"अस्सलाम अलैकुम पण्डित जी! कहाँ चल दिये?
"अरे मियाँ आप? सलाम! मैं ज़रा दुकान बढ़ा रहा था। मुहर्रम है न आज!"
"तो? इतनी जल्दी क्यों? आप तो रात-रात भर यहाँ बैठते हैं। आज दिन में ही?"
"क्या करें मियाँ, बड़ा खराब समय आ गया है। आपको पता नहीं पिछली बार कितना फ़जीता हुआ था? और फिर आज तो तारीख भी ऐसी है।"
"अरे पुरानी बातें छोड़ो पण्डित जी। आज तो आप बिल्कुल बेखौफ़ हो के बैठो। आज मैं यहीं हूँ।"
"मियाँ, पिछली बार आपके मुहल्ले का ही जुलूस था जिसने आग लगाई थी।"
"मुआफ़ी चाहता हूँ पण्डित जी, तब मैं यहाँ था नहीं, इसीलिये ऐसा हो सका। अब मैं वापस आ गया हूँ, सब ठीक कर दूँगा।"
"अजी आपके होने से क्या फ़र्क पड़ेगा? कहीं आपकी भी इज़्ज़त न उतार दें मेरे साथ।"
"उतारने दीजिये न, वो मेरी ज़िम्मेदारी है! लेकिन आप दुकान बन्द नहीं करेंगे आज।"
"शर्मिन्दा न करें, आपकी बात काटना नहीं चाहता हूँ, पर मैं रुक नहीं सकता ... जान-माल का सवाल है।"
"पर-वर कुछ नहीं। आज मैं यहीं बैठकर चाय पियूँगा। जुलूस गुज़र जाने तक यहीं बैठूंगा। देखता हूँ कौन तुर्रम खाँ आगे आता है।"
"क्यों अपने आप को कठिनाई में डाल रहे हो मियाँ? इतने समय के बाद मिले हो। मेरे साथ घर चलो, वहीं बैठकर चाय भी पियेंगे, बातें भी करेंगे। खतरा मोल मत लो। "
"न! खुदा कसम पूरा जुलूस गुज़र जाने तक मैं आज यहाँ से उठने वाला नहीं । होरी से कहकर यहीं दो चाय मंगवाओ।"
"आप समझ नहीं रहे हैं मियाँ, अब पहले वाली बात नहीं रही। आज की पीढ़ी हम बुज़ुर्गों की भावनाएँ नहीं समझती। हम जैसों को ये अपना दुश्मन मानते हैं।"
"आप यक़ीन कीजिये, इन लौंडे-लपाड़ों में किसी की मज़ाल नहीं जो मेरे सामने खड़ा हो जाये। आज जुलूस उठने से पहले सही-ग़लत सब समझा के आया हूँ मैं।"
"जैसी आपकी मर्ज़ी मियाँ! होरी, जा मुल्ला जी के लिये एक स्पेशल चाय बना ला फ़टाफ़ट!"
"एक नहीं, दो!"
"अरे मैं अभी चाय पी नहीं पाऊंगा, मौत के मुँह में बैठा हूँ।"
"वो परवरदिग़ार सबकी हिफ़ाज़त करता है। जब तक मैं यहाँ हूँ, आप बेफ़िक्र होकर बैठिए।"
"बेफ़िकर? ज़रा पलट के देखिये! आ गये हुड़दंगी। शीशे तोड़ रहे हैं। ताजिये दिखने से पहले तो जलाई हुई दुकानों का धुआँ दिखने लगा है।"
"या खुदा! ये कैसे हो गया? चलने से पहले मैने सबको समझाया था, क़ौमी एकता पर एक लम्बी तकरीर दी थी।"
"बस ऐसे ही होता है आजकल। एक कान से सुनकर दूसरे से निकालते हैं। अब मेरी जान और दुकान आपके हवाले है।"
"ज़ाकिर!, हनीफ़! क्या हो रहा है ये सब? क्या बात तय हुई थी जुलूस उठने से पहले?"
"अरे आप यहाँ? सब खैरियत तो है?"
"मुझे क्या हुआ? थोड़ा तेज़ चलकर पण्डितजी से मिलने आ गया था।"
"शहर का माहौल इतना खराब है। आपको ऐसे बिना-बताये ग़ायब नहीं होना चाहिये था।"
"बेटा, ये पण्डित रामगोपाल हैं, मेरे लिये सगे भाई से भी बढ़कर हैं।"
"वो तो ठीक है। लेकिन आपको ग़ायब देखके वहाँ तो ये उड़ गयी कि हिन्दुओं ने आपको अगवा कर लिया है ... हमने बहुत रोका. मगर जवान खून है, बेक़ाबू हो गया। हम भी क्या करते? किस-किस को समझाते?"
"अरे मियाँ आप? सलाम! मैं ज़रा दुकान बढ़ा रहा था। मुहर्रम है न आज!"
"तो? इतनी जल्दी क्यों? आप तो रात-रात भर यहाँ बैठते हैं। आज दिन में ही?"
"क्या करें मियाँ, बड़ा खराब समय आ गया है। आपको पता नहीं पिछली बार कितना फ़जीता हुआ था? और फिर आज तो तारीख भी ऐसी है।"
"अरे पुरानी बातें छोड़ो पण्डित जी। आज तो आप बिल्कुल बेखौफ़ हो के बैठो। आज मैं यहीं हूँ।"
"मियाँ, पिछली बार आपके मुहल्ले का ही जुलूस था जिसने आग लगाई थी।"
"मुआफ़ी चाहता हूँ पण्डित जी, तब मैं यहाँ था नहीं, इसीलिये ऐसा हो सका। अब मैं वापस आ गया हूँ, सब ठीक कर दूँगा।"
"अजी आपके होने से क्या फ़र्क पड़ेगा? कहीं आपकी भी इज़्ज़त न उतार दें मेरे साथ।"
"उतारने दीजिये न, वो मेरी ज़िम्मेदारी है! लेकिन आप दुकान बन्द नहीं करेंगे आज।"
"शर्मिन्दा न करें, आपकी बात काटना नहीं चाहता हूँ, पर मैं रुक नहीं सकता ... जान-माल का सवाल है।"
"पर-वर कुछ नहीं। आज मैं यहीं बैठकर चाय पियूँगा। जुलूस गुज़र जाने तक यहीं बैठूंगा। देखता हूँ कौन तुर्रम खाँ आगे आता है।"
"क्यों अपने आप को कठिनाई में डाल रहे हो मियाँ? इतने समय के बाद मिले हो। मेरे साथ घर चलो, वहीं बैठकर चाय भी पियेंगे, बातें भी करेंगे। खतरा मोल मत लो। "
"न! खुदा कसम पूरा जुलूस गुज़र जाने तक मैं आज यहाँ से उठने वाला नहीं । होरी से कहकर यहीं दो चाय मंगवाओ।"
"आप समझ नहीं रहे हैं मियाँ, अब पहले वाली बात नहीं रही। आज की पीढ़ी हम बुज़ुर्गों की भावनाएँ नहीं समझती। हम जैसों को ये अपना दुश्मन मानते हैं।"
"आप यक़ीन कीजिये, इन लौंडे-लपाड़ों में किसी की मज़ाल नहीं जो मेरे सामने खड़ा हो जाये। आज जुलूस उठने से पहले सही-ग़लत सब समझा के आया हूँ मैं।"
"जैसी आपकी मर्ज़ी मियाँ! होरी, जा मुल्ला जी के लिये एक स्पेशल चाय बना ला फ़टाफ़ट!"
"एक नहीं, दो!"
"अरे मैं अभी चाय पी नहीं पाऊंगा, मौत के मुँह में बैठा हूँ।"
"वो परवरदिग़ार सबकी हिफ़ाज़त करता है। जब तक मैं यहाँ हूँ, आप बेफ़िक्र होकर बैठिए।"
"बेफ़िकर? ज़रा पलट के देखिये! आ गये हुड़दंगी। शीशे तोड़ रहे हैं। ताजिये दिखने से पहले तो जलाई हुई दुकानों का धुआँ दिखने लगा है।"
"या खुदा! ये कैसे हो गया? चलने से पहले मैने सबको समझाया था, क़ौमी एकता पर एक लम्बी तकरीर दी थी।"
"बस ऐसे ही होता है आजकल। एक कान से सुनकर दूसरे से निकालते हैं। अब मेरी जान और दुकान आपके हवाले है।"
"ज़ाकिर!, हनीफ़! क्या हो रहा है ये सब? क्या बात तय हुई थी जुलूस उठने से पहले?"
"अरे आप यहाँ? सब खैरियत तो है?"
"मुझे क्या हुआ? थोड़ा तेज़ चलकर पण्डितजी से मिलने आ गया था।"
"शहर का माहौल इतना खराब है। आपको ऐसे बिना-बताये ग़ायब नहीं होना चाहिये था।"
"बेटा, ये पण्डित रामगोपाल हैं, मेरे लिये सगे भाई से भी बढ़कर हैं।"
"वो तो ठीक है। लेकिन आपको ग़ायब देखके वहाँ तो ये उड़ गयी कि हिन्दुओं ने आपको अगवा कर लिया है ... हमने बहुत रोका. मगर जवान खून है, बेक़ाबू हो गया। हम भी क्या करते? किस-किस को समझाते?"
हे भगवान् ... :(
ReplyDelete- खुदा खैर करे, इन्हें अक्ल बख्शे ....
कौमी एकता के भाषण के बाद ऐसे हालात !
ReplyDeleteमियां और पंडिज्जी कितने भोले हैं :-)
यह एक सत्यता है..बड़ी मजबूत कहानी जो.. जो एकता की हिलती जड़ों को दिखाती है..
ReplyDeleteअफवाहों का दौर भयावह,
ReplyDeleteइससे हमें बचा ले कोई।
ओह...
ReplyDeleteक्या चित्र बुना आपने...
झकझोर कर सोचने को बाध्य करती कथा...
मनुष्य मनुष्य कब बनेगा....पता नहीं...
इस अप्रतिम कथा हेतु आभार...
ये शब्द हैं...
ReplyDeleteजो तकरीरों में थिरकते हुए ईश्वर की जात तय कर दें , इंसानों में भेद पैदा कर बैठें !
नौ उम्र के रोमान में डोलते हुए जेहनों में मोहब्बत भर दें ! या फिर पके हुए जेहनों से नफरत खुरच दें !
ये शब्द हैं...
कब छुट्टे सांड सी अफवाहों की सवारी कर लें , कि इंसान अपने अपने निर्बल और लाचार ईश्वर की जातीय अस्मिता के रक्षक होने के ख्याल से लैस होकर जीवन हरने लायक घृणा और विवेक के अंधेपन के अभिशाप का हौसला लेकर सब तहस नहस कर दें :(
ये शब्द...एक अच्छी कथा भी कह पाते हैं !
"कौमी एकता " शब्द वही रूप नया.
ReplyDeleteये लघुकथा एक सफल सबल और सार्थक कहानी की श्रेणी में याद की जाएगी.
ReplyDeleteyatharth ko chhooti laghu katha .aabhar
ReplyDeleteसच के करीब है ये कहानी ... अक्सर भाषण बस बोलने के लिए होते हैं ... अमल कौन करता है आजकल ...
ReplyDeleteआपकी सुन्दर प्रस्तुति शुक्रवारीय चर्चा मंच पर प्रस्तुत है ||
ReplyDeleteउफ़ ये गलतफहमियां
ReplyDeleteएकता की सुन्दरता बुनती हुई... भ्रम से आगे बढती हुई... इस कथा के लिए आभार!
ReplyDeleteअफवाह, कौमी एकता और भाषण... कुल मिलाकर जो तस्वीर बनी उसका नाम है सियासत..
ReplyDeleteमेरे छोटे भाई ने कहा है:
आवाज़ से भी तेज अब जहां में फैलती हैं ख़बरें,
सुबूत ये है, वो मरा बाद में पहले खबर गयी.
और जनाब मुनव्वर राना फरमाते हैं:
सियासत नफरतों के ज़ख्म भरने ही नहीं देती,
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है!
लघु कथा बड़ी व्यथा कहती है।
ReplyDeleteसंदेह के धरातल पर चढ़ा आदर्श का मुलम्मा उतरते देर नहीं लगती .......
ReplyDeleteहकीक़त ये है कि,
दिए ताक में हैं जलने के.......आंधियां ताक में हैं चलने के
क्या फर्क पड़ता है "उन्हें".... चाहे दिए जलें या शहर ...
अफ़वाहों और गलतफ़हमियों के चलते कुछ घर-दुकानें जलती हैं तो कुछ की दुकानें चलती हैं।
ReplyDeleteअफ़वाहों और गलतफ़हमियों के चलते कुछ घर-दुकानें जलती हैं तो कुछ की दुकानें चलती हैं।
ReplyDeleteअफवाहें मनुष्य की मति हर लेती हैं । अच्छे भले लोग भी गलती करने पर आमादा हो जाते हैं ।
ReplyDeleteविचारोत्तेजक लघुकथा।
ReplyDeleteउफ़...
ReplyDeleteबड़ी कडवी बाते याद आती हैं !
कब समझ आएगी हमें !
शुभकामनायें !
अक्सर अफवाह ही क़यामत बरपा जाते हैं...
ReplyDeleteसचाई बयाँ करती कहानी
हकीकत ..... सच तो यही है....
ReplyDeleteएकता की इमानदारी और विवशता पर बहुत ही गम्भीर प्रश्न खडे करती कथा।
ReplyDeleteविचारणीय प्रस्तुति
अविश्वास के बेस पर विश्वास का पिज्जा बनाना सम्भव नहीं। साम्प्रदायिक कुकरी पुस्तक में यह बताया गया है!
ReplyDeletejai baba banaras....
ReplyDeleteअफ़्वाहों से भयानक और कुछ नहीं, आखिर कई गलतफ़हमियां इन्हीं अफ़्वाहों के कारण होती हैं}
ReplyDeleteबिना पंख का पंछी है अफवाह .सुन्दर लघु कथा .फसाद की जड़ खोदती हुई .
ReplyDeletebhoga hua hai....sirf kahani nahi..
ReplyDeleteसही पहचाना, उसी भोगे हुए अतीत की कहानी है बंधु!
Deleteपरवरदि़गार सबकी हिफ़ाज़त करता है ...बस इसी विश्वास पर टिकी है दुनिया...
ReplyDeletewakai chintneeya hai..kam shabdon me badi baat ..sadar badhayee
ReplyDeleteवाक़ई.. बात में जान है बिरादर । क्या खूब तस्वीर खेंची है ।
ReplyDeleteऔर ये पीढ़ी दर पीढ़ी चला जा रहा है... !
ReplyDeleteमन कसैला हो गया ..
ReplyDelete'मान कर चलनेवाले' लोग, 'जानकर' चलनेवालों की जान के दुश्मन इसी तरह हो जाते हैं।
ReplyDeleteअच्छी लघु कथा है।
"अरे! ये कैसे हो गया? चलने से पहले मैने लम्बी तकरीर दी थी क़ौमी एकता की। " और यहाँ आकर मियां और पंडिज्जी की क़ौमी एकता समाप्त जाती है...? :(
ReplyDelete