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"देखो, देखो, वह टोड मास्टर और उसकी क्लास!" चिंटू खुशी से उछलता हुआ अन्दर आया।
मैंने उसे देखा और मुस्करा दिया। वह इतने भर से संतुष्ट न हुआ और मेरा हाथ पकड़कर बाहर खींचने लगा।
"बस ये दो पन्ने खत्म कर लूँ फिर आता हूँ" मैंने मनुहार के अन्दाज़ में कहा।
"तब तक तो क्लास डिसमिस भी हो जायेगी..." उसने हाथ छोड़े बिना अपनी मीठी वाणी में कहा।
"देख आओ न, बच्चे कॉलेज चले जायेंगे तब अकेले बैठकर तरसोगे इन पलों के लिये..." चिंटू की माँ ने रसोई में बैठे-बैठे ही तानाकशी का यह मौका झट से लपक लिया।
"अकेले रहें मेरे दुश्मन! मैं तो तुम्हें सामने बिठाकर निहारा करूंगा" मैं भी इतनी आसानी से आउट होने वाला नहीं था।
"हाँ, मैं बैठी रहूंगी और बना बनाया खाना तो आसमान से टपका करेगा शायद" उन्होंने नहले पे दहला जड़ा।
मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बडे से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।
टोड मास्टर जी कक्षा के बाहर अपनी कुर्सी पर बैठे हैं। सभी बच्चे सामने घास पर बैठे हैं। मैं, दिलीप, संजय, प्रदीप, कन्हैया, सभी तो हैं। सर्दियों में कक्षा के अन्दर काफी ठंड होती है सो धूप होने पर कई अध्यापकगण अपनी कक्षा बाहर ही लगा लेते हैं। टोड जी भी ऐसे ही दयालुओं में से एक हैं। वैसे उनका वास्तविक नाम है आर.पी. रंगत मगर आजकल वे सारे स्कूल में अपने नये नाम से ही पहचाने जाने लगे हैं।
प्रायमरी स्कूल की ममतामयी अध्यापिकाओं की स्नेहछाया से बाहर निकलकर इस जूनियर हाई स्कूल के खडूस, कुंठित और हिंसक मास्टरों के बीच फंस जाना कोई आसान अनुभव नहीं था। गेंडा मास्साब ने एक बार संटी से मार-मारकर एक छात्र को लहूलुहान कर दिया था। छिपकल्ली ने एक बार जब डस्टर फेंककर मारा तो एक बच्चे की आंख ही जाती रही थी।
सारे बच्चे इन राक्षसों से आतंकित रहते थे। डरता तो मैं भी था परंतु रफी हसन के साथ मिलकर मैंने बदला लेने का एक नया तरीका निकाल लिया था। हम दोनों ने इस जंगलराज के हर मास्टर को एक नया नाम दे दिया था। उनके नाक-नक्श, चाल-ढाल और जालिम हरकतों के हिसाब से उन्हें उनके सबसे नज़दीकी जानवर से जोड़ दिया था।
जब हमारे रखे हुए नाम हमारी आशा से अधिक जल्दी सभी छात्रों की ज़ुबान पर चढने लगे तो हमारा जोश भी बढ गया। आरम्भ में तो हमने केवल आसुरी प्रवृत्ति के शिक्षकों का नामकरण किया था परंतु फिर धीरे-धीरे सफलता के जोश में आकर हमने एक सिरे से अब तक बचे हुए भले मास्टरों को भी नये नामों से नवाज़ दिया। हमारे अभियान के इसी दूसरे चरण में श्रीमान आरपी रंगत भी अपनी खुरदुरी त्वचा के कारण मि. टोड हो गये।
तालियाँ बजाते चिंटू के उत्साह को दिल की गहराइयों तक महसूस करने के बावज़ूद न जाने क्यों मुझे आरपी रंगत के प्रति किये हुए अपने बचपने पर एक शिकायत सी हुई। उस हिंसक जूनियर हाई स्कूल के परिसर में एक वे ही तो थे जो एक आदर्श अध्यापक की तरह रहे। अन्य अध्यापकों की तरह मारना-पीटना तो दूर उन्होंने अपने घर कभी भी ट्यूशन नहीं लगाई। विद्यार्थी कमरुद्दीन की किताबों का खर्च हो चाहे चौकीदार मूखरदीन की टॉर्च की बैटरी हो, सबको पता था कि ज़रूरत के समय उनकी सहायता ज़रूर मिलेगी।
राम का गायन हो, आफताब की कला प्रतिभा, कृष्ण का अभिनय या मेरी वाक्शैली, इन सब को पहचानकर विभिन्न समारोहों का आकर्षण बनाने का काम भी उन्होंने ही किया था। अधिक विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है परंतु एक बार जब परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि निरपराध होते हुए भी मुझे विद्यालय से रस्टीकेट होने का समय आया तो मेरी बेगुनाही पर उनके विश्वास के चलते ही मैं बच सका था। यह सब ध्यान आते ही मुझे अपने ऊपर क्रोध आने लगा। अगर मेरे पास उनका फोन नम्बर आदि होता तो शायद मैं उसी समय उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगता। परंतु नम्बर होता कैसे? मैने तो वह स्कूल छोड़ने के बाद वहाँ की किसी भी निशानी पर दोबारा नज़र ही नहीं डाली थी।
चिंटू की माँ कहती है कि मेरा चेहरा मेरे मन का हर भाव आवर्धित कर के दिखाता रहता है। पूछने लगी तो मैंने सारी कहानी कह डाली। उन्होंने तुरंत ही यह ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली कि इस बार भारत जाने पर वे मुझे अपने पैतृक नगर अवश्य भेजेंगी, केवल रंगत जी से मिलकर क्षमा मांगने के लिये।
[क्रमशः]
"देखो, देखो, वह टोड मास्टर और उसकी क्लास!" चिंटू खुशी से उछलता हुआ अन्दर आया।
मैंने उसे देखा और मुस्करा दिया। वह इतने भर से संतुष्ट न हुआ और मेरा हाथ पकड़कर बाहर खींचने लगा।
"बस ये दो पन्ने खत्म कर लूँ फिर आता हूँ" मैंने मनुहार के अन्दाज़ में कहा।
"तब तक तो क्लास डिसमिस भी हो जायेगी..." उसने हाथ छोड़े बिना अपनी मीठी वाणी में कहा।
"देख आओ न, बच्चे कॉलेज चले जायेंगे तब अकेले बैठकर तरसोगे इन पलों के लिये..." चिंटू की माँ ने रसोई में बैठे-बैठे ही तानाकशी का यह मौका झट से लपक लिया।
"अकेले रहें मेरे दुश्मन! मैं तो तुम्हें सामने बिठाकर निहारा करूंगा" मैं भी इतनी आसानी से आउट होने वाला नहीं था।
"हाँ, मैं बैठी रहूंगी और बना बनाया खाना तो आसमान से टपका करेगा शायद" उन्होंने नहले पे दहला जड़ा।
मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बडे से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।
टोड मास्टर जी कक्षा के बाहर अपनी कुर्सी पर बैठे हैं। सभी बच्चे सामने घास पर बैठे हैं। मैं, दिलीप, संजय, प्रदीप, कन्हैया, सभी तो हैं। सर्दियों में कक्षा के अन्दर काफी ठंड होती है सो धूप होने पर कई अध्यापकगण अपनी कक्षा बाहर ही लगा लेते हैं। टोड जी भी ऐसे ही दयालुओं में से एक हैं। वैसे उनका वास्तविक नाम है आर.पी. रंगत मगर आजकल वे सारे स्कूल में अपने नये नाम से ही पहचाने जाने लगे हैं।
प्रायमरी स्कूल की ममतामयी अध्यापिकाओं की स्नेहछाया से बाहर निकलकर इस जूनियर हाई स्कूल के खडूस, कुंठित और हिंसक मास्टरों के बीच फंस जाना कोई आसान अनुभव नहीं था। गेंडा मास्साब ने एक बार संटी से मार-मारकर एक छात्र को लहूलुहान कर दिया था। छिपकल्ली ने एक बार जब डस्टर फेंककर मारा तो एक बच्चे की आंख ही जाती रही थी।
सारे बच्चे इन राक्षसों से आतंकित रहते थे। डरता तो मैं भी था परंतु रफी हसन के साथ मिलकर मैंने बदला लेने का एक नया तरीका निकाल लिया था। हम दोनों ने इस जंगलराज के हर मास्टर को एक नया नाम दे दिया था। उनके नाक-नक्श, चाल-ढाल और जालिम हरकतों के हिसाब से उन्हें उनके सबसे नज़दीकी जानवर से जोड़ दिया था।
जब हमारे रखे हुए नाम हमारी आशा से अधिक जल्दी सभी छात्रों की ज़ुबान पर चढने लगे तो हमारा जोश भी बढ गया। आरम्भ में तो हमने केवल आसुरी प्रवृत्ति के शिक्षकों का नामकरण किया था परंतु फिर धीरे-धीरे सफलता के जोश में आकर हमने एक सिरे से अब तक बचे हुए भले मास्टरों को भी नये नामों से नवाज़ दिया। हमारे अभियान के इसी दूसरे चरण में श्रीमान आरपी रंगत भी अपनी खुरदुरी त्वचा के कारण मि. टोड हो गये।
तालियाँ बजाते चिंटू के उत्साह को दिल की गहराइयों तक महसूस करने के बावज़ूद न जाने क्यों मुझे आरपी रंगत के प्रति किये हुए अपने बचपने पर एक शिकायत सी हुई। उस हिंसक जूनियर हाई स्कूल के परिसर में एक वे ही तो थे जो एक आदर्श अध्यापक की तरह रहे। अन्य अध्यापकों की तरह मारना-पीटना तो दूर उन्होंने अपने घर कभी भी ट्यूशन नहीं लगाई। विद्यार्थी कमरुद्दीन की किताबों का खर्च हो चाहे चौकीदार मूखरदीन की टॉर्च की बैटरी हो, सबको पता था कि ज़रूरत के समय उनकी सहायता ज़रूर मिलेगी।
राम का गायन हो, आफताब की कला प्रतिभा, कृष्ण का अभिनय या मेरी वाक्शैली, इन सब को पहचानकर विभिन्न समारोहों का आकर्षण बनाने का काम भी उन्होंने ही किया था। अधिक विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है परंतु एक बार जब परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि निरपराध होते हुए भी मुझे विद्यालय से रस्टीकेट होने का समय आया तो मेरी बेगुनाही पर उनके विश्वास के चलते ही मैं बच सका था। यह सब ध्यान आते ही मुझे अपने ऊपर क्रोध आने लगा। अगर मेरे पास उनका फोन नम्बर आदि होता तो शायद मैं उसी समय उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगता। परंतु नम्बर होता कैसे? मैने तो वह स्कूल छोड़ने के बाद वहाँ की किसी भी निशानी पर दोबारा नज़र ही नहीं डाली थी।
चिंटू की माँ कहती है कि मेरा चेहरा मेरे मन का हर भाव आवर्धित कर के दिखाता रहता है। पूछने लगी तो मैंने सारी कहानी कह डाली। उन्होंने तुरंत ही यह ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली कि इस बार भारत जाने पर वे मुझे अपने पैतृक नगर अवश्य भेजेंगी, केवल रंगत जी से मिलकर क्षमा मांगने के लिये।
[क्रमशः]
रोचक शुरूवात।
ReplyDeleteprateeksha agle ank kii
ReplyDeleteमिले या नहीं !
ReplyDeleteaapne school ke din yaad dila diye.. specially sardiyon ke din..
ReplyDeletesach mein, hamari bhi bahut classes bahar dhoop me ho jaati thi ..
kahani achhi lag rahi hai... aage ka intezaar rahega
अगले पार्ट कर इन्तजार..........................
ReplyDeleteशुरूआत तो अच्छी है
रोचक लग रही है कहानी। आगे कािन्तजार। अनुराग जी कुछ व्यस्तता के चलते आज कल हिन्द युग्म पर भी जाना नही हुया। आपकी आवाज मे कहानी सुने हुये बहुत समय हो गया। शायद अब रेगुलर हो पाऊँ। धन्यवाद।
ReplyDeleteगजब नॉस्टेल्जिक कहानी है। देखें आगे क्या होता है।
ReplyDeleteअध्यापकों का नाम रखने की प्रथा बहुत पुरानी है, पढ़कर बहुत अपना सा लगा।
ReplyDeleteकहानी में मास्साब और मैम के उपनाम अच्छे रखे है, गैंडा और छिपकली...हा..हा ! कहानी को भी आपने सेक्युलर मोड़ दे रखा है !
ReplyDelete@ कहानी को भी आपने सेक्युलर मोड़ दे रखा है !
ReplyDeleteसही कहा, अगर मेरे जैसा परम्परागत भारतीय ब्राह्मण भी सैकुलर मोड से किनाराकशी करेगा तो सैकुलरिज़म तो फिर शायद तालिबानी ज़िहाद या माओवादी हत्याओं में ढूंढना पडेगा या फिर उनके तरीके अपनाने वाले "तथाकथित हिन्दुत्वा" में।
गैंडा और छिपकली....बहुत सही मोड है जी.
ReplyDeleteरामराम.
हम तो ऐसे नामों के अलावा निर्जीव वस्तुओं के नाम भी इस काम के लिये इस्तेमाल करते रहे यथा बोतल, थैला वगैरह वगैरह।
ReplyDeleteबचपने में ले गई कहानी, इंतजार रहेगा अगली कड़ी का।
'टोड' शायद लोकप्रिय नाम रहा है, जीव विज्ञान शिक्षकों के लिए.
ReplyDeleteरोचक है,आगे की उत्सुकता बनी है.
ReplyDeleteकंकाल ,मेढक,लौकी......... आज भी जब यह सामने आते है तो यही नाम याद आता है इन्हे देखकर
ReplyDeleteआपके क्रमशः के प्रहार से पहले बचपन की गलियों में घूम आया.. कॉलेज के दिनों में हमारे एक प्रोफेसर थे अंग्रेज़ी के उन्हें भी हम टोड कहते थे.. मज़ा आ रहा था तभी क्रमशः का स्पिड ब्रेकर आ गया...
ReplyDeleteबहुत सुंदर लगी यह कहानी हम ने भी अपने मास्टरो के नाम रखे थे, हिन्दी के मास्टर जी को यानि कहते थे, क्योकि वो हर बात पर यानि यानि कहते थे :)
ReplyDeleteये इस बार की यात्रा और पुराने स्कूल विजीट से निकली कहानी लग रही है.
ReplyDeleteमेरे लिए यह बहुत पुरानी बात नहीं है, प्रतीक्षा रहेगी अगले अंक की।
ReplyDeleteकथा के दोनों भाग एक साथ जिये ! उस उम्र में शिक्षकों के स्वभाव का अपना आकलन इस तरह के प्रतिकार को जन्म देता है !...और अनजाने में ही कुछ निशाने रेंज से बाहर भी चले जाते हैं जैसा कि इस प्रकरण में हुआ ! फिर इन भटके हुए निशानों की कसक / घाव पीड़ित के सिवा खुद को भी सालते हैं !
ReplyDeleteक्या गुरूजी को सच बताया जा सका ?
[ कथा के दूसरे खंड में टिप्पणी करते वक़्त कोई तकनीकी अड़चन सामने आ रही है सो समेकित टीप यहीं चस्पा कर दी है ]
Story is in first person. But naming teachers as toad etc., by anurag sharma, seems unbelievable, that too after having passed primary school. I think the first person might have been used just to make the story more effective.
ReplyDeleteबहुत रोचक किस्सा चल रहा है। उस जमाने में अध्यापक इतनी खार क्यों खाए रहते थे? शायद मारना पीटना भी एक परम्परा थी।
ReplyDeleteआज मैंने ब्लॉग पर अपने सबसे प्रिय सर पर लिखा है।
घुघूती बासूती