व्यवहारिकता शीर्षक से लिखी मेरी पंक्तियों पर आई आपकी सारगर्भित टिप्पणियों को देखकर मन प्रसन्न हो गया। आपने गलतियों को बडप्पन के साथ नज़रअन्दाज़ भी किया और ध्यान भी दिलाया गया तो उतने ही बडप्पन और प्यार से। साथ ही आप की टिप्पणियों से उस रचना के आगे की पंक्तियाँ भी मिलीं। आप सभी का धन्यवाद। सर्वश्री संजय अनेजा, संजय झा, राजेश नचिकेता, प्रतुल वसिष्ठ, सुज्ञ जी, राहुल जी, अली जी और वर्मा जी के योगदान से बनी नई रचना कहीं अधिक रोचक है| आइये आपकी सम्मिलित कृति का आनन्द लेते हैं।
वंचित फल सुगन्ध छाया से
तरु ऊँचा क्या और बौना क्या
जब ज़ाग़* देश को लूट रहे
तो आँख खोलकर सोना क्या
शबनम से क्षुधा मिटाता है
उसे सागर क्या और दोना क्या
काँटों का ताज लिया सिर पर
फिर कठिन घड़ी में रोना क्या
जिस नगर में हम बेभाव बिके
वहाँ माटी क्या और सोना क्या
बहता जल अनिकेत यायावर
वसुधा अपनी कोई कोना क्या
जग सत्य नहीं बस मिथ्या है
इसे पाना क्या और खोना क्या
जब कर्म की गठरी छूट गयी
खाली घट को संजोना क्या
(*ज़ाग़ = कौव्वे। अली जी, क्या ज़ाग़ शब्द और इसके प्रयोग के बारे में कुछ लिखेंगे?)
धन्यवाद!
========================वंचित फल सुगन्ध छाया से
तरु ऊँचा क्या और बौना क्या
जब ज़ाग़* देश को लूट रहे
तो आँख खोलकर सोना क्या
शबनम से क्षुधा मिटाता है
उसे सागर क्या और दोना क्या
काँटों का ताज लिया सिर पर
फिर कठिन घड़ी में रोना क्या
जिस नगर में हम बेभाव बिके
वहाँ माटी क्या और सोना क्या
बहता जल अनिकेत यायावर
वसुधा अपनी कोई कोना क्या
जग सत्य नहीं बस मिथ्या है
इसे पाना क्या और खोना क्या
जब कर्म की गठरी छूट गयी
खाली घट को संजोना क्या
(*ज़ाग़ = कौव्वे। अली जी, क्या ज़ाग़ शब्द और इसके प्रयोग के बारे में कुछ लिखेंगे?)
धन्यवाद!
ये शाहिद कबीर कौन हैं?
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ठीक समय पर टिपियाते तो
ReplyDeleteएक अकेला रहता क्या?
सबकी बातें नोट हो गईं
अपन रह गए, रोना क्या?
शबनम से भूख मिटाई जिसने
ReplyDeleteउसे तसला क्या और दोना क्या
वाह...इस बेजोड़ रचना के लिए बहुत बहुत बधाई...
नीरज
जिस नगर में हम बेभाव बिके
ReplyDeleteवहाँ माटी क्या और सोना क्या
..kamal ka sher hai. Bahut dino tak yad rahega. Vah!
jab sab ne milkar kshand rache...
ReplyDeletephir, auron ka kya aur apna kya..
jeh...nasib majja aa gaya....
pranam.
सारे ही शेर अच्छे बन पड़े हैं, बधाई।
ReplyDeleteये संशोधित रूप ज्यादा बेहतर है।
ReplyDeleteयह जाग शब्द कभी सुना नहीं जिसका अर्थ आपने कौव्वा बताया है, कहीं आपका आशय 'काग' से तो नहीं है?
ऐसे तो पूरी रचना ही बेजोड़ है,पर तसला और दोना का जो इसमें प्रयोग हुआ है,उसने मन हर लिया...
ReplyDeleteलहवाब रचना...बहुत बहुत बेजोड़...
यह प्रयोग आगे भी जारी रखें...
बहुत बढिया,
ReplyDeleteसारे शेर एक से बढकर एक
शुभकामनाये
वाह, टिप्पणी का बड़ा मूल्य है।
ReplyDeleteकाटों का ताज रखा सिर पर
ReplyDeleteफिर कठिन घडी में रोना क्या
जिस नगर में हम बेभाव बिके
वहाँ माटी क्या और सोना क्या
बहुत सुन्दर, बेहतरीन !
जग सत्य नहीं आभासी लगता
ReplyDeleteइसे पाना क्या और खोना क्या
अहा एक से बढकर एक. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
अनुराग जी! आज तो सचमुच यहाँ पर मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा देखने को मिला! धन्यवाद!!
ReplyDeleteवाह वाह ! मुश्किल है एक चुनना. वैसे इस पर रुक गया था: "जिस नगर में हम बेभाव बिके
ReplyDeleteवहाँ माटी क्या और सोना क्या"
मजा आ गया जी इसमें भी। वैसे मूल पोस्ट भी अपनी जगह बहुत खूब है।
ReplyDeleteसभी गहरे अर्थयुक्त... जिस नगर में हम बेभाव बिके
ReplyDeleteवहाँ माटी क्या और सोना क्या
यह सबसे अच्छा लगा..
ज़ाग़ अमूमन नुक्तों के साथ लिखा और उच्चारित किया जाने वाला पर्सियन शब्द है जिसके मायने है ...काक / कौवा !
ReplyDeleteअगर कोई अनिन्द्य सुन्दरी / रूपवती / मानिनी अपने भदेस /बेढब / पति या आशिक के साथ हमारे सामने से गुज़र जाये और हमें नागवार गुजरे /अखर जाये तो एक शेर पढ़ सकते हैं :)
ज़ाग़ की चोंच में अंगूर खुदा की कुदरत
पहलु-ए- हूर में लंगूर खुदा की कुदरत
ज़ाग़चश्म कहूं तो इसका मतलब नीलाक्ष या कंजी आँखों वाला
ज़ाग़ज़बां बोलूँ तो जिसका कोसना तुरंत लगे, शापसिद्ध
और ज़ाग़दिल माने निष्ठुर !
वाह ये तो वाकई मिले सुर मेरा तुम्हारा हो गया बहुत अच्छी बनी है | इस तरह टिप्पणियों को लेकर एक नई रचना होने लगी तो टिप्पणिया देने में लोगो को और मजा आने लगेगा |
ReplyDelete.
ReplyDeleteमूल रचना के इर्द-गिर्द उगी खरपतवार को भी आपने बड़े करीने से सजाकर कीमत दे डाली.
एक सच्चा माली ही जानता कि खरपतवार समझी जाने वाली वनस्पतियाँ औषधीय गुण वाली है अथवा नहीं.
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जिस नगर में हम बेभाव बिके
ReplyDeleteवहाँ माटी क्या और सोना क्या
बहुत खुब जी आप की पुरी कविता ही आज के भारत की दशा दर्शाती हे, धन्यवाद इस सुंदर रचना के लिये
बेमिसाल बन पड़े हैं सारे शेर..... बधाई
ReplyDelete@सोमेश सक्सेना,
ReplyDeleteअब तो अली जी का स्पष्टीकरण भी आ गया और मैने उनके शेर में नुक़्ते भी लगा दिये हैं। पहले मैं भी यही समझा था कि यह काग का छत्तीसगढी रूप होगा।
@प्रतुल वशिष्ठ
ReplyDeleteविद्या विनयम् ददाति। यह तो आपकी विनम्रता है।
बहुत खूब,बधाई.
ReplyDeleteजिस नगर में हम बेभाव बिके
ReplyDeleteवहाँ माटी क्या और सोना क्या"
सारे ही शेर बहुत ही बढ़िया हैं...
बहुत खूब!
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