पिछले सप्ताह पार्क में कुछ ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जो या तो सर्दी या किसी सदमे के कारण पत्थर के हो गये थे। सोचा आपकी भी मुलाकात करा दूँ।
और अब दो पंक्तियाँ अपनी भी -
चलना अभी बहुत है गिर कर मैं सो न जाऊँ
चोटें लगी हैं इतनी पत्थर सा हो न जाऊँ ॥
पति और पत्नी |
कुछ देर आराम हो जाये? |
जब हम होंगे साठ साल के ... |
और हम खड़े-खड़े ... |
दिल के टुकड़े टुकड़े कर के ... |
और अब दो पंक्तियाँ अपनी भी -
चलना अभी बहुत है गिर कर मैं सो न जाऊँ
चोटें लगी हैं इतनी पत्थर सा हो न जाऊँ ॥
* सम्बन्धित कड़ियाँ ** इस्पात नगरी से - श्रृंखला