बहुत सुंदर धन्यवाद
वो चीज़ नहीं अपनी थी जो
ReplyDeleteउसका पाना और खोना क्या!
और वो शेर जिसे लगभग सबने कोट किया उसपर चोट करने की धृष्टता कर रहा हूँ..
जज़्बात तो ख़ुद ही प्लूरल है
फिर "जज़्बातों" का होना क्या!!
बहुत सही.....इसमें मैं भी कुछ जोड़ना चाहता हूँ..पसंद आये तो बताइयेगा जरूर...
ReplyDeleteहै शब्द शब्द में मर्म भरा
ऐसी कविता का कहना क्या?
प्रणाम
राजेश
@ सर्वश्री संजय द्वय, राजेश, प्रतुल, सुज्ञ जी, राहुल जी, आप लोगों के योगदान से बनी नई रचना कहीं अधिक रोचक है|
ReplyDeleteधन्यवाद!
वर्मा जी,
ReplyDeleteआभार आपका! पंक्ति में ज़रा सा परिवर्तन कर दिया है| कृपादृष्टि यूँ ही बनी रहनी चाहिये।
जज़्बात की ही जब क़द्र नहीं
मुफ्त में आँख भिगोना क्या
शुक्रिया!
आज तो आपने कई बन्दों को कवि बना दिया :)
ReplyDeleteज़रा सी प्रेरणा इधर भी मिली ...
जब 'जाग' देश को लूट रहे
तो आंख खोलकर सोना क्या
जाग = कौव्वे
भौंचक!
ReplyDeleteवाकई सब को प्रेरणा दे गई ये कविता।
इन्व्याव्हारिक शेरों के लिए बधाई।
जब इतने सारे बोल गए तो
ReplyDeleteहमें बोल कर करना क्या?
बहुत अच्छा है। मजे आ गये!
ReplyDeleteचिरंतन मुक्ति का गीत
ReplyDeleteसार्थक ब्लॉगिंग का उत्कृष्ट उदाहरण है यह पोस्ट। मुझसे कैसे छूट गई! :(
ReplyDeletekamaal likhte hain aap... kin shabdon me taareef ki jaay?
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