न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।जादूगर के मंच पर बड़े कमाल होते हैं। इसी तरह हिन्दी फ़िल्मों में भी संयोग पर संयोग होते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ऐसे, जादू, कमाल और संयोग केवल किताबी बातें हैं। उनकी निजी ज़िन्दगी में शायद ऐसा कोई कमाल कभी हुआ ही नहीं। मैं यह नहीं मानता। मुझे तो लगता है कि वे अपने जीवन में नित्यप्रति घट रहे चमत्कार को देख पाने की शक्ति खो चुके हैं। लेकिन श्रीमान सुवाक त्रिगुणायत ऐसे लोगों में से नहीं है। शायद यही एक कारण है कि उनके इतने कठिन नाम, अति-सुरुचिपूर्ण जीवनशैली और विराट भौगोलिक दूरी के बावजूद वे अब तक मेरे मित्र हैं।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो. न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
ये सुवाक की मैत्री का ही चमत्कार है कि मैंने भी आज उस्तादी उस्ताद से करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत है, एक छोटी कहानी जो मेरे एक पसन्दीदा ब्लॉग पर प्रकाशित एक कहानी से प्रभावित तो है मगर है अपने अलग अन्दाज़ में - विडियो किल्ड द रेडियो स्टार बनाम अउआ, अउआ? नहीं! ट्वेल्व ऐंग्री मैन बनाम एक रुका हुआ फैसला? कतई नहीं!
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही |
नाते टूटते हैं पर जुड़े रह जाते हैं। या शायद वे कभी टूटते ही नहीं, केवल रूपांतरित हो जाते हैं। हम समझते हैं कि आत्मा मुक्त हो गयी जबकि वह नये वस्त्र पहने अपनी बारी का इंतज़ार कर रही होती है। न जाने कब यह नवीन वस्त्र किसी पुराने कांटे में अटक जाता है, खबर ही नहीं होती। तार-तार हो जाता है पर परिभाषा के अनुसार आत्मा तो घायल नहीं हो सकती। न जल सकती है न आद्र होती है। बारिश की बूंद को छूती तो है पर फिर भी सूखी रह जाती है।
[नाम का चमत्कार - कहानी]
"रेडियो प्लेबैक इंडिया" पर गिरिजेश राव की कहानी "राजू के नाम एक पत्र" का ऑडियो सुनने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये
प्रारम्भ ही बड़ा रूचक लग रहा है।
ReplyDelete"हम समझते हैं कि आत्मा मुक्त हो गयी जबकि वह नये वस्त्र पहने अपनी बारी का इंतज़ार कर रही होती है। न जाने कब यह नवीन वस्त्र किसी पुराने कांटे में अटक जाता है, खबर ही नहीं होती।"
सटीक निराकरण!!
chir-chintan prasphutit man......
ReplyDeletepranam.
चलिए ,देखते हैं आगे क्या होता है ?
ReplyDeleteम हन्यते हन्यमाने शरीरे..
ReplyDeleteअनुराग जी , कहानी है या हकीकत --यह समझ नहीं आया ।
ReplyDeleteलेकिन उत्सुकता बढ़ गई है ।
hmmm... अब आगे...!
ReplyDeleteक्रमशः का इंतज़ार !
ReplyDelete`हम समझते हैं कि आत्मा मुक्त हो गयी जबकि वह नये वस्त्र पहने अपनी बारी का इंतज़ार कर रही होती है। '
ReplyDeleteअब तो गीता पर भी आक्षेप लगने लगे हैं!!!!!
`हम समझते हैं कि आत्मा मुक्त हो गयी जबकि वह नये वस्त्र पहने अपनी बारी का इंतज़ार कर रही होती है। '
ReplyDeleteअब तो गीता पर भी आक्षेप लगने लगे हैं!!!!!
न जाने कब यह नवीन वस्त्र किसी पुराने कांटे में अटक जाता है, खबर ही नहीं होती। तार-तार हो जाता है
ReplyDeleteअद्भुत पंक्ति...वाह...क्या बात कही है...
नीरज
याने आप एक बार फिर अपने पाठकों की दशा, फिल्म मुगल-ए-आजम की अनारकली जैसी करने पर आमादा हो गए हैं जिसे अकबर जीने नहीं देता और सलीम मरने नहीं देता।
ReplyDeleteअब तो भगवान का ही आसरा और भरोसा है।
मेरी लाचारी का नाजायाज़फायदा उठा रहे हैं आप "क्रमशः" चिपकाकर!!
ReplyDeleterochak lagi, aage ki kadi ka intjar hai..
ReplyDeleteक्रमशः!
ReplyDeleteमतलब इंतजार और यही मुझे बड़ी तकलीफ देता है, लेकिन फिर भी जो वस्ल-ए-यार से ज्यादा मजा है तो फिर ठीक ही है...
करते हैं अगली कड़ी की प्रतीक्षा.
अंत में पढ़ेंगे पूरी....
ReplyDeleteनाते टूटते हैं पर जुड़े रह जाते हैं। या शायद वे कभी टूटते ही नहीं, केवल रूपांतरित हो जाते हैं....
ReplyDeleteक्रमशः के बाद का इन्तजार रहेगा
रोचक शुरुआत!
ReplyDeleteओह...फिर क्रमशः...
ReplyDeleteबड़ा दुखदायी होता है यह...
रेडियो प्लेबैक का तो मुझे पता ही न था...बड़ा ही लाजवाब लगा...
आभार...
अगर ये छोटी कहानी है तो 'क्रमशः' नहीं आनी चाहिए थी..खैर, अब अगले भाग में ही पढ़ सकते हैं...
ReplyDeleteवैसे मुझे ये काफी पसंद आई -
'नाते टूटते हैं पर जुड़े रह जाते हैं। या शायद वे कभी टूटते ही नहीं, केवल रूपांतरित हो जाते हैं'
kuch accha hone ki ummid...ek aur behatreen shuruaat...
ReplyDelete@ नाते टूटते हैं पर जुड़े रह जाते हैं। या शायद वे कभी टूटते ही नहीं, केवल रूपांतरित हो जाते हैं।
ReplyDeleteजीवन सत्य !................... इस रूपांतरण के मर्म को समझने पर कई रिश्ते बचे रह सकते हैं ....
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आगाज शानदार है ....... आगे का इन्तजार है !
आगे का इंतज़ार है....
ReplyDeleteआगे का इंतज़ार है....
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