Tuesday, February 1, 2011

नानृतम् - कविता

.

क्या हुआ सब तेज
गुम हुआ वह ओज
मुख मलिन है
ग्रहण जो है
आन्धी घनी औ' धुन्ध भी
गहरा रही है
पूर्वप्रसवा है कुपोषित
दिख रही निष्प्राण सी है
पर हटेगी नहीं
वह टिकेगी यहीं
और जन्म देगी
एक सुन्दर स्वस्थ
नव आशा किरण को
दुश्मन भले फैला रहे
अफवाह झूठी ला रहे
कि चिरयुवा स्थूलकाय
रोज़ नौ सौ चूहे खाय
उस झूठ का इक पाँव
भारी है अभी भी।

38 comments:

  1. कैसे थक जाय उसे जन्म जो देना है नई आशा की किरण को.....
    हृदयस्पर्शी रचना.....

    ReplyDelete
  2. सत्य पर छाई धुंध!!

    प्रभावशाली है अभिव्यक्ति…

    उस झूठ का इक पाँव
    भारी है अभी भी।

    ReplyDelete
  3. बहुत दिनों बाद अच्‍छी कविता पढ़ने को मिली, बधाई।

    ReplyDelete
  4. बेहतरीन भाव, सुन्दर शब्दों के साथ..

    ReplyDelete
  5. सुन्दर शब्दों के साथ अच्‍छी कविता

    ReplyDelete
  6. बेहतरीन भाव, सुन्दर शब्दों के साथ..

    ReplyDelete
  7. बहुत अच्छी लगी यह कविता ! और चित्र भी मनोरम है ... तापमान कैसा है वहां पे ?

    ReplyDelete
  8. उस झूठ का एक पाँव भरी है अभी भी ...
    कहाँ तो सुना करते थे झूठ के पांव ही नहीं होते , कहावते भी समय के साथ बदलती हैं !

    ReplyDelete
  9. कविता अच्छी लगी |

    ReplyDelete
  10. उस झूठ का इक पाँव
    भारी है अभी भी।

    लेकिन जितनी देर तक ....

    ReplyDelete
  11. bhavmayi abhivyakti .badhai .mere blog ''vikhyat 'par aapka hardik swagat hai .

    ReplyDelete
  12. आस विश्वास जगती दिलासा देती..अतिसुन्दर रचना...वाह !!!

    ReplyDelete
  13. आज सुबह ही एकदम से गाना याद आ रहा था, ’आ चल के तुझे मैं ले के चलूँ’
    आपकी कविता के लिये इसी गीत की पंक्ति
    ’आशा का सवेरा जागे’

    ReplyDelete
  14. झूठ का पाँव भारी। सार्थक विवेचना।

    ReplyDelete
  15. कविता के साथ दिये गये छाया चित्र में भी मद्धिम सा आशा का सूरज दीप्त है, प्रकाशमान है! सिर्फ सत्यमेव जयते ही नहीं, चरैवेति चरैवेति भी सिखाती है यह रचना!!

    ReplyDelete
  16. कविता की पंक्तियाँ भी तो घटते बढ़ते क्रम में एक सुन्दर तस्वीर बना रही हैं. बढ़िया.

    ReplyDelete
  17. क्या टिप्पणी करू. मुझे तो शीर्षक का अर्थ ही समझ नहीं आया अभी..... देखता हूँ कोई ऑनलाइन डिक्शनरी.

    ReplyDelete
  18. 'झूठ का इक पॉंव भारी है' - है तो नई और अनूठी कल्‍पना। इस पर विचार नहीं, मनन करना पडेगा। आपने काम पर लगा दिया।

    ReplyDelete
  19. सुंदर भाव एक बहुत अच्छी रचना, धन्यवाद

    ReplyDelete
  20. गहन आशावाद ! सुन्दर प्रविष्टि !

    ReplyDelete
  21. @Indranil Bhattacharjee ..."सैल"
    अभी का तापमान है 21 अंश फैहरनहाइट

    @वाणी गीत said...
    अपनी-अपनी दृष्टि है वाणी जी. वैसे भी पाँव न होने वाले के पाँव भारी होने की अफवाह की ही काट है इन पंक्तियों में।

    @चला बिहारी ब्लॉगर बनने
    शायद एकबारगी यक़ीन न हो, परंतु यह चित्र सूर्य का नहीं बल्कि प्रातः के चन्द्रमा का है।

    ReplyDelete
  22. @विचार शून्य
    1. मुंडक उपनिषद के निम्नलिखित पूरे श्लोक में:
    <>सत्यमेव जयते नानृतम् सत्येन पन्था विततो देवयानः।
    येनाक्रमन्त्यृषयो ह्यात्मकामो यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानं॥
    "सत्यमेव जयते" के ठीक बाद उसे शक्ति देता हुआ शब्द है "नानृतम्" अर्थात् "झूठ नहीं"
    पूरे श्लोक का अर्थ कुछ यूँ होगा:
    (अंततः) सत्य ही विजयी होता है, झूठ नहीं। देवत्व सत्य के मार्ग पर ही चलता है। अपनी कामनाओं पर विजय पाये हुए ऋषि सत्य (और) के परम धाम को प्राप्त होते हैं।

    2. चित्र बिना ज़ूम वाले सेल्फोन से लिया गया है और सूर्य का नहीं बल्कि चन्द्रमा का है।

    ReplyDelete
  23. उस झूठ का इक पाँव
    भारी है अभी भी।
    जनम जाय तो राहत मिले -सच को भी !

    ReplyDelete
  24. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है। बधाई आपको।

    ReplyDelete
  25. बहुत बढ़िया...सुन्दर....
    आपका मार्गदर्शन मेरी मदद करेगा...
    वसंत पंचमी की शुभकामनाएं..

    ReplyDelete
  26. आशा पर विश्वास बलवती करती इस कविता के लिए धन्यवाद। कविता का शीर्षक, साथ में लगा चित्र भी स्वयं में एक कविता हैं।

    ReplyDelete
  27. आपकी रचना के लिए सिर्फ एक ही शब्द ज़ेहन में आ रहा है: "लाजवाब."

    नीरज

    ReplyDelete
  28. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें

    ReplyDelete
  29. एक आशा सी जगाती...सुन्दर रचना.

    ReplyDelete
  30. ह्रदय ग्राही ...हृदयस्पर्शी रचना.बहुत दिनों बाद अच्‍छी कविता पढ़ने को मिली.मनभावन ब्लॉग .

    ReplyDelete
  31. कहते हैं कि झूठ के पाँव नहीं होते -
    पर जब भी देखा तो
    पाया हमेशा यही कि
    ना सिर्फ होते हैं पाँव
    वरन
    हमेशा ही पाँव भारी होते हैं
    कि
    एक झूठ सिर्फ एक झूठ को ही जन्म नहीं देता
    एक से दो - दो से चार फिर आठ के
    "जोमेत्रिक प्रोग्रेशन" में बढाता जाता है अपना कुनबा
    एक शुरूआती झूठ
    इतने झूठों को जन्म दे देता है
    कि सच छुप सा जाता है उसकी आंधी में
    पर जब सत्य हुँकार भरता है
    तो ज़र्रा जर्रा उड़ जाता है
    झूठ का पूरा पर्वत |

    ReplyDelete
  32. भाई अनुराग जी ! आपकी रचना पढ़ते-पढ़ते सोचा कि झूठ धरती पर कहाँ चलता है वह तो उड़ता है आसमान में....धरती की वास्तविकताओं से दूर ....बिना जड़ के बढ़ने वाली अमरबेल की लता की तरह .....बिना बीज के ...शाखाओं-प्रतिशाखाओं से पुनः पुनः जन्म लेते....
    सोचता रहा ......और फिर ये शब्द उगते रहे, कुछ इस तरह -

    वह सदा आसन्न प्रसवा
    प्रसव करती
    अथक.....
    सतत.....
    पुनि-पुनि प्रसव करती
    स्वयं को हर बार जनती
    मनहारिणी
    कुशल मायाविनी
    अभिमानिनी
    मिथ्यायनी.
    पग एक ही तो क्या हुआ
    हैं पंख तो इतने वृहद्
    नभ में विहार हो जब सहज
    कोई क्यों धरा पर यूँ चले
    जब सत्य नित भू पर जले?
    .....................
    पर
    सत्य इतना ही नहीं है
    वह कभी हारा नहीं है
    जब कभी है तम बढ़ा
    रवि को स्वयं
    तम ने कहा-
    बस
    और अब आगे नहीं....
    है गगन पर अब वश नहीं
    आओ........
    बहुत तुमको है सताया
    सत्य को सबने भुलाया
    आ कर धरा पर फ़ैल जाओ
    सृष्टि को फिर से सजाओ
    सृष्टि को फिर से सजाओ.

    ReplyDelete
  33. यह कविता है जो मुक्त है बंधनों से

    ReplyDelete
  34. चिंतन दर्शन जीवन सर्जन
    रूह नज़र पर छाई आप
    सारे घर का शोर शराबा
    सूनापन तनहाई आप

    आपने खुद़ को खोकर मुझमें
    एक नया आकार लिया है,
    धरती अंबर आग हवा जल
    जैसी ही सच्चाई आप

    सारे रिश्ते- जेठ दुपहरी
    गर्म हवा आतिश अंगारे
    झरना दरिया झील समंदर
    भीनी-सी पुरवाई आप
    ...गोपाल नारायण सिंह....

    संजो कर हम रखेंगे, तेरी मीठी याद।
    जीवन काग़ज़ पर लिख, कहीं पेड़ की छाँव में,
    पूनम की चांदनी में, बहती धार में,
    घुटी घुटी सी कोठरी के अंधकार में।
    ......गोपाल नारायण सिंह.......

    ReplyDelete

मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।