Thursday, February 10, 2011

आपकी गज़ल - इदम् न मम्

व्यवहारिकता शीर्षक से लिखी मेरी पंक्तियों पर आई आपकी सारगर्भित टिप्पणियों को देखकर मन प्रसन्न हो गया। आपने गलतियों को बडप्पन के साथ नज़रअन्दाज़ भी किया और ध्यान भी दिलाया गया तो उतने ही बडप्पन और प्यार से। साथ ही आप की टिप्पणियों से उस रचना के आगे की पंक्तियाँ भी मिलीं। आप सभी का धन्यवाद। सर्वश्री संजय अनेजा, संजय झा, राजेश नचिकेता, प्रतुल वसिष्ठ, सुज्ञ जी, राहुल जी, अली जी और वर्मा जी के योगदान से बनी नई रचना कहीं अधिक रोचक है| आइये आपकी सम्मिलित कृति का आनन्द लेते हैं।

वंचित फल सुगन्ध छाया से
तरु ऊँचा क्या और बौना क्या

जब ज़ाग़* देश को लूट रहे
तो आँख खोलकर सोना क्या

शबनम से क्षुधा मिटाता है
उसे सागर क्या और दोना क्या

काँटों का ताज लिया सिर पर
फिर कठिन घड़ी में रोना क्या

जिस नगर में हम बेभाव बिके
वहाँ माटी क्या और सोना क्या

बहता जल अनिकेत यायावर
वसुधा अपनी कोई कोना क्या

जग सत्य नहीं बस मिथ्या है
इसे पाना क्‍या और खोना क्‍या

जब कर्म की गठरी छूट गयी
खाली घट को संजोना क्या
(*ज़ाग़ = कौव्वे। अली जी, क्या ज़ाग़ शब्द और इसके प्रयोग के बारे में कुछ लिखेंगे?)

धन्यवाद!
========================
ये शाहिद कबीर कौन हैं?
========================

25 comments:

  1. ठीक समय पर टिपियाते तो
    एक अकेला रहता क्‍या?

    सबकी बातें नोट हो गईं
    अपन रह गए, रोना क्‍या?

    ReplyDelete
  2. शबनम से भूख मिटाई जिसने
    उसे तसला क्या और दोना क्या

    वाह...इस बेजोड़ रचना के लिए बहुत बहुत बधाई...
    नीरज

    ReplyDelete
  3. जिस नगर में हम बेभाव बिके
    वहाँ माटी क्या और सोना क्या
    ..kamal ka sher hai. Bahut dino tak yad rahega. Vah!

    ReplyDelete
  4. jab sab ne milkar kshand rache...
    phir, auron ka kya aur apna kya..

    jeh...nasib majja aa gaya....

    pranam.

    ReplyDelete
  5. सारे ही शेर अच्‍छे बन पड़े हैं, बधाई।

    ReplyDelete
  6. ये संशोधित रूप ज्यादा बेहतर है।

    यह जाग शब्द कभी सुना नहीं जिसका अर्थ आपने कौव्वा बताया है, कहीं आपका आशय 'काग' से तो नहीं है?

    ReplyDelete
  7. ऐसे तो पूरी रचना ही बेजोड़ है,पर तसला और दोना का जो इसमें प्रयोग हुआ है,उसने मन हर लिया...

    लहवाब रचना...बहुत बहुत बेजोड़...

    यह प्रयोग आगे भी जारी रखें...

    ReplyDelete
  8. बहुत बढिया,
    सारे शेर एक से बढकर एक
    शुभकामनाये

    ReplyDelete
  9. वाह, टिप्पणी का बड़ा मूल्य है।

    ReplyDelete
  10. काटों का ताज रखा सिर पर
    फिर कठिन घडी में रोना क्या

    जिस नगर में हम बेभाव बिके
    वहाँ माटी क्या और सोना क्या


    बहुत सुन्दर, बेहतरीन !

    ReplyDelete
  11. जग सत्य नहीं आभासी लगता
    इसे पाना क्‍या और खोना क्‍या

    अहा एक से बढकर एक. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  12. अनुराग जी! आज तो सचमुच यहाँ पर मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा देखने को मिला! धन्यवाद!!

    ReplyDelete
  13. वाह वाह ! मुश्किल है एक चुनना. वैसे इस पर रुक गया था: "जिस नगर में हम बेभाव बिके
    वहाँ माटी क्या और सोना क्या"

    ReplyDelete
  14. मजा आ गया जी इसमें भी। वैसे मूल पोस्ट भी अपनी जगह बहुत खूब है।

    ReplyDelete
  15. सभी गहरे अर्थयुक्त... जिस नगर में हम बेभाव बिके
    वहाँ माटी क्या और सोना क्या
    यह सबसे अच्छा लगा..

    ReplyDelete
  16. ज़ाग़ अमूमन नुक्तों के साथ लिखा और उच्चारित किया जाने वाला पर्सियन शब्द है जिसके मायने है ...काक / कौवा !
    अगर कोई अनिन्द्य सुन्दरी / रूपवती / मानिनी अपने भदेस /बेढब / पति या आशिक के साथ हमारे सामने से गुज़र जाये और हमें नागवार गुजरे /अखर जाये तो एक शेर पढ़ सकते हैं :)

    ज़ाग़ की चोंच में अंगूर खुदा की कुदरत
    पहलु-ए- हूर में लंगूर खुदा की कुदरत


    ज़ाग़चश्म कहूं तो इसका मतलब नीलाक्ष या कंजी आँखों वाला

    ज़ाग़ज़बां बोलूँ तो जिसका कोसना तुरंत लगे, शापसिद्ध

    और ज़ाग़दिल माने निष्ठुर !

    ReplyDelete
  17. वाह ये तो वाकई मिले सुर मेरा तुम्हारा हो गया बहुत अच्छी बनी है | इस तरह टिप्पणियों को लेकर एक नई रचना होने लगी तो टिप्पणिया देने में लोगो को और मजा आने लगेगा |

    ReplyDelete
  18. .

    मूल रचना के इर्द-गिर्द उगी खरपतवार को भी आपने बड़े करीने से सजाकर कीमत दे डाली.
    एक सच्चा माली ही जानता कि खरपतवार समझी जाने वाली वनस्पतियाँ औषधीय गुण वाली है अथवा नहीं.

    .

    ReplyDelete
  19. जिस नगर में हम बेभाव बिके
    वहाँ माटी क्या और सोना क्या
    बहुत खुब जी आप की पुरी कविता ही आज के भारत की दशा दर्शाती हे, धन्यवाद इस सुंदर रचना के लिये

    ReplyDelete
  20. बेमिसाल बन पड़े हैं सारे शेर..... बधाई

    ReplyDelete
  21. @सोमेश सक्सेना,

    अब तो अली जी का स्पष्टीकरण भी आ गया और मैने उनके शेर में नुक़्ते भी लगा दिये हैं। पहले मैं भी यही समझा था कि यह काग का छत्तीसगढी रूप होगा।

    ReplyDelete
  22. @प्रतुल वशिष्ठ

    विद्या विनयम् ददाति। यह तो आपकी विनम्रता है।

    ReplyDelete
  23. जिस नगर में हम बेभाव बिके
    वहाँ माटी क्या और सोना क्या"

    सारे ही शेर बहुत ही बढ़िया हैं...

    ReplyDelete

मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।