Tuesday, February 8, 2011

व्यावहारिकता - कविता


(अनुराग शर्मा)

वो खुद है खुदा की जादूगरी
फिर चलता जादू टोना क्या

जो होनी थी वह हो के रही
अब अनहोनी का होना क्या

जब किस्मत थी भरपूर मिला
अब प्यार नहीं तो रोना क्या

गर प्रेम का नाता टूट गया
नफरत के तीर चुभोना क्या

जज़्बात की ही जब क़द्र नहीं
तो मुफ्त में आँख भिगोना क्या

[क्रमशः]

38 comments:

  1. हर चीज यहाँ एक भाव बिके.
    पीतल क्या और सोना क्या+

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  2. जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या

    यही सच है

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  3. बड़ा पुराना गीत याद दिला दिया आपकी इस कविता ने ! बड़े प्यारे बोल हैं ! शुभकामनायें

    http://satish-saxena.blogspot.com/2008/06/blog-post.html

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  4. जहाँ क़द्र नहीं जज्बातों की ,
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या ...
    और क्या ...

    पर आँखें कब अपना कहा मानती हैं ...

    गर प्रेम का नाता टूट गया
    नफरत के तीर चुभोना क्या ...
    ये अपने वश में हैं , यही कर लेते हैं!

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  5. श्रेष्ठ रचनाएं समष्टि से सहज ही तादात्म्य कर लेती हैं .....मेरे भी मन की बात ..
    बस वही अनहोनी का अनहोना क्या ?
    संशोधन करके देखें कैसा लगता है :)
    मो सम कौन की तुक भी लय ताल में ही है :)
    सैल्यूट भाई मो सम !

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  6. सच है व्‍यावहारिकता तो यही कहती है कि जब कद्र नही जज्‍बातों की तो मुफ्‍त में आँख भिगोना क्‍या? लेकिन फिर भी टीस तो उठ ही जाती है। बहुत अच्‍छी कविता, बधाई।

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  7. सच है, भावशून्य के सामने क्यों बहना।

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  8. आपकी सारी बातों से सहमत और संजय जी की बात से भी।
    सार्थक रचना

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  9. जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या....
    sampurn rachna hi lajwab...
    shayad yahi such hai .abhaar

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  10. जी सही बात है भैंस के आगे क्या बीन बजाना
    बहुत अच्छी अभिव्यक्ति

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  11. जी सही बात है भैंस के आगे क्या बीन बजाना
    बहुत अच्छी अभिव्यक्ति

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  12. jo sachhe dil se kavya rache...
    uspar jhoothe tipiyana kya.....

    pranam.

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  13. करना तो यही चाहिए किन्तु भावनाए ये करने नहीं देती अक्सर दिल दिमाग पर हावी हो जाता है | अच्छी रचना |

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  14. "जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या"
    यह सिर्फ व्यवहारिकता ही नहीं, थोड़ी समझदारी भी है... कभी कभी दिमाग की भी सुननी चाहिए..
    वैसे आपकी शुभकामनाओं के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..

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  15. जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या
    वाह बहुत खूब कहा। बधाई इस कविता के लिये।

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  16. जब उर में उतर गई कविता!
    कागज पे संजोना क्या?

    श्रम सहज स्वीकार करें तो
    कठिनाईयों में रोना क्या?

    विलक्षण रूप से प्रभावित किया आपकी इस वाणी नें!! आभार

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  17. .

    हर चीज यहाँ एक भाव बिके.
    पीतल क्या और सोना क्या?
    @ वाह-वाह! सञ्जय जी प्रथम.

    जो सच्चे दिल से काव्य रचे...
    उसपर झूठे टिपियाना क्या ...
    @ वाह-वाह!! सञ्जय जी द्वितीय.

    और अब आखिर में
    जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या
    @ वाह-वाह!!! अनुजाग जी.

    .

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  18. .

    और मेरी तरफ से ...

    जहाँ मिले नहीं छाया तक भी
    तरु लंबा क्या और बौना क्या?

    जो निर्णय खुद ना ले पाए
    'मनमोहन' क्या और मोना क्या?

    बस मिल जाये कुछ खाने को
    अब पत्तल क्या और दोना क्या?

    अनुराग भूख ने भगवाया
    अब पिट्सबर्ग का कोना क्या?

    .

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  19. जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या
    behad khoobsurti ke saath bhawon ko shabdon me piroya hai.

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  20. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .अच्छा लगा....जैसे देवता ..वैसी पूजा ..ऐसा ही होना चाहिए
    शुभकामनायें

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  21. जहाँ कद्र नहीं ज़ज्बातों की...
    एक दम सच्ची और अच्छी बात...
    नीरज

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  22. जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या

    बहुत ही सटीक जज्बात अभिव्यक्त किये आपने. शुभकामनाएं.

    रामराम

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  23. क्या बात कही........अनमोल !!!

    सदा ध्यान में रखने योग्य...

    बहुत ही सुन्दर रचना...

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  24. गिरगिटिया रंग की पंक्ति-
    छोड़ चले जब हम महफिल को
    फिर क्‍या पाना औ खोना क्‍या.

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  25. जहाँ क़द्र नहीं जज़्बातों की
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या

    बहुत सुंदर ...हर पंक्ति में जीवन सन्देश छुपा है....

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  26. जहाँ क़द्र नहीं जज्बातों की ,
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या ...
    वाह जी कमाल हे, बहुत सुंदर धन्यवाद

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  27. वो चीज़ नहीं अपनी थी जो
    उसका पाना और खोना क्या!
    और वो शेर जिसे लगभग सबने कोट किया उसपर चोट करने की धृष्टता कर रहा हूँ..
    जज़्बात तो ख़ुद ही प्लूरल है
    फिर "जज़्बातों" का होना क्या!!

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  28. बहुत सही.....इसमें मैं भी कुछ जोड़ना चाहता हूँ..पसंद आये तो बताइयेगा जरूर...

    है शब्द शब्द में मर्म भरा
    ऐसी कविता का कहना क्या?
    प्रणाम
    राजेश

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  29. @ सर्वश्री संजय द्वय, राजेश, प्रतुल, सुज्ञ जी, राहुल जी, आप लोगों के योगदान से बनी नई रचना कहीं अधिक रोचक है|
    धन्यवाद!

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  30. वर्मा जी,

    आभार आपका! पंक्ति में ज़रा सा परिवर्तन कर दिया है| कृपादृष्टि यूँ ही बनी रहनी चाहिये।

    जज़्बात की ही जब क़द्र नहीं
    मुफ्त में आँख भिगोना क्या


    शुक्रिया!

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  31. आज तो आपने कई बन्दों को कवि बना दिया :)


    ज़रा सी प्रेरणा इधर भी मिली ...

    जब 'जाग' देश को लूट रहे
    तो आंख खोलकर सोना क्या


    जाग = कौव्वे

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  32. भौंचक!
    वाकई सब को प्रेरणा दे गई ये कविता।
    इन्व्याव्हारिक शेरों के लिए बधाई।

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  33. जब इतने सारे बोल गए तो
    हमें बोल कर करना क्‍या?

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  34. बहुत अच्छा है। मजे आ गये!

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  35. चिरंतन मुक्ति का गीत

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  36. सार्थक ब्लॉगिंग का उत्कृष्ट उदाहरण है यह पोस्ट। मुझसे कैसे छूट गई! :(

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