क्या हुआ सब तेज
गुम हुआ वह ओज
मुख मलिन है
ग्रहण जो है
आन्धी घनी औ' धुन्ध भी
गहरा रही है
पूर्वप्रसवा है कुपोषित
दिख रही निष्प्राण सी है
पर हटेगी नहीं
वह टिकेगी यहीं
और जन्म देगी
एक सुन्दर स्वस्थ
नव आशा किरण को
दुश्मन भले फैला रहे
अफवाह झूठी ला रहे
कि चिरयुवा स्थूलकाय
रोज़ नौ सौ चूहे खाय
उस झूठ का इक पाँव
भारी है अभी भी।
कैसे थक जाय उसे जन्म जो देना है नई आशा की किरण को.....
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना.....
सत्य पर छाई धुंध!!
ReplyDeleteप्रभावशाली है अभिव्यक्ति…
उस झूठ का इक पाँव
भारी है अभी भी।
बहुत दिनों बाद अच्छी कविता पढ़ने को मिली, बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन भाव, सुन्दर शब्दों के साथ..
ReplyDeleteसुन्दर शब्दों के साथ अच्छी कविता
ReplyDeleteबेहतरीन भाव, सुन्दर शब्दों के साथ..
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी यह कविता ! और चित्र भी मनोरम है ... तापमान कैसा है वहां पे ?
ReplyDeleteउस झूठ का एक पाँव भरी है अभी भी ...
ReplyDeleteकहाँ तो सुना करते थे झूठ के पांव ही नहीं होते , कहावते भी समय के साथ बदलती हैं !
कविता अच्छी लगी |
ReplyDeleteउस झूठ का इक पाँव
ReplyDeleteभारी है अभी भी।
लेकिन जितनी देर तक ....
bhavmayi abhivyakti .badhai .mere blog ''vikhyat 'par aapka hardik swagat hai .
ReplyDeleteआस विश्वास जगती दिलासा देती..अतिसुन्दर रचना...वाह !!!
ReplyDeleteआज सुबह ही एकदम से गाना याद आ रहा था, ’आ चल के तुझे मैं ले के चलूँ’
ReplyDeleteआपकी कविता के लिये इसी गीत की पंक्ति
’आशा का सवेरा जागे’
झूठ का पाँव भारी। सार्थक विवेचना।
ReplyDeleteकविता के साथ दिये गये छाया चित्र में भी मद्धिम सा आशा का सूरज दीप्त है, प्रकाशमान है! सिर्फ सत्यमेव जयते ही नहीं, चरैवेति चरैवेति भी सिखाती है यह रचना!!
ReplyDeleteकविता की पंक्तियाँ भी तो घटते बढ़ते क्रम में एक सुन्दर तस्वीर बना रही हैं. बढ़िया.
ReplyDelete...हृदयस्पर्शी रचना.
ReplyDeleteक्या टिप्पणी करू. मुझे तो शीर्षक का अर्थ ही समझ नहीं आया अभी..... देखता हूँ कोई ऑनलाइन डिक्शनरी.
ReplyDelete'झूठ का इक पॉंव भारी है' - है तो नई और अनूठी कल्पना। इस पर विचार नहीं, मनन करना पडेगा। आपने काम पर लगा दिया।
ReplyDeleteसुंदर भाव एक बहुत अच्छी रचना, धन्यवाद
ReplyDeleteगहन आशावाद ! सुन्दर प्रविष्टि !
ReplyDelete@Indranil Bhattacharjee ..."सैल"
ReplyDeleteअभी का तापमान है 21 अंश फैहरनहाइट
@वाणी गीत said...
अपनी-अपनी दृष्टि है वाणी जी. वैसे भी पाँव न होने वाले के पाँव भारी होने की अफवाह की ही काट है इन पंक्तियों में।
@चला बिहारी ब्लॉगर बनने
शायद एकबारगी यक़ीन न हो, परंतु यह चित्र सूर्य का नहीं बल्कि प्रातः के चन्द्रमा का है।
@विचार शून्य
ReplyDelete1. मुंडक उपनिषद के निम्नलिखित पूरे श्लोक में:
<>सत्यमेव जयते नानृतम् सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्यात्मकामो यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानं॥
"सत्यमेव जयते" के ठीक बाद उसे शक्ति देता हुआ शब्द है "नानृतम्" अर्थात् "झूठ नहीं"
पूरे श्लोक का अर्थ कुछ यूँ होगा:
(अंततः) सत्य ही विजयी होता है, झूठ नहीं। देवत्व सत्य के मार्ग पर ही चलता है। अपनी कामनाओं पर विजय पाये हुए ऋषि सत्य (और) के परम धाम को प्राप्त होते हैं।
2. चित्र बिना ज़ूम वाले सेल्फोन से लिया गया है और सूर्य का नहीं बल्कि चन्द्रमा का है।
उस झूठ का इक पाँव
ReplyDeleteभारी है अभी भी।
जनम जाय तो राहत मिले -सच को भी !
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है। बधाई आपको।
ReplyDeleteati utaam abhivyakti
ReplyDeletebahut achcha likhe.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...सुन्दर....
ReplyDeleteआपका मार्गदर्शन मेरी मदद करेगा...
वसंत पंचमी की शुभकामनाएं..
आशा पर विश्वास बलवती करती इस कविता के लिए धन्यवाद। कविता का शीर्षक, साथ में लगा चित्र भी स्वयं में एक कविता हैं।
ReplyDeleteआपकी रचना के लिए सिर्फ एक ही शब्द ज़ेहन में आ रहा है: "लाजवाब."
ReplyDeleteनीरज
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें
ReplyDeleteएक आशा सी जगाती...सुन्दर रचना.
ReplyDeleteह्रदय ग्राही ...हृदयस्पर्शी रचना.बहुत दिनों बाद अच्छी कविता पढ़ने को मिली.मनभावन ब्लॉग .
ReplyDeleteकहते हैं कि झूठ के पाँव नहीं होते -
ReplyDeleteपर जब भी देखा तो
पाया हमेशा यही कि
ना सिर्फ होते हैं पाँव
वरन
हमेशा ही पाँव भारी होते हैं
कि
एक झूठ सिर्फ एक झूठ को ही जन्म नहीं देता
एक से दो - दो से चार फिर आठ के
"जोमेत्रिक प्रोग्रेशन" में बढाता जाता है अपना कुनबा
एक शुरूआती झूठ
इतने झूठों को जन्म दे देता है
कि सच छुप सा जाता है उसकी आंधी में
पर जब सत्य हुँकार भरता है
तो ज़र्रा जर्रा उड़ जाता है
झूठ का पूरा पर्वत |
भाई अनुराग जी ! आपकी रचना पढ़ते-पढ़ते सोचा कि झूठ धरती पर कहाँ चलता है वह तो उड़ता है आसमान में....धरती की वास्तविकताओं से दूर ....बिना जड़ के बढ़ने वाली अमरबेल की लता की तरह .....बिना बीज के ...शाखाओं-प्रतिशाखाओं से पुनः पुनः जन्म लेते....
ReplyDeleteसोचता रहा ......और फिर ये शब्द उगते रहे, कुछ इस तरह -
वह सदा आसन्न प्रसवा
प्रसव करती
अथक.....
सतत.....
पुनि-पुनि प्रसव करती
स्वयं को हर बार जनती
मनहारिणी
कुशल मायाविनी
अभिमानिनी
मिथ्यायनी.
पग एक ही तो क्या हुआ
हैं पंख तो इतने वृहद्
नभ में विहार हो जब सहज
कोई क्यों धरा पर यूँ चले
जब सत्य नित भू पर जले?
.....................
पर
सत्य इतना ही नहीं है
वह कभी हारा नहीं है
जब कभी है तम बढ़ा
रवि को स्वयं
तम ने कहा-
बस
और अब आगे नहीं....
है गगन पर अब वश नहीं
आओ........
बहुत तुमको है सताया
सत्य को सबने भुलाया
आ कर धरा पर फ़ैल जाओ
सृष्टि को फिर से सजाओ
सृष्टि को फिर से सजाओ.
आभार!
ReplyDeleteयह कविता है जो मुक्त है बंधनों से
ReplyDeleteचिंतन दर्शन जीवन सर्जन
ReplyDeleteरूह नज़र पर छाई आप
सारे घर का शोर शराबा
सूनापन तनहाई आप
आपने खुद़ को खोकर मुझमें
एक नया आकार लिया है,
धरती अंबर आग हवा जल
जैसी ही सच्चाई आप
सारे रिश्ते- जेठ दुपहरी
गर्म हवा आतिश अंगारे
झरना दरिया झील समंदर
भीनी-सी पुरवाई आप
...गोपाल नारायण सिंह....
संजो कर हम रखेंगे, तेरी मीठी याद।
जीवन काग़ज़ पर लिख, कहीं पेड़ की छाँव में,
पूनम की चांदनी में, बहती धार में,
घुटी घुटी सी कोठरी के अंधकार में।
......गोपाल नारायण सिंह.......