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Monday, February 14, 2011

टोड - कहानी - अंतिम भाग

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मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बड़े से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

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अब आगे की कहानी:

दिन बीते, एक रविवार को मैं दातागंज में था। उसी जूनियर हाई स्कूल के बाहर जहाँ की एक एक ईंट किसी पशु का नाम ले-लेकर मेरी कल्पनाशीलता पर तंज़ कस रही थी। सुनसान इमारत। बाहर मैदान में कुछ आवारा पशु घूम रहे थे। मैं स्कूल के फ़ोटो ले रहा था तभी लाठी लिये एक बूढे ने पास आकर कहा, "हमरा भी एक फोटू ले ल्यो।"

मुझे तो बैठे-बिठाये एक अलग सा फ़ोटो मिल गया था। मैंने अपने नये सब्जेक्ट को ध्यान से देखा, "अरे, तुम मूखरदीन हो क्या?"

"हाँ मालिक, आपको कैसे पता लगो?

"मैं यहाँ पढता था, आरपी रंगत जी कहाँ रहते हैं आजकल?"

"आरपी... रंगत..." वह सोचने लगा, "अच्छा बेSSS, बे तौ टोड हैंगे।"

"अबे तू भी तो मुर्गादीन था" मैंने कहना चाहा परंतु उसकी आयु के कारण शब्द मुँह से बाहर नहीं निकल सके, "हाँ, वही। कहाँ रहते हैं?"

"साहूकारे मैं, उतै जाय कै, पकड़िया के उल्ले हाथ पै" उसने हाथ के इशारे से बताया। मैने उसका फ़ोटो कैमरा के स्क्रीन पर दिखाया तो वह अप्रसन्न सा दिखा, "निरो बेकार हैगो। ऐते बुढ़ाय गये का हम? कहूँ नाय, तुमईं धल्ल्यो जाय।"

मैं तेज़ कदमों से साहूकारे की ओर बढ़ा। कभी हमारा भी एक घर था वहाँ। आज तो शायद ही कोई पहचानेगा मुझे। चौकीदार के बताये पाकड़ के पेड के सामने कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। "आरपी रंगत" का नाम किसी ने नहीं सुना था। जब मैने बताया कि वे जूनियर हाई स्कूल में पढाते थे तो सभी के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान आ गयी और वे एक दूसरे से बोले, "अबे, टोड को पूछ रहे हैं ये।"

एक लड़का मुझे पास की गली में एक जर्जर घर तक ले गया। कुंडी खटकाई तो मैली धोती में एक कृषकाय वृद्ध बाहर आया। अधनंगे बदन पर वही खुरदुरी त्वचा।

"किससे मिलना है?" आवाज़ में वही चिरपरिचित स्नेह था।

"नमस्ते सर! सकल पदारथ हैं जग माही..." मैने अदा के साथ कहा।

"अहा! होइहै वही जो राम रचि राखा..." उन्होने उसी अदा के साथ जवाब दिया, "अरे अन्दर आओ बेटा। तुम तो निरे गंजे हो गये, पहचानते कैसे हम?"

लगता था जैसे उनकी सारी गृहस्थी उसी एक कमरे में समाई थी। एक कुर्सी, एक मेज़, और ढेरों किताबें। कांपते हाथों से उन्होंने खटिया के पास एक कोने में पडे बिजली के हीटर पर चाय का पानी रखा और फिर निराशा से बोले, "अभी है नहीं बिजली।"

मैं एक स्टूल पर बैठा सोच रहा था कि बात कहाँ से शुरू करूँ कि उन्होंने ही बोलना शुरू किया। पता लगा कि उनके कोई संतान नहीं थी। पत्नी कबकी घर छोडकर चली गयीं क्योंकि वे जहाँ भी जातीं आवारा और उद्दंड लडकों के झुन्ड के झुन्ड उन्हें "मिसेज़ टोड" कहकर चिढाते रहते थे।

जब तक नौकरी रही, लड़कों के व्यंग्य बाण सुने-अनसुने करके विद्यालय जाते रहे। अब तो जहाँ तक सम्भव हो घर में ही रहते हैं।

"ज़िन्दगी नरक हो गयी है मेरी" उनका विषाद अब मुझे भी घेरने लगा था।

वे अपनी बात कह रहे थे कि एक गेंद खिड़की से अन्दर आकर गिरी। शायद उन्हीं लडकों की होगी जो बाहर नुक्कड़ पर क्रिकेट खेल रहे थे। गेन्द की आमद से उनकी कथा भंग हुई। उन्होंने एक क्षण के लिये गेन्द को देखा फिर उठकर मेरी ओर आये और बोले, "तुम तो सबके चहेते छात्र थे। तुम्हें ज़रूर पता होगा। बताओ, मेरे साथ यह गन्दा मज़ाक किसने किया?"

"मेरा नाम टोड किसने रखा था?"

तभी दरवाज़ा खुला और एक 7-8 वर्षीय लड़का अन्दर आकर बोला, "हमारी गेन्द अन्दर आ गयी है टोड।"

[समाप्त]

Sunday, February 13, 2011

टोड - कहानी - भाग एक

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"देखो, देखो, वह टोड मास्टर और उसकी क्लास!" चिंटू खुशी से उछलता हुआ अन्दर आया।

मैंने उसे देखा और मुस्करा दिया। वह इतने भर से संतुष्ट न हुआ और मेरा हाथ पकड़कर बाहर खींचने लगा।

"बस ये दो पन्ने खत्म कर लूँ फिर आता हूँ" मैंने मनुहार के अन्दाज़ में कहा।

"तब तक तो क्लास डिसमिस भी हो जायेगी..." उसने हाथ छोड़े बिना अपनी मीठी वाणी में कहा।

"देख आओ न, बच्चे कॉलेज चले जायेंगे तब अकेले बैठकर तरसोगे इन पलों के लिये..." चिंटू की माँ ने रसोई में बैठे-बैठे ही तानाकशी का यह मौका झट से लपक लिया।

"अकेले रहें मेरे दुश्मन! मैं तो तुम्हें सामने बिठाकर निहारा करूंगा" मैं भी इतनी आसानी से आउट होने वाला नहीं था।

"हाँ, मैं बैठी रहूंगी और बना बनाया खाना तो आसमान से टपका करेगा शायद" उन्होंने नहले पे दहला जड़ा।

मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बडे से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड मास्टर जी कक्षा के बाहर अपनी कुर्सी पर बैठे हैं। सभी बच्चे सामने घास पर बैठे हैं। मैं, दिलीप, संजय, प्रदीप, कन्हैया, सभी तो हैं। सर्दियों में कक्षा के अन्दर काफी ठंड होती है सो धूप होने पर कई अध्यापकगण अपनी कक्षा बाहर ही लगा लेते हैं। टोड जी भी ऐसे ही दयालुओं में से एक हैं। वैसे उनका वास्तविक नाम है आर.पी. रंगत मगर आजकल वे सारे स्कूल में अपने नये नाम से ही पहचाने जाने लगे हैं।

प्रायमरी स्कूल की ममतामयी अध्यापिकाओं की स्नेहछाया से बाहर निकलकर इस जूनियर हाई स्कूल के खडूस, कुंठित और हिंसक मास्टरों के बीच फंस जाना कोई आसान अनुभव नहीं था। गेंडा मास्साब ने एक बार संटी से मार-मारकर एक छात्र को लहूलुहान कर दिया था। छिपकल्ली ने एक बार जब डस्टर फेंककर मारा तो एक बच्चे की आंख ही जाती रही थी।

सारे बच्चे इन राक्षसों से आतंकित रहते थे। डरता तो मैं भी था परंतु रफी हसन के साथ मिलकर मैंने बदला लेने का एक नया तरीका निकाल लिया था। हम दोनों ने इस जंगलराज के हर मास्टर को एक नया नाम दे दिया था। उनके नाक-नक्श, चाल-ढाल और जालिम हरकतों के हिसाब से उन्हें उनके सबसे नज़दीकी जानवर से जोड़ दिया था।

जब हमारे रखे हुए नाम हमारी आशा से अधिक जल्दी सभी छात्रों की ज़ुबान पर चढने लगे तो हमारा जोश भी बढ गया। आरम्भ में तो हमने केवल आसुरी प्रवृत्ति के शिक्षकों का नामकरण किया था परंतु फिर धीरे-धीरे सफलता के जोश में आकर हमने एक सिरे से अब तक बचे हुए भले मास्टरों को भी नये नामों से नवाज़ दिया। हमारे अभियान के इसी दूसरे चरण में श्रीमान आरपी रंगत भी अपनी खुरदुरी त्वचा के कारण मि. टोड हो गये।

तालियाँ बजाते चिंटू के उत्साह को दिल की गहराइयों तक महसूस करने के बावज़ूद न जाने क्यों मुझे आरपी रंगत के प्रति किये हुए अपने बचपने पर एक शिकायत सी हुई। उस हिंसक जूनियर हाई स्कूल के परिसर में एक वे ही तो थे जो एक आदर्श अध्यापक की तरह रहे। अन्य अध्यापकों की तरह मारना-पीटना तो दूर उन्होंने अपने घर कभी भी ट्यूशन नहीं लगाई। विद्यार्थी कमरुद्दीन की किताबों का खर्च हो चाहे चौकीदार मूखरदीन की टॉर्च की बैटरी हो, सबको पता था कि ज़रूरत के समय उनकी सहायता ज़रूर मिलेगी।

राम का गायन हो, आफताब की कला प्रतिभा, कृष्ण का अभिनय या मेरी वाक्शैली, इन सब को पहचानकर विभिन्न समारोहों का आकर्षण बनाने का काम भी उन्होंने ही किया था। अधिक विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है परंतु एक बार जब परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि निरपराध होते हुए भी मुझे विद्यालय से रस्टीकेट होने का समय आया तो मेरी बेगुनाही पर उनके विश्वास के चलते ही मैं बच सका था। यह सब ध्यान आते ही मुझे अपने ऊपर क्रोध आने लगा। अगर मेरे पास उनका फोन नम्बर आदि होता तो शायद मैं उसी समय उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगता। परंतु नम्बर होता कैसे? मैने तो वह स्कूल छोड़ने के बाद वहाँ की किसी भी निशानी पर दोबारा नज़र ही नहीं डाली थी।

चिंटू की माँ कहती है कि मेरा चेहरा मेरे मन का हर भाव आवर्धित कर के दिखाता रहता है। पूछने लगी तो मैंने सारी कहानी कह डाली। उन्होंने तुरंत ही यह ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली कि इस बार भारत जाने पर वे मुझे अपने पैतृक नगर अवश्य भेजेंगी, केवल रंगत जी से मिलकर क्षमा मांगने के लिये।

[क्रमशः]