(~ अनुराग शर्मा)
ये दिन जल्दी ढल जाये तो अच्छा हो
रात अभी गर आ जाये तो अच्छा हो
सूरज से चुन्धियाती आंखें बहुत सहीं
घनघोर घटा अब घिर आये तो अच्छा हो
बातों को तुम न पकड़ो तो अच्छा हो
शब्दों में मुझे न जकड़ो तो अच्छा हो
कौन किसे कब परिभाषित कर पाया है
नासमझी पे मत अकड़ो तो अच्छा हो
विषबेल अगर छँट पाये तो अच्छा हो
इक दूजे को सहन करें तो अच्छा हो
नज़दीकी ने थोड़ा सा असहज किया
कुछ दूरी फिर बन जाये तो अच्छा हो
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* यूँ भी तो हो - एक इच्छा
* काश - कविता
ये दिन भी ढल जायेंगे,
ReplyDeleteवो याद भी न आयेंगे,
काँटे सब दफ्न होंगे ,
फूल ही फूल छाएंगे !
ये विष अमृत नहीं बनेगा,
अपने को ही खत्म करेगा !!
बेहद खुबसूरत..
ReplyDeleteविषवेल अगर छँट पाये तो कुछ बेहतर हो
ReplyDeleteगर इक दूजे को सहन करें तो बेहतर हो
नज़दीकी ने सब कुछ असहज कर डाला है
कुछ दूरी फिर से बन जाये, तो बेहतर हो !
गज़ब की सौम्यता है आपकी इस रचना में ...आनंद आ गया !
आभार आपका !
यह कुछ दूरी ही तो प्रेम की जननी है. सो .....
ReplyDeleteकुछ दूरी फिर से बन जाये, तो बेहतर हो !
घुघूतीबासूती
जी यह कविता भी बेहतर है :)
ReplyDeleteविषवेल अगर छँट पाये तो कुछ बेहतर हो
ReplyDeleteगर इक दूजे को सहन करें तो बेहतर हो
नज़दीकी ने सब कुछ असहज कर डाला है
कुछ दूरी फिर से बन जाये, तो बेहतर हो !
बेहतरीन...
कौन किसे कब परिभाषित कर पाया है
ReplyDeleteनासमझी पे मत अकड़ो तो बेहतर हो
यह तो सही बात कही है ।
कविता भी बेहतर है ।
आदरणीय महोदय
ReplyDeleteनज़दीकी ने सब कुछ
असहज कर डाला है
कुछ दूरी फिर से बन जाये,
तो बेहतर हो !
इन पंक्तियों ने उस सदाबहार गीत की याद दिला दी
चलो इस बार फिर से अजनबी बन जायं हम दोनों...
काश सरल सब हो जाये,
ReplyDeleteसहज गरल तब हो जाये।
कितने आसान लफ़्ज़ों में आपने कितनी अच्छी-अच्छी बातें कह डालीं!!और हर बात में एक सीख!!
ReplyDeleteवो जवानी फिर लौट आए तो बेहतर हो :)
ReplyDeleteकौन किसे कब परिभाषित कर पाया है
ReplyDeleteखुद को ही कब कौन समझ पाया है
यह आल-जाल सब लगती माया है
कहीं पे पसरी धूप कहीं दुबकी छाया है
सूरज के उत्पात सहेगी धरती कब तक
बदली से झांके चाँद ज़रा, बेहतर हो
....
ReplyDeleteहर शब्द प्रवाहमान है. बेहतरी की कल्पना और आशा दोनों ही सम्मिलित हैं.
ReplyDeleteसमाज की बेहतरी की सोच से इस बेहतरीन रचना सबके मन-मस्तिष्क में बस जाए तो बेहतर हो!
ReplyDeleteविषवेल अगर छँट पाये तो बेहतर हो
इक दूजे को सहन करें तो बेहतर हो
'बातों को तुम न पकड़ो तो बेहतर हो
ReplyDeleteशब्दों में मुझे न जकड़ो तो बेहतर हो
कौन किसे कब परिभाषित कर पाया है
नासमझी पे मत अकड़ो तो बेहतर '
- बेहतरी के लिये ,बहुत उपयुक्त प्वाइंट्स दिये हैं ,
सुन लें लोग,तो दुनिया याही बेहतर हो जाये !
काश ऐसा ही हो.... बहुत ही बेहतर कविता भी है ये. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteविषवेल अगर छँट पाये तो बेहतर हो
ReplyDeleteइक दूजे को सहन करें तो बेहतर हो
नज़दीकी ने थोड़ा सा असहज किया
कुछ दूरी फिर बन जाये तो बेहतर हो
सरल सहज बहते भाव.....
मुझे लगा आप किसी को संबोधित कर रहे हैं बस उसी के लिए... वीभत्स रस के लिए खेद सहित !
ReplyDeleteसगरे दिन चेहरे पे बसते भाव तुम्हारे तारकोल से
दिवस मूंदकर तिमिर घना छा जाये यही बेहतर हो !
तुम निशीचारी और उलूक की मातुश्री सब गंदघोल है
गुहाकन्दरा सीलसड़न तुम्हे मिल जाये यही बेहतर है !
थूथन अपना कीचड़ में रखो भले ही धड़ ऊपर हो
विष्ठा क्षेत्र तुम्हें रहने मिल जाये यही बेहतर हो
बातों को तुम न पकड़ो तो बेहतर हो
ReplyDeleteशब्दों में मुझे न जकड़ो तो बेहतर हो
कौन किसे कब परिभाषित कर पाया है
नासमझी पे मत अकड़ो तो बेहतर हो
कुछ सूत्रवाक्य जिन्हें ध्येयवाक्य बनाया जा सकें, खोजता रहता हूँ, यह अमर सिद्धांत है अधिकाधिक इसे अपनाने का प्रयत्न करूंगा.
आभार !
आपके अनुग्रह से आज एक ब्लॉग पर की गयी महान ऐतिहासिक भूल को लेकर, अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट प्रकाशित करने से खुद को रोक लिया ................ एक ब्लॉग पर स्वामी विवेकानंद को विवाहित बताते हुए कहा गया है की प्रथम दर्शन वेला में उन्होंने अपनी पत्नी को "माँ" और पत्नी ने उन्हें "वत्स" कहा था ........................ लेकिन अब मैंने यह इस लिए टाल दिया क्योंकि यह शब्द पकड़ना हो जाएगा ................... लेकिन एक कसमसाहट है की इस विकृत जानकारी को कैसे दुरुस्त करवाया जाये जो शायद उन्होंने जल्दबाजी में स्वामी विवेकानंद के गुरु परमहंस जी के बारे में लिखना चाहा था, पर जल्द बाजी में लेखकीय भूल हो जाने से यह सब लिख गया है. कमेन्ट करने से डरता हूँ क्योंकि वे मुझसे कुपित है और मेरे निवेदन को धृष्टता भी मान सकतें है.
ReplyDeleteबातों को तुम न पकड़ो तो बेहतर हो
ReplyDeleteशब्दों में मुझे न जकड़ो तो बेहतर हो....
Lajawab panktiyan ... Pravaah mein ... Nadi ki tarah kal kal karti .... Sundar rachna hai ...
विषवेल अगर छँट पाये तो बेहतर हो
ReplyDeleteजैसा शीर्षक वैसी ही कविता....
अमित,
ReplyDeleteसत्य सदा स्वीकारा जाता है। आपकी बात का असर अवश्य होगा और यदि बात भले लोगों की हो रही है तो आपको क्रेडिट भी दिया जायेगा।
@ अली साब
ReplyDeleteकाबिल-ए-गौर है आपका नजरिया !
बेहतर की कामना है तो
ReplyDeleteलाजिम है कि जो भी हो,
जहाँ भी हो, जैसे भी हो
बेहतर हो, बेहतर हो।
है रात यहां पे दिन से ही
ReplyDeleteजब जैसा है,वह बेहतर है
समझ और नासमझी की
ये बातें हैं नादानों की
विषबेल बना है यही भूत,
जिएं वर्तमान में,बेहतर हो
है सहन यदि,तो फूटेगा
लावा बनकर वह अब या तब
नज़दीकी में ही जीवन है
सम्यक स्वीकार हो,बेहतर हो
अनुराग शर्मा जी आप के मुक्तक शानदार हैं।
ReplyDeleteनज़दीकी ने थोड़ा सा असहज किया
ReplyDeleteकुछ दूरी फिर बन जाये तो बेहतर हो!
बहुत अधिक नजदीकियां कभी दूरियां भी मांगती है ...बेहतरीन कविता !
@हैरान हूँ अली जी यह सब भी लिख सकते हैं !!
आपकी कवितायेँ कितनी छोटी, सरल और खूबसूरत होती हैं और सबमें कितनी बड़ी बात होती है!!
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत...कई बार दूरी डराती है, नज़दीकी दिक्कतें पैदा करती है, पर सच्चाई यही है, दूरी में ही प्रेम पनपता है।
ReplyDeleteHmmmmm.
ReplyDeleteसंकेत समझना मुश्किल है,
ReplyDeleteखुलकर बात कहो तो बेहतर हो।
आसान बहुत है चुप रहना,
मुखर हो गर मौन तो बेहतर हो।
जीवन के हर क्षण समझ आ जाए तो बेहतर हो !!
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