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Monday, January 12, 2015

कंजूस मक्खीचूस - लघुकथा

दिवाली मिलन के समारोह में जब सुरेखा जी मुस्कराती हुई नजदीक आईं तो खुशी के साथ मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। शहर की सबसे धनी और प्रसिद्ध भारतीय डॉक्टर। बड़े-बड़े लोगों से पहचान। बिना अपॉइंटमेंट के एक मिनट की बात भी संभव नहीं और बिना कनेक्शन के अपोइंटमेंट भी संभव नहीं।

अरे इन्हें तो मेरा नाम भी पता है, यह भी मालूम है कि मेरा घर दिल्ली में है और मैं परसों छुट्टी पर भारत जा रहा हूँ। दो मिनट की बातचीत में ही इतनी नजदीकी। लोग यूँ ही इन्हें नकचढ़ा और घमंडी बताते हैं। जलते हैं सब इनकी समृद्धि से। ऐसी सुंदरी को काले दिल वाली और इतनी धनाढ्य होने पर भी एक नंबर की कंजूस मक्खीचूस बताते हैं। जलें, मेरी बला से। मैं तो किसी की बातों में आने से रहा।

समारोह के बाद घर आकर पैकिंग आदि करके सोया तो सुबह देर से उठा। अलसाई नींद में ऐसा लगा था जैसे किसी ने द्वार की घंटी बजाई थी। सोचा, उठकर देख ही लूँ। शायद कोई सचमुच आया ही हो, थक हारकर लौट न गया हो। दरवाजा खोला तो बाहर पोलीथीन का एक बड़ा सा लिफाफा रखा था। साथ में एक नोट भी था।

"बुरा न मानें, अपना समझकर यह हक़ जता रही हूँ। इस पैकेट में कुछ रेशमी साड़ियाँ हैं। आप भारत जा ही रहे हैं। वहाँ से ड्राइक्लीन करवा लाइये, यहाँ तो बहुत महंगा है। वापसी पर बिल के अनुसार भुगतान कर दूँगी।

~ आपकी सुरेखा।"


Thursday, October 23, 2014

खान फ़िनॉमिनन - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
"गरीबों को पैसा तो कोई भी दे सकता है, उन्हें इज्ज़त से जीना खाँ साहब सिखाते हैं।"

"खाँ साहब के किरदार में उर्दू की नफ़ासत छलकती है।"

"अरे महिलाओं को प्रभावित करना तो कोई खान साहब से सीखे।"

"कभी शाम को उनके घर पर जमने वाली बैठकों में जा के तो देख। दिल्ली भर की फैशनेबल महिलायें वहाँ मिल जाएंगी।"

"खाँ साहब कभी भी मिलें, गजब की सुंदरियों से घिरे ही मिलते हैं।

"महफिल हो तो खाँ साब की हो, रंग ही रंग। सौन्दर्य और नज़ाकत से भरपूर।"

बहुत सुना था खाँ साहब के बारे में। सुनकर चिढ़ भी मचती थी। रईस बाप की बिगड़ी औलाद, उस बददिमाग बूढ़े के व्यक्तित्व में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे मैं प्रभावित होता। कहानी तो वह क्या लिख सकता है, हाँ संस्मरणों के बहाने, अपने सच्चे-झूठे प्रेम-प्रसंगों की डींगें ज़रूर हाँकता रहता है। अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर भी यह कुंठित व्यक्तित्व केवल महिलाओं के कंधे पर हाथ धरे फोटो ही लगाता है। मुझे नहीं लगता कि उस आदमी में ऐसी एक भी खूबी है जो किसी समझदार महिला या पुरुष को प्रभावित करे। स्वार्थजनित संबंधों की बात और होती है। मतलब के लिए तो बहुत से लोग किसी की भी लल्लो-चप्पो करते रहते हैं। खाँ तो एक बड़े साहित्यिक मठ द्वारा स्थापित संपादक है सो छपास की लालसा वाले लल्लू-पंजू लेखकों-कवियों-व्यंग्यकारों द्वारा उसे घेरे रहना स्वाभाविक ही है। एक ही लीक पर लिखे उसके पिटे-पिटाए संस्मरण उसके मठ के अखबार उलट-पलटकर छापते रहते हैं। चालू साहित्य और गॉसिप पढ़ने वालों की संख्या कोई कम तो नहीं है, सो उसके संस्मरण चलते भी हैं। लेकिन इतनी सी बात के कारण उसे कैसानोवा या कामदेव का अवतार मान लेना, मेरे लिए संभव नहीं। मुझे न तो उसके व्यक्तित्व में कभी कोई दम दिखाई दिया और न ही उसके लेखन में।

कस्साब वादों से हटता रहा है, बकरा बेचारा ये कटता रहा है
खाँ साहब कोई पहले व्यक्ति नहीं जिनके बारे में अपनी राय बहुमत से भिन्न है। अपन तो जमाने से मठाधीशों को इगनोर मारने के लिए बदनाम हैं। लेकिन बॉस तो बॉस ही होता है। जब मेरे संपादक जी ने हुक्म दिया कि उसका इंटरव्यू करूँ तो जाना ही पड़ा। नियत दिन, नियत समय पर पहुँच गया। खाँ साहब के एक साफ सुथरे नौकर ने दरवाजा खोला। मैंने परिचय दिया तो वह अदब के साथ एक बड़े से हॉलनुमा कमरे में ले गया। सीलन की बदबू भरे हॉल के अंदर बेतरतीब पड़े सोफ़ों पर 10-12 अधेड़ महिलाएं बैठी थीं। कमरे में बड़ा शोर था। बेशऊर सी दिखने वाली वे महिलाएँ कचर-कचर बात करे जा रही थीं।

कमरे के एक कोने में 90 साल के थुलथुल, खाँ साहब, अपनी बिखरी दाढ़ी के साथ मैले कुर्ते-पाजामे में एक कुर्सी पर चुपचाप पसरे हुए थे। सामने की मेज़ पर किताबें और कागज बिखरे हुए थे। मुझे "दैनंदिन प्रकाशिनी" नामक पत्रिका के खाँ विशेषांक में छपा एक आलेख याद आया जिसमें खान फ़िनॉमिनन की व्याख्या करते हुए यह बताया गया था कि लोग, खासकर स्त्रियाँ, उनकी तरफ इसलिए आकृष्ट होती हैं क्योंकि वे उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनते हैं और एक जेंटलमैन की तरह उन्हें समुचित आदर-सत्कार के साथ पूरी तवज्जो देते हैं।

नौकर के साथ मुझे खाँ साहब की ओर बढ़ते देखकर अधिकांश महिलाएँ एकदम चुप हो गईं। खाँ साहब के एकदम नजदीक बैठी युवती ने अभी हमें देखा नहीं था। अब बस एक उसी की आवाज़ सुनाई दे रही थी। ऐसा मालूम पड़ता था कि वह खाँ साहब से किसी सम्मेलन के पास चाहती थी। खाँ साहब ने हमें देखकर कहा, "खुशआमदीद!" तो वह चौंकी, मुड़कर हमें देखा और रुखसत होते हुए कहती गई, "पास न, आप मेरे को, ... परसों ... नहीं, नहीं, कल दे देना"

खाँ साहब ने इशारा किया तो अन्य महिलाएँ भी चुपचाप बाहर निकल गईं। नौकर मुझे खाँ साहब से मुखातिब करके दूर खड़ा हो गया। मैं खाँ साहब को अपना परिचय देता उससे पहले ही वे बोले, "अच्छा! इंटरव्यू को आए हो, गुप्ताजी ने बताया था, बैठो।" हफ्ते भर से बिना बदले कुर्ते-पाजामे की सड़ान्ध असह्य थी। अपनी भाव-भंगिमा पर काबू पाते हुए मैं जैसे-तैसे उनके सामने बैठा तो अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए वे अपने नौकर पर झुँझलाये, "अबे खबीस, जल्दी मेरी हियरिंग एड लेकर आ, इनके सवाल सुने बिना उनका जवाब क्या तेरा बाप देगा?"

[समाप्त]

Tuesday, February 28, 2012

भोला - कहानी

पहली बार एक स्थानीय मन्दिर में देखा था उन्हें। बातचीत हुई, परिचय हो गया। पता लगा कि जल्दबाज़ी में अमेरिका आये थे, हालांकि अब तो उस बात को काफ़ी समय हो गया। यहाँ बसने का कोई इरादा नहीं है, अभी कार नहीं है उनके पास, रहते भी पास ही में हैं। उसके बाद से मैं अक्सर उनसे पूछ लेता था यदि उन्हें खरीदारी या मन्दिर आदि के लिये कहीं जाना हो तो बन्दा गाड़ी लेकर हाज़िर है। शुरू-शुरू में तो उन्होंने थोड़ा तकल्लुफ़ किया, "आप बड़े भले हो, इसका मतलब ये थोड़े हुआ कि हम उसका फ़ायदा उठाने लगें।" फिर बाद में शायद उनकी समझ में आ गया कि भला-वला कुछ नहीं, यह व्यक्ति बस ऐसा ही है।

धीरे-धीरे उनके बारे में जानकारी बढ़ने लगी। पति-पत्नी, दोनों ही सरकारी उच्चाधिकारी थे, और अब रिटायरमैंट के आसपास की वय के थे। इस लोक में सफल कहलाने के लिये जो कुछ चाहिये - रिश्ते, याड़ी, आमदनी, बाड़ी, इज़्ज़त, गाड़ी - सभी कुछ था। और उस दुनिया का बेड़ा पार कराने के लिये - उनके पास एक बेटा भी था।

मगर जिस पर बेड़ा पार कराने की ज़िम्मेदारी हो, जब वही बेड़ा ग़र्क कराने पर आ जाये तो क्या किया जाये? महंगे अंग्रेज़ी स्कूलों में बेटे की विद्वता का झंडा गाढ़ने के बाद माँ-बाप ने बड़े अरमान से उसे आगे पढ़ने के लिये अमेरिका भेजा। मगर बेटे ने पढ़ाई करने के बजाये एक गोरी से इश्क़ लड़ाना शुरू कर दिया। खानदानी माता पिता भला यह कैसे बर्दाश्त कर लेते कि बहू तो आये पर दहेज़ रह जाये? सीधे टिकट कटाकर बेटे के एक कमरे के अपार्टमेंट में जम गये।

बेटा भी समझदार था, जल्दी ही मान गया। लड़की का क्या हुआ यह उन्होंने बताया नहीं, और मैंने बीच में टोकना ठीक नहीं समझा। लेकिन उस घटना के बाद से वे बेटे पर दोबारा यक़ीन नहीं कर सके। माताजी की बीमारी का कारण बताकर लम्बी छुट्टी ली और यहीं रुक गये। बॉस ने फटाफट छुट्टी स्वीकार की, सहकर्मी भी प्रसन्न हुए, ऊपरी आमदनी में एक हिस्सा कम हुआ।

इस इतवार को जब शॉपिंग कराकर उन्हें घर छोड़ने गया तो पता लगा कि बेटा घर में ताला लगाकर बाहर चला गया था। इत्तेफ़ाक़ से उस दिन आंटी जी अपनी चाभी घर के अन्दर ही छोड़ आई थीं। कई बार कोशिश करने पर भी बेटे का फ़ोन नहीं लगा। अगर उन्हें वहाँ छोड़ देता तो उन दोनों को सर्दी में न जाने कितनी देर तक बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ती। वैसे भी लंच का समय हो चला था। मैंने अनुरोध किया कि वे लोग मेरे घर चलें। उन दोनों को घर अच्छी तरह से दिखाकर श्रीमती जी चाय रखकर खाने की तैयारी में लग गयीं। आंटीजी टीवी देखने लगीं और मैं अंकल जी से बातचीत करने लगा। इधर-उधर की बातें करने के बाद बात भारत में मेरी पिछली नौकरी पर आ गयी। वे सुनहरे दिन, वे खट्टी-मीठी यादें!

वह मेरी पहली नौकरी थी। घर के सुरक्षित वातावरण के बाहर के किस्म-किस्म के लोगों से पहली मुठभेड़! बैंक की नौकरी, पब्लिक डीलिंग का काम। सौ का ढेर, निन्यानवे का फेर। तरह-तरह के ग्राहक और वैसे ही तरह-तरह के सहकर्मी। एक थे जोशीजी, जिन्होंने हर महीने डिक्लेरेशन देने भर से मिलने वाले पर्क्स भी कभी नहीं लिये। एक बार एक नई टीशर्ट पहनकर आये। मैंने कुछ अधिक ही तारीफ़ कर दी तो अगले दिन ही बिल्कुल वैसी एक टीशर्ट मेरे लिये भी ले आये। बनशंकरी जी थीं जो रोज़ सुबह सबसे छिपाकर मेरे लिये कभी वड़े, कभी कुड़ुम, दोसा और कभी उत्पम लेकर आती थीं। अगर मैं उन्हें भूलकर काम में लग जाता तो याद दिलातीं कि ठन्डे होने पर उनका स्वाद कम हो जायेगा।

घर आये लुटेरों का मुकाबला करने के लिये पिस्तौल चलाने के किस्से से मशहूर हुई मिसेज़ पाहवा शाखा में आने वाली हर सुन्दर लड़की के साथ मेरा नाम जोड़कर मुझे छेड़ती रहती थीं। तनेजा भी था जो कैश में बैठने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकता था। और था भोपाल, जिसकी नज़र काम में कम, आने वाली महिलाओं के आंकलन में अधिक रहती थी। बहुत बड़ी शाखा थी। काम तो था ही। फिर भी कुछ लोग बैंकिंग संस्थान की परीक्षाओं की तैयारी करते रहते थे, और कुछ लोग प्रोन्नति परीक्षा की। कुछ लंच में और उसके बाद भी लम्बे समय तक टेबल टेनिस आदि खेलते थे। एक दल के बारे में अफ़वाह थी कि वे बैंक में जमा के लिये आये रोकड़े में से कुछ को प्रतिदिन ब्याज़ पर चलाते थे और शाम को सूद अपनी जेब में डालकर बैंक का भाग ईमानदारी से जमा करा देते थे।

चित्र व कहानी: अनुराग शर्मा
अनिता मैडम इतनी कड़क थीं कि उनसे बात करने में भी लोग डरते थे। रेखा मैडम व्यवहार में बहुत अच्छी थीं, और ग़ज़ब की सुन्दर भी। शादी को कुछ ही साल हुए थे। पति नेवी में थे और इस समय दूर किसी शिप पर थे। वे सामान्यतः अपने काम से काम रखती थीं। कभी-कभी वे भी घर से मेरे लिये खाने को कुछ ले आती थीं।

बैंक और शाखा का नाम सुनकर अंकल जी का चेहरा चमका, "कमाल है, इनका भतीजा चंकी भी वहीं काम करता है। बड़ा नेक बन्दा है। इंडिया में हमारे घर की देखभाल भी उसी के ज़िम्मे है, वर्ना वहाँ तो आप जानते ही हो, दो दिन घर खाली रहे तो किसी न किसी का कब्ज़ा हो जाना है।"

बैंक की यादें थीं कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। एक कर्मचारी और ग्राहक की लड़ाई में दोनों के सर फट गये थे। रावत ने मेरे नये होने का लाभ उठाकर कुछ हज़ार रुपये की हेरफ़ेर कर ली थी जो बाद में मेरे सिर पड़ी। तनेजा अपने सस्पेंशन ऑर्डर पब्लिक होने से पहले लगभग हर कर्मचारी से 5-6 सौ रुपये उधार ले चुका था। पीके की शायरी और वीपी की डायरी के भी मज़ेदार किस्से थे।

"चंकी इनको कहाँ पता होगा ..." आंटी जी ने कहा, फिर मुझसे मुखातिब हुईं, "बड़ा ही नेक बच्चा है।"

उधार लेने से पहले तनेजा ने सबसे यही कहा था कि वह बस एक उसी व्यक्ति से उधार ले रहा है। उसने किसी को यह भी नहीं बताया कि विभागीय जाँच के चलते उसका ट्रांसफ़र ऑर्डर आ चुका है और उसी दिन इंस्टैंट रिलीविंग है। जैन का बहुत सा पैसा स्टॉक मार्केट में डूबा था। मेरे खाते में जितना था वह तनेजा मार्केट में डूबा। बनशंकरी जी उस दिन मेरे लिये मुर्कु और उपमा लाई थीं, जिसका स्वाद अभी तक मेरी ज़ुबान पर है।

"चंकी का असली नाम है नटवर, किस्मत वालों के घर में होते हैं ऐसे नेक बच्चे" आंटी जी ने कहा।

एक दिन रेखा मैडम के हाथ पाँव काँप रहे थे, मुँह से बोल नहीं निकला। मामूली बात नहीं थी। पिंकी ने देखा तो दौड़कर पहुँची। फिर सभी महिलाएँ इकट्ठी हुईं। उस दिन रेखा मैडम सारा दिन रोती रही थीं और सारा लेडीज़ स्टाफ़ उन्हें दिलासा देता रहा था। मगर बात महिलामंडल के अन्दर ही रही।

एक बार जब माँ बैंक में आईं तो डिसूज़ा उनसे मेरी शिकायत लगाते हुए बोला, "इनकी शादी करा दीजिये, घर से भूखे आते हैं और सारा दिन हम लोगों को डाँटते रहते हैं।" मेरी रिलीविंग के दिन लगभग सभी महिलाएँ रो रही थीं। मिसेज़ पाहवा ने उस दिन मुझसे बहुत सी बातें की थीं। उन्होंने ही बताया था कि नटवर ने काउंटर पर चाभी फेंकी थी।

"बड़ा अच्छा है मेरा भांजा! " आंटी जी खूब खुश थीं।"

सोखी की मुस्कान, खाँ साहब की मीठी ज़ुबान और रावल साहब की विनम्रता सब वैसी ही रही। मिसेज़ पाहवा बोलीं कि वे होतीं तो गोली मार देतीं।

मेरे पास आकर आंटी ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा, "... मेरा बच्चा एकदम भोला है।"

मुझे रेखा मैडम का पत्ते की तरह काँपना याद आया और साथ ही याद आये मिसेज़ पाहवा द्वारा बताये हुए नटवर के शब्द, "मेरे अंकल बहुत बड़े अफ़सर हैं, आजकल बेटे के पास अमेरिका में हैं। उनका बहुत बड़ा फ़्लैट है। फ़ुल-फ़र्निश्ड, एसी-वीसी, टिप-टॉप, जनकपुरी में ... एकदम खाली ... ये पकड़ चाभी, ... आज शाम ... जितना भी मांगेगी ... "

गर्व से उछल रही आंटी की बात जारी थी, "एकदम भोला है मेरा चंकी ...बिल्कुल आपके जैसा!"

[समाप्त]

Wednesday, February 8, 2012

गन्धहीन - कहानी [समापन]

पिछली कड़ी में आपने पढा:
सुन्दर सा गुलदस्ता बनाकर देबू अपनी कार में स्कूल की ओर चल पड़ा जहाँ चल रहे नाटक के एक कलाकार से उसकी एक चौकन्नी मुलाकात और जल्दी-जल्दी कुछ बातें हुईं।
अब आगे की कहानी:

घर आते समय गाड़ी चालू करते ही सीडी बजने लगी। देबू ने फूलों का गुलदस्ता डैशबोर्ड पर रख लिया। उसकी भावनाओं को आसानी से कह पाना कठिन है। वह एक साथ खुश भी था और सामान्य भी। उसके दिमाग़ में बहुत सी बातें चल रही थीं। वह सोच नहीं रहा था बल्कि विचारों से जूझ रहा था। घर पहुँचने तक उसके जीवन के अनेक वर्ष किसी सोप ऑपरा की तरह उसकी आँखों के सामने से गुज़र गये। कार में चल रहा कबीर का गीत "माया महाठगिनी हम जानी ..." उन उलझे हुए विचारों के लिये सटीक पृष्ठभूमि प्रदान कर रहा था।

घर आ गया। गराज खुली, कार रुकी, गराज का दरवाज़ा बन्द हुआ। गायक व गीतकार वही थे, गीत बदल गया था।

जब लग मनहि विकारा, तब लग नहिं छूटे संसारा।
जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना।।

"पापा ... कहाँ हैं आप?" बन्द कार में चलते संगीत में विनय की आवाज़ बहुत मद्धम सी लगी। घर में किसी को होना नहीं चाहिये, शायद आवाज़ का भ्रम हुआ था।

"जो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीन्ही चदरिया, झीनी रे झीनी ..." संतों की वाणी में कितना सार है! देशकाल के पार। बिना देखे भी सब देख सकते हैं। जो हो चुका है, और जो होना है, सब कुछ देख चुके हैं, कह चुके हैं। हर कविता पढी जा चुकी है और हर कहानी लिखी जा चुकी है।

"कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू ..." संत बनने की ज़रूरत नहीं है, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। देबू तो खुद कवि है। क्या उसका मन वहाँ तक पहुँचता है जहाँ साधारण मानव का मन नहीं पहुँच सकता? क्या मन की गति सबसे तेज़ है? नहीं, सच्चाई यह है कि यक्षप्रश्न आज भी अनुत्तरित है। मन सबसे गतिमान नहीं हो सकता। मन का विस्थापन शून्य है, इसलिये उसकी गति भी शून्य ही है।

"आता और न जाता है मन, यहीं पड़ा इतराता है मन" वाह! देबू ने अपनी ताजातरीन काव्य पंक्ति को स्वगत ही उच्चारा और मन ही मन प्रसन्न हुआ।

"कहाँ खड़े रह गये? हम इतनी देर से इंतज़ार कर रहे हैं, अब आयेंगे, अब आयेंगे!" इस बार रीटा की आवाज़ थी।

"जो आयेगी सो रोयेगी, ऐसे पूर्णतावादी के पल्ले बन्ध के" माँ कहती थीं तो नन्हा देबू हँसता था, "आप तो इतनी खुश हैं बाबूजी के साथ!"

"किस्मत वाले हो जो रीटा जैसी पत्नी मिली है" जो देखता, अपने-अपने तरीके से यही कहता था। वह मुस्करा देता। लोग तो कुछ भी कह देते हैं, लेकिन देबू आज तक तय नहीं कर सका है कि वह पूर्णतावादी है या किस्मत वाला। हाँ वह यथास्थितिवादी अवश्य हो गया है, गीत भी अभी बदल गया है, "उज्जवल वरण दिये बगुलन को, कोयल कर दीन्ही कारी, संतों! करम की गति न्यारी ..."

पहले तो चला जाता था। तब सब ठीक हो जाता था। लेकिन इस बार ... प्रारब्ध से कब तक लड़ेगा इंसान? वैसे भी ज़िन्दगी इतनी बड़ी नहीं कि इन सब संघर्षों में गँवाने के लिये छोड़ दी जाये। इस बार तो आने को भी नहीं कहा था।

"आप चुपके से आ जाना। स्कूल में 12 बजे। किसी को पता नहीं लगेगा।"

आज पहली बार उसने जाते-आते दोनों समय गराज के स्वचालित द्वार की आवाज़ को महसूस करने का प्रयास किया था।

"रोज़ शाम को ... गराज खुलने की आवाज़ से ही दिल दहल जाता है, ... आज न जाने कौन सी बिजली गिरने वाली है। जब होश ही ठिकाने न हों तो कुछ भी हो सकता है। नॉर्मल नहीं है यह आदमी।"

आना-जाना लगा रहता था। सन्देश मिलते ही वह चला जाता था। लाने के बाद सुनने में आता था, "हज़ार बार नाक रगड़ कर गया है, तब भेजा है हमने।" इस बार का सन्देसा अलग था। इस बार नोटिस अदालत से आया था। वापस बुलाने का नहीं, हर्ज़ा-खर्चा देने का नोटिस, "हम इस आदमी के साथ नहीं रह सकते। जान का खतरा है। इसके पागलपन का इलाज होना चाहिये। मेरा बच्चा उसके साथ एक ही घर में सुरक्षित नहीं है।"

चित्र व कथा: अनुराग शर्मा
देबू कैसे सहता इतना बड़ा आरोप? एकदम झूठ है, वह तो मच्छर भी नहीं मारता। अदालत के आदेश पर वह मनोचिकित्सक के सामने बैठा है। दीवार पर बड़ा सा पोस्टर लगा है, "घरेलू हिंसा से बचें। इस शख्स को देखें। यह मक्खी भी नहीं मार सकता, मगर अपनी पत्नी को रोज़ पीटता है।" उसे लगता है पोस्टर उसके लिये खास ऑर्डर पर बनवाया गया है। उसे पोस्टर देखता देखकर मनोचिकित्सक अपनी डायरी में कुछ नोट करती है।

जब से दोनों गये हैं, देबू अक्सर घर आकर भी अन्दर नहीं आता। गराज में ही कार में सीट बिल्कुल पीछे कर के अधलेटा सा पड़ा रहता है। "बिन घरनी घर भूत का डेरा" जिस तरह दोनों की अनुपस्थिति में भी उनकी आवाज़ें सुनाई देती रहती हैं, उसे लगता है कि वह सचमुच पागल हो गया है। यह नहीं समझ पाता कि अब हुआ है या पहले से ही था। शायद रीटा की बात ही सही हो। शायद माँ की बात भी सही हो। या शायद स्त्रियों का सोचने का तरीका भिन्न होता हो। नहीं, वह खुद ही भिन्न होगा। लेकिन अगर ऐसा होता तो अपने स्कूल के वार्षिक समारोह के लिये विनय चुपके से फ़ोन करके उसे बुलाता नहीं। शायद बच्चा अपने पिता के मोह में कुछ देख नहीं पाता।

"पापा, आप ज़रूर आना, गंगावतरण की नाटिका में मैं भी हूँ। ... आपको देखने का कितना मन करता है मेरा, लेकिन माँ और नानाजी लेकर ही नहीं आते।"

किसी चलचित्र के मानिन्द तेज़ी से दौड़ते जीवन के बीते पल दृष्टिपटल पर थमने से लगे हैं। "मामा, नानी आदि आपके बारे में कुछ भी कहते रहते हैं तो भी माँ टोकती नहीं। मेरा मन करता है कि वहाँ से उसी वक्त भाग आऊँ।"

"पापा, आप आ गये?" विनय कार का दरवाज़ा बाहर से खोलता है। निष्चेष्ट पड़ा देबू उठकर बेटे का माथा चूमता है। विनय उसकी बाहों में होते हुए भी वहाँ नहीं है। आइरिस के फूल सामने हैं मगर उनमें गन्ध नहीं है। देबू विनय से कहता है, "मैं तुम्हारा अहित सोच भी नहीं सकता। तुम्हारी माँ को कोई भारी ग़लतफ़हमी हुई है।"

"आप यहाँ क्यों सो रहे हैं? अन्दर आ जाइये" रीटा तो कभी ऐसे मनुहार नहीं करती।

"बहुत थक गया हूँ ... अभी उठ नहीं सकता" शब्द शायद मन में ही रह गये।

बन्द गराज में कार के रंगहीन धुएँ के साथ भरती हुई कार्बन मोनोऑक्साइड पूर्णतया गन्धहीन है, बिल्कुल आइरिस के फूलों की तरह ही। बस, आइरिस के फूल जानलेवा नहीं होते। देबू सो रहा है, कार का इंजन अभी चालू है पर गीत बदल गया है।

जल में घट औ घट में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फूटा घट जल जलहि समाना, यह तथ कह्यौ ज्ञानी।।

[समाप्त]

Author's note: Unintentional Carbon Monoxide (CO) exposure accounts for an estimated 15,000 emergency department visits and 500 unintentional deaths in the United States each year.

Saturday, February 4, 2012

गन्धहीन - कहानी भाग 2

पिछली कड़ी में आपने पढा: सुन्दर सा गुलदस्ता बनाकर देबू अपनी कार में स्कूल की ओर चल पड़ा।
अब आगे की कहानी:

स्कूल का पार्किंग स्थल खचाखच भरा हुआ था। यद्यपि देबू निर्धारित समय से कुछ पहले ही आ गया था परंतु फिर भी उसे मुख्य भवन से काफ़ी दूर कार खड़ी करने की जगह मिली। एक हाथ में गुलदस्ता और दूसरे में कैमरा लेकर देबू उछलता हुआ ऑडिटोरियम की ओर जा रहा था कि उसने एलेना को देखा। जैसी कि यहाँ परम्परा है - नज़र मिल जाने पर अजनबी भी मुस्करा देते हैं - उसे अपनी ओर देखते हुए वह मुस्कराया, हालांकि इस समय वह किसी से नज़र मिलाना नहीं चाहता था।

"हाय रंजिश" एलेना ने मुस्कुराते हुए कहा।

"हाय एलेना" कहकर वह चलने को हुआ मगर तब तक एलेना उसके करीब आई और बोली, "कितने साल बाद मिले हैं हम, फिर भी मुझे तुम्हारा नाम याद रहा।"

देबू अपनी हँसी रोक नहीं सका। वह समझ गया था कि चार साल पहले की नौकरी में उसकी सहकर्मी रही एलेना उसे दूसरा भारतीय सहकर्मी रजनीश समझ रही है। परन्तु इस समय उसने अपने नाम के बारे में चुप रहना ही ठीक समझा और आगे बढने को हुआ लेकिन अब एलेना उसके ठीक सामने खड़ी थी।

"मैंने ठीक कहा न? आपका नाम रंजिश ही है न?"

रेखाचित्र व कथा: अनुराग शर्मा
"नहीं! रंजिश किसी का नाम नहीं होता" कहकर उत्तर का इंतज़ार किये बिना वह मुख्य खण्ड की ओर बढ चला। ऑडिटोरियम काफ़ी बड़ा था लेकिन भीड़ भी कम नहीं थी। कुछ देर इधर-उधर देखने के बाद दूसरी पंक्ति में उसे किनारे की सीट खाली नज़र आई। वह फ़टाफट वहाँ जाकर जम गया। कुछ देर बाद ही हाल में शांति छा गयी और उद्घोषणायें शुरू हो गयीं। संगीत के कुछ कार्यक्रम होने के बाद भारतीय नृत्य-नाटिका का समय आया। गंगा के पृथ्वी पर अवतरण का दृश्य था। शंकर जी के गणों में से एक ने सबकी नज़र बचाकर हाथ हिलाकर देबू को विश किया। तुरंत ही दूसरी ओर देखकर हाथ नीचे कर लिया। दोनों की आँखों में चमक आ गई। देबू ने शीघ्र ही कई फ़ोटो खींचकर अपने स्वागत का उत्तर दिया और चोर नज़रों से शिवगण की नज़रों का पीछा किया। चेहरे पर एक मुस्कान आ गई। समारोह जारी रहा, कार्यक्रम चलते रहे लेकिन देबू की नज़रें कुछ खोजती सी इधर-उधर ही दौड़ती रहीं। उन एक जोड़ी नयनों को अधिक देर भटकना नहीं पड़ा। शिवजी का गण उनके सामने खड़ा था। दोनों ऐसे गले मिले जैसे कई जन्म बाद मिले हों। देबू ने गुलदस्ता शिवगण को पकड़ाया तो बदले में एक विनम्र मनाही मिली, "कितना मन है, लेकिन आपको तो पता ही है कि यह नहीं हो सकता।"

देबू ने अनमना सा होकर हाँ में सिर हिलाया। दोनों चौकन्ने थे। उनमें जल्दी-जल्दी कुछ बातें हुईं। एक दूसरे से फिर से गले मिले और देबू बाहर की ओर चल दिया और शिवगण वापस स्टेज की ओर।

[क्रमशः]

Thursday, February 2, 2012

गन्धहीन - कहानी

शरद ऋतु की अपनी ही सुन्दरता है। इस दुनिया की सारी रंगीनी श्वेत-श्याम हो जाती है। हिम की चान्दनी दिन रात बिखरी रहती है। लेकिन जब बर्फ़ पिघलती है तब तो जैसे जीवन भरक उठता है। ठूंठ से खड़े पेड़ नवपल्लवों द्वारा अपनी जीवंतता का अहसास दिलाते हैं। और साथ ही खिल उठते हैं, किस्म-किस्म के फूल। रातोंरात चहुँ ओर बिखरकर प्रकृति के रंग एक कलाकृति सी बना लेते हैं। और दृष्टिगत सौन्दर्य के साथ-साथ उसमें होती हैं विभिन्न प्रकार की गन्ध। गन्ध के सभी नैसर्गिक रूप; फिर भी कभी वह एकदम जंगली लगती हैं और कभी परिष्कृत। मानव मन के साथ भी तो शायद ऐसा ही होता है। सुन्दर कपड़े, शानदार हेयरकट और विभिन्न प्रकार के शृंगार के नीचे कितना आदिम और क्रूर मन छिपा है, एक नज़र देखने पर पता ही नहीं लगता।

रेस्त्राँ में ठीक सामने बैठी रूपसी ने कितने दिल तोड़े हों, किसे पता। नित्य प्रातः नहा धोकर मन्दिर जाने वाला अपने दफ़्तर में कितनी रिश्वत लेता हो और कितने ग़बन कर चुका हो, किसे मालूम है। मौका मिलते ही दहेज़ मांगने, बहुएं जलाने, लूट, बलात्कार, और ऑनर किलिंग करने वाले लोग क्या आसमान से टपकते हैं? क्या पाँच वक़्त की नमाज़ पढने वाले ग़ाज़ी बाबा ने दंगे के समय धर्मान्ध होकर किसी की जान ली होगी और फिर शव को रातों-रात नदी में बहा दिया होगा? मुझे नहीं पता। मैं तो इतना जानता हूँ कि इंसान, हैवान, शैतान, देवासुर सभी वेश बदलकर हमारे बीच घूमते रहते हैं। हम और आप देख ही नहीं पाते। देख भी लें तो पहचानेंगे कैसे? कभी उस दृष्टि से देखने की ज़रूरत ही नहीं समझते हम।
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहाँ उम्मीद हो उसकी वहाँ नहीं मिलता।
~ नक़्श लायलपुरी
कथा व चित्र: अनुराग शर्मा 
खैर, हम बात कर रहे थे बहार की, फूलों की, और सुगन्ध की। संत तुलसीदास ने कहा है "सकल पदारथ हैं जग माहीं कर्महीन नर पावत नाहीं। जीवन में सुगन्ध की केवल उपस्थिति काफी नहीं है। उसे अनुभव करने का भाग्य भी होना चाहिये। फूलों की नगरी में रहते हुए लोगों को फूलों के परागकणों या सुगन्धि से परहेज़ हो सकता है। मगर देबू को तो इन दोनों ही से गम्भीर एलर्जी थी। घर खरीदने के बाद पहला काम उसने यही किया कि लॉन के सारे पौधे उखडवा डाले। पत्नी रीटा और बेटे विनय, दोनों ही फूलों और वनस्पतियों के शौकीन हैं, लेकिन अपने प्रियजन की तकलीफ़ किसे देखी जाती है। सो तय हुआ कि ऐसे पौधे लगाये जायें जो रंगीन हों, सुन्दर भी हों, परंतु हों गन्धहीन। सूरजमुखी, गुड़हल, डेहलिया, ऐज़लीया, ट्यूलिप जैसे कितने ही पौधे। इन पौधों में भी लम्बी डंडियों वाले खूबसूरत आइरिस देबू की पहली पसन्द बने।

देबू आज सुबह काफ़ी जल्दी उठ गया था। दिन ही ऐसा खुशी का था। आज की प्रतीक्षा तो उसे कब से थी। रात में कई बार आँख खुल जा रही थी। समय देखता और फिर सोने की कोशिश करता मगर आँखों में नींद ही कहाँ थी। नहा धोकर अविलम्ब तैयार हुआ और बाहर आकर अपनी रंग-बिरंगी बगिया पर एक भरपूर नज़र डाली। कुछ देर तक मन ही मन कुछ हिसाब सा लगाया और फिर आइरिस के एक दर्ज़न सबसे सुन्दर फूल अपनी लम्बी डंडियों के साथ बड़ी सफ़ाई से काट लिये। भीतर आकर बड़े मनोयोग से उनको जोड़कर एक सुन्दर सा गुलदस्ता बनाया। कार में साथ की सीट पर रखकर गुनगुनाते हुए उसने अपनी गाड़ी बाहर निकाली। गराज का स्वचालित दरवाज़ा बन्द हुआ और कार फ़र्राटे से स्कूल की ओर भागने लगी। कार के स्वर-तंत्र से संत कबीर के धीर-गम्भीर शब्द बहने लगे, "दास कबीर जतन ते ओढी, ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया।"
[क्रमशः]


Wednesday, December 7, 2011

क़ौमी एकता - लघुकथा

"अस्सलाम अलैकुम पण्डित जी!  कहाँ चल दिये?

"अरे मियाँ आप? सलाम! मैं ज़रा दुकान बढ़ा रहा था। मुहर्रम है न आज!"

"तो? इतनी जल्दी क्यों? आप तो रात-रात भर यहाँ बैठते हैं। आज दिन में ही?"

"क्या करें मियाँ, बड़ा खराब समय आ गया है। आपको पता नहीं पिछली बार कितना फ़जीता हुआ था? और फिर आज तो तारीख भी ऐसी है।"

"अरे पुरानी बातें छोड़ो पण्डित जी। आज तो आप बिल्कुल बेखौफ़ हो के बैठो। आज मैं यहीं हूँ।"

"मियाँ, पिछली बार आपके मुहल्ले का ही जुलूस था जिसने आग लगाई थी।"

"मुआफ़ी चाहता हूँ पण्डित जी, तब मैं यहाँ था नहीं, इसीलिये ऐसा हो सका। अब मैं वापस आ गया हूँ, सब ठीक कर दूँगा।"

"अजी आपके होने से क्या फ़र्क पड़ेगा? कहीं आपकी भी इज़्ज़त न उतार दें मेरे साथ।"

"उतारने दीजिये न, वो मेरी ज़िम्मेदारी है! लेकिन आप दुकान बन्द नहीं करेंगे आज।"

"शर्मिन्दा न करें, आपकी बात काटना नहीं चाहता हूँ, पर मैं रुक नहीं सकता ... जान-माल का सवाल है।"

"पर-वर कुछ नहीं। आज मैं यहीं बैठकर चाय पियूँगा। जुलूस गुज़र जाने तक यहीं बैठूंगा। देखता हूँ कौन तुर्रम खाँ आगे आता है।"

"क्यों अपने आप को कठिनाई में डाल रहे हो मियाँ? इतने समय के बाद मिले हो। मेरे साथ घर चलो, वहीं बैठकर चाय भी पियेंगे, बातें भी करेंगे। खतरा मोल मत लो। "

"न! खुदा कसम पूरा जुलूस गुज़र जाने तक मैं आज यहाँ से उठने वाला नहीं । होरी से कहकर यहीं दो चाय मंगवाओ।"

"आप समझ नहीं रहे हैं मियाँ, अब पहले वाली बात नहीं रही। आज की पीढ़ी हम बुज़ुर्गों की भावनाएँ नहीं समझती। हम जैसों को ये अपना दुश्मन मानते हैं।"

"आप यक़ीन कीजिये, इन लौंडे-लपाड़ों में किसी की मज़ाल नहीं जो मेरे सामने खड़ा हो जाये। आज जुलूस उठने से पहले सही-ग़लत सब समझा के आया हूँ मैं।"

"जैसी आपकी मर्ज़ी मियाँ! होरी, जा मुल्ला जी के लिये एक स्पेशल चाय बना ला फ़टाफ़ट!"

"एक नहीं, दो!"

"अरे मैं अभी चाय पी नहीं पाऊंगा, मौत के मुँह में बैठा हूँ।"

"वो परवरदिग़ार सबकी हिफ़ाज़त करता है। जब तक मैं यहाँ हूँ, आप बेफ़िक्र होकर बैठिए।"

"बेफ़िकर? ज़रा पलट के देखिये! आ गये हुड़दंगी। शीशे तोड़ रहे हैं। ताजिये दिखने से पहले तो जलाई हुई दुकानों का धुआँ दिखने लगा है।"

"या खुदा! ये कैसे हो गया? चलने से पहले मैने सबको समझाया था, क़ौमी एकता पर एक लम्बी तकरीर दी थी।"

"बस ऐसे ही होता है आजकल। एक कान से सुनकर दूसरे से निकालते हैं। अब मेरी जान और दुकान आपके हवाले है।"

"ज़ाकिर!, हनीफ़! क्या हो रहा है ये सब? क्या बात तय हुई थी जुलूस उठने से पहले?"

"अरे आप यहाँ? सब खैरियत तो है?"

"मुझे क्या हुआ? थोड़ा तेज़ चलकर पण्डितजी से मिलने आ गया था।"

"शहर का माहौल इतना खराब है। आपको ऐसे बिना-बताये ग़ायब नहीं होना चाहिये था।"

"बेटा, ये पण्डित रामगोपाल हैं, मेरे लिये सगे भाई से भी बढ़कर हैं।"

"वो तो ठीक है। लेकिन आपको ग़ायब देखके वहाँ तो ये उड़ गयी कि हिन्दुओं ने आपको अगवा कर लिया है ... हमने बहुत रोका. मगर जवान खून है, बेक़ाबू हो गया। हम भी क्या करते? किस-किस को समझाते?"