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मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बड़े से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।
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अब आगे की कहानी:
दिन बीते, एक रविवार को मैं दातागंज में था। उसी जूनियर हाई स्कूल के बाहर जहाँ की एक एक ईंट किसी पशु का नाम ले-लेकर मेरी कल्पनाशीलता पर तंज़ कस रही थी। सुनसान इमारत। बाहर मैदान में कुछ आवारा पशु घूम रहे थे। मैं स्कूल के फ़ोटो ले रहा था तभी लाठी लिये एक बूढे ने पास आकर कहा, "हमरा भी एक फोटू ले ल्यो।"
मुझे तो बैठे-बिठाये एक अलग सा फ़ोटो मिल गया था। मैंने अपने नये सब्जेक्ट को ध्यान से देखा, "अरे, तुम मूखरदीन हो क्या?"
"हाँ मालिक, आपको कैसे पता लगो?
"मैं यहाँ पढता था, आरपी रंगत जी कहाँ रहते हैं आजकल?"
"आरपी... रंगत..." वह सोचने लगा, "अच्छा बेSSS, बे तौ टोड हैंगे।"
"अबे तू भी तो मुर्गादीन था" मैंने कहना चाहा परंतु उसकी आयु के कारण शब्द मुँह से बाहर नहीं निकल सके, "हाँ, वही। कहाँ रहते हैं?"
"साहूकारे मैं, उतै जाय कै, पकड़िया के उल्ले हाथ पै" उसने हाथ के इशारे से बताया। मैने उसका फ़ोटो कैमरा के स्क्रीन पर दिखाया तो वह अप्रसन्न सा दिखा, "निरो बेकार हैगो। ऐते बुढ़ाय गये का हम? कहूँ नाय, तुमईं धल्ल्यो जाय।"
मैं तेज़ कदमों से साहूकारे की ओर बढ़ा। कभी हमारा भी एक घर था वहाँ। आज तो शायद ही कोई पहचानेगा मुझे। चौकीदार के बताये पाकड़ के पेड के सामने कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। "आरपी रंगत" का नाम किसी ने नहीं सुना था। जब मैने बताया कि वे जूनियर हाई स्कूल में पढाते थे तो सभी के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान आ गयी और वे एक दूसरे से बोले, "अबे, टोड को पूछ रहे हैं ये।"
एक लड़का मुझे पास की गली में एक जर्जर घर तक ले गया। कुंडी खटकाई तो मैली धोती में एक कृषकाय वृद्ध बाहर आया। अधनंगे बदन पर वही खुरदुरी त्वचा।
"किससे मिलना है?" आवाज़ में वही चिरपरिचित स्नेह था।
"नमस्ते सर! सकल पदारथ हैं जग माही..." मैने अदा के साथ कहा।
"अहा! होइहै वही जो राम रचि राखा..." उन्होने उसी अदा के साथ जवाब दिया, "अरे अन्दर आओ बेटा। तुम तो निरे गंजे हो गये, पहचानते कैसे हम?"
लगता था जैसे उनकी सारी गृहस्थी उसी एक कमरे में समाई थी। एक कुर्सी, एक मेज़, और ढेरों किताबें। कांपते हाथों से उन्होंने खटिया के पास एक कोने में पडे बिजली के हीटर पर चाय का पानी रखा और फिर निराशा से बोले, "अभी है नहीं बिजली।"
मैं एक स्टूल पर बैठा सोच रहा था कि बात कहाँ से शुरू करूँ कि उन्होंने ही बोलना शुरू किया। पता लगा कि उनके कोई संतान नहीं थी। पत्नी कबकी घर छोडकर चली गयीं क्योंकि वे जहाँ भी जातीं आवारा और उद्दंड लडकों के झुन्ड के झुन्ड उन्हें "मिसेज़ टोड" कहकर चिढाते रहते थे।
जब तक नौकरी रही, लड़कों के व्यंग्य बाण सुने-अनसुने करके विद्यालय जाते रहे। अब तो जहाँ तक सम्भव हो घर में ही रहते हैं।
"ज़िन्दगी नरक हो गयी है मेरी" उनका विषाद अब मुझे भी घेरने लगा था।
वे अपनी बात कह रहे थे कि एक गेंद खिड़की से अन्दर आकर गिरी। शायद उन्हीं लडकों की होगी जो बाहर नुक्कड़ पर क्रिकेट खेल रहे थे। गेन्द की आमद से उनकी कथा भंग हुई। उन्होंने एक क्षण के लिये गेन्द को देखा फिर उठकर मेरी ओर आये और बोले, "तुम तो सबके चहेते छात्र थे। तुम्हें ज़रूर पता होगा। बताओ, मेरे साथ यह गन्दा मज़ाक किसने किया?"
"मेरा नाम टोड किसने रखा था?"
तभी दरवाज़ा खुला और एक 7-8 वर्षीय लड़का अन्दर आकर बोला, "हमारी गेन्द अन्दर आ गयी है टोड।"
[समाप्त]
मैं पूछ नहीं रहा, पर चाहता हूँ कि यह कहानी ही हो।
ReplyDeletejhilmil...
ReplyDeletepranam.
बहुत ही सुन्दर कहानी
ReplyDeleteनिष्कर्ष यही निकलता है कहानी का कि कभी अपने बचपन में की हुई शरारत किसी के लिए पूरी जिन्दगी जी का जंजाल बनकर रह जाती है !
ReplyDeleteअच्छा हुआ मैने दोनों भाग एक साथ ही पढ़े...
ReplyDeleteशुरुआत में तो मुस्कान छाई रही होठों पर....स्कूल के कितने किस्से याद आ गए....तब का वक्त हो या आज का....स्कूल टीचर्स के नाम रखे जाते रहे हैं और रहेंगे....
नाम रखने वाले को शायद अपराध बोध जरूर होता हो....पर शायद इसका इतना दर्दनाक अंजाम नहीं होता....
या क्या पता होता हो...कहानी भी तो हमारे बीच से ही निकल कर आती है...उदास कर गया अंत
कई बार किसी का मजाक किसी के लिये जंजाल बन जाता है।
ReplyDeleteअविनाश वाली कामना मेरी भी और रश्मि जी के कमेंट से सहमत, अंत करुणामय है।
अनुराग जी दिल तो यही चाहता है कि ये कहानी एक कोरी कल्पना ही हो ना कि कहानी के रूप में पेश किया गया आपकी जिंदगी का कोई सच्चा संस्मरण पर हर कहानी कि भी कोई ना कोई प्रेरणा जरुर होती है. अपने जिस भी प्रसंग से प्रेरित होकर ये कथा लिखी है वो मन पीड़ा पहुचाने वाला ही है. पर जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि कहानी एकदम अचानक से ख़त्म कर दी गयी है.... क्या मैं सही hun ?
ReplyDeleteयह एक कहानी हो सकती है लेकिन टोड का चरित्र हकीकत लगता है .
ReplyDeleteओह !
ReplyDeleteकहानी है या हकीकत
ReplyDeleteअपनी टिप्पणि को गतांक से आगे बढ़ाते हुये और शर्मिंदगी छिपाते हुए यही कहना चाहूँगा कि उनका नाम श्री प्रमोदवन बिहारी शरण था... और पीढ़ियों से लोग उनको टोड कहते थे.. किसने शुरू की यह परम्परा पता नहीं!!
ReplyDeleteवाक़ई शर्मिंदा हूँ आज!!
सुन्दर कहानी
ReplyDeleteसुन्दर कहानी
ReplyDeleteहमें पढ़ने में आनन्द इसलिये आ गया कि एक का नाम हमारे मित्रों ने टोड ही रखा था।
ReplyDeleteहकीकत में कुछ कल्पना जुड़ी है.. शायद...
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर कहानी जी धन्यवाद
ReplyDeleteदोनों कडियॉं एक साथ पढीं। रोचकता और जिज्ञासा बनाए रखना तो आपकी विशेषता है। किन्तु कहना पड रहा है कि जिस मोड से कहानी शुरु होनेवाली थी, वहीं समाप्त कर दी गई।
ReplyDeleteकहानी तो अब शुरु हुई है।
हंसी मजाक कई बार किसी दुसरे की जिंदगी का दर्द बन जाती है ...
ReplyDeleteकहानी ने अच्छी सीख दी !
अविनाश जी की तरह मैं भी चाहती हूँ कि यह सिर्फ कहानी ही हो..
ReplyDeleteयह शायद मेरा अपना अपराध बोध है... बचपन में कई गुरुजनों के नाम बिगाड़े हैं... अब बस यही आशा है कि उन सबकी वजह से किसी के जीवन पर असर ना हुआ हो...
बहुत मन को छू लेने वाली कहानी है...
इस कहानी की चर्चा तो आज के चर्चा मंच पर भी है!
ReplyDeleteआँखें भर आयीं.....
ReplyDeleteहकीकत या कहानी? जिस कोण से सोचो वही सही नजर आता है, और यही लेखन की सफ़लता है. बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
अंत भयावह सा है. क्या सचमुच शरारत में किया नामकरण किसी की पूरी ज़िंदगी में असर डाल सकता है?
ReplyDeleteओह, ऐसी शरारत हमने भी की है। पर यही सोचते हैं कि किसी की जिन्दगी नर्क न बने ऐसी शरारत से। विशेषत: एक नेक इंसान की।
ReplyDeleteवैसे किसी में बहुत स्द्गुण हों और एक कमी - जैसे रंगत जी में त्वचा का खुरदुरापन, तो स्वयम उस कमी की बात कर लेनी चाहिये। तब लोग उस कमी को नजर अन्दाज कर देते हैं।
आपकी कहानी/संस्मरण ने कुछ अपने अतीत से याद दिला दिया उनका नाम शायद दीक्षित सर था पर हमने हमेशा बुड्ढे सर ही बुलाया ... आज शर्म महसूस हो रही है
ReplyDeleteआप भी कम चुहलबाज नहीं हैं !
ReplyDeleteपहले तो आपको साधुवाद ...इसलिए कि पीटर्सबर्ग में भी आप बुन्देलखंडी की खुशबू बिखेर रहे हैं.
ReplyDeleteक्या कीजिएगा ...बचपन की शैतानियाँ ........उन्हें भी गंभीरता से नहीं लेना चाहिए. यहाँ एक हायर सेकेंड्री के प्रधानाचार्य का नाम बच्चों ने पेटीकोट रख दिया.
एक बात कहना चाऊंगा ...बच्चे ऐसे नाम कारन प्रायः उन्हीं के करते हैं जो अपने कार्य में कुशल नहीं होते . योग्य शिक्षक के साथ शायद ही कभी ऐसा होता हो. यदि किसी के साथ हुआ है तो निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण है
मार्मिक हो गया अंत में तो!
ReplyDeletehmm mujhe bhi kuch yaad aa gaya ye kahani padhkar...
ReplyDeleteOh..
ReplyDeleteहमारे ग्रन्थ कहते हैं की मनुष्य का पितृ ऋण तब उतरता है जब वह संतान को जन्म देता है । यह बात मैं पहले बड़ी नापसंद करती थी - कि यह उनके साथ भेदभाव करती है जिनके बच्चे न हों / या न हो सकते हों ...
Deleteलेकिन, 2-3 साल पहले एक प्रवचन सुन रही थी - शायद tv पर? वक्ता जी ने एक बात कही जो समझ आई - कि - माता पिता का ऋण उतारा ही नहीं जा सकता..... . इसे चुकाने ke prayaas का तरीका यह है कि मनुष्य अपनी संतान को भी उतनी ही - या उससे बढ़ कर ही परवरिश दे - जो माता पिता ने दी है स्वयं को । इससे वह पुरानी कहावत कुछ simplify हुई और थोड़ी समझ भी आई ।
ऐसे ही - हम सभी - कई बार अनजाने ही ऐसी भूलें करते रहते हैं - जैसी आपने सुनाई है - तो - जैसे पितृ ऋण चुकाने को अपनी संतान की परवरिश भली प्रकार करनी होती है - वैसे ही, किसी के प्रति की गयी ऐसी बेध्यानी की भूलों को हर बार भले ही न सुधार सकते हों हम, लेकिन हमारे प्रति भी तो किसी ने ऐसी ही भूलें की होती हैं न ? उन्हें बिना मांगे ही मन से माफ़ कर दिया जाना ही ऐसी भूलों की क्षमायाचना जैसा होगा ।
जीज़स ने कहा है - those who forgive, shall be forgiven, and those who judge shall be judged ...